Thursday, January 16, 2014

‘आप’ की तेजी क्या उसके पराभव का कारण बनेगी?

दिल्ली में 'आप' सरकार ने जितनी तेजी से फैसले किए हैं और जिस तेजी से पूरे देश में कार्यकर्ताओं को बनाना शुरू किया है, वह विस्मयकारक है। इसके अलावा पार्टी में एक-दूसरे से विपरीत विचारों के लोग जिस प्रकार जमा हो रहे हैं उससे संदेह पैदा हो रहे हैं। मीरा सान्याल और मेधा पाटकर की गाड़ी किस तरह एक साथ चलेगी? इसके पीछे क्या वास्तव में जनता की मनोकामना है या मुख्यधारा की राजनीति के प्रति भड़के जनरोष का दोहन करने की राजनीतिक कामना है?  अगले कुछ महीनों में साफ होगा कि दिल्ली की प्रयोगशाला से निकला जादू क्या देश के सिर पर बोलेगा, या 'आप' खुद छूमंतर हो जाएगा?

फिज़ां बदली हुई थी, समझ में आ रहा था कि कुछ नया होने वाला है, पर 8 दिसंबर की सुबह तक इस बात पर भरोसा नहीं था कि आम आदमी पार्टी को दिल्ली में इतनी बड़ी सफलता मिलेगी। ओपीनियन और एक्ज़िट पोल इशारा कर रहे थे कि दिल्ली का वोटर ‘आप’ को जिताने जा रहा है, पर यह जीत कैसी होगी, यह समझ में नहीं आता था। बहरहाल आम आदमी पार्टी की जीत के बाद से यमुना में काफी पानी बह चुका है। पार्टी की इच्छा है कि अब राष्ट्रीय पहचान बनानी चाहिए। पार्टी अपनी सफलता को लोकसभा चुनाव में भी दोहराना चाहती है। 10 जनवरी से देश भर में ‘आप’ का देशव्यापी अभियान शुरू होगा। इस अभियान का नाम ‘मैं भी आम आदमी’ रखा गया है। सदस्यता के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाएगा।

पार्टी मार्च में लोकसभा चुनावों के लिए अपना घोषणापत्र भी जारी करेगी। दिल्ली के बाद ‘आप’ अब हरियाणा में भी सरकार बनाना चाहती है। पार्टी के नेता योगेंद्र यादव के अनुसार हरियाणा में विधानसभा चुनाव अक्तूबर में होने हैं लेकिन खबरें है कि वहाँ चुनाव समय से पहले या लोकसभा चुनाव के साथ कराए जा सकते हैं, ऐसे में पार्टी लोकसभा की सभी 10 सीटों और विधानसभा की 90 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। ‘आप’ के साथ जुड़ने के लिए जीवन के सभी क्षेत्रों के लोग सामने आ रहे हैं। कॉरपोरेट जगत की बड़ी हस्तियों के नाम भी इनमें शामिल हैं। बैंकर मीरा सान्याल और इन्फोसिस के पूर्व सीएफओ वी बालाकृष्णन आप में शामिल हुए हैं। सान्याल ने हाल में रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड के सीईओ और अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दिया है। वैसे सान्याल पहले भी राजनीति में आने की कोशिश कर चुकी हैं। सन 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने मुंबई दक्षिण से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा था। उधर बालाकृष्णन ने हाल में इन्फोसिस के चीफ फाइनेंस ऑफिसर के पद से इस्तीफा दिया है। वे कम्पनी के सीईओ की रेस में भी शामिल बताए जा रहे थे।

पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्‍त्री के पोते आदर्श शास्त्री, पूर्व समाजवादी नेता कमाल फारुकी और पूर्व कांग्रेस नेता अलका लांबा भी पार्टी में प्रवेश कर चुके या प्रवेश की तैयारी कर रहे नेताओं में शामिल है। कांग्रेस, भाजपा और शायद वामपंथी खेमे के कुछ और लोग इसके साथ आएं तो विस्मय नहीं, पर इसमें शामिल होने वाले ज्यादातर लोग गैर-राजनीतिक, कलाकार, वैज्ञानिक, खिलाड़ी और लेखक-पत्रकार हो सकते हैं। इस बात को कुछ लोगों ने पसंद किया है और कुछ को यह बात नागवार गुजरी है। खास चेहरों का क्या आम आदमी पार्टी से टकराव है? कोई इसे राजनीति में क्रांति लाने वाली पार्टी बता रहा है, तो कोई जनता की आवाज उठाने वाली पार्टी। काफी लोग मानते हैं कि आप एनजीओ संस्कृति की पार्टी है, जो अंततः देश के कॉरपोरेट सेक्टर के हितों की पूर्ति करेगी। देखना यह है कि वह सामान्य जनता के हितों की बात किस तरह उठाती है। दूसरे यह कि इस पार्टी के बहाने हम राजनीति को वर्गों, जातियों और धर्मों की व्याख्या से बाहर कर पाते हैं या नहीं। आप में शामिल होकर खास लोग अपने एजेंडे को पूरा करेंगे या व्यवस्था को मानवीय और कार्यकुशल बनाने में मददगार होंगे, यह देखने वाली बात है।

‘आप’ की प्रयोगशाला
‘आप’ के पास प्रयोग करने का समय है। दिल्ली छोटी सी प्रयोगशाला है। प्रयोग सफल रहा तो उसे देश के दूसरे इलाकों में भी जाना होगा। हालांकि उसकी अपील छोटे शहरों और गाँवों तक जा पहुँची है, पर असर महानगरों में ही दिखाई पड़ता है। लोकसभा की 542 में से 216 सीटें शहरी या अर्ध शहरी हैं। ‘आप’ यदि इनमें से 15-20 फीसदी यानी 30-40 सीट भी हासिल कर ले तो वह तीसरे नम्बर की पार्टी होगी। यह संख्या 50 से 100 के बीच पहुँच जाए तब भी आश्चर्य नहीं होगा, पर तब यह देखना होगा कि नुकसान किसका होगा। तीसरे मोर्चे की अवधारणा का सूत्र भी वह बन सकती है। माकपा के नेता प्रकाश करात ने आप की कई मामलों में तारीफ की है। ऐसा न हो तब भी आप के केंद्रीय राजनीति में ‘बैलेंसिंग फोर्स’ बनने की संभावनाएं हैं।

फिलहाल उसे अपने आर्थिक विचारों को स्पष्ट करना होगा। राष्ट्रीय धरातल पर आने पर राष्ट्रीय एकीकरण और सामाजिक-सांस्कृतिक सवालों से उसे रूबरू होना पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि उसने तमाम प्रश्नों पर विचार किए बगैर राजनीति में कदम नहीं रखे हैं। इस वैचारिक विस्तार के लिए उसे ज़मीनी अनुभव दिल्ली में मिलना शुरू हो गया है। पार्टी अब अपनी आर्थिक, विदेश और रक्षा नीति तैयार कर रही है। चूंकि वह लोकसभा चुनाव में उतर रही है, इसलिए राष्ट्रीय प्रश्नों पर उसका नजरिया साफ होना चाहिए। पार्टी कहती है कि तमाम प्रश्नों पर हमने उसने दिल्ली के चुनाव से पहले विचार किया था। इसे सार्वजनिक रूप से घोषित नहीं किया था।

पार्टी ने अपनी नीति का जो मसौदा तैयार किया है उसमें विभिन्न विषयों के प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने अपना योगदान दिया है। नीति बनाने के लिए पार्टी बाकायदा ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों की बड़ी टीम बनाई थी जिसने अपना ज्यादातर काम जुलाई 2013 में भी पूरा कर लिया था। पार्टी के अंदर विशेषज्ञों ने काफी विमर्श किया गया। न्यायिक सुधार की नीति का जो मसौदा तैयार किया गया है उसे बनाने का काम आप के संस्थापकों में शामिल शांतिभूषण की अध्यक्षता वाली समिति ने किया है। रक्षा नीति का काम एडमिरल रामदास के नेतृत्व में पूरा किया गया है। पार्टी जल्द ही अपनी आर्थिक, विदेश और रक्षा नीति की घोषणा करेगी। वह इन विषयों पर जनता की राय भी लेना चाहती है और जनता अगर आप की नीति में कुछ सुधार के लिए कहती है तो पार्टी इन बड़े विषयों पर अपनी नीति भी बदलेगी। पार्टी का यह मानना है कि आर्थिक नीति हो या विदेश नीति, सब जनता के लिए बनाई जाती है और अगर जनता को उसका कोई पक्ष पसंद नहीं आता है तो उसे सुधारा जाना चाहिए। शिक्षा पर भी उसने अलग नीति तैयार की है। जिसमें यह बताया गया है कि सरकारी स्कूल की दशा कैसे सुधारी जा सकती है। निजी स्कूलों की फीस के बारे में भी आप ने शिक्षा नीति में अपना दृष्टिकोण जाहिर किया है। न्यायिक सुधार पर भी समिति ने नीति बनाई है। अभी सारे विषयों पर पार्टी की नीति को लेकर जो सामग्री तैयार हुई है वह काफी पेजों में है। इसे छोटा रूप देकर लोगों की राय के लिए पेश किया जाएगा। जनता की राय मिलने के बाद उसे अपनी नीति के दस्तावेज में शामिल कर लेगी।

पहले ही कौर में मक्खी


आप सरकार ने आते ही दो-तीन बड़े फैसले किए हैं। पहला फैसला है एक निर्धारित सीमा तक मुफ्त पानी देने का और दूसरा है बिजली की दरों में कमी का। तीसरा फैसला है दिल्ली की बिजली कंपनियों के खातों के ऑडिट का। ये फैसले सरकार ने विश्वासमत लेने के पहले ही कर लिए थे। इन तीनों फैसलों को लेकर विपरीत धारणाएं भी सामने आई हैं। अर्थशास्त्री सुरजीत एस भल्ला का कहना है कि अंततः पानी के फैसले से होगा यह कि गरीबों की जेब से ज्यादा पैसा जाएगा और अमीरों को इसका लाभ मिलेगा। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि काफी बड़ी संख्या में लोगों के घरों में मीटर नहीं हैं। उन्हें अब बढ़ी दरों पर पैसा देना होगा। दूसरी और बेहतर आर्थिक पृष्ठभूमि वाले परिवारों के सदस्यों की संख्या कम होती है। वे पानी भी कम खर्च करते हैं। गरीबों के परिवार बड़े होते हैं। उन्हें एक सीमा के बाहर जाते ही पहले की तुलना में और ज्यादा पैसा देना होगा। बिजली की कीमतें प्रशासनिक कुशलता के सहारे कम नहीं की गईं हैं, बल्कि सब्सिडी की मदद से कम किया जा रहा है। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार के पास अब सामाजिक कल्याण के कार्यों के लिए पैसा कम होगा। हालांकि अभी इन बातों पर विचार करना या कोई बात निर्णायक रूप से कहना उचित नहीं होगा, पर विवाद के आधार तैयार हो रहे हैं।

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के रहने के लिए मकान और उनके तथा अन्य मंत्रियों के रहने के लिए गाड़ियों की व्यवस्था को लेकर मीडिया में सवाल उठाए गए। केजरीवाल को नई दिल्ली के भगवान दास रोड पर आवंटित किए गए फ्लैट को लेकर दिल्ली विधानसभा में हंगामा भी हुआ था। चूंकि पार्टी ने सादगी पर जोर दिया है, इसलिए से सवाल उठे हैं। पार्टी ने इसके पहले ऐसे सवालों पर सोचा भी नहीं होगा, पर ये व्यावहारिक सवाल हैं और इनके जवाब उसे खोजने होंगे। बहरहाल केजरीवाल ने भगवान दास रोड के मकान को लेने से इनकार करते हुए कहा कि अपने शुभचिंतकों की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होंने सरकारी बंगला न लेने का फ़ैसला लिया है।

केजरीवाल ने ट्वीट कर कहा, "दिल्ली सरकार द्वारा मुझे आवंटित किए गए घरों से बहुत से सामान्य लोग दुखी थे। मैं हमेशा कहता रहा हूँ कि मैं कोई विशेष व्यक्ति नहीं हूँ। मैं उनकी सेवा के लिए ही हूँ। उनकी इच्छाओं का सम्मान करते हुए मैंने उस घर को लेने से इनकार कर दिया है और दिल्ली सरकार से छोटा घर तलाशने के लिए कहा है।" उन्होंने आगे कहा, "लेकिन साथियों, मुझे अगल-बगल दो घरों की ज़रूरत होगी, जिनमें से एक को मैं दफ़्तर की तरह इस्तेमाल कर सकूं। इसके बिना मैं प्रभावहीन हो जाऊंगा।"

केजरीवाल ने यह भी कहा कि मंत्रियों के सरकारी वाहनों का इस्तेमाल करने पर विवाद सही नहीं है। उन्होंने कहा कि मंत्रियों को अपना काम करने के लिए सरकारी गाड़ी का इस्तेमाल करना ज़रूरी है, "हमने कभी नहीं कहा था कि हम सरकारी गाड़ी का इस्तेमाल नहीं करेंगे। हमने कहा था कि हम लाल बत्ती नहीं लगाएंगे और हम अपने वायदे पर कायम हैं।"

‘आप’ के नेतृत्व को अब अपने आंदोलनकारी खोल से बाहर निकलना होगा। आंदोलनकारी और सत्ताधारी के आचरण में समानता नहीं हो सकती। यह पहला मौका नहीं है, जब किसी आंदोलन से निकली पार्टी को राजनीतिक सफलता मिली है। असम आंदोलन के बाद वहाँ असम गण परिषद इसी तरह उभरी थी और बाद में सिमट गई। ‘आप’ के नेतृत्व और कार्यकर्ताओं के राजनीतिक प्रशिक्षण और परिपक्वता की जरूरत भी होगी।

अभी और चलेंगे तीखे तीर

हिंदी कहावत है ‘ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या डरना?’ आम आदमी पार्टी ने जोखिम उठाया है तो उसे इस काम को तार्किक परिणति तक पहुँचाना भी होगा। यह तय है कि उसे समर्थन देने वाली पार्टी ने उसकी ‘कलई खोलने’ के अंदाज़ में ही उसे समर्थन दिया है। और ‘आप’ के सामने सबसे बड़ी चुनौती है इस बात को गलत साबित करना और परंपरागत राजनीति की पोल खोलना। यह पार्टी परंपरागत राजनीति से नहीं निकली है। देखना होगा कि इसका आंतरिक लोकतंत्र कैसा है, प्रशासनिक कार्यों की समझ कैसी है और दिल्ली की समस्याओं के कितने व्यवहारिक समाधान इसके पास हैं? इससे जुड़े लोग पद के भूखे नहीं हैं, पर वे सरकारी पदों पर कैसा काम करेंगे? सादगी, ईमानदारी और भलमनसाहत के अलावा सरकार चलाने के लिए चतुराई की जरूरत भी होगी, जो प्रशासन के लिए अनिवार्य है। अब ‘आप’ को जितने भी काम करने हैं उनमें कदम-कदम पर कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के साथ समन्वय की जरूरत होगी। भाजपा के साथ न भी हो, कांग्रेस के साथ तो होगी। साथ ही साथ इन दोनों पार्टियों के तीखे तीरों का सामना भी करना होगा। क्योंकि वह इन दोनों का विकल्प बनकर उभरना चाहती है।

मुख्यधारा की पार्टियों को भी अब होश आया है। अब भाजपा और कांग्रेस ने आलोचना के स्वर तीखे कर दिए हैं। भाजपा इसे कांग्रेस और ‘आप’ की मिली-भगत बता रही है। वहीं कांग्रेस भविष्य में समर्थन वापस लेने के कारण अपनी जेब में रखना शुरू कर दिया है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली ने कहा कि हमने किसी व्यक्ति विशेष या पार्टी को समर्थन नहीं दिया है। दिल्ली के लोगों से किए गए वादों को समर्थन दिया है। जब तक ‘आप’ की सरकार दिल्ली के लोगों से किए गए वादों को पूरा करने के लिए काम करती रहेगी, तब तक उसे कांग्रेस का समर्थन मिलता रहेगा। विधानसभा में विश्वासमत का समर्थन करने के बावजूद कांग्रेस ने आप सरकार की आलोचना में कोई कसर नहीं छोड़ी।

क्या यह मोदी के खिलाफ मोर्चा है?

आम आदमी पार्टी के उदय के बाद एक धारणा यह बन रही है कि यह राजनीति नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव को रोकेगी। अभी तक कांग्रेस मानती थी कि नरेंद्र मोदी के कारण भाजपा को कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। पर राजस्थान का परिणाम दूसरी कहानी कह रहा है। कांग्रेस अब इस महीने राहुल गांधी को औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में घोषित करने जा रही है। यानी कि ‘राहुल बनाम मोदी’ मुकाबला खुलकर सामने आएगा। इसलिए बेहतर होगा कि मोदी पर निशाना लगाया जाए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नए साल पर अपने संवाददाता सम्मेलन में मोदी पर चोट भी की है।

दिल्ली में आम आदमी पार्टी की विजय के बाद कांग्रेस ने कहा है कि हम इस जीत से कुछ बातें सीखने की कोशिश करेंगे। कांग्रेस ने आप को विधानसभा में पूरा समर्थन भी दिया है। सवाल है कि क्या दिल्ली के वोटरों ने मोदी को नकार दिया है? दिल्ली शहर में मोदी का असर हुआ या नहीं, यह विवेचना का विषय है। पर इतना कांग्रेस की रणनीति है कि अपनी पार्टी को बचाना है तो मोदी को रोकना होगा। और मोदी को रोकने में ‘आप’ कारगर होगा। इधर ‘आप’ की ओर से आनंद कुमार और प्रशांत भूषण ने मोदी विरोध के वक्तव्य भी दिए हैं। इतने मात्र को ‘आप’ और कांग्रेस का गठबंधन कहना गलत होगा। पर कांग्रेस की रणनीति यह हो सकती है कि एक तरफ से ‘आप’ अपना काम करे और दूसरी तरफ से हम। शायद इसी रणनीति का हिस्सा है मोदी पर हुआ ताजा हमला। पर आप के लिए कांग्रेस के साथ जाना घातक होगा। उसकी सारी राजनीति अभी तक कांग्रेस सरकारों के विरोध में रही है। मूलतः यह राजनीति भाजपा के खिलाफ भी है, क्योंकि विरोध मुख्यधारा की राजनीति से है। ऐसे में किसी एक दल के साथ दाना आप के लिए दिक्कत तलब होगा। वहीं आप को गठबंधन राजनीति के बारे में कोई राय बनानी होगी। दिल्ली में उसने सरकार बनाने में जल्दबाजी की है। पर सरकार का यह अनुभव उसे भविष्य के लिए कुछ सबक दे गया है।

क्या शीला सरकार की जाँच होगी?

‘आप’ के अंतर्विरोधों की परीक्षा दिल्ली में ही होगी। उसके कार्यकर्ताओं ने शीला दीक्षित सरकार के खिलाफ कई तरह की जाँच शुरू कराने की बात कही है। कांग्रेस इस प्रकार की जाँच में सहयोग नहीं करेगी। ‘आप’ का जो भी एजेंडा होगा उसे सीमित समर्थन ही हासिल होगा। इधर शीला दीक्षित ने कहा है कि ‘आप’ हमारे समर्थन को ‘बिना शर्त’ न मानकर चले। हाँ यदि ‘आप’ ने वोटरों से कोई वादा किया है तो उसे पूरा करने का मौका मिलना चाहिए। सवाल है कौन से वादे? बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य वगैरह। ऊपर से जन लोकपाल। तकनीकी रूप से वह संभव नहीं। उसे लोकायुक्त मानकर चलें तब भी ‘आप’ का ‘जनलोकायुक्त’ क्या कांग्रेस और भाजपा को मंजूर होगा?

बिजली सस्ती करने की घोषणा तो कर दी पर उसे व्यवहारिक जामा पहनाने में समय लगेगा। खरीद के सिस्टम को व्यवस्थित करना एक बात है और सब्सिडी बढ़ाना दूसरी बात है। भारत के पावर सेक्टर सुधार व्यापक केंद्रीय नीति का हिस्सा हैं। दिल्ली विद्युत सुधार अधिनियम 2000 के तहत वितरण का निजीकरण हो चुका है। बिजली सप्लाई की स्थिति सुधरी है। कहना मुश्किल है कि ‘आप’ के पास इन सुधारों को बेहतर बनाने का कोई फॉर्मूला है या केवल लोक-लुभावन वादे हैं।

लगता है कि ‘आप’ की बुनियादी सुधारों पर आपत्ति नहीं है, बल्कि कंपनियों के तौर-तरीकों तथा सरकार से उनको मिल रहे प्रश्रय पर नाराज़गी है। पार्टी के संकल्प पत्र में लिखा है कि 2012 में बिजली कंपनियों ने 630 करोड़ रुपए का घाटा दिखाया था, लेकिन जब विद्युत नियामक आयोग ने इनके खातों की चेकिंग की तो इन्हें घाटा नहीं 3577 करोड़ रुपए का मुनाफा हुआ। बिजली कंपनियों के ऑडिट और मीटरों की जांच के लिए प्रशासनिक व्यवस्था करनी होगी। पर उसके पहले इस कार्य पद्धति को समझना होगा। इसी तरह 700 लिटर पानी हर परिवार को हर रोज़ मुफ्त में देना आसान है, पर उसके व्यावहारिक असर को भी समझना होगा।

दिल्ली में ‘आप’ की एमसीडी में उपस्थिति नहीं है, जबकि उसकी जो योजनाएं हैं, उन्हें तभी लागू किया जा सकता है जब एमसीडी उसके पास हो। जनता को तमाम कार्यों में भागीदार बनाने की योजना लोक-लुभावन है, पर उसे लागू कैसे करेंगे? संभावना यह भी है कि इस बीच मुख्यधारा की पार्टियाँ इस प्रकार के सुधारों को लागू कर देंगी, और उनका श्रेय खुल लेंगी। इसी तरह उसे देश भर के स्थानीय निकायों में अपनी उपस्थिति बनानी होगी।

प्रशासनिक कुशलता और ईमानदारी

कमीशनबाजी, पार्टी फंड और ऐसे ही दूसरे काम ‘आप’ रोक सकती है। और उसकी मूलभूत प्रशासनिक ईमानदारी के कारण पूर्ववर्ती सरकार के दोष सामने आए तो कहानी रोचक मोड़ ले लेगी। ‘आप’ का वादा है कि झुग्गी वालों को पक्के मकान दिए जाएंगे। अनधिकृत कॉलोनियों को नियमित किया जाएगा। महाराष्ट्र निधान सभा के 1995 के चुनाव में भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने झुग्गियों की जगह पक्के मकान देने का वादा किया था। इस वादे ने जादू का सा काम किया था। हालांकि वह वादा अव्यावहारिक था, पर उसने एक और मुम्बई में एक नया ‘वोट बैंक’ तैयार किया। साथ ही इस समस्या के समाधान खोजने की ओर नीति-निर्धारकों को प्रेरित किया।

दिल्ली में भी यह ‘वोट बैंक’ है। मुम्बई में 240 हेक्टेयर में फैली धारावी झुग्गी बस्ती के निवासियों को बहुमंजिला इमारतों में फ्लैट देने का वादा पूरा होने वाला है। धारावी पुनर्विकास प्राधिकरण इस योजना को तैयार कर रहा है। हांगकांग के विशाल स्लम ताई हांग का विकास भी इसी तर्ज पर हुआ था। दिल्ली सरकार भी इस दिशा में काम कर रही है। ‘आप’ को उसकी गति बढ़ानी होगी।

केंद्र के हाथ में है पूर्ण राज्य

दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए दिल्ली एनसीटी अधिनियम 1991 में संशोधन करना होगा। यह कानून 69 वे संविधान संशोधन के कारण वज़ूद में आया था। दिल्ली सरकार के पास पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन और समाज कल्याण जैसे काम है। ‘आप’ का वादा है कि दिल्ली में 500 नए स्कूल और अस्पताल खोले जाएंगे, पर कैसे? नए स्कूल खोलने के लिए ज़मीन देना दिल्ली सरकार के हाथ में नहीं है। ज़मीन, पुलिस और कानून-व्यवस्था केंद्र सरकार के पास है। इसमें बदलाव के लिए केवल कांग्रेस ही नहीं भाजपा के सहयोग की ज़रूरत भी होगी। ‘आप’ की शब्दावली में मुख्यधारा की पार्टियाँ चोर और भ्रष्ट हैं। वे सहयोग कैसे देंगी?

कोई ज़रूरी नहीं कि ‘आप’ के उदय के लिए हम अपनी राजनीति से पुराने उदाहरण खोजें। फिर भी कुछ लोगों ने उसे 1977 की जनता पार्टी या अस्सी के दशक की तेलुगु देशम पार्टी जैसा माना है। किसी ने उसे भ्रष्टाचार विरोध के कारण जय प्रकाश नारायण के आंदोलन का नया रूप माना है।

इतना जरूर लगता है कि नए सोशल मीडिया से जुड़े युवा वॉलंटियर ‘आप’ की बड़ी ताकत हैं। इनमें काफी युवा पश्चिमी देशों में काम करते हैं। उनके मन में भारत की प्रशासनिक व्यवस्था के दोषों को दूर करने की ललक है।

जनता से जुड़ाव और पारदर्शिता

इस पार्टी की दो बातें महत्वपूर्ण हैं। जनता से जुड़ाव और पारदर्शिता। भारतीय राजनेता आज भी सामंती दौर के निवासी लगते हैं। ‘आप’ का अपना कोई रेडीमेड विचार और दर्शन नहीं है। जो भी है बन और ढल रहा है। उसका ‘स्वराज’ नाम का दस्तावेज़ बुनियादी बातों का संकलन है। गांधी के ‘हिंद स्वराज’ की तर्ज पर कुछ अवधारणाओं के मर्म को छूने की कोशिश है। पर उसे क्रांतिकारी और व्यवस्था-विरोधी बदलाव की पार्टी मान लेना जल्दबाज़ी होगी।

भारी-भरकम विचारधारा से मुक्त होना उसकी कमज़ोरी नहीं, ताकत ही है। उसके भीतर नए विचारों को स्वीकार करने की सामर्थ्य है और वैचारिक आधार व्यापक है। उसका संदेश है कि मुख्यधारा की पार्टियां खुद को ओवरहॉल करें।

‘एकला चलो’ नहीं चलेगा

‘आप’ एक छोटा एजेंडा लेकर मैदान में उतरी थी। व्यापक कार्यक्रम अनुभव की ज़मीन पर विकसित होगा, बशर्ते वह खुद कायम रहे। उसे भ्रष्टाचार के आगे भी सोचना चाहिए। पार्टी जिन राजनीतिक अवधारणाओं पर चल रही है, उनमें गठबंधन की जगह नहीं है। क्या गठबंधन-राजनीति की अनदेखी की जा सकती है?

गठबंधन के लिए उसे परंपरागत राजनीति से हाथ मिलाना होगा, जो उसके पवित्रतावादी विचार के प्रतिकूल है। वह हमेशा विरोधी दल या प्रेशर ग्रुप के रूप में काम नहीं कर सकती। सत्ता में आना है तो गठबंधन के बारे में भी सोचना होगा।

‘मैंगो मैन’ और उसकी टोपी

गांधी टोपी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजों के प्रतिरोध का प्रतीक थी। स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय राजनीति में यह टोपी राजनेताओं के सिर पर लंबे समय तक रही। कांग्रेस की सफेद, समाजवादी पार्टियों की लाल और हरी, जनसंघ/भाजपा की केसरिया। अस्सी के दशक में जब राजनीतिक नेताओं ने धोती-कुर्ता छोड़कर सफारी सूट अपनाया तो यह टोपी छूट गई। सन 2010 में अचानक अन्ना हजारे नाम का नेता राष्ट्रीय मंच पर प्रकट हुआ। उसके सिर पर यह सफेद टोपी थी। इस टोपी ने ‘मैं हूँ अन्ना’ के नारे के साथ आंदोलनकारियों के सिर पर जगह बना ली।

जब आम आदमी पार्टी बनी तो उसने इस टोपी को अपनाया। सिर्फ नारा बदल गया। अब सिर पर लिखा है ‘मैं हूँ आम आदमी।’ लंबे समय तक ‘आम आदमी’ या ‘मैंगो मैन’ मज़ाक का विषय बना रहा। अब यह मज़ाक नहीं है। टोपी पहने मैंगो मैन राजनीतिक बदलाव का प्रतीक बनकर सामने आया है। आने वाले कुछ हफ्तों में देश के बड़े शहरों में इन टोपियों की खपत अचानक बढ़ जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। चार राज्यों के चुनाव परिणाम का सबसे परिणाम होगा शहर-शहर ‘आप’ की शाखाएं। ‘आप’ आंदोलन के पीछे ‘अरब-स्प्रिंग’ से लेकर ‘ऑक्यूपेशन वॉल स्ट्रीट’ तक के तार जुड़े हैं। भारतीय नाराज़गी के वैश्विक संदर्भ हैं या नहीं, अभी कहना मुश्किल है। पर व्यवस्था के अंतर्विरोध इसने उजागर किए हैं।

मोटे तौर पर कांग्रेस, भाजपा और ‘आप’ तीनों के लिए ये परिणाम कुछ न कुछ सोचने के लिए छोड़ गए हैं। क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए भी यह विचार का समय है। यदि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे पारंपरिक राजनीति के गढ़ों में जाति और संप्रदाय से मुक्त किसी नई ताकत का जन्म होगा तो उसका स्वरूप कैसा होगा? पर उससे पहले सवाल है कि क्या ये इलाके इस किस्म की राजनीति के लिए तैयार हैं?
राज माया में प्रकाशित

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पार्टी को विभिन्न विचारधाराओं और राजनीतिक सोच वाले लोगों से परहेज़ नहीं है. उसकी एकमात्र शर्त ईमानदारी हो सकती है. पार्टी नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी कहते हैं कि सभी सही और ईमानदार लोग पार्टी में आमंत्रित हैं.

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