Saturday, September 17, 2011

बीमारी का इलाज




सन 2008-09 में वैश्विक आर्थिक मंदी की बेला में भारतीय उद्योग-व्यापार ने हाहाकार शुरू कर दिया था। इस पर सरकार ने 1.86 लाख करोड़ रु की कर राहत दी थी। वह अभी जारी है। अभी उद्योगपति और कर राहत चाहते हैं। सरकार खाद्य सुरक्षा का बिल ला रही है। इस पर काफी खर्च होगा। सरकार के पास वित्तीय घाटे को सन 2013-14 तक 3.5 प्रतिशत पर लाने का तरीका सिर्फ यही है कि उपभोक्ता पर लगने वाला टैक्स बढ़ाओ। पेट्रोल के 70 रु में 45 से ज्याद टैक्स है। पेट्रोल की कीमत बढ़ने से सिर्फ कार चलाने वालों को ही कष्ट नहीं होता। सब्जी से लेकर दूध तक महंगा हो जाता है। वही हो रहा है। हिन्दू में केशव का यह कार्टून सही इशारा कर रहा है। डीएनए में मंजुल का कार्टून कार चलाने वालों की टूटती साँस की ओर इशारा कर रहा है

Friday, September 16, 2011

प्रत्याशियों का चुनाव खर्च

जन प्रतिनिधियों के चुनाव खर्च को लेकर पिछले दो दशक में काफी दबाव बना है। व्यवस्था को पारदर्शी बनाने की तमाम कोशिशों के बावजूद अब भी जितना सामने है उससे ज्यादा छिपा रहता है। बहरहाल देश की कुछ संस्थाएं चुनाव पर नज़र रखने लगीं हैं। उनमें एक है एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर)। इसी के तहत  इलेक्शन वॉच का काम होता है।

एडीआर ने इस साल हुए पाँच राज्यों के चुनाव में प्रत्याशियों के खर्च का विवरण दिया है वह रोचक है। जिन पाँच राज्यों में चुनाव हुआ उनके नाम हैं प बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी। इनमे पहले चार राज्यों में प्रत्याशियों के खर्च की सीमा 16 लाख रु है और पुदुच्चेरी में 9 लाख रु। प्रत्याशियों को अपने खर्च का  विवरण 30 दिन में देना होता है। इस साल 13 मई को चुनाव परिणाम घोषित हुए थे। इस प्रकार 30 जून तक प्रत्याशियों ने विवरण दिए। एक हफ्ता चुनाव आयोग को लगा। 20 जून तक चुनाव आयोग की साइट पर इनका विवरण आ गया। चुनाव घोषित होने के 45 दिन के भीतर चुनाव खर्च को लेकर चुनौती दी जा सकती है। इन चुनावों के संदर्भ में वह तारीख थी 28 जुलाई। कितने प्रत्याशियों के चुनाव को चुनौती मिली पता नहीं, पर प्रत्याशियों ने जो विवरण दिया है वह रोचक है। 


राज्य
सीटों का विवरण
खर्च की सीमा
औसत खर्च
1
असम
126
16 लाख रु
9.01 लाख रु
2
बंगाल
217
16 लाख रु
7.06 लाख रु
3
केरल
139
16 लाख रु
9.39 लाख रु
4
तमिलनाडु
234
16 लाख रु
7.12 लाख रु
5
पुदुच्चेरी
039
09 लाख रु
3.12 लाख रु

एडीआर ने कुल 746 एमएलए के खर्च का विश्लेषण किया है। इनमें से केवल 32 ने माना है कि उन्होंने खर्च की सीमा के 80 फीसदी से ज्यादा खर्च किया। 403 ने 50 फीसदी से कम खर्च किया। किसी भी एमएलए ने सीमा से ज्यादा खर्च नहीं किया। यहाँ दो बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिएः-

1. लगभग सभी दल माँग करते हैं कि चुनाव खर्च की सीमा कम है। उसे बढ़ाया जाना चाहिए। पर जब खर्च होता है तो वे सीमा से कहीं कम खर्च करते हैं।
2. चुनाव आयोग के पर्यवेक्षकों ने इस दौरान काफी नकद राशि बरामद की। अकेले तमिलनाडु में ही 60 करोड़ रु से ज्यादा बरामद हुए। यह किसका पैसा था और कौन खर्च कर रहा था? अकेले तिरुचिरापल्ली में एक बस से 5.11 करोड़ रु बरामद हुए। एक और छापे में मदुरै में 3.5 करोड़ रु बरामद हुए थे। 

आप राज्यवार विवरण पढ़ना चाहें तो यहाँ पढ़ सकते हैं। 

एडीआर की साइट पर जब आप जाएंगे तो माय नेता और इलेक्शन वॉच वगैरह के नाम दिखाई देंगे। एक जगह इंडिया अगेंस्ट करप्शन का नाम भी दिखाई देगा। सवाल है कि क्या इस विश्लेषण के पीछे कोई साजिश काम कर रही है? क्या यह राजनीति को बदनाम करने की कोशिश है? इस काम के लिए हो सकता है कुछ निजी कम्पनियों ने चंदा भी दिया हो। तब क्या इस विश्लेषण को इन कम्पनियों की साजिश मानना चाहिए? 

अगले साल के विधान सभा चुनाव में ये गतिविधियाँ बढ़ेगी। इन्हें हम नए मध्य वर्ग की जागृति मानें या देश की गरीब जनता के विरोध में खड़ा आंदोलन? हो सकता है कि कुछ लोग पूछें कि इन लोगों की जल,जंगल, जमीन वगैरह के बारे में राय क्या है। मुझे पता नहीं कि शर्मिला इरोम की जल,जंगल और जमीन के बारे में या भारत की विदेश नीति, आर्थिक नीति और औद्योगिक नीति पर राय क्या है, पर एक तबका उनका नाम लेकर सिविल सोसायटी की अवधारणा को ही खारिज करता है।  

इनकी वैब साइट से मैने इनके बारे में भी जानकारी लेकर नीचे दी है। मुझे इनका काम सकारात्मक लगता है। हमने जिस संवैधानिक-लोकतांत्रिक व्यवस्था का वरण किया है, उसमें जनता का हस्तक्षेप बुनियादी शर्त है। इन लोगों ने देश की अदालतों की मदद से चुनाव सुधार में मदद ली है। आप उचित समझें तो मैं उन तथ्यों को एकत्र कर  सकता हूँ, जिनसे पता लगता है कि देश के राजनीतिक दलों ने इस प्रकार के सुधारों का विरोध किया है।  लोकतंत्र केवल चुनाव लड़ना ही नहीं है, चुनाव की पद्धति को दुरुस्त करना भी है। बेशक भ्रष्टाचार केवल इतने से खत्म नहीं हो जाएगा। बहरहाल नीचे इनका परिचय पढ़ें, जो इन्होंने अपनी वैबसाइट में दिया है। ।  


Association for Democratic Reforms (ADR) was established in 1999 by group of professor from Indian Institute of Management (IIM) Ahmedabad. In 1999, Public Interest Litigation (PIL) was filed by them with Delhi High Court asking the disclosure of criminal, financial and educational background of the candidates contesting elections. Based on this, the Supreme Court in 2002 and subsequently in 2003, made it mandatory for all candidates contesting elections to disclose Criminal, Financial and educational background prior to the polls by filing an affidavit with Election Commission. 

The first election watch was conducted by ADR in 2002 for Gujrat Assembly Elections whereby detailed analysis of the backgrounds of candidates contesting elections was provided to the electorate in order to help the electorate make an informed choice during polls. Since then ADR has conducted Election Watches for almost all state and parliament elections in collaboration with the National Election Watch. It conducts multiple projects aimed at increasing transparency and accountability in the political and electoral system of the country.

Our Mission

Our goal is to improve governance and strengthen democracy by continuous work in the area of Electoral and Political Reforms. The ambit and scope of work in this field is enormous, Hence, ADR has chosen to concentrate its efforts in the following areas pertaining to the political system of the country:

Corruption and criminalization in the political process.
       
Empowerment of the electorate through greater dissemination of information relating to      the candidates and the parties, for a better and informed choice.
Need for greater accountability of Political Parties.
          Need for inner-party democracy and transparency in party-functioning and gaps in the disclosure of  candidate’s profile.




Monday, September 12, 2011

साम्प्रदायिक हिंसा कानून के राजनीतिक निहितार्थ


साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ प्रस्तावित कानून की भावना जितनी अच्छी है उतना ही मुश्किल है इसका व्यावहारिक रूप। यह कानून अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए बनाया जा रहा है। पर इसका जितना प्रचार होगा उतना ही बहुसंख्यक वर्ग इसके खिलाफ जाएगा। हो सकता है कि कांग्रेस को इससे राजनीतिक लाभ मिले, पर भाजपा को भी तो मिलेगा। इस कानून के संघीय व्यवस्था के संदर्भ में भी कुछ निहितार्थ हैं। इसका नुकसान किसे होगा? बहरहाल इस कानून की भावना जो भी हो इसे सामने लाने का समय ठीक नहीं है। 



यूपीए दो की सरकार बनने के बाद लगा कि भाजपा के दिन लद गए। अटल बिहारी वाजपेयी के नेपथ्य में जाने के बाद पार्टी के पास मंच पर कोई दूसरा नेता नहीं बचा। पिछले दो साल से पार्टी की नैया हिचकोले खा रही है। पिछले साल झारखंड में शिबू सोरेन के साथ लेन-देन के शुरूआती झटकों के बाद पार्टी के नेतृत्व में सरकार बन गई। कर्नाटक में अच्छी भली सरकार बन गई थी, पर येदियुरप्पा को रेड्डी बंधुओं की दोस्ती रास नहीं आई। सन 2009 के अंत में एकदम अनजाने से नितिन गडकरी पार्टी अध्यक्ष बने तब लगा कि इसे चलाने वालों का सिर फिर गया है। पर वक्त की बात है कि इसे प्रणवायु मिलती रही। इसमे पार्टी की अपनी भूमिका कम दूसरों की ज्यादा है। पिछले डेढ़ साल से भाजपा को यूपीए सरकार प्लेट में रखकर मौके दे रही है। पता नहीं अन्ना-आंदोलन में इनका कितना हाथ था, पर ये फायदा उठा ले गए। और अब सरकार संसद के शीत सत्र में साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ जो विधेयक पेश करने वाली है, उसका फायदा कांग्रेस को मिले न मिले, भाजपा को ज़रूर मिलेगा।

Sunday, September 11, 2011

यह मीडिया का आतंकवाद है



आतंकवादी हिंसा, साम्प्रदायिक हिंसा और दूसरे किस्म के टकरावों की कवरेज को लेकर विचार करने का समय आ गया है। नवम्बर 2008 के मुम्बई हमलों के दौरान कई दिन तक चली धारावाहिक कवरेज का फायदा हमलावरों के आकाओं ने उठाया। जब तक हम समझ पाते नुकसान हो चुका था। हिंसा की कवरेज और उसके संदर्भ में होने वाले स्टूडियो डिस्कशन अक्सर माहौल को सम्हालने के बजाय बिगाड़ देते हैं। आतंवादियों का उद्देश्य हमारे मनोबल पर हमला करना होता है। अक्सर उसके इस इरादे को मीडिया से मदद मिलती है।