भारतीय राजनीति में अनेक
दोष हैं, पर उसकी कुछ विशेषताएं दुनिया के तमाम देशों की राजनीति से उसे अलग करती
हैं। यह फर्क उसके राष्ट्रीय आंदोलन की देन है। बीसवीं सदी के शुरू में इस आंदोलन ने
राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ल ली और तबसे लगातार इसकी शक्ल राष्ट्रीय रही। इस आंदोलन
के साथ-साथ हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद, दलित चेतना और क्षेत्रीय मनोकामनाओं के
आंदोलन भी चले। इनमें कुछ अलगाववादी भी थे। पर एक वृहत भारत की संकल्पना कमजोर
नहीं हुई। सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत तलब नहीं हुआ। छोटे
देशी रजवाड़ों की इच्छा अकेले चलने की रही भी हो, पर जनता एक समूचे भारत के पक्ष
में थी। यह एक नई राजनीति थी, जिसकी धुरी था लोकतंत्र। कुछ लोग कहेंगे कि भारत
हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक अवधारणा है। पर वह सांस्कृतिक अवधारणा थी। लोकतंत्र
एकदम नई अवधारणा है। पर यह निर्गुण लोकतंत्र नहीं है। इसके कुछ सामाजिक लक्ष्य
हैं।
Monday, March 24, 2014
Sunday, March 16, 2014
आप चाहेंगे तो सब बदलेगा
इस राज़ को एक
मर्दे फिरंगी ने किया फाश/हरचंद कि दाना इसे खोला नहीं करते/जम्हूरियत एक
तर्जे हुकूमत है कि जिसमें/बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं
करते
चुनावी
लोकतंत्र को लेकर हमारे समाज में हमेशा अचम्भे और अविश्वास का भाव रहा है। इकबाल
की ये मशहूर पंक्तियाँ लोकतंत्र की गुणवत्ता पर चोट करती हैं। पर सच यह है कि
खराबियाँ समाज की हैं, बदनाम लोकतंत्र होता है। सन 2009 की बात है किसी आपराधिक
मामले में गिरफ्तार हुए पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना
बजरंगी का वक्तव्य अखबारों में प्रकाशित हुआ। उनका कहना था, मैं राजनीति में आना चाहता हूँ। उनकी माँ
को यकीन था कि बेटा राजनीति में आकर
मंत्री बनेगा। जौनपुर या उसके आसपास के इलाके से वे जीत भी सकते हैं।
मुन्ना बजरंगी
ही नहीं तमाम लोग राजनीति में आना चाहते हैं। लोकतांत्रिक दुनिया में एक नया
कीर्तिमान स्थापित करने वाले मधु कोड़ा अपनी पार्टी के अकेले विधायक थे। फिर भी
मुख्यमंत्री बने। उन्होंने लोकतंत्र को क्या दिया?जोनाथन स्विफ्ट ने लिखा है, 'दुनिया जिसे
राजनीति के नाम से जानती है वह केवल भ्रष्टाचार है और कुछ नहीं।' सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के इंग्लैंड में स्विफ्ट अपने दौर के श्रेष्ठ
पैम्फलेटीयर थे। उन्होंने उस दौर की दोनों महत्वपूर्ण पार्टियों टोरी और ह्विग के
लिए पर्चे लिखे थे। वे श्रेष्ठ व्यंग्य लेखक थे। अखबारों में सम्पादकीय लेखन के
सूत्रधार। कहा जा सकता है कि दुनिया के पहले सम्पादकीय लेखक थे। पर राजनीति के
बारे में उनकी इतनी खराब राय क्यों थी?
ऐसा क्यों बोले केजरीवाल?
पत्रकारों को जेल
भेजने की धमकी इतने मुखर रूप में इससे पहले शायद किसी ने नहीं दी होगी। इसके पीछे
दुर्भावना से ज्यादा नासमझी नजर आती है। अरविंद केजरीवाल या उनकी टोली जिस
राजनीतिक राह पर चल रही है, उसकी सदाशयता की परीक्षा समय पर होगी, पर उसके पीछे
बचकानापन है यह बात साफ दिखाई पड़ रही है। इस नासमझी के कारण वे अपनी राजनीतिक
जमीन को हार भी सकते हैं, जो ठीक नहीं होगा। उन्हें पहली बात यह समझनी चाहिए कि वे
राष्ट्रीय क्षितिज पर दो कारणों से उभरे हैं। पहला व्यवस्था की बेरुखी से जनता
नाराज़ है और उसे वैकल्पिक शक्तियों की तलाश है। दूसरे, आम आदमी पार्टी खुद को
विकल्प के रूप में पेश कर रही है और जनता पहली नज़र में उस पर भरोसा करती है। यह
भरोसा टूटना नहीं चाहिए। पूरे मीडिया पर बिका होने का आरोप राजनीतिक है। और उस
आरोप को वापस लेना राजनीति है।
Saturday, March 15, 2014
जातीय-राजनीति को गढ़ने के साथ उसे पढ़ें भी
लोकसभा चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस नेता जनार्दन द्विवेदी जातीय आरक्षण पर
विचार करने की बात कहकर एक नई बहस को जन्म देने की कोशिश की थी। चूंकि कांग्रेस ने
द्विवेदी के बयान को सिरे से खारिज कर
दिया इसलिए बात आई-गई हो गई। लेकिन जातीय आरक्षण का सवाल देश की राजनीति से अलग
नहीं हो पाएगा। हजारों साल का सामाजिक अन्याय सबसे प्रमुख कारण है। पर उससे बड़ा
कारण है राजनीतिक यथार्थ। चुनाव के ठीक पहले जाटों को पिछड़ी जातियों की केंद्रीय
सूची में शामिल करने का फैसला शुद्ध रूप से राजनीतिक है। इसका असर उत्तर भारत के
उन राज्यों पर पड़ेगा जहाँ जाट आबादी की महत्वपूर्ण भूमिका है। इन राज्यों में तकरीबन
नौ करोड़ जाट रहते हैं। मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से जाट आबादी का रुझान भारतीय जनता
पार्टी की ओरहुआ है। उसे रोकने की यह कोशिश है। जाट समुदाय की गिनती बड़े या मध्यम
दर्जे के संपन्न किसानों के रूप में होती है। उनके वोट तकरीबन 100 लोकसभा सीटों पर
बड़े स्तर पर या आंशिक रूप से असर डाल सकते हैं। और यह बात सबसे महत्वपूर्ण है। हालांकि
उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह बात है कि इस फैसले को लागू करने में अभी काफी कानूनी
अड़चनें हैं। क्या जाट समुदाय इस बात को नहीं समझता है?
Tuesday, March 11, 2014
रक्षा-विमर्श गम्भीर हो, सनसनीखेज़ नहीं
पिछले शुक्रवार और शनिवार
को नौसेना के दो उत्पादन केंद्रों में दो बड़ी दुर्घटनाएं होने के बाद मीडिया में अचानक
उफान आ गया. अभी तक कहा जा रहा था कि हमारे उपकरण पुराने पड़ चुके हैं. उन्हें समय
से बदला नहीं गया है. इस कारण दुर्घटनाएं हो रहीं हैं. सबसे ताज़ा दुर्घटनाएं दो
प्रतिष्ठित उत्पादन केंद्रों से जुड़ी हैं. परमाणु पनडुब्बी अरिहंत और कोलकाता
वर्ग के विध्वंसक पोत सबसे आधुनिक तकनीक से लैस हैं. हालांकि दुर्घटना का कारण
जहाज निर्माण केंद्र के रखरखाव से जुड़ा है, पर सवाल पूरी रक्षा-व्यवस्था को लेकर
है. उससे पहले सवाल यह है कि हमारा मीडिया और सामान्य-जन रक्षा तंत्र से कितने
वाकिफ हैं? क्या कारण है कि हमने इस
तरफ तभी ध्यान दिया, जब दुर्घटनाएं हुईं? पिछले महीने
संसद ने दो लाख चौबीस हजार करोड़ का अंतरिम रक्षा-बजट पास किया. बेशक यह अंतरिम
बजट था, पर वह देश के आय-व्यय का लेखा-जोखा था. यह बगैर किसी गम्भीर विचार-विमर्श
के पास हो गया. राजनीतिक में भी खोट है.
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