Friday, June 14, 2013

खेल जब पेशा है तो ‘फिक्सिंग’ भी होगी

खेल को पेशा बनाने का नतीजा

सतीश आचार्य का कार्टून


स्पॉट फिक्सिंग मामले में जेल से छूटने के बाद एस श्रीशांत ने कहा कि मैं इस प्रकरण को कभी नहीं भूलूँगा। इसने मुझे कई चीजें सिखाई हैं। श्रीशांत, अंकित चह्वाण और अजित चंडीला को एक आप खारिज कर दीजिए, भर्त्सना कीजिए। पर सब जानते हैं कि इस पापकर्म के वे सूत्रधार नहीं हैं। अपने पैरों पर कुल्हाड़ी इन्होंने मारी है। इनके पास इज़्जत, शोहरत और पैसे की कमी नहीं थी। खेल जीवन में यह सब इन्हें मिलता। फिर भी इन्होंने अपना करियर चौपट करना मंज़ूर किया। किस लालच ने इन्हें इस गलीज़ रास्ते पर डाला? उसी क्रिकेट ने जिसे यह खेल समझ कर आए थे। हमारे जीवन में पहले से मौज़ूद फिक्सिंग शब्द को आईपीएल ने नया आयाम दिया है। यह अति उत्साही कारोबारियों का कमाल है, जिन्होंने सब देखा उस गड़्ढे को नहीं देखा जिसपर उनके कदम पड़ चुके हैं।

खेल का रिश्ता समाज के स्वास्थ्य से है। पर खेल की जगह अनैतिक, अंधे धंधे ने ले ली है। सट्टेबाज़ी से तीन काम हुए। इसमें घुसी राजनीति, पैसे के खुले खेल और पूरे कुएं में पड़ी भाँग का पर्दाफाश हुआ है। दो-चार को पकड़ कर इस बीमारी का इलाज होने से रहा। इसका रिश्ता हमारे सांस्कृतिक जीवन, के अलावा राजनीतिक और कारोबारी मर्यादाओं से है। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि पिछले तीन साल में जितने घोटाले हुए हैं उनके पात्र घूम-फिरकर खेल से जुड़ जाते हैं।

जिन दिनों क्रिकेट की सट्टेबाज़ी की खबरें हवा में थीं, उन्हीं दिनों अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पिक कमेटी (आईओसी) की एक टीम के साथ  खेलमंत्री जितेन्द्र सिंह की मुलाकात हुई और ओलिम्पिक में वापसी का रास्ता साफ हुआ। पिछले साल दिसम्बर में भारतीय ओलिम्पिक महासंघ (आईओए) के चुनाव होने के पहले ही अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पक कमेटी (आईओसी) ने भारतीय ओलिम्पिक महासंघ की मान्यता खत्म कर दी थी। देश का शायद ही कोई खेल संघ हो जिसमें राजनीतिक खींचतान न होती हो और जिसका कामकाज सामान्य रूप से चलता हो। खेल व्यवस्था में सबसे ऊँचे पदों पर वे लोग जा बैठे हैं, जिनका खेल से वास्ता नहीं है।

एवेरी ब्रंडेज सन 1952 से 1972 तक अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पिक कमेटी के अध्यक्ष रहे। उनका निश्चय था कि अपने जीते जी ओलिम्पिक खेलों को पेशेवर नहीं बनने देंगे। सन 1972 में उनके रिटायर होने के बाद ओलिम्पिक खेलों में विज्ञापनों, प्रसारण अधिकारों और स्पॉँसरों का प्रवेश हो गया। सन 1972 में आईओसी के पास कुल 20 लाख डॉलर थे, जो 1980 में बढ़कर साढ़े चार करोड़ डॉलर हो गए। इसके बाद अकेले 1984 के लॉस एंजेलस खेलों की कमाई साढ़े बाईस करोड़ डॉलर थी। दुनिया भर के खेल संस्थान आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना चाहते हैं, पर इस लालच में वे कॉरपोरेट शिकंजे में फँस गए हैं।  

आज दुनिया के ज्यादातर खेल पेशेवर हैं। खेलना पेशा है और खेलों का आयोजन उससे भी बड़ा पेशा। इसका फायदा खेलों और खिलाड़ियों दोनों को मिला। उन्हें अच्छा पैसा मिलने लगा। दर्शक भी खुश हुए। उनका मनोरंजन बेहतर होने लगा। प्रतियोगिताएं बढ़ीं। इसके सहारे उपभोक्ता सामग्री का बाज़ार बढ़ा। मीडिया हाउसों की कमाई बढ़ी। कवरेज बढ़ी। उसका स्तर बेहतर हुआ। लेखकों, पत्रकारों, संवाददाताओं, विश्लेषकों, कमेंटेरों, फोटोग्राफरों की कमाई बढ़ी। पर इसके अंतर्विरोध भी पैदा हुए। सन 1998 में यह बात सामने आई कि आईओसी के अनेक सदस्यों ने सन 2002 के विंटर ओलिम्पिक के आयोजन के लिए सॉल्ट लेक सिटी के आयोजकों से घूस ली। सन 2012 के लंदन ओलिम्पिक खेलों को लेकर भी आरोप लगे। एवेरी ब्रंडेज को पता था कि खेल-प्रतिष्ठानों के पास साधन नहीं हैं। पर वे जानते थे कि जैसे ही कॉरपोरेट दुनिया के लिए खेल के मैदान खुलेंगे, धंधेबाजी सबसे पहले घुसेगी।

फॉर्मूला वन रेस को लें। यह खेल से ज्यादा कारोबार है। इसे संचालित करने वाली संस्था बर्नी एकलस्टोन के पारिवारिक ट्रस्ट की सम्पत्ति है। अरबों डॉलर के मुनाफे का यह कारोबार है। 28 जून 2000 को जेनेवा में हुई एक बैठक में अंतरराष्ट्रीय ऑटोमोबाइल फेडरेशन की विशेष बैठक में सत्तर देशों के प्रतिनिधियों ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास करके 31 दिसम्बर 2110 तक (यानी एक सौ साल से ज्यादा समय) तक के लिए इसके समस्त व्यावसायिक अधिकार फॉर्मूला वर्ल्ड चैम्पियनशिप लिमिटेड को सौंप दिए। परोक्ष रूप में ये अधिकार बर्नार्ड (बर्नी) चार्ल्स एकलस्टोन के पास हैं। और इनके साथ जुड़े तमाम विवाद हैं।

मोटर साइकिल और साइकिल रेस, फुटबॉल, टेनिस, बॉक्सिंग, गोल्फ, एथलेटिक्स, बास्केटबॉल वगैरह-वगैरह लगभग हर खेल पर व्यावसायिकता हावी है। इसी वजह से इनके कठोर नियमन की ज़रूरत है। यह नियमन सरकारें नहीं कर सकतीं। माना जाता है कि खेल प्रशासन सरकारी दबावों से मुक्त होना चाहिए। इसका मतलब खेल संस्थाओं को छुट्टा छोड़ना भी तो नहीं। भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता ने इसका कारोबार चलाने वालों को बेशुमार पैसा और ताकत दी है। इस ताकत ने बीसीसीआई का एकाधिकार कायम किया है। सत्ता के गलियारों में माना जाता है कि केंद्रीय मंत्री अजय माकन को खेल मंत्रालय से इसलिए हाथ धोना पड़ा, क्योंकि वे बीसीसीआई पर फंदा कसने की कोशिश कर रहे थे। अजय माकन जब खेलमंत्री थे तब उन्होंने माँग की थी कि बीसीसीआई खुद को आईपीएल से अलग करे। अगस्त 2011 में उन्होंने कैबिनेट के सामने राष्ट्रीय खेल विकास अधिनियम 2011 का मसौदा रखा, जिसका उद्देश्य खेल संघों के काम काज को पारदर्शी बनाना था। इसके चौदह-पन्द्रह संशोधित प्रारूप बने, पर कानून नहीं बना। बीसीसीआई इज़ारेदार संस्था है। यह बेहद ताकतवर लोगों की जमात है, जिसके शीर्ष पर क्रिकेटरों से ज्यादा राजनीतिक नेता बैठे हैं।

आईपीएल ने सांस्कृतिक-ज़हर घोलने का काम भी किया है। इन खेलों से रात की पार्टियाँ अनिवार्य रूप से जुड़ी हैं। और उनसे जुड़े हैं सांस्कृतिक विवाद। पिछले साल मुम्बई के वानखेडे स्टेडियम में शाहरुख खान को लेकर विवाद खड़ा हुआ। फिर एक विदेशी लड़की को लेकर झगड़े को लेकर पुलिस केस बना। यह विषद चक्र नहीं टूटा तो सब बढ़ता जाएगा।

3 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन रक्तदान है महादान - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. प्रमोद जी -इस सट्टेबाजी के लिए आज की आधुनिक सोच भी है जो चाहती है कि कम से कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा अपनी शोहरत को को भुना डालो सार्थक पोस्ट .आभार .
    हम हिंदी चिट्ठाकार हैं

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