Sunday, May 6, 2018

हमारे ‘हीरो’ नहीं हैं जिन्ना


अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय छात्रसंघ के हॉल में लगी मुहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर के विवाद की रोशनी में हम अपने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कुछ स्रोतों को देख सकते हैं। एक दलील है कि जिन्ना की वजह से देश का विभाजन हुआ। स्वतंत्र भारत में उनकी तस्वीर के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। यह माँग बीजेपी के एक सांसद ने की है, इसलिए एक दूसरा पक्ष भी खड़ा हो गया है। वह कहता है कि तस्वीर नहीं हटेगी। जिन्ना भारतीय इतिहास का हिस्सा हैं। आजादी के बाद से अब तक इस तस्वीर के लगे रहने से भारतीय राष्ट्रवाद को कोई ठेस नहीं लगी, तो अब क्या लगेगी?

इस बीच सोशल मीडिया पर संसद भवन में लगी एक तस्वीर वायरल हुई है। इस तस्वीर में देश के कुछ महत्वपूर्ण राजनेताओं के साथ जिन्ना भी नजर आ रहे हैं। वायरल-कर्ताओं का सवाल है कि संसद भवन से भी क्या जिन्ना की तस्वीर हटाओगे? इस तस्वीर में जिन्ना के साथ जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी नज़र आते हैं। जिन्ना की तस्वीर हटती या नहीं हटती, उसकी खबर मीडिया में नहीं आई होती, तो हंगामा नहीं होता। अब हंगामा हो चुका है। अब फैसला कीजिए कि करें क्या? पहली बार में ही इसे हटा देना चाहिए था। सोचिए कि इस हंगामे से किसका भला हुआ? कुछ लोग हिन्दुओं के एक वर्ग को यह समझाने में कामयाब हुए हैं कि मुसलमानों का तुष्टीकरण हो रहा है और दूसरी ओर मुसलमानों के एक तबके के मन में यह बैठाया जा रहा है कि भारत में उनका रहना दूभर है। 


संयोग है कि इन दिनों कर्नाटक विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। लोकसभा चुनाव तक चुनावों का क्रम चलेगा। सोचिए कि कहीं जिन्ना-विवाद का रिश्ता भी इन चुनावों से तो नहीं है? जरूरी नहीं कि हंगामा खड़ा करने वालों का इरादा चुनाव ही हो। पर यह सच है कि हमारा समाज भावनाओं के वशीभूत है। देखते ही देखते छोटी सी फुलझड़ी बड़ी आग लगा देती है। हम नहीं देख पाते हैं कि कौन-कौन सी ताकतें चुनाव को प्रभावित करना चाहती हैं और क्यों। यह केवल चुनाव तक सीमित परिघटना नहीं है।

शुक्रवार को पाकिस्तान सरकार के एक हैंडल से टीपू सुल्तान पर एक ट्वीट फेंका गया। इसमें टीपू सुल्तान को वीर योद्धा बताया गया। एक और ट्वीट आया, जिसमें कहा गया कि वे अंग्रेजों के खिलाफ पहले स्वतंत्रता सेनानी थे। ये ट्वीट टीपू सुल्तान की 218 वीं पुण्यतिथि के सिलसिले में जारी किए गए थे। उनका निधन 4 मई 1799 को हुआ था। यह तारीख पता नहीं किसी को याद थी या नहीं, पर पाकिस्तान में किसी को याद आ गई। उनका जन्म 20 नवम्बर 1750 को हुआ था। इस सिलसिले में कर्नाटक सरकार नवम्बर में जोर-शोर से टीपू जयंती मना चुकी है।

टीपू-जयंती से मुसलमानों के जीवन में कितनी खुशी आई इसका पता नहीं, पर ऐसी परिघटनाएं भारत-पाकिस्तान सीमा के दोनों तरफ असर डालती हैं। दोनों देशों की तमाम अंदरूनी समस्याओं की जड़ में है देश का विभाजन। पाकिस्तान सरकार ने टीपू-जयंती नहीं मनाई, तो पुण्यतिथि पर याद कर लिया। पता नहीं पिछले साल याद किया था या नहीं या अगले साल याद करेगी या नहीं, पर कर्नाटक चुनाव के मौके पर उसके दो ट्वीट अपना काम कर गए।   

यह याद दिलाना भी प्रासंगिक होगा कि सन 2007 में जब भारत सरकार 1857 के संग्राम की 150वीं जयंती मना रही थी, पाकिस्तान सरकार ने उसमें साथ देने से इनकार कर दिया था। अंग्रेजों के खिलाफ वह लड़ाई हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर लड़ी थी। शायद वह कार्यक्रम सद्भाव पैदा करता, पर क्या पाकिस्तानी-व्यवस्था सद्भाव चाहती है? भारत में विभाजन को एक क्रूर घटना के रूप में याद किया जाता है। पाकिस्तानी-व्यवस्था उसे इतिहास की देन मानती है।

अलीगढ़ मुस्लिम विवि ने भारत के मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा का तोहफा दिया। इसके साथ ही राष्ट्रीय आंदोलन के विमर्श को भी आगे बढ़ाया। विभाजन की वैचारिक-पृष्ठभूमि भी इस विवि से जुड़ी है। इन दिनों चल रहे तस्वीर-प्रसंग में उन परिस्थितियों पर भी नजर डालनी चाहिए, जिनमें जिन्ना को छात्रसंघ की मानद सदस्यता दी गई थी। तीस के दशक में अलीगढ़ विवि में राष्ट्रवादी मुसलमानों और मुसलिम लीग समर्थकों के बीच बहस थी। तभी विवि में मुस्लिम लीग का झंडा फहराने की बात उठी, जिसका विरोध राष्ट्रवादी मुसलमानों ने किया।

उस वक्त विवि प्रशासन राष्ट्रवादी मुसलमानों के खिलाफ था। उन्हें या तो विवि में प्रवेश नहीं दिया जाता था या निकाल दिया जाता था। अली सरदार ज़ाफरी, जलील अब्बास, खलीलुल रब, ज़मीनुर सिद्दीकी और मिर्ज़ा सुबेर उस्मान जैसे प्रगतिशील छात्रों को निकाल दिया गया। ख़्वाजा अहमद अब्बास और ख़्वाजा गुलाम सैयदीन जैसे प्रगतिशील लेखकों के लेख विवि की मैगजीन में छापने पर रोक लगी थी। इन परिस्थितियों में 7 फरवरी 1938 को छात्रसंघ के भवन पर मुस्लिम लीग का ध्वज फहराया गया और जिन्ना ने छात्रों को संबोधित किया।

इस परिघटना के बाद 11 दिसम्बर 1938 को स्ट्रैची हॉल में उनका वह पोर्ट्रेट लगाया गया, जो आज विवाद का विषय बना है। इस घटना के डेढ़ साल बाद 22 से 24 मार्च 1940 तक चले मुस्लिम लीग के लाहौर सत्र में पाकिस्तान प्रस्ताव पास हुआ। तस्वीर हटाने से इतिहास बदलेगा नहीं, पर इसकी पृष्ठभूमि को भी समझना चाहिए।

संसद भवन में लगी तस्वीर और इस तस्वीर में अंतर है। इस तस्वीर का सीधा रिश्ता विभाजन से है, जो हमारी संवेदना पर चोट करता है। इसकी तुलना संसद भवन की उस तस्वीर से नहीं की जा सकती, जो सोशल मीडिया में वायरल हुई है। उस तस्वीर को इतिहास का पन्ना मान सकते हैं, जिसमें जिन्ना अपने समकालीन नेताओं के साथ नजर आते हैं।

तस्वीर-प्रसंग पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। इनमें जिन्ना के प्रति प्रशंसा भाव भी है। जिन्ना भारतीय मुसलमानों का अलग देश चाहते थे, इस्लामिक नहीं। वे धर्म-निरपेक्ष देश चाहते थे। उन्होंने हिन्दू-मुसलमान एकता के लिए काम किया। पश्चिमी-संस्कृति में रचे-बसे थे, कट्टर मुसलमान नहीं थे वगैरह। हाल के वर्षों में लालकृष्ण आडवाणी से लेकर जसवंत सिंह तक ने उनकी तारीफ की है। शायद उन्होंने विभाजन की भयावहता के बारे में सोचा नहीं। उन्होंने जो परिकल्पना की थी वैसा पाकिस्तान बना नहीं।

पाकिस्तान एक सच है। वह एक स्वतंत्र देश है और हम उसके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। जिन्ना ही नहीं, एक स्वतंत्र देश के रूप में उनके सभी नेताओं का हमें सम्मान करना चाहिए। स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भी जिन्ना की भूमिका स्वीकार है। पर वे विभाजन के लिए जिम्मेदार नेताओं की पहली पाँत में थे। विभाजन के दुष्प्रभाव हम आज तक झेल रहे हैं। फौरी तौर पर भी इसकी वजह से करीब डेढ़ करोड़ लोग बेघरबार हुए और करीब पाँच लाख लोग मारे गए। दुनिया का सबसे बड़ा पलायन इस जमीन पर हुआ। पाठ्य-पुस्तकों और शोध-ग्रंथों में जिन्ना को कई रूपों में याद किया जाता है। पर वे आधुनिक भारत के 'हीरो' नहीं हैं। ऐसे में उनकी तस्वीर को लगाए रखने की जिद भी बेमानी है। आप चाहते हैं कि उसपर कोई प्रतिक्रिया भी नहीं हो।

3 comments:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  2. मान लेते हैं जिन्ना आधुनिक भारत के सूत्रधार नहीं हैं..इस हिसाब से भगत सिंह की कर्मभूमि लाहोर थी उनका भी बंटवारा कर दो वो भी इस भारत के सूत्रधार नही थे जो आज है.
    जिन्ना,भक्तसिंह व समकालीन नेता केवल हिंदुस्तान के लिए लड़े उनके मन में पाकिस्तान कोई अलग देश था ही नहीं..वो तो अंग्रेजों कि रणनीति का शिकार हुए तो बंटवारा हुआ.
    इन दोनों देशों के आजादी से पहले के हीरोज एक ही हैं...

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  3. हमारे हीरो सर सैयद हैं, मौलाना आज़ाद हैं और डॉ ज़ाकिर हुसेन जैसे नेता हैं। जिन्ना अंग्रेजों के खिलाफ आज़ादी के सिपाही ज़रूर हैं, पर वे धर्म-निरपेक्ष देश भारत के हीरो नहीं हो सकते। सन 1938 में उनका पोर्ट्रेट अलीगढ़ मुस्लिम विवि में आजादी के नायक के रूप में नहीं लगाया गया था, बल्कि देश के राष्ट्रवादी मुसलमानों की इच्छा के बगैर मुस्लिम लीग के नेता के रूप में लगाया गया था। इसी वजह से उन्हें छात्रसंघ की मानद सदस्यता दी गई थी। यह एक राजनीतिक फैसला था। व्यक्तिगत रूप से जिन्ना में तमाम गुण थे। उन्हें आजादी का सिपाही मानने में मुझे कोई एतराज नहीं, पर वे आधुनिक भारत के नायक किसी रूप में नहीं हैं। हाँ, यह भी सच है कि उन्होंने जैसे पाकिस्तान की कल्पना की थी, वैसा पाकिस्तान नहीं बना। यह सच है कि वे विभाजन के बाद बम्बई में रहना चाहते थे। इन सब बातों के लिए उन्हें अलग से श्रेय देना चाहिए, पर हम नहीं भूल सकते कि वे विभाजन के सूत्रधार थे। बेशक भगत सिंह को पाकिस्तानी आजादी का भी नायक माना जा सकता है। ऐसे तमाम नेता हैं, जो दोनों देशों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

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