Friday, October 7, 2011

एक और अंत का प्रारम्भ !!!


न्यूयॉर्क की वॉल स्ट्रीट अमेरिका के फाइनेंशियल मार्केट की प्रतीक है। न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज और नासदेक समेत अनेक स्टॉक एक्सचेंज इस इलाके में हैं। बीस दिन से अमेरिका में एक जन-आंदोलन चल रहा है। इसका नाम है ‘ऑक्यूपाई द वॉल स्ट्रीट।‘ यह आंदोलन न्यूयॉर्क तक सीमित नहीं है। वॉशिंगटन, लॉस एंजेलस, सैन फ्रांसिस्को, बोस्टन, शिकागो, अलबर्क, टैम्पा, शार्लेट, मिज़ूरी, डेनवर, पोर्टलैंड और मेन जैसे शहरों में इस आंदोलन का विस्तार हो चुका है। हालांकि इसमें शामिल लोगों की तादाद बहुत बड़ी नहीं है, पर धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। भारतीय मीडिया की नज़र अभी इस तरफ नहीं पड़ी है। पड़ी भी है तो उसे वह महत्व नहीं मिला जो इस किस्म की खबर को मिल सकता है। अमेरिकी मीडिया ने भी कुछ देर से इस तरफ ध्यान दिया है। पिछले हफ्ते न्यूयॉर्क के ब्रुकलिन ब्रिज पर आंदोलनकारियों और पुलिस के बीच भिड़ंत भी हुई और करीब 700 प्रदर्शनकारी पकड़े गए।


मिस्र के तहरीर चौक के तर्ज पर 17 सितम्बर से शुरू हुआ शुरू हुआ यह आंदोलन भारत के अन्ना आंदोलन जैसा भी है, पर इसकी माँग उस तरह साफ और फोकस्ड नहीं है। अलबत्ता जनता का गुस्सा प्रकट हो रहा है। आंदोलन के मूल में यह गहरी धारणा है कि राजनीति और पैसे वालों के गठजोड़ से सामान्य नागरिक का जीना हराम है। राजनीतिक व्यवस्था अमीरों के हित में काम कर रही है। सरकार में भारी भ्रष्टाचार है। बड़े कॉरपोरेट हाउस सरकार चला रहे हैं। बैंकों ने जनता को धोखा दिया है। उनके अफसर खुद भारी-भरकम बोनस उठा रहे हैं और हमारी बचत का पैसा हड़प कर गए हैं। बढ़ती बेरोजगारी और घटती सुविधाओं के खिलाफ जनता की बेचैनी इसमें व्यक्त हो रही है।

सन 1989 में अमेरिकी अर्थशास्त्री जॉन विलियम्स ने शब्द गढ़ा ‘वॉशिंगटन कंसेंसस’। विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और अमेरिकी वित्त मंत्रालय ने मिलकर विकासशील देशों, खासतौर से लैटिन अमेरिकी देशों के ‘आर्थिक संकट’ के समाधान के लिए कुछ नीति-निर्देश तैयार किए गए। मोटे तौर पर इन देशों में बाजार-व्यवस्था को जमाने का निश्चय किया। देखते ही देखते आर्थिक मदद के साथ एक राजनीतिक पैकेज जुड़ गया, जो मूलतः आर्थिक क्षेत्र में निजीकरण को बढ़ावा देने वाला था। वॉशिंगटन कंसेंसस-प्रेरित इस ‘नव उदारवाद’ के छींटे भारत पर भी पड़े थे। उसके कुछ दिन पहले ही चीनी राजनीति और अर्थ-व्यवस्था ने अपना रास्ता बदला था। और रूस का सोवियत मॉडल बिखरने लगा था। उस साल यानी जनवरी 1991 में अमेरिका ने कुवैत पर इराकी कब्जे के विरोध में पहला हमला बोला था, उसे खाड़ी युद्ध कहते हैं। हालांकि उस कार्रवाई के पीछे संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव भी थे, पर वह मूलतः अमेरिका और उसके मित्र देशों की कार्रवाई थी। आर्थिक और राजनीतिक नीतियों को मिलाकर देखने से एक नए अमेरिकी वैश्विक दृष्टिकोण की झलक मिलती है, जिसमें धौंसपट्टी का भाव है।

इसे पूँजीवाद का वैश्विक विस्तार कहें या नव-साम्राज्यवाद या दुनिया का आर्थिक रूपांतरण? दुनिया औपनिवेशिक दौर से बाहर निकल चुकी है। बावजूद इसके इराक और अफगानिस्तान में हस्तक्षेप को रोका नहीं जा सका। ऐतिहासिक घटनाओं में एक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। पश्चिम एशिया में इस्रायल की स्थापना दूसरे विश्व युद्ध के बाद बने संयुक्त राष्ट्र की देन है। इस देश या दो देशों की स्थापना के पीछे भी सैकड़ों साल की क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं हैं। जिसे हम अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद कहते हैं, वह कुछ लोगों के लिए अन्याय के खिलाफ युद्ध है। वैचारिक स्तर पर अभी अनेक अवधारणाएं हैं। अमेरिकी धौंसपट्टी के भी अंतर्विरोध हैं और उससे मुकाबिल कोई वैश्विक ताकत नहीं है। क्रॉस फायर में सारी दुनिया फँसी है। फैसले दुनिया की जनता नहीं कुछ व्यवस्थाएं कर रहीं हैं। यह संयोग है या ऐतिहासिक परिस्थितियों का दबाव कि दुनिया के सबसे कमजोर लोकतांत्रिक क्षेत्रों से जनता की आवाजें सुनाई पड़ रहीं हैं। पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका और चीन में मौसम बदल रहा है। हालांकि इसे लोकतांत्रिक मेघों का गर्जन नहीं कह सकते, पर आहट ज़रूर है। इस लोकतांत्रिक लड़ाई के भी राजनीतिक निहितार्थ हैं। लीबिया और सीरिया में अमेरिकी हस्तक्षेप को ध्यान से देखने की ज़रूरत है।

इस वैश्विक घटनाक्रम को किसी एक वैश्विक सूत्र से समझने की घड़ी अभी नहीं आई है, पूँजी के वैश्वीकरण के अंतर्विरोध उभरने लगे हैं। अभी तक पूँजीवाद अपने अंतर्विरोधों को सुलझाने में कामयाब है। कम्युनिस्ट शब्दावली इसे वर्ग-युद्ध के रूप में समझाने का प्रयास कर रही है और नव-उदारवाद इसे सामान्य अंतर्विरोध मानता है। पर इसमें दो राय नहीं कि पूँजी के वैश्वीकरण की आड़ में वैश्विक कॉरपोरेट-कम्युनिटी, प्राइवेट बैंकिंग सिस्टम और प्राकृतिक साधनों के दोहन में लगे अंतरराष्ट्रीय कार्टल मिल-जुलकर काम कर रहे हैं। सरकारों पर भ्रष्ट तत्वों की मदद करने का आरोप सिर्फ भारत में ही नहीं लग रहा। पिछले चार साल से मंदी से निपटने के नाम पर सरकारें जो पैकेज दे रही हैं उनसे आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ नहीं रहीं हैं। इन पैकेजों का नीतिगत फैसला अलग-अलग देश खुद नहीं करते बल्कि जी-20 या इसी किस्म के अंतरराष्ट्रीय मंच पर करते हैं। अर्थ-व्यवस्था की शक्ल वैश्विक हो गई है इसलिए ऐसे फैसले स्वाभाविक भी हैं। पर लगता है कि झपटमार बेकाबू हैं।

अमेरिका के बाद यूरोप की बैंकिंग व्यवस्था के अंतर्विरोध खुलने लगे हैं। यूरोपीय यूनियन ने आर्थिक संकट के लिए जिम्मेदार सरकारों के खिलाफ सख्ती शुरू कर दी है। इसका असर सीधे जनता पर पड़ा है। जनता हैरान है। सरकारें अपने खर्च कम करने के लिए कल्याण कार्यों से हाथ खींच रहीं हैं। बैंकों और निजी कम्पनियों को बचाने के लिए बेल आउट पैकेज तैयार हो रहे हैं। यूरोप में आर्थिक संकट के कारण लाखों लोग बेरोज़गार हो गए हैं। आयरलैंड की अर्थव्यवस्था बहुत मजबूत मानी जाती थी, वहाँ बेरोजगारी अचानक बढ़ गई है। हाल में बैंकों के बेल आउट पैकेज के खिलाफ डबलिन में एक व्यक्ति ने सीमेंट से भरा ट्रक संसद भवन पर झोंक दिया। यूनान के डॉक्टरों और रेल कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। एथेंस की सड़कों पर प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच खूनी मुठभेड़ें होने लगी हैं। स्पेन के कामगारों ने रेलगाड़ियों और बसों का चक्का जाम कर दिया। ब्रसेल्स में तकरीबन एक लाख लोग विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए। स्लोवेनिया में हड़ताल के कारण सार्वजनिक सेवाएं ठप पड़ी हैं। विरोध प्रदर्शन फ्रांस, अइसलैंड और इंग्लैंड तक पहुँच गए हैं। कामगार अपनी नौकरियाँ जाने वेतन और सुविधाएं कम होने से परेशान हैं। उनकी नाराजगी इस बात से है कि यह आर्थिक संकट जिन नीतियों के कारण पैदा हुआ उन्हें बनाने वालों पर कार्रवाई नहीं हो रही है।

अमेरिका के शहरों में शुरू हुए आंदोलन के पीछे भी हताशा और गुस्से की अभिव्यक्ति है। उसके पास कोई साफ एजेंडा नहीं है। एक माँग यह उठ रही है कि राष्ट्रपति ओबामा एक आयोग बनाएं जो यह जन प्रतिनिधियों पर पैसे की ताकत को हावी होने से रोके। जनता को लगता है कि उसके प्रतिनिधि अमीरों के हाथ बिक गए हैं। लगभग वैसा ही जैसा भारत के अन्ना हजारे आंदोलन के दौरान सुनने को मिला था। कैप्चर द वॉल स्ट्रीट के नाम पर शामिल हो रहे लोगों के पास तमाम तरह की शिकायतों हैं। उनके पीछे कोई संगठन नहीं है। पर सोशल नेटवर्क साइटों के मार्फत संवाद हो रहा है। लोग अपने शहरों और कस्बों में आंदोलन शुरू करने की घोषणा कर रहे हैं। इसमें शामिल लोगों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं है, पर यह परम्परागत वामपंथी आंदोलनों से फर्क है। हाल में पायलटों की यूनियन और कुछ अन्य संगठनों के लोग भी इसमें शामिल हुए हैं। ज्यादातर लोग इस बात से मुतमइन हैं कि देश के एक प्रतिशत लालची लोगों की वजह से 99 फीसदी लोग परेशानी का शिकार हो रहे हैं। कहना मुश्किल है कि यह धारणा किसी राजनैतिक विचार की शक्ल लेगी या नहीं, पर विकासशील देशों के लिए तैयार किया गया वॉशिंगटन नुस्खा अब खुद अमेरिका के लिए समस्या खड़ी कर रहा है। उम्मीद थी कि अमेरिकी व्यवस्था समानता के सूत्र तैयार करेगी, पर तथ्य यह है कि अमेरिका दुनिया के सबसे असमान देशों की कतार में काफी आगे है। क्या ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट, ऑक्यूपाई अमेरिका में तब्दील होगा? मिलते हैं ब्रेक के बाद।

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर
    मर्मस्पर्शी प्रस्तुति ||
    शुभ विजया ||

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  2. very informative article

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  3. bahut badhiya post....abhar

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  4. bahut badiya sam-samyik prastuti hetu aabhar!

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