Tuesday, July 6, 2021

भारत-पाकिस्तान रिश्तों में फिर से लू-लपट


भारत और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों में कितनी तेजी से उतार-चढ़ाव आता है इसकी मिसाल पिछले चार महीनों में देखी जा सकती है। गत 25 फरवरी को दोनों देशों के बीच अचानक नियंत्रण रेखा पर युद्ध-विराम के एक पुराने समझौते को मजबूती से लागू करने का समझौता हुआ। इससे अचानक शांति का माहौल बनने लगा। पाकिस्तान की तरफ से एक के बाद एक बयान आए। भारतीय प्रधानमंत्री ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को शुभकामनाएं भेजीं।

केवल युद्ध-विराम ही नहीं आपसी व्यापार फिर से शुरू करने की बातें होने लगीं। ऐसे संकेत मिले कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब गणराज्य के बीच में पड़ने से दोनों देशों के बीच बैकरूम-बातचीत भी हो रही है। इसके बाद जम्मू में भारतीय वायुसेना के हवाई अड्डे पर ड्रोन हमले की खबरें आईं और सब कुछ अचानक यू-टर्न हो गया। उधर 23 जून को लाहौर में हाफिज सईद के घर के पास एक बम धमाका हुआ, जिसके लिए पाकिस्तान ने भारत को जिम्मेदार ठहराया है।

पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद युसुफ ने कहा है कि लाहौर धमाके का मास्टर माइंड एक भारतीय नागरिक है जो रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (भारतीय ख़ुफिया एजेंसी रॉ) से जुड़ा है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने सीधे-सीधे इसे 'भारत प्रायोजित आतंकवादी हमला' क़रार दिया है। इमरान खान ने ट्वीट किया, मैंने अपनी टीम को निर्देश दिया कि वे जौहर टाउन लाहौर धमाके की जाँच की जानकारी कौम को दें। मैं पंजाब पुलिस के आतंकवादी निरोधक विभाग की तेज़ रफ़्तार से की गई जाँच की तारीफ़ करूंगा कि उन्होंने हमारी नागरिक और ख़ुफ़िया एजेंसियों की शानदार मदद से सबूत निकाले।

सवाल है कि क्या वास्तव में ऐसी कोई जाँच हुई? क्या पाकिस्तान के पास कोई सबूत है या वह इस दौरान बनी शांति की सम्भावनाओं से बाहर निकलना चाहता है? वह बाहर निकलना चाहता है, तो इन सम्भावनाओं में शामिल ही क्यों हुआ था? क्या वहाँ सेना और सरकार के बीच मतभेद हैं? या पाकिस्तान अपने बुने जाल में फँसता जा रहा है? ऐसे तमाम सवालों ने दक्षिण एशिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। एक तरफ अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी हो रही है और दूसरी तरफ भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक-प्रक्रियाओं को तेज कर दिया है। इससे पाकिस्तानी अंतर्विरोध खुलकर सामने आने लगे हैं।

भारत सरकार ने अफगानिस्तान में तालिबान के साथ भी सम्पर्क स्थापित किया है। इसे लेकर भी पाकिस्तान में चिंताएं हैं। उन्हें लगता है कि भारत और तालिबान के बीच रिश्ते बेहतर हो गए, तो हमारा क्या होगा? यों भी आज के तालिबान बीस साल पहले के तालिबान नहीं हैं। पिछले दो दशकों में उन्होंने पाकिस्तानी राज-व्यवस्था की स्वार्थी नीतियों को भी अच्छी तरह पहचाना है।

भारत-पाकिस्तान रिश्तों के ऊँच-नीच को समझने के लिए वैश्विक घटनाक्रम पर नजर डालना भी जरूरी है। अमेरिका केवल अफगानिस्तान से ही नहीं, पश्चिम एशिया से हटकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर ध्यान देना चाहता है। उसकी दिलचस्पी चीन को काबू करने में है। पाकिस्तान अभी तक अमेरिका को भी साधकर रखता था और चीन के साथ रिश्ते सुधार रहा था। वस्तुतः सत्तर के दशक में चीन को अमेरिका के करीब लाने में पाकिस्तान की सबसे बड़ी भूमिका थी। उस बदलाव के कारण चीन का आर्थिक रूपांतरण हुआ और आज वह अमेरिका को आँखें दिखा रहा है।

इस दौरान पाकिस्तान ने चीन, मलेशिया, ईरान, तुर्की और रूस को साथ लेकर एक नए वैश्विक गठजोड़ का सपना देखा था। सपनों का वह गुब्बारा भी फूट चुका है। एक तरफ तुर्की को नेटो से दूर होने के खतरे समझ में आने लगे हैं। वहीं रूस ने अपने नवीनतम विदेश-नीति वक्तव्य में स्पष्ट किया है कि हम चीन के साथ-साथ भारत के साथ भी अपने रिश्ते ठीक बनाकर रखेंगे। रूस ने अपनी नई राष्ट्रीय सुरक्षा-नीति जारी की है जो अमेरिकी डॉलर आधारित लेनदेन पर निर्भरता घटाने के साथ ही भारत और चीन दोनों के साथ रिश्तों में संतुलन साधने की कोशिश करती नजर आ रही है।

रूस की यह राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति, जिसे शनिवार 3 जुलाई को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने जारी किया था, ऐसे समय में आई है जबकि बीते साल भर से भारत और चीन के बीच गतिरोध जारी है। नई सुरक्षा-नीति का उद्देश्य चीन के साथ व्यापक भागीदारी विकसित करने के साथ-साथ भारत के साथ जारी रणनीतिक सहयोग को और विस्तार देना है। रूसी समाचार एजेंसी स्पूतनिक की एक रिपोर्ट के अनुसार, इस नीति के तहत ऐसी प्रक्रिया शुरू करने की कोशिश की जा रही है जो गुट-निरपेक्ष आधार पर तमाम गुटों से परे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में क्षेत्रीय स्थिरता और सुरक्षा सुनिश्चित करे।

दूसरी तरफ अमेरिका ने भी रूस को साधने का प्रयास किया है, ताकि उसका रुझान पूरी तरह चीन की ओर न हो जाए। गत 16 जून को अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच जिनीवा में शिखर-वार्ता हुई। यह मुलाकात ऐसे मौके पर हुई है जब दोनों देशों के रिश्ते बदतर स्थिति में हैं और दुनिया पर एक नए शीतयुद्ध का खतरा मंडरा रहा है, जिसमें रूस और चीन मिलकर अमेरिका और उसके मित्र देशों का प्रतिरोध कर रहे हैं। लगता है कि अमेरिका की कोशिश है कि रूस पूरी तरह से चीन के खेमे में जाने के बजाय अमेरिका के साथ भी जुड़ा रहे। रूस के लिए महान शक्ति विशेषण का इस्तेमाल करके उन्होंने रूस को खुश करने की कोशिश भी की है। इस रूबरू बातचीत का परिणाम है कि दोनों देशों ने तनाव दूर करने के लिए अपने-अपने देशों के राजदूतों को फिर से काम पर वापस भेजने का फैसला किया है।

उतार-चढ़ाव के इस वैश्विक घटनाक्रम के बीच पाकिस्तानी बदहवासी साफ दिखाई पड़ रही है। इमरान खान कभी शांति-दूत के रूप में सामने आते हैं और फिर अचानक कट्टरपंथी इस्लामिक कार्ड खेलने लगते हैं। भारत के प्रति द्रोह उन्हें चीन के पाले में ले जाता है, पर देश की बिगड़ती आंतरिक स्थिति उन्हें सही रास्ते पर जाने की सलाह भी देती है। बहरहाल रविवार 4 जुलाई को पाकिस्तानी सुरक्षा सलाहकार मोईद युसुफ ने भारत पर न केवल आरोप लगाए हैं, साथ ही यह भी कहा है कि हमारी बैकरूम-बातचीत भी खत्म हो जाएगी।

अब इस बयान के असर को देखना होगा। क्या नियंत्रण रेखा पर जो युद्धविराम हुआ है, वह भी इस बयान से प्रभावित होगा? पाकिस्तानी मंशा क्या है? क्या वह इस तनाव को बढ़ाने की स्थिति में है? या वह जम्मू में हुए ड्रोन हमले के आरोपों से बचने के लिए बहाने तलाश रहा है? बहरहाल इस घटनाक्रम ने दोनों देशों के बीच संबंधों में बेहतरी लाने की कोशिशों पर बड़े सवाल खड़े किए हैं। फिलहाल यह मानकर चलना चाहिए कि दक्षिण एशिया में शांति की सम्भावनाओं पर पाकिस्तान पानी फेर देने को आतुर है। ऐसा क्यों है?

कुछ महीने पहले ही पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा ने कहा था कि अब वो वक़्त आ गया है जब हम अतीत को भुलाकर आगे बढ़ें। उन्होंने कहा, "यह समझना महत्वपूर्ण है कि शांतिपूर्ण तरीक़ों से कश्मीर विवाद के समाधान के बिना मैत्रीपूर्ण संबंध हमेशा ख़तरे में रहेंगे। जो राजनीति से प्रेरित आक्रामकता की वजह से पटरी से उतर सकते हैं। बहरहाल हमारा मानना है कि यह समय अतीत को भुलाकर आगे बढ़ने का है।" उन्होंने कश्मीर को लेकर पाकिस्तान का पुराना स्टैंड दोहराने की जगह एक नई बात कही। उन्होंने कहा, "शांति प्रक्रिया की बहाली या शांतिपूर्ण संवाद के लिए हमारे पड़ोसी को उसके लिए माहौल बनाना होगा, ख़ासतौर पर कश्मीर में वैसा माहौल होना चाहिए।"

उस बयान के साथ ही यह भी स्पष्ट हुआ कि दोनों देशों के बीच पर्दे के पीछे बातचीत चल रही है। इसके बाद गत 24 जून को दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की जम्मू-कश्मीर के 14 नेताओं के साथ बैठक हुई, जिसे इसी नजर से देखा गया। पर इसके विपरीत पाकिस्तान में अब जो हो रहा है, उससे लगता है कि कोई दूसरी ताकत सक्रिय हो गई है। तीन घटनाएं एक साथ हुई हैं। एक, लाहौर में जमात-उद-दावा के मुखिया हाफ़िज़ सईद के घर के पास बम धमाका, पाकिस्तान स्थित भारतीय दूतावास पर ड्रोन का मंडराना और जम्मू में वायुसेना के अड्डे पर ड्रोन का हमला।

इन भड़काऊ बयानों के बावजूद यदि युद्धविराम रेखा पर शांति बनी रही, तो मान लेना चाहिए कि बैक-चैनल डिप्लोमेसी काम कर रही है। यदि गोलाबारी फिर शुरू हुई, तो इसका मतलब है कि पाकिस्तान के जेहादी तत्वों के हाथों में बागडोर फिर से आ गई है। वस्तुतः 2003 का युद्धविराम एक महत्वपूर्ण प्रस्थान-बिंदु था, जहाँ से रिश्तों में बदलाव आना शुरू हुआ था। इसकी पृष्ठभूमि में दोनों देशों की आगरा-शिखर वार्ता के संकेत थे। वह शिखर सम्मेलन फौरी तौर पर विफल था, पर उसके सहारे कुछ उम्मीदें जन्म ले गई थीं। मुम्बई हमले के पहले स्थितियाँ शांति के लिए मुफीद नजर आने लगी थीं। उसके बाद सन 2015 में उफा सम्मेलन के हाशिए पर दोनों देशों के बीच जो बातचीत हुई थी, उससे भी सम्भावनाएं बनीं, जो जनवरी 2016 में पठानकोट प्रकरण के बाद टूटी, सो अबतक टूटी पड़ी हैं।

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