Tuesday, December 2, 2014

इंतज़ार मोदी-हनीमून खत्म होने का

कांग्रेस ने मोदी सरकार के 6 महीने के कार्यकाल के दौरान विभिन्न मुद्दों पर यू-टर्न लेने का आरोप लगाते हुए एक बुकलेट जारी की है। इस बुकलेट में बताया गया है कि सत्ता में आने से पहले बीजेपी ने क्या-क्या वादे किए थे और सत्ता में आने के बाद कैसे वह उनसे पलट गई। '6 महीने पार, यू टर्न सरकार' टाइटल वाली इस बुकलेट में विभिन्न मुद्दों पर बीजेपी सरकार की 22 'पलटियों' का जिक्र किया गया है। कांग्रेस पार्टी के सामने अस्तित्व रक्षा का सवाल है। उसके पास हमले करने के अलावा कोई हथियार नहीं है। प्रश्न मोदी सरकार के कौशल का है। भाजपा के बाहर और भीतर मोदी विरोधियों को इंतज़ार है कि एक ऐसी घड़ी आएगी, जब मोदी का विजय रथ धीमा पड़ेगा। दूसरी ओर मोदी सरकार के सामने तेजी से फैसले करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि उसने सत्ता हासिल करने के प्रयास में शत्रुओं पर जो प्रहार किए थे, उनका जवाब भी मिलना है। सवाल है कि क्या मोदी पर प्रहार का सही वक्त आ गया है? या इस वक्त के तीर उल्टे विरोधियों पर ही पड़ेंगे? 

राहुल गांधी से लेकर सीताराम येचुरी तक और शायद भाजपा के भीतर बैठे विरोधियों तक को आशा है कि मोदी का हनीमून कभी न कभी तो खत्म होगा। इस उम्मीद के पीछे रोशनी की किरणें हैं महंगाई, काला धन और बेरोज़गारी वगैरह। सरकारी कर्मचारियों ने दुःख व्यक्त करना शुरू कर दिया है। अब दफ्तर में ज्यादा काम करना पड़ता है। सरकार शायद रिटायरमेंट की उम्र कम करने वाली है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कर्मचारियों को लुभाने के लिए यूपीए सरकार ने सातवें वेतन आयोग के गठन को मंजूरी दी थी। उसे व्यवहारिक रूप देने की जिम्मेदारी सरकार की है। उस वक्त नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने आयोग के गठन का विरोध इस आधार पर किया था कि इससे राज्य सरकार पर भी अनावश्यक दबाव पड़ेगा। मोदी के अंतर्विरोधों के खुलने का उनके विरोधियों को इंतज़ार है। आर्थिक उदारीकरण के लिहाज से संसद का यह सत्र जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण विपक्षी एकता के लिहाज़ से भी है। संसदीय कर्म के प्रति राजनीति की प्रतिबद्धता का परिचय भी इस सत्र में देखने को मिल रहा है।

Saturday, November 29, 2014

अर्ध-आधुनिकता की देन है अंधविश्वास का गरम बाज़ार

बाबाओं और संतों से जुड़े सवाल एकतरफा नहीं हैं। या तो हम इन्हें सिरे से खारिज करते हैं या गुणगान की अति करते हैं। यह हमारे अर्ध-आधुनिक समाज की समस्या है, जो केवल बाबाओं-संतों तक सीमित नहीं है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में है। एक ओर आस्था और अंधविश्वास हैं और दूसरी ओर जीवन को अतार्किक मशीनी तरीके से देखने वाली ‘प्रगतिशीलता’ का विद्रूप है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से यह विसंगति पल्लवित हुई और मीडिया ने इसे पुष्पित होने का मौका दिया। दोनों मनुष्य के विकास की देन हैं।

अध्यात्म, सत्संग, प्रवचन और अंधविश्वास के सालाना कारोबार का हिसाब लगाएं तो हमारे देश से गरीबी कई बार खत्म की जा सकती है। यह कारोबार कई लाख करोड़ का है। भारत सरकार के बजट से भी ज्यादा। यह इतनी गहराई तक जीवन में मौजूद है कि इसकी केवल भर्त्सना करने से काम नहीं होगा। इसे समझने की कोशिश होनी चाहिए और इसकी सकारात्मक भूमिका की पहचान भी करनी होगी। परम्परागत धर्मानुरागी समाज केवल भारत में ही निवास नहीं करता। यूरोपीय और अमेरिकी समाज का बड़ा तबका आज भी परम्परा-प्रिय है। फिर भी उस समाज ने तमाम आधुनिक विचारों को पनपने का अवसर दिया और पाखंडों से खुद को मुक्त किया।

अनुपस्थित आधुनिक राज-समाज
संत रामपाल या दूसरे संतों के भक्त कौन हैं और वे उनके पास क्यों जाते हैं? ऐसे तमाम संतों और बाबाओं के आश्रम, डेरे, मठ वगैरह चलते हैं। इनके समांतर खाप, पंचायतें और जन जातीय समूह हैं। ग्रामीण समाज में तमाम काम सामुदायिक स्वीकृतियों, सहमतियों और सहायता से होते हैं। लोग अपनी समस्याओं के समाधान के लिए पंचायतों और सामुदायिक समूहों में आते हैं या फिर इन आश्रमों की शरण लेते हैं। यहाँ उनके व्यक्तिगत विवाद निपटाए जाते हैं, समझौते होते हैं। यह काम आधुनिक राज और न्याय-व्यवस्था का था। पर इस परम्परागत काम के विपरीत इन मठों में सोशल नेटवर्किंग विकसित होने लगी। हथियारों के अंतरराष्ट्रीय सौदे पटाए जाने लगे। संत-महंतों की दैवीय शक्तियों का दानवी इस्तेमाल होने लगा। सत्ता के गलियारों में संत-समागम होने लगे।

Sunday, November 23, 2014

संतों की सामाजिक भूमिका भी है

बाबा रामपाल प्रकरण के बाद भारतीय समाज में बाबाओं और संतों की भूमिका को लेकर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। तेजी से आधुनिक होते देश में संतों-बाबाओं की उपस्थिति क्या किसी विसंगति की और संकेत कर रही हैं? क्या बाबाओं, संतों, साधु-साध्वियों, आश्रमों और डेरों की बेहतर सामाजिक भूमिका हो सकती है या वह खत्म हो गई? एक ओर इन संस्थाओं का आम जनता के जीवन में गहरा प्रभाव नजर आता है वहीं इनके नकारात्मक रूप को उभार ज्यादा मिल रहा है। नई पीढ़ी और खासतौर से लड़कियों के पहनावे, मोबाइल फोन के इस्तेमाल और शादी-विवाह को लेकर ये परम्परागत संस्थाएं मीडिया के निशाने पर हैं। क्या वास्तव में इनकी कोई सकारात्मक भूमिका नहीं बची?

सन 1857 से लेकर 1947 तक राष्ट्रीय आंदोलन के साथ तमाम सामाजिक आंदोलन इन परम्परागत संस्थाओं-संगठनों की मदद से ही चले। अलीगढ़ मुस्लिम विवि, काशी हिन्दू विवि, डीएवी कॉलेज, आर्य कन्या पाठशालाएं और खालसा कॉलेज धार्मिक-सांस्कृतिक आंदोलनों की देन हैं। महात्मा गांधी की अपील धार्मिक और सांस्कृतिक रंग से रंगी थी। पर उसमें साम्प्रदायिकता नहीं समभाव था। महाराष्ट्र में गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा का इस्तेमाल राष्ट्रीय आंदोलन में हुआ। केवल भारत में ही नहीं वियतनाम में हो ची मिन्ह जैसे कम्युनिस्ट नेता ने अपने आंदोलन में धार्मिक-सांस्कृतिक संस्थाओं का सहारा लिया। आज भी तमाम छोटे-छोटे बदलावों के साथ इन्हें जोड़ा जाए तो सार्थक परिणाम दिखाई पड़ेगा।

सिर्फ पिकनिक स्पॉट नहीं है ट्रेड फेयर

दिल्ली के प्रगति मैदान में साल भर कोई न कोई नुमाइश लगी रहती है, पर दिल्ली वाले ट्रेड फेयर और पुस्तक मेले का इंतज़ार करते हैं। आमतौर पर ट्रेड फेयर में शनिवार और रविवार को जबर्दस्त भीड़ टूटती है। इस साल बुधवार से ही जनता टूट पड़ी है। पहले रोज ही 80 हजार से ज्यादा लोग जा पहुँचे। मेले में इस साल दर्शकों की संख्या 20 लाख से कहीं ज्यादा हो तो आश्चर्य नहीं होगा। इसकी वजह उपभोक्ताओं की संख्या और दूसरे देशों के उत्पादों में दिलचस्पी का बढ़ना है। चीन के उत्पादों की तलाश में भीड़ पहुंची, जहाँ उन्हें निराशा हाथ लगी। पर पाकिस्तानी स्टॉल जाकर संतोष मिला, जहाँ महिलाओं के डिज़ाइनर परिधान आए हैं। इस साल थाई परिधानों, केश सज्जा, रत्न-जेवरात वगैरह पर फोकस है।

ट्रेड फेयर उत्पादक, व्यापारी, ग्राहक और उपभोक्ता को आमने-सामने लाता है। बड़ी संख्या में नौजवानों को अपना कारोबार शुरू करने के विकल्प भी उपलब्ध कराता है। तकनीकी नवोन्मेष या इनोवेशन की कहानी सुनाता है, जो किसी समाज की समृद्धि का बुनियादी आधार होती है। ये मेले हमें कुछ नया करने और दुनिया के बाजार में जगह बनाने का हौसला देते हैं। पर क्या हम इसके इस पहलू को देखते हैं? हमारी समझ में यह विशाल पैंठ या नुमाइश है, जिसकी पृष्ठभूमि वैश्विक है। इंटीग्रेटेड बिग बाज़ार।

Thursday, November 20, 2014

आक्रामक राजनय का दौर

पिछले तीन महीने में भारत की सामरिक और विदेश नीति से जुड़े जितने बड़े कदम उठाए गए हैं उतने बड़े कदम पिछले दो-तीन दशकों में नहीं उठाए गए। इसकी शुरूआत 26 मई को नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह से हो गई थी। इसमें पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बुलाकर भारत ने जिस नए राजनय की शुरूआत की थी उसका एक चरण 25 से 27 नवम्बर को काठमांडू में पूरा होगा। दक्षेस देशों के वे सभी राजनेता शिखर सम्मेलन में उपस्थित होंगे जो दिल्ली आए थे। प्रधानमंत्री ने 14 जून को देश के नए विमानवाहक पोत विक्रमादित्य पर खड़े होकर एक मजबूत नौसेना की जरूरत को रेखांकित करते हुए समुद्री व्यापार-मार्गों की सुरक्षा का सवाल उठाया था। उन्होंने परम्परागत भारतीय नीति से हटते हुए यह भी कहा कि हमें रक्षा सामग्री के निर्यात के बारे में भी सोचना चाहिए।