Friday, January 27, 2017

हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के...

आज के दोष कल दूर होंगे
संयोग है कि इस साल के गणतंत्र दिवस के आसपास राष्ट्रीय महत्व की दो परिघटनाएं और हो रही हैं। पहली है विमुद्रीकरण की प्रक्रिया, जो दुनिया में पहली बार अपने किस्म की सबसे बड़ी गतिविधि है। यह ऐसी गतिविधि है, जिसने प्रत्यक्ष या परोक्ष देश के प्रायः हरेक नागरिक को छुआ है, भले ही वह बच्चा हो या बूढ़ा। इस अनुभव से हम अभी गुजर ही रहे हैं। इसके निहितार्थ क्या हैं, इसमें हमने क्या खोया या क्या पाया, यह इस लेख का विषय नहीं है। यहाँ केवल इतना रेखांकित करने की इच्छा है कि हम जो कुछ भी करते हैं, वह दुनिया की सबसे बड़ी गतिविधि होती है, क्योंकि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं।
बेशक चीन की आबादी हमसे ज्यादा है, पर वहाँ लोकतंत्र नहीं है। लोकतंत्र के अच्छे और खराब अनुभवों से हम गुजर रहे हैं। लोकतंत्र के पास यदि वैश्विक समस्याओं का समाधान है तो वह भारत से ही निकलेगा, अमेरिका, यूरोप या चीन से नहीं। क्योंकि इतिहास के एक खास मोड़ पर हमने लोकतंत्र को अपने लिए अपनाया और खुद को गणतंत्र घोषित किया। गणतंत्र माने जनता का शासन। यह राजतंत्र नहीं है और न किसी किस्म की तानाशाही। भारत एक माने में और महत्वपूर्ण है। दुनिया की सबसे बड़ी विविधता इस देश में ही है। संसार के सारे धर्म, भाषाएं, प्रजातियाँ और संस्कृतियाँ भारत में हैं। इस विशाल विविधता को किस तरह एकता के धागे से बाँधकर रखा जा सकता है, यह भी हमें दिखाना है और हम दिखा रहे हैं।

हमें शिकायत है
ऊपर जिन दो परिघटनाओं का हवाला दिया है, उनमें विमुद्रीकरण के बाद दूसरी परिघटना है पाँच राज्यों में चुनाव की तैयारी। हमारे चुनाव भी हमारे अंतर्विरोधों को व्यक्त करते हैं। इनके मार्फत हम अपने गुण और दोषों दोनों से रूबरू होते हैं। चुनाव वह समय होता है, जब हम अपनी तमाम समस्याओं पर विचार करते हैं। इस विमर्श से कुछ समस्याओं के समाधान मिलते हैं। कुछ समाधान फौरन होते हैं और कुछ में समय लगता है। आप किसी भी क्षेत्र के मतदाता से बात करें उसकी शिकायत होती है सरकार महंगाई कम कर दें, बच्चों को रोज़गार दिलवा दे, नलों में पानी आने लगे, बिजली जाना बंद कर दे, अस्पतालों में इलाज होने लगे तो जीवन सुखद हो जाए।
जनता की ज्यादातर शिकायतें प्रशासन से हैं। वह प्रशासन जो सरकार की ओर से जनता की मदद के लिए तैनात किया गया है। पर प्रशासन और पुलिस, इन दोनों से जनता डरती है। क्यों हैं ऐसा? क्या हम प्रशासनिक रूप से विफल हैं? क्या हम नालायक हैं? चुनाव भी प्रशासनिक गतिविधि है। इनमें सुधार होगा तो हमारी समस्याओं का समाधान भी होने लगेगा। चुनाव के अलावा भारत में होने वाली एक और प्रशासनिक गतिविधि का दुनियाभर में जवाब नहीं है। यह है जनगणना। हर दस साल में होने वाली जनगणना अपने आप में दुनिया की सबसे बड़ी प्रशासनिक कसरत है।
दुनिया के अनेक बड़े देश जिनमें हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान शामिल है, जनगणना का काम समय से पूरा नहीं कर पाते हैं। पर हमें जनगणना का पता नहीं लगता, वह हो जाती है। यह जनगणना हमें केवल हमारी संख्या ही नहीं बताती। हमारी शिक्षा, लैंगिक समानता, आयु वर्ग जैसे तमाम तथ्यों से परिचित कराती है। आप कभी जनगणना के आँकड़ों का गहराई से अध्ययन करें तो विचार का एक नया आकाश आपके सिर पर होगा। फिलहाल यहाँ उसपर भी हमें बात नहीं करनी है। हमारी दिलचस्पी केवल इस बात में है कि हम कितने कुशल या अकुशल हैं।
उन्हें हमपर भरोसा नहीं था
भारत की आजादी के पहले ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने भारत की आजादी को लेकर संदेह प्रकट किया था कि यह सफल होगी। उन्होंने कहा, धूर्त, बदमाश, एवं लुटेरे हाथों में सत्ता चली जाएगी। सभी भारतीय नेता सामर्थ्य में कमजोर और महत्त्वहीन व्यक्ति होंगे। वे जबान से मीठे और दिल से नासमझ होंगे। सत्ता के लिए वे आपस में ही लड़ मरेंगे और भारत राजनैतिक तू-तू-मैं-मैं में खो जाएगा। चर्चिल का यह भी कहना था कि भारत सिर्फ एक भौगोलिक पहचान है। वह कोई एक देश नहीं है, जैसे भूमध्य रेखा कोई देश नहीं है। चर्चिल को ही नहीं सन 1947 में काफी लोगों को अंदेशा था कि इस देश की व्यवस्था दस साल से ज्यादा चलने वाली नहीं है। टूट कर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। हमारे दुश्मनों की आज भी मनोकामना यही है। भारत-भारती में मैथिलीशरण गुप्त की दो लाइनें हैं:-
हम कौन थे, क्या हो गए हैं, और क्या होंगे अभी/आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी
भारत-भारती उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में प्रकाशित हुई थी। यह वह दौर था जब भारत का राष्ट्रीय आंदोलन जन्म ले रहा था। गांधी के भारत आगमन के कुछ साल पहले की यह बात है। संभवतः यह हिंदी की पहली बेस्टसेलर पुस्तक थी। इसकी लोकप्रियता का आलम यह था कि इसकी प्रतियां रातों-रात खरीदी गईं। प्रभात फेरियों, राष्ट्रीय आंदोलनों, शिक्षा संस्थानों, प्रातःकालीन प्रार्थनाओं में भारत-भारती के पद गांवों-नगरों में गाये जाने लगे। "मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती। भगवान भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।"
हम सफल भी तो हैं
राष्ट्रीय भावनाओं का यह एक छोर था वहीं दूसरे छोर पर स्वार्थों, संकीर्णताओं के तूफान भी हिलोरे ले रहे थे। बहरहाल तमाम अंदेशों के बावजूद हम यहाँ तक आ गए हैं। हम दावा नहीं कर सकते कि सफल हैं। और यह भी नहीं मान लेना चाहिए कि हम पराजित हो गए हैं। पर इसमें दो राय नहीं कि हमारी सफलता या विफलता का श्रेय हमारी राजनीति को जाता है। चुनाव हमें घेरकर रखते हैं या हम चुनावों में घिरे रहते हैं। सन 2014 में भारतीय चुनाव-संचालन की सफलता के इर्द-गिर्द एक सवाल ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने उठाया था। उसका सवाल था कि भारत चुनाव-संचालन में इतना सफल क्यों है? इसके साथ जुड़ा उसका एक और सवाल था। जब इतनी सफलता के साथ वह चुनाव संचालित करता है, तब उसके बाकी काम इतनी सफलता से क्यों नहीं होते? मसलन उसके स्कूल, स्वास्थ्य व्यवस्था, पुलिस वगैरह से लोगों को शिकायत क्यों है?
ऐसा क्यों माना जाता है कि यह देश बैलगाड़ी की गति से चलता है? पत्रिका ने एक सरल जवाब दिया कि जो काम छोटी अवधि के लिए होते हैं, उनमें भारत के लोग पूरी शिद्दत से जुट जाते हैं। लगातार चलने वाले कार्यों की वे फिक्र नहीं करते। जनगणना के अलावा भारत ने राष्ट्रीय पहचान पत्र आधार बनाने का काम सफलता के साथ किया है। पर वह काम सरकारी कर्मचारियों ने नहीं बाहरी लोगों ने किया। हमने साठ के दशक में हरित क्रांति की। नब्बे के दशक में कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर में सफलता के झंडे गाड़े। हालांकि हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली बहुत अच्छी नहीं है, पर हमारे चिकित्सकों का दुनिया भर में सम्मान है। धीरे-धीरे भारत विकासशील देशों में चिकित्सा और स्वास्थ्य का हब बनता जा रहा है।
हालांकि इकोनॉमिस्ट ने ज़िक्र नहीं किया, पर भारत के रेलवे पर नज़र डालें तो वह भी हमारी सफलता की कहानी है। बेशक रेलगाड़ियाँ देर से चलती हैं, पर इतना बड़ा नेटवर्क तमाम तकनीकी खामियों के बावज़ूद चल रहा है। जिन दिनों कोहरा हो या बाढ़ या कोई प्राकृतिक आपदा तब की बात अलग है, आम तौर पर रेलगाड़ियाँ समय से चलती हैं। बावज़ूद इस बात के कि जिस रेल लाइन पर बीस साल पहले 10 गाड़ियाँ चलती थीं, उसपर आज 15 चलती हैं। पहले एक गाड़ी में 15 डिब्बे लगते थे, तो आज 20 लगते हैं।
इकोनॉमिस्ट का निष्कर्ष है कि उस विभाग के सरकारी कर्मचारी बेहतर काम करते हैं, जिसपर जनता की निगाहें होती हैं। चुनाव आयोग का अपना कोई स्टाफ नहीं होता। चुनाव का कार्य वही प्रशासनिक मशीनरी करती है, जो सामान्य दिनों में दूसरे काम करती है। सच यह है कि सरकारी कर्मचारी बेहतर काम करें तो उन्हें बढ़ावा देने की व्यवस्था नहीं है। निजी क्षेत्र में यह सम्भव है। इसका मतलब यह हुआ कि यदि काम करने वालों को उचित प्रोत्साहन दिया जाए तो वे बेहतर परिणाम दे सकते हैं। भारत में एक औसत छोटा दुकानदार जितनी मेहनत से रोजाना काम करता है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि उद्यमिता में भी हम पीछे नहीं हैं। देश में पूरी खेती निजी क्षेत्र में है। किसान की मेहनत और ईमानदारी पर कोई शक नहीं, जबकि उसे मदद देने वाली सरकारी एजेंसियाँ उसे हतोत्साहित करने में कसर नहीं छोड़तीं। ऐसा क्यों है?
फिर भी मेरा देश महान
इस कहानी का दूसरा पहलू भी है। देश का कोई शहर या कस्बा नहीं है, जिसमें सड़कों-चौराहों पर स्कूटर, मोटर साइकिल, ट्रक रोककर पुलिस वाले वसूली करते नज़र न आते हों। जिस रोज़ यह दृश्य बंद हो जाएगा देश के दूसरे तबके भी कार्य-कुशल हो जाएंगे। पूरा देश ट्रकों से पाँच-दस के नोट लेकर बाहर निकले हाथ देखता है। इससे अपनी व्यवस्था पर हमारा अविश्वास पुष्ट होता है। क्या हम इस अविश्वास को दूर कर पाएंगे?
कुछ साल पहले एक नारा चला था, ‘सौ में 98 बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान।’ इस नारे में तकनीकी दोष है। सौ में 98 बेईमान हैं ही नहीं। सौ में 98 ईमानदार हैं और ईमानदारी से व्यवस्था को कायम करना चाहते हैं। सच यह है कि हम सड़कों पर पुलिस वालों को वसूली करते, गुंडों-लफंगो को उत्पात मचाते, दफ्तरों में कामचोरी होते देखते हैं। हम सोचते हैं कि इनपर काबू पाने की जिम्मेदारी किसी और की है। हमने खुद को भी बेईमान मान लिया तो शिकायत किससे करेंगे? यह व्यवस्था आपकी है।
वस्तुतः चुनाव हमारी जिम्मेदारी का पहला पड़ाव है। हमने देखा, जिस काम पर जनता की निगाहें हैं वहाँ सरकारी कर्मचारी भी जिम्मेदारी से काम करते हैं। पब्लिक स्क्रूटनी वह मंत्र है, जो लोकतंत्र को उसका मतलब देता है। हम सब जब मिलकर सोचने लगते हैं तब काम को पूरा होते देर नहीं लगती। जब उदासीन हो जाते हैं तो सब बिखर जाता है। इसमें पत्रकारिता और साहित्य-संस्कृति की भूमिका भी है। पर क्या हम वह सब कर पा रहे हैं, जो किया जा सकता है? बेशक जादू की छड़ी की तरह कोई चमत्कार नहीं होगा। पर आप सोचेंगे तो हालात बदलेंगे। 
पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान एक विज्ञापन लोकप्रिय हो रहा था जिसकी एक लाइन थी, ‘चुनावों में चूना लगाविंग, नो उल्लू बनाविंग-नो उल्लू बनाविंग।’ यह बदलते वक्त का गीत था। चुनाव लोक-लुभावन वादों का मौका पैदा करता है, पर हमें संजीदा विमर्श चाहिए। इन दिनों जिन राज्यों में चुनाव-प्रचार चल रहा है वहाँ सभाओं में भीड़ जमा करने के लिए बार बालाओं के डांस कराए जा रहे हैं। क्या यह जनता की माँग है? यह सच है कि हमारे वोटरों का काफी बड़ा हिस्सा नासमझ, नादान है। उसकी नादानी का फायदा लेने की कोशिशें भी होंगी। इसका निराकरण शिक्षा के प्रसार से ही संभव है। और यह प्रवृत्ति दूर होगी।
दिसम्बर 2012 में दिल्ली गैंगरेप के बाद आगे बढ़कर स्त्रियों और नौजवानों ने जिस प्रकार अपने गुस्से का इज़हार किया वह भारत के ही नहीं दुनिया के इतिहास में बेमिसाल था। दिल्ली में आम आदमी की सफलता के पीछे यह ताकत थी। कहा जा सकता है कि दिल्ली को समूचा भारत नहीं माना जा सकता। पर सच यह है कि दिल्ली में सड़कों पर उतरे युवा पूरे देश के प्रतिनिधि थे। वे केवल दिल्ली के नौजवान नहीं थे। महिलाओं की सार्वजनिक जीवन में भागीदारी बढ़ रही है। उन्हें समझ में आ रहा है कि बदलाव का रास्ता राजनीति के गलियारों से होकर गुजरता है।
साफ-सुथरी राजनीति
किसी को यकीन नहीं होगा, पर यह एक नया सच है। देश में धार्मिक और जातीय आधार पर राजनीति अब ज्यादा लम्बे समय तक नहीं चलेगी। शिक्षा और जानकारी का प्रसार वोटर को जागरूक बनाने में कामयाब होगा। भले ही आज वह इस बात को अच्छी तरह न समझता हो कि असली सवाल हमारी जिंदगी और रोजी-रोटी से जुड़ा है। आपराधिक छवि के प्रत्याशियों पराजय आज नहीं हो रही है तो कल होगी। यह सब इसलिए कि जनता की भागीदारी वास्तविक अर्थ में बढ़ रही है। वह अब अँगूठा छाप जनता नहीं बनना चाहती। दुनिया के विकसित लोकतंत्र भी कभी इन्हीं स्थितियों से गुजरे हैं।
भारत जब लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर कदम बढ़ा रहा था उस समय सिर्फ़ गोरी नस्ल, अमीर, ईसाई और एक भाषा बोलने वाले देशों में ही सफल लोकतांत्रिक व्यवस्था मौजूद थी। भारत पहला देश है जो इन सारे गुणों से मुक्त है, फिर भी सफल लोकतंत्र है। लोकतंत्र बहुत पुरानी राज-पद्धति नहीं है। यह औद्योगिक क्रांति के साथ विकसित हुई है और अभी उसका विकास हो ही रहा है। तीसरी दुनिया के देशों में इसका धर्म, सेना और कबायली परम्पराओं के साथ घाल-मेल भी हो गया है।
पश्चिमी देशों में इस पद्धति के प्रवेश के लिए जनता के एक वर्ग को आर्थिक और शैक्षिक आधार पर चार कदम आगे आना पड़ा। आर्थिक रूप से भी हम उन्नत नहीं है, पर हमारी राज-व्यवस्था आज के पश्चिमी लोकतंत्र से टक्कर लेती है। विकासशील देशों में निर्विवाद रूप से हमारा लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ है। अपने आसपास के देशों में देखें तो पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मालदीव, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और नेपाल में लोकतंत्र पर खतरा बना रहता है। पश्चिमी लोकतंत्र के बरक्स भारतीय लोकतंत्र विकासशील देशों का प्रेरणा स्रोत है।
मजबूत जनमत की जरूरत
लोकतंत्र की सफलता के लिए भी एक स्तर का आर्थिक विकास होना चाहिए। आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक विकास इस व्यवस्था के स्वास्थ्य की पहली शर्त है। उसके पहले व्यक्ति का स्वास्थ्य। भारत ने नागरिक को शिक्षा का अधिकार दिया और अब स्वास्थ्य के अधिकार की तैयारी है। ये सारे अधिकार अभी प्रतीक रूप में ही हासिल हुए हैं। आने वाले दिनों में जनता इनकी व्यवहारिकता का जवाब अपनी सरकारों से माँगेगी। इन जवाबों को माँगने के लिए हमें मजबूत जनमत की जरूरत है, जो यकीनन तैयार हो रहा है। इस राजनीति के कारण ही यह बात सामने आ रही है कि विकास का लाभ हर इलाके तक नहीं पहुँचाया जाएगा तो बागी ‘लाल गलियारे’ तैयार हो जाएंगे। यही राजनीति उन इलाकों की बात को देश की संसद तक लेकर आएगी।
हाल में पाँच राज्यों में चुनाव की घोषणा के दो रोज पहले सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि धर्म, जाति और भाषा के नाम पर वोट मांगना गैर-कानूनी है। इसलिए यह देखना भी रोचक होगा कि चुनाव आयोग इस प्रवृत्ति पर किस तरह से रोक लगाएगा। इन आधारों पर चुनाव लड़ने पर पहले से रोक है। सुप्रीम कोर्ट के 7 सदस्यीय संविधान पीठ ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(3) की व्याख्या भर की है। इसमें अदालत ने स्पष्ट किया कि उम्मीदवार के साथ-साथ दूसरे राजनेता, चुनाव एजेंट और धर्मगुरु भी इसके दायरे में आते हैं।
भारत की चुनाव-प्रक्रिया काफी कुछ काले धन के सहारे चलती है। बाकी क्षेत्रों में काले धन का इस्तेमाल तभी कम हो सकता है, जब राजनीति की कोठरी से कालिख हटे। चुनाव आयोग की सलाह है कि राजनीतिक दलों के चंदे को पारदर्शी बनाया जाना चाहिए। उसके अनुसार 2000 रुपये तक के चंदे को भी रिकॉर्ड में लाना चाहिए। पर यह फैसला सरकार को करना है, जिसके लिए आयकर कानूनों में संशोधन करना होगा। पिछले 65 साल में चुनाव सुधार का ज्यादातर काम चुनाव आयोग की पहल पर हुआ या अदालतों के दबाव के कारण। कुछ साल पहले तक हम बूथ कैप्चरिंग और रिगिंग से परेशान थे। आज हम उस दोष से मुक्त हैं। उम्मीद है कि आज के दोष कल दूर होंगे।

 हरिभूमि की रविवारीय पत्रिका में प्रकाशित 22 जनवरी 2017

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