दो साल पहले की बात है।
प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना बजरंगी को किसी सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। तभी
उन्होंने कहीं कहा कि मैं राजनीति में आना चाहता हूँ। उनकी माँ को विश्वास है कि उनका
बेटा राजनीति में आकर मंत्री बनेगा। कुछ साल पहले फिल्म अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी ने
कहीं कहा था कि मैं राजनीति में कभी नहीं आना चाहूँगी। ऐसे शब्दों को हम खोजने की कोशिश
करें, जिनके अर्थ सबसे ज्यादा भ्रामक हैं तो राजनीति उनमें प्रमुख शब्द होगा। व्यावहारिक
अर्थ में राजनीति अंतर्विरोधों के बीच सामंजस्य बैठाने की कला है। भारत जैसे देश में
जहाँ दुनिया के सबसे ज्यादा अंतर्विरोध पाए जाते हैं, इस कला की सबसे ज्यादा ज़रूरत
है। संयोग से हमारे यहाँ राजनीति की कमी नहीं है, बल्कि इफरात है। फिर भी हाल के अन्ना
हजारे के आंदोलन में सबसे ज्यादा फजीहत राजनीति की हुई। लोगों को लगता है कि यह आंदोलन
राजनीति-विरोधी था।
Monday, September 5, 2011
Friday, September 2, 2011
जनता माने क्या, जनतंत्र माने क्या?
इस आंदोलन को अन्ना हजारे का आंदोलन नाम दिया गया है, क्योंकि हम व्यक्ति पर ज्यादा जोर देते हैं। उसकी वंदना करते वक्त और आलोचना करते वक्त भी। आरोप यह भी है कि सिविल सोसायटी ने लोकतांत्रिक संस्थाओं की मर्यादा नष्ट करते हुए तानाशाही अंदाज़ में सारा काम कराना चाहा। काफी हद तक यह बात सही है, पर क्या हमारे यहाँ जनता की भागीदारी सुनिश्चित कराने वाली लोकतांत्रिक संस्थाएं हैं? जनता को अपनी व्यवस्था में भाग लेने का अधिकार है या नहीं? जब हम राइट टु इनफॉर्मेशन की बात कर रहे थे, तब क्या यह तर्क नहीं था कि देश में तो ऑफीशियल सीक्रेट्स एक्ट है। जनता कौन होती है जानकारी माँगने वाली? आज हम यह सवाल नहीं करते। इस आंदोलन में काफी लोगों की भागीदारी थी, फिर भी काफी लोग उसमें शामिल नहीं थे या उसके आलोचक थे। ऐसा क्यों था? जनता की भागीदारी के माने क्या हैं? जनता क्या है? कौन लोग जनता हैं और कौन लोग जनता के बाहर हैं? जनता का सबसे नीचे वाला तबका (सबआल्टर्न) क्या सोचता है? ऐसी तमाम बातें हैं। हमें इनपर भी सोचना चाहिए।
इस आंदोलन के दौरान यह
बात कई बार कही गई कि जन प्रतिनिधि प्रणाली और संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन हो रहा
है। यह भी कहा गया कि कोई बदलाव करना है तो चुनाव लड़िए, चुनकर आइए और बदलाव कीजिए।
आपको बाहर रहकर बदलाव के लिए दबाव डालने का अधिकार नहीं है। इसकी तुलना फिल्म शोले
में टंकी पर चढ़कर बसंती का हाथ माँगने वाले वीरू से की गई। पर टंकी या छत पर चढ़कर
अपनी माँग मनवाने का चलन आज का नहीं है। जनता की भागीदारी का भी यह पहला आंदोलन नहीं
था। अलबत्ता क्षेत्रीय, जातीय और साम्प्रदायिक मसलों पर भीड़ बेहतर जुड़ती है। ज्यादा
बड़े मसलों पर जनता को जमा करना आसान नहीं होता। और वह जमा होती है तो विस्मय होता
है कि ऐसा क्योंकर हो गया। उसके बाद कांसिपिरेसी थियरी जन्म लेती है।
Monday, August 29, 2011
दस दिन का अनशन
हरिशंकर परसाई की यह रचना रोचक है और आज के संदर्भों से जुड़ी है। इन दिनों नेट पर पढ़ी जा रही है। आपने पढ़ी न हो तो पढ़ लें। इसे मैने एक जिद्दी धुन नाम के ब्लॉग से लिया है। लगे हाथ मैं एक बात साफ कर दूँ कि मुझे इसके आधार पर अन्ना हजारे के अनशन का विरोधी न माना जाए। मैं लोकपाल बिल के आंदोलन के साथ जुड़ी भावना से सहमत हूँ।
10 जनवरी
आज मैंने बन्नू से कहा, " देख बन्नू, दौर ऐसा आ गया है कि संसद, क़ानून, संविधान, न्यायालय सब बेकार हो गए हैं. बड़ी-बड़ी मांगें अनशन और आत्मदाह की धमकी से पूरी हो रही हैं. २० साल का प्रजातंत्र ऐसा पक गया है कि एक आदमी के मर जाने या भूखा रह जाने की धमकी से ५० करोड़ आदमियों के भाग्य का फैसला हो रहा है. इस वक़्त तू भी उस औरत के लिए अनशन कर डाल."
बन्नू सोचने लगा. वह राधिका बाबू की बीवी सावित्री के पीछे सालों से पड़ा है. भगाने की कोशिश में एक बार पिट भी चुका है. तलाक दिलवाकर उसे घर में डाल नहीं सकता, क्योंकि सावित्री बन्नू से नफरत करती है.
कैसा संवाद संकलन?
27 के इंडियन एक्सप्रेस में श्रीमती मृणाल पांडे का लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें हिन्दी अखबारों के संवाददाताओं को विज्ञापन लाने के काम में लगाने का जिक्र है। हिन्दी अखबारों की प्रवृत्तियों पर इंटरनेट के अलावा दूसरे मीडिया पर बहुत कम लिखा जाता है। अन्ना हजारे के अनशन के दौरान कुछ लोगों ने कहा कि हमारी भ्रष्ट-व्यवस्था में मीडिया की भूमिका भी है। ज्यादातर लोग मीडिया से उम्मीद करते हैं कि वह जनता की ओर से व्यवस्था से लड़ेगा। पर क्या मीडिया इस व्यवस्था का हिस्सा नहीं है? और मीडिया का कारोबारी नज़रिया उसे जन-पक्षधरता से दूर तो नहीं करता? बिजनेस तो इस व्यवस्था का हिस्सा है ही।
अन्ना या नो अन्ना, देश की भावना को समझिए
संसद में शनिवार की बहस
सुनने के बाद आपको क्या लगता है? संसद में मौजूद सांसदों और पार्टियों का सबसे बड़ा
वर्ग टीम अन्ना के प्रस्तावों से सहमत है। ऐसा लगता है कि हर पार्टी गैलरी के लिए बोल
रही है। और यह गैलरी पूरा देश नहीं, अपना चुनाव कोना है। अपने समर्थकों तक अपनी बात
पहुँचाने की कोशिश में कोई पूरा सच बोलना नहीं चाहता। उन्हें भड़काए रखना चाहता है।
संविधान से टकराव और संसदीय मर्यादा की बात सब कह रहे हैं, पर किसका किससे टकराव हुआ? टकराव है तो सामने आता। आश्चर्य इस बात का है कि पिछले छह महीने से देश एक ऐसे
मसले की बारीकियों पर पिला पड़ा है, जिससे सिद्धांततः किसी को आपत्ति नहीं। व्यावहारिक
आपत्तियों की लम्बी सूची है।
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