Saturday, April 27, 2019

‘सौ में नब्बे बेईमान’, फिर भी ‘वह सुबह तो आएगी’


गुरुवार की रात मीडियाकर्मी करन थापर अपने एक शो में कुछ लोगों के साथ बैठे नरेन्द्र मोदी और देश के चुनाव आयोग को कोस रहे थे। मोदी ने वर्धा में कहा कि कांग्रेस ने हिन्दुओं का अपमान किया है, उसे सबक सिखाना होगा। चुनाव आयोग ने तमाम नेताओं के बयानों पर कार्रवाई की है, मोदी के बयान पर नहीं की। चुनाव आयोग मोदी सरकार से दब रहा है। एक गोष्ठी में कहा जा रहा था, चुनाव में जनता के मुद्दे ही गायब हैं। पहली बार गायब हुए क्या? यह बात हर चुनाव में कही जाती है।
हरेक चुनाव के दौरान हमें लगता है कि लोकतंत्र का स्तर गिर रहा है। नैतिकता समाप्त होती जा रही है। यही बात हमने बीस बरस पहले भी कही थी। तब हमें लगता था कि उसके बीस बरस पहले की राजनीति उदात्त, मूल्यबद्ध, ईमानदार और जिम्मेदार थी। ऐतिहासिक दस्तावेजों को ठीक से पढ़ें, तो पाएंगे कि संकीर्णता, घृणा, स्वार्थ और झूठ का तब भी बोलबाला था।
वोटर की गुणवत्ता
जातिवाद, साम्प्रदायिकता, भावनाओं का दोहन, गुंडागर्दी, अपराधियों की भूमिका, पैसे का बढ़ता इस्तेमाल वगैरह-वगैरह। पर ये क्यों हैं? हैं तो इनके पीछे कोई वजह होगी। हम जिस सिस्‍टम की रचना कर रहे हैं, वह हमारे देश में तो नया है ही, सारी दुनिया में भी बहुत पुराना नहीं है। हमने क्यों मान लिया कि सार्वभौमिक मताधिकार जादू की छड़ी है, जो चमत्कारिक परिणाम देगा? हमारे विमर्श पर यह बात हावी है कि जबर्दस्त मतदान होना चाहिए। जितना ज्यादा वोट पड़ेगा, उतना ही वह जन-भावनाओं का प्रतिनिधित्व करेगा। यह जाने बगैर कि जनता की दिलचस्पी चुनाव में कितनी है? और सिस्‍टम के बारे में उसकी जानकारी का स्तर क्या है?

जम्हूरी जंग में मनोरंजन के महारथी


हाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वह टेलीविजन इंटरव्यू काफी चर्चित रहा, जो फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार ने लिया था. सवालों से ज्यादा चर्चा अक्षय कुमार की नई भूमिका को लेकर है. चुनाव के ठीक पहले अचानक तमाम सेलिब्रिटी राजनीति के मैदान में उतरे हैं. कुछ प्रचार के लिए और कुछ प्रत्याशी बनकर. राजधानी दिल्ली से क्रिकेटर गौतम गम्भीर, बॉक्सर विजेन्द्र सिंह और गायक हंसराज हंस मैदान में उतरे हैं. गायक मनोज तिवारी पहले से मैदान में हैं. मथुरा में हेमा मालिनी हैं और मुम्बई में उर्मिला मातोंडकर. दक्षिण में कलाकारों की भरमार है. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की मुनमुन सेन पहले से सांसद हैं, इसबार मिमी चक्रवर्ती समेत कई कलाकारों को पार्टी ने टिकट दिए हैं.
दिवंगत अभिनेता विनोद खन्ना की गुरदासपुर सीट से सनी देओल को बीजेपी टिकट मिलने की खबर भी मीडिया की सुर्खियों में है. खबर है कि कांग्रेस ने भी उन्हें टिकट देने की पेशकश की थी, पर सनी देओल ने बीजेपी को वरीयता दी. पिता धर्मेन्द्र के पदचिह्नों पर चलते हुए वे भी राजनीति के मैदान में उतरे हैं. धर्मेन्द्र राजस्थान की बीकानेर सीट से दो बार भाजपा के सांसद रहे हैं. उनकी पत्नी हेमा मालिनी मथुरा से सांसद हैं और फिर से चुनाव लड़ रहीं हैं.
बिहार के पटना साहिब से शत्रुघ्न सिन्हा चुनाव मैदान में हैं. उनकी पत्नी पूनम सिन्हा लखनऊ से चुनाव लड़ रहीं हैं. भोजपुरी फिल्मों के स्टार रवि किशन कांग्रेस से पाला बदलकर भाजपा में शामिल हो गए हैं और अब गोरखपुर से चुनाव लड़ रहे हैं. सेलिब्रिटी कलाकारों और खिलाड़ियों की लम्बी फेहरिस्त है, जिनकी दिलचस्पी राजनीति में बढ़ी है. सवाल है कि यह सब क्या है? क्या यह हमारे लोकतंत्र के उत्तम स्वास्थ्य की निशानी है?

Tuesday, April 23, 2019

दिल्ली में ज़ाहिर हुआ बीजेपी-विरोधी मोर्चे का कठोर सच

महीनों की बातचीत और गहमागहमी के बाद भी दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच समझौता नहीं हुआ और मुकाबला तिकोना होकर रह गया. यह स्थिति दोनों पार्टियों के खिलाफ और बीजेपी के पक्ष में है. इस तरह से बीजेपी-विरोधी मोर्चे के अंतर्विरोधों का निर्मम सत्य दिल्ली में खुलकर सामने आया है. जब आप दिल्ली में बीजेपी के खिलाफ एक नहीं हो सकते, तो शेष देश में क्या होंगे? 

दिल्ली का प्रतीकात्मक महत्व है. यहाँ सीधा मुकाबला होने पर राष्ट्रीय राजनीति में एक संदेश जाता, जिसकी अलग बात होती. दिल्ली के परिणामों का प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति में देखने को मिलता और अब मिलेगा.

वह कौन सी जटिल गुत्थी थी, जो दिल्ली में सुलझ नहीं पाई? आखिर क्या बात थी कि दोनों का गठबंधन नहीं हुआ? कांग्रेस कुछ पीछे हटती या ‘आप’ कुछ छूट देती, तो क्या समझौता सम्भव नहीं था?

अधकचरी समझ

लगता है कि दोनों तरफ परिपक्वता का अभाव है. पिछले कई महीनों से दोनों तरफ से ट्विटर-संवाद चल रहा था. कभी इसका ‘यू टर्न’ कभी उसका. कभी इसके दरवाजे खुले रहते, कभी उसके बंद हो जाते. पता नहीं आपस में बैठकर बातें करते भी थे या नहीं. दोनों तरफ से क्या असमंजस थे कि ऐन नामांकन तक भ्रम बना रहा? लगता है कि किसी निश्चय पर पहुँचे बगैर बातें हो रहीं थीं.

यूपी में सपा-बसपा और बिहार में बीजेपी-जेडीयू तथा महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना के गठबंधनों पर गौर करें, तो पाएंगे कि इन पार्टियों ने समय रहते न केवल गठबंधन किए, बल्कि किसी न किसी ने एक कदम पीछे खींचा. बीजेपी ने बिहार में अपनी जीती सीटों को छोड़ा, तो यह उसकी समझदारी थी. राजनीति में देश-काल के अनुसार ही फैसले होते हैं.

Sunday, April 21, 2019

एयरलाइंस का निर्मम कारोबार



करीब सवा सौ विमानों के साथ चलने वाली देश की दूसरे नम्बर की एयरलाइंस का अचानक बंद होना स्तब्ध करता है। साथ ही कुछ कटु सत्यों को भी उजागर करता है। यह क्षेत्र बहुत निर्मम है। पिछले साल मार्च में यह बात साफ थी कि जेट एयरवेज डांवांडोल है। उसे पूँजी की जरूरत होगी। उस वक्त सबसे ज्यादा चिंता उन संस्थाओं को होनी चाहिए थी, जिन्होंने भारी कर्ज दे रखा था। अब हमारे देश में दिवालिया कानून भी है। समय रहते प्रबंधकीय बदलाव होना चाहिए था, पर बैंकों को देर से बात समझ में आई। सवाल है कि अब क्या होगा?

एक सलाह है कि दिवालिया होने के कगार पर जा पहुंची कंपनी को डूबने देना चाहिए, भले ही उसका आर्थिक असर जो हो। दूसरी सलाह यह है कि सरकार को संकट में फँसी कंपनी की मदद करनी चाहिए। यह हमारी नियामक नीति की परीक्षा का समय भी है। कोई भी विदेशी एयरलाइंस भारतीय कंपनी में 49 फीसदी से अधिक हिस्सेदारी नहीं रख सकती। पर प्रबंधन के लिए कम से कम 51 फीसदी हिस्सेदारी जब तक नहीं होगी, कोई आगे नहीं आएगा।

Saturday, April 20, 2019

जनसंख्या-वृद्धि का सवाल लापता क्यों है?


देश की राजनीति में को लेकर चिंता के दो महत्वपूर्ण उदाहरण हमारे सामने हैं। पहला है, इमर्जेंसी के दौरान संजय गांधी के नेतृत्व में चला अभियान। और दूसरे हैं साक्षी महाराज जैसे बीजेपी के भड़काऊ नेताओं के बयान, जो ‘बढ़ती मुसलिम आबादी’ को देश की बड़ी समस्या मानते हैं। आबादी हमारी राजनीति में कभी गंभीर मुद्दा नहीं बनी। बढ़ती आबादी एक समस्या के रूप में किसी कोने में दर्ज जरूर है, पर उसपर ध्यान किसी का नहीं है। वस्तुतः ‘आबादी’ समस्या नहीं दृष्टिकोण है। 

आबादी की रफ्तार को रोकना हमारी समस्या है। दुनिया के कई इलाकों में रफ्तार बढ़ाने की समस्या है। हमें अपनी आबादी के हिसाब से योजनाएं बनाने की जरूरत है। नागरिकों की शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, परिवहन वगैरह-वगैरह। दुर्भाग्य से हम इस तरीके से दखने के आदी नहीं हैं। इस चुनाव में ही नहीं किसी भी चुनाव में हम आबादी और उससे जुड़े सवालों पर विचार नहीं करते। इस बार के चुनाव में राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों पर ध्यान दें, तो आप इस सवाल को अनुपस्थित पाएंगे।

बढ़ती आबादी

लोकसभा-चुनाव के ठीक पहले यूनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फंड-2019 रिपोर्ट जारी हुई है, जिसके मुताबिक पिछले नौ साल में भारत की जनसंख्या चीन के मुकाबले दुगनी रफ्तार से बढ़ी है। 2010 से 2019 के बीच भारत में 1.2% की सालाना दर से जनसंख्या बढ़ी है। जबकि इस दौरान चीन की जनसंख्या वृद्धि दर 0.5 प्रतिशत ही रही। रिपोर्ट के अनुसार भारत की वर्तमान जनसंख्या 136 करोड़ जबकि चीन की 142 करोड़। एक दशक के भीतर हम चीन को पीछे छोड़ देंगे। अनुमान है कि 2050 में भारत की जनसंख्या 1.69 अरब होगी और चीन की 1.31 अरब।

लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिहाज से हम चीन से आगे जरूर हैं, पर क्या हमारा लोकतंत्र अपनी जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं को समझता है? भारत की वर्तमान जनसंख्या 1.36 अरब है, जो 1994 में 94.22 करोड़ और 1969 में 54.15 करोड़ थी। यह तेज गति दरिद्रता की निशानी है। पर हमारी 27 फीसदी जनसंख्या 0-14 वर्ष और 10-24 वर्ष की आयु वर्ग में है, 67 फीसदी 15-64 आयु वर्ग की है। छह फीसदी 65 वर्ष और उससे अधिक आयु की है। युवाओं और किशोरों की संख्या के लिहाज से हम धनी हैं, पर तभी जब उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार का इंतजाम हो। देश और समाज की ताकत उसके सदस्यों से बनती है। ये युवा हमें दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बना सकते हैं, बशर्ते वे खुद ताकतवर हों।

Friday, April 19, 2019

पाकिस्तान क्यों है इस चुनाव का बड़ा मुद्दा?


भारतीय चुनावों में पाकिस्तान का मुद्दा कभी इतना महत्वपूर्ण बनकर नहीं बना,  जितना इसबार नजर आ रहा है. इसकी एक वजह 14 फरवरी के पुलवामा हमले को माना जा रहा है. इसके पहले 1999 के करगिल कांड और 2008 के मुम्बई हमले के बाद भी चुनाव हुए थे, पर तब इतनी शिद्दत से पाकिस्तान चुनाव का मुद्दा नहीं बना था, जितना इस बार है. 1999 के लोकसभा चुनाव करगिल युद्ध खत्म होने के दो महीने के भीतर हो गए थे, इसबार चुनाव के दो दौर पूरे हो चुके हैं फिर भी पाकिस्तान और आतंकवाद अब भी बड़ा मसला बना हुआ है. 
यह भी सच है कि नरेन्द्र मोदी और बीजेपी को पाकिस्तानी फैक्टर से लाभ मिल रहा है, पर सवाल है कि यह इतना महत्वपूर्ण बना ही क्यों? कुछ लोगों को लगता है कि पुलवामा कांड जानबूझकर कराया गया है. यह अनुमान जरूरत से ज्यादा है. यों तो 26 नवम्बर 2008 के मुम्बई हमले के पीछे भी भारतीय साजिश का एंगल लोगों ने खोज लिया था, पर उसे 2009 के चुनाव से नहीं जोड़ा था. इस बार के चुनाव में पाकिस्तान कई ऐतिहासिक कारणों से महत्वपूर्ण बना है. सबसे महत्वपूर्ण यह कि इस बार पाकिस्तान खुद एक कारण बनना चाहता है. 
हाल में पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कहा, हमारे पास विश्वसनीय जानकारी है कि भारत हमारे ऊपर 16 से 20 अप्रैल के बीच फिर हमला करेगा. 16 अप्रैल की तारीख निकल गई, कुछ नहीं हुआ. भारत में अंदेशा था कि शायद पुलवामा जैसा कुछ और न हो जाए. दूसरी तरफ इमरान खान का बयान था कि भारत में नरेंद्र मोदी दूसरा कार्यकाल मिला तो यह पाकिस्तान के लिए बेहतर होगा और कश्मीर के हल की संभावनाएं बेहतर होंगी. पाकिस्तानी नेताओं मुँह से पहले कभी इस किस्म के बयान सुनने को नहीं मिले.

Monday, April 15, 2019

कहाँ गए चुनाव-सुधार के दावे और वायदे?


http://inextepaper.jagran.com/2112325/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/15-04-19#page/8/1
जनवरी 2017 में पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि धर्म, जाति और भाषा के नाम पर वोट माँगना गैर-कानूनी है। कौन नहीं जानता कि इन आधारों पर चुनाव लड़ने पर पहले से रोक है। सुप्रीम कोर्ट के 7 सदस्यीय संविधान पीठ ने जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123(3) की व्याख्या भर की थी। इसमें अदालत ने स्पष्ट किया कि उम्मीदवार के साथ-साथ दूसरे राजनेता, चुनाव एजेंट और धर्मगुरु भी इसके दायरे में आते हैं। क्या आप भरोसे से कह सकते हैं कि इन संकीर्ण आधारों पर वोट नहीं माँगे जाते हैं या माँगे जा रहे हैं? चुनावी शोर के इस दौर में आपको क्या कहीं से चुनाव-सुधारों की आवाज सुनाई पड़ती है? नहीं तो, क्यों?

 जिन दिनों देश सत्रहवीं लोकसभा के चुनावों से गुजर रहा है सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बॉण्डों की वैधता और उपादेयता पर सुनवाई चल रही है। चुनाव आयोग का कहना है कि ये बॉण्ड काले धन को सफेद करने का एक और जरिया है। हालांकि कांग्रेस के घोषणापत्र में कहा गया है कि हम जीतकर आए, तो इन बॉण्डों को खत्म कर देंगे। पर चुनावी ट्रस्ट की व्यवस्था तो कांग्रेस की ही देन है। चुनावी बॉण्डों के रूप में कम्पनियाँ बजाय नकदी के बैंक से खरीदे गए बॉण्ड के रूप में चंदा देती हैं। सच यह है कि पिछले 72 साल में सत्ताधारी दलों ने हमेशा व्यवस्था में छिद्र बनाकर रखे हैं ताकि उन्हें चुनावी चंदा मिलता रहे।

Sunday, April 14, 2019

धन-बल के सीखचों में कैद लोकतंत्र


https://www.haribhoomi.com/full-page-pdf/epaper/rohtak-full-edition/2019-04-14/rohtak-main-edition/358
शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि चुनावी बॉण्डों पर स्थगनादेश जारी नहीं किया है, पर राजनीतिक चंदे के बारे में महत्वपूर्ण आदेश सुनाया है। अदालत ने राजनीतिक दलों से कहा है कि वे चुनावी बॉण्ड के जरिए मिली रकम का ब्यौरा चुनाव आयोग के पास सीलबंद लिफाफे में जमा कराएं। इस ब्यौरे में दानदाताओं, रकम और उनके बैंक खातों का विवरण भी दिया जाए। यह ब्यौरा 30 मई तक जमा कराना होगा। वस्तुतः अदालत इससे जुड़े व्यापक मामलों पर विचार करके कोई ऐसा फैसला करना चाहती है, जिससे पारदर्शिता कायम हो।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने अदालत में चुनावी बॉण्ड योजना पर रोक लगाने की गुहार लगाई है। इस योजना को केंद्र सरकार ने पिछले साल जनवरी में अधिसूचित किया था। चुनाव आयोग ने अधिसूचना जारी होने के पहले से ही इसका विरोध किया था। विरोध की वजह है दानदाताओं की गोपनीयता। हमारे विधि आयोग ने चुनाव सुधार से जुड़ी अपनी 255वीं रिपोर्ट में कहा था कि राजनीति में धन के इस्तेमाल के साथ जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण चीज है सार्वजनिक जानकारी। जन प्रतिनिधित्व कानून, आयकर कानून, कम्पनी कानून और दूसरे सभी कानूनों के तहत बुनियादी बातों का पता सबको होना चाहिए।

Sunday, April 7, 2019

कैसे लागू होगा कांग्रेस का घोषणापत्र?



epaper.haribhoomi.com/?mod=1&pgnum=1&edcode=75&pagedate=2019-04-07
चुनाव घोषणापत्रों का महत्व चुनाव-प्रचार के लिए नारे तैयार करने से ज्यादा नहीं होता। मतदाताओं का काफी बड़ा हिस्सा जानता भी नहीं कि उसका मतलब क्या होता है। अलबत्ता इन घोषणापत्रों की कुछ बातें जरूर नारों या जुमलों के रूप में याद रखी जाती हैं। जिस देश में चुनाव जीतने के सैकड़ों क्षुद्र हथकंडे इस्तेमाल में आते हों, वहाँ विचारधारा, दर्शन और आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं। फिर भी इन घोषणापत्रों का राजनीतिक महत्व है, क्योंकि न केवल चुनाव प्रचार के दौरान, बल्कि बाद में भी पार्टियों के कार्य-व्यवहार को लेकर इनके आधार पर सवाल किए जाते हैं।

राजनीतिक विश्लेषकों की पहली नजर इनकी व्यावहारिकता पर जाती है। इसे लागू कैसे कराया जाएगा? फिर तुलनाएं होती हैं। अभी बीजेपी ने अपना घोषणापत्र जारी नहीं किया है, कांग्रेस ने किया है। इसपर निगाह डालने से ज़ाहिर होता है कि पार्टी सामाजिक कल्याणवाद के अपने उस रुख पर वापस पर वापस आ रही है, जो सन 2004 में वामपंथी दलों के समर्थन पाने के बाद न्यूनतम साझा कार्यक्रम के रूप में जारी हुआ था। इसकी झलक पिछले साल कांग्रेस महासमिति के 84वें अधिवेशन में मिली थी।

Saturday, April 6, 2019

कांग्रेस फिर ‘सामाजिक कल्याणवाद’ पर वापस

इस बात को शुरू में ही कहना उचित होगा कि भारत में चुनाव घोषणापत्र भ्रामक हैं। जिस देश में चुनाव जीतने के सैकड़ों क्षुद्र हथकंडे इस्तेमाल में आते हों, वहाँ विचारधारा, दर्शन और आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं। फिर भी इन घोषणापत्रों का राजनीतिक महत्व है, क्योंकि न केवल चुनाव प्रचार के दौरान, बल्कि चुनाव के बाद भी पार्टियों के कार्य और व्यवहार के बारे में इन घोषणापत्रों के आधार पर सवाल किए जा सकते हैं। उन्हें वायदों की याद दिलाई जा सकती है और लोकमंच पर विमर्श के प्रस्थान-बिन्दु तैयार किए जा सकते हैं।
कांग्रेस के इसबार के घोषणापत्र पर सरसरी निगाह डालने से साफ ज़ाहिर होता है कि पार्टी अपने सामाजिक कल्याणवाद पर वापस आ रही है। बीजेपी के आक्रामक छद्म राष्ट्रवाद के जवाब में कांग्रेस ने अपनी रणनीति को सामाजिक कल्याण और सम्पदा के वितरण पर केन्द्रित किया है। एक अरसे से कहा जा रहा था कि पार्टी को अपने राजनीतिक कार्यक्रम के साथ सामने आना चाहिए। केवल गैर-बीजेपीवाद कोई रणनीति नहीं हो सकती। वह नकारात्मक राजनीति है। अच्छी बात यह है कि कांग्रेस अब अपनी विचारधारा को एक दायरे में बाँधकर पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरी है।

लोकपाल को लेकर खामोशी क्यों?


http://inextepaper.jagran.com/2099807/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/06-04-19#page/10/1
हमारी राजनीति और समाज की प्राथमिकताएं क्या हैं? सन 2011 में इन्हीं दिनों के घटनाक्रम पर नजर डालें, तो लगता था कि भ्रष्टाचार इस देश की सबसे बड़ी समस्या है और उसका निदान है जन लोकपाल. लोकपाल आंदोलन के विकास और फिर संसद से लोकपाल कानून पास होने की प्रक्रिया पर नजर डालें, तो नजर आता है कि राजनीति और समाज की दिलचस्पी इस मामले में कम होती गई है. अगस्त 2011 में देश की संसद ने असाधारण स्थितियों में विशेष बैठक करके एक मंतव्य पास किया. फिर 22 दिसम्बर को लोकसभा ने इसका कानून पास किया, जो राज्यसभा से पास नहीं हो पाया.

फिर उस कानून की याद दिसम्बर, 2013 में आई. राज्यसभा ने उसे पास किया और 1 जनवरी को उसे राष्ट्रपति की मंजूरी मिली और 16 जनवरी, 2014 को यह कानून लागू हो गया. सारा काम तेजी से निपटाने के अंदाज में हुआ. उसके पीछे भी राजनीतिक दिखावा ज्यादा था. देश फिर इस कानून को भूल गया. सोलहवीं लोकसभा के चुनाव के ठीक पहले यह कानून अस्तित्व में आया और अब सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव के ठीक पहले लोकपाल की नियुक्ति हुई है. इसकी नियुक्ति में हुई इतनी देरी पर भी इस दौरान राजनीतिक हलचल नहीं हुई. सुप्रीम कोर्ट में जरूर याचिका दायर की गई और उसकी वजह से ही यह नियुक्ति हो पाई. 

Tuesday, April 2, 2019

राहुल ने क्यों पकड़ी दक्षिण की राह?


तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक के तिराहे पर वायनाड काली मिर्च और मसालों की खेती के लिए मशहूर रहा है। यहाँ की हवाएं तीनों राज्यों को प्रभावित करती हैं। भारी मुस्लिम आबादी और केरल में इंडियन मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन होने के कारण कांग्रेस के लिए यह सीट सुरक्षित मानी जाती है। राहुल यहाँ से क्यों खड़े हो रहे हैं, इसे लेकर पर्यवेक्षकों की अलग-अलग राय हैं। कुछ लोगों को लगता है कि अमेठी की जीत से पूरी तरह आश्वस्त नहीं होने के कारण उन्हें यहाँ से भी लड़ाने का फैसला किया गया है। इसके पहले इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी ने भी अपने मुश्किल वक्त में दक्षिण की राह पकड़ी थी।

इंदिरा गाँधी 1977 में रायबरेली से चुनाव हार गई थीं। उन्होंने वापस संसद पहुँचने के लिए कर्नाटक के चिकमंगलूर का रुख किया था। चिकमंगलूर की जीत उनके जीवन का निर्णायक मोड़ साबित हुई थी। उन्होंने धीरे-धीरे अपना खोया जनाधार वापस पा लिया। उन्होंने 1980 का चुनाव आंध्र की मेदक सीट से लड़ा। सोनिया गांधी ने 1999 में पहली बार चुनाव लड़ा, तो उन्होंने अमेठी के साथ-साथ कर्नाटक के बेल्लारी से पर्चा भरा। उनके विदेशी मूल का विवाद हवा में था, इसी संशय में वे बेल्लारी गईं थीं।

Sunday, March 31, 2019

महागठबंधन का स्वप्न-भंग

epaper.haribhoomi.com//customprintviews.php?pagenum=4&edcode=72&mode=1&pgdate=2019-03-31
पिछले साल 23 मई को बेंगलुरु में एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में और फिर इस साल 19 जनवरी को कोलकाता में हुई विरोधी एकता की रैली ‘ब्रिगेड समावेश’ में मंच पर एकसाथ हाथ उठाकर जिन राजनेताओं ने विरोधी एकता की घोषणा की थी, उनकी तस्वीरें देशभर के मीडिया में प्रकाशित हुईं थीं। अब जब चुनाव घोषित हो चुके हैं, तब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस विरोधी-एकता की जमीन पर स्थिति क्या है। कर्नाटक की तस्वीर को प्रस्थान-बिन्दु मानें तो उसमें सोनिया, राहुल, ममता बनर्जी, शरद यादव, अखिलेश यादव, मायावती, तेजस्वी यादव, चन्द्रबाबू नायडू, सीताराम येचुरी, फारुक़ अब्दुल्ला, अजित सिंह, अरविन्द केजरीवाल के अलावा दूसरे कई नेता थे। डीएमके के एमके स्टालिन तूतीकोरन की घटना के कारण आ नहीं पाए थे, पर उनकी जगह कनिमोझी थीं।

उस कार्यक्रम के लिए तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव ने अपनी शुभकामनाएं भेजी थीं। ओडिशा के नवीन पटनायक बुलावा भेजे जाने के बावजूद नहीं आए थे। इन सब नामों को गिनाने का तात्पर्य यह है कि पिछले तीन साल से महागठबंधन की जिन गतिविधियों के बारे में खबरें थीं, उनके ये सक्रिय कार्यकर्ता थे। अब जब चुनाव सामने हैं, तो क्या हो रहा है? हाल में बंगाल की एक रैली में राहुल गाँधी ने ममता बनर्जी की आलोचना कर दी। इसके बाद जवाब में ममता ने आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि राहुल अभी बच्चे हैं। तीन महीने पहले तेलंगाना में हुए चुनाव में तेदेपा और कांग्रेस का गठबंधन था। अब आंध्र में चुनाव हो रहे हैं, पर गठबंधन नहीं है।

Friday, March 29, 2019

एंटी-सैटेलाइट टेस्ट के महत्व को भी समझिए

http://inextepaper.jagran.com/2088288/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/29-03-19#page/8/1
एंटी-सैटेलाइट परीक्षण को लेकर कई तरह के सवाल एकसाथ खड़े हुए हैं. काफी सवाल राजनीतिक है, जिनपर अलग से बात होनी चाहिए. यहाँ हम इसके सामरिक और राजनयिक पहलुओं पर बात करेंगे. रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण का कहना है कि इसका फैसला सन 2014 में ही कर लिया गया था. सवाल है कि परीक्षण पहले क्यों नहीं किया और अब क्यों किया? इसके दो-तीन कारण हैं. डीआरडीओ को तकनीक विकसित करने की अनुमति देने, धनराशि आवंटित करने और मित्र देशों से विमर्श में भी समय लगता है. रक्षा और राजनीतिक मामलों से जुड़ी कैबिनेट समितियों से अग्रिम स्वीकृतियाँ लेने की जरूरत भी थी. डीआरडीओ का कहना है कि इस प्रोजेक्ट की अनुमति दो साल पहले दी गई थी.

मौसम और धरती की परिक्रमा कर रहे उपग्रहों की स्थिति पर नजर रखने की आवश्यकता भी थी. मौसम का पता महीनों पहले लगाना होता है. यह भी ध्यान रखना था कि अंतरिक्ष में प्रदूषण न होने पाए. चीन ने 2007 में इसका ध्यान नहीं रखा था, जिसके लिए उसकी निन्दा हुई थी. भारत ने निश्चित रूप से अपने सामरिक मित्रों से भी मशविरा किया होगा. इसी वजह से बुधवार को हमारे विदेश मंत्रालय ने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट किया और प्रधानमंत्री ने अपने सम्बोधन में कहा कि हमने इस परीक्षण में वैश्विक नियमों को ध्यान में रखा है. 

Tuesday, March 26, 2019

आतंकी लाइफ-लाइन को तोड़ना जरूरी

http://inextepaper.jagran.com/2083942/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/26-03-19#page/12/1
पुलवामा के हत्याकांड और फिर बालाकोट में की गई भारतीय कार्रवाई की गहमागहमी के बीच हमने गत 7 मार्च को जम्मू के बस स्टेशन पर हुए ग्रेनेड हमले पर ध्यान नहीं दिया. घटना के फौरन बाद ही इसे अंजाम देने वाला मुख्य अभियुक्त पकड़ लिया गया, पर यह घटना कुछ बातों की तरफ इशारा कर रही है. पिछले नौ महीनों में इसी इलाके में यह तीसरी घटना है. आतंकवादी जम्मू के इस भीड़ भरे इलाके में कोई बड़ी हिंसक कार्रवाई करना चाहते हैं, ताकि जम्मू और कश्मीर घाटी के बीच टकराव हो. भारतीय सुरक्षाबलों की आक्रामक रणनीति के कारण पराजित होता आतंकी-प्रतिष्ठान नई रणनीतियाँ लेकर सामने आ रहा है.

पुलवामा के बाद जम्मू क्षेत्र में हिंसा भड़की थी. ऐसी प्रतिक्रियाओं का परोक्ष लाभ आतंकी जाल बिछाने वाले उठाते हैं. जम्मू में ग्रेनेड फेंकने वाले की उम्र पर गौर कीजिए. नौवीं कक्षा के छात्र को कुछ पैसे देकर इस काम पर लगाया गया था. आईएसआई के एजेंट किशोरों के बीच सक्रिय हैं. कौन हैं ये एजेंट? जमाते-इस्लामी और जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट पर प्रतिबंधों से जाहिर है कि अब उन सूत्रधारों की पहचान हो रही है. वे हमारी उदार नीतियों का लाभ उठाकर हमारी ही जड़ें काटने में लगे हैं. उन तत्वों की सफाई की जरूरत है, जो जहर की खेती कर रहे हैं.

गर्मियाँ आने वाली हैं, जब आतंकी गतिविधियाँ बढ़ती हैं. लोकसभा चुनाव के दौरान भी वे हरकतें करेंगे. उधर पाकिस्तान को लगता है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानियों के हाथ में फिर से सत्ता आने वाली है. आईएसआई के सूत्रधारों ने पूरे इलाके में भारतीय व्यवस्था के प्रति जहर भरना शुरू कर दिया है. कश्मीर में ही नहीं, वे पंजाब में खत्म हो चुके खालिस्तानी-आंदोलन में फिर से जान डालने का प्रयास कर रहे हैं. इसके लिए उन्होंने अमेरिका में सक्रिय कुछ लोगों की मदद से रेफरेंडम-2020 नाम से एक अभियान शुरू किया है. उन्हें अपना ठिकाना उपलब्ध कराया है. उनकी योजना करतारपुर कॉरिडोर बन जाने के बाद भारत से जाने वाले श्रद्धालुओं के मन में जहर घोलने की है.

Sunday, March 24, 2019

दानिस्ता ने वीडियो न बनाया होता तो...?


21 मार्च को होली के दिन गुरुग्राम के भूपसिंह नगर के रहने वाले मोहम्मद साजिद के परिवार ने अपने आसपास के समाज का ऐसा भयानक चेहरा देखा जिससे वे ख़ौफ़ में हैं. इस खौफ के खिलाफ नागरिक समाज ने अपनी नाराजगी व्यक्त की है. यह नाराजगी इतनी असरदार नहीं होती या शायद होती ही नहीं, अगर इस हिंसा का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल न हुआ होता. इस वीडियो के कारण बड़ी संख्या में लोगों की अंतरात्मा को ठेस लगी. यह क्या हो रहा है?  

मीडिया का असर है कि हमारी भावनाएं भड़कने में देर नहीं लगती है. और हमें मानवीयता का एहसास भी किसी दूसरे वीडियो से होता है. नब्बे के दशक में जब महम की हिंसा का वीडियो पहली बार सामने आया था, तब हमें लगा कि राजनीति में यह क्या हो रहा है. वस्तुतः हमने पहली बार उसकी तस्वीरें देखी थीं, हो तो वह काफी पहले से रहा था. आरक्षण के विरोध में आत्मदाह करने की पहले वीडियो ने काफी बड़े वर्ग को व्यथित कर दिया था. फिर हाल के वर्षों में हमें दलितों की पिटाई के वीडियो देखने को मिले हैं. गोरक्षकों की हिंसा और मॉब लिंचिंग के वीडियो भी बड़ी संख्या में सामने आए हैं. इन वीडियो के राजनीतिक प्रभाव को देखते हुए ऐसे फर्जी वीडियो भी सामने आए हैं, जिनका उद्देश्य किसी एक खास तबके की भावनाओं को भड़काना होता है. यह खेल अभी चलेगा, क्योंकि चुनाव करीब हैं.

कश्मीर पर नई लाल रेखा

http://epaper.haribhoomi.com/?mod=1&pgnum=1&edcode=75&pagedate=2019-03-24
पिछले पाँच साल में कश्मीर को लेकर मोदी सरकार की नीतियाँ निरंतर सख्त होती गईं हैं और इस वक्त अपने कठोरतम स्तर पर हैं। इन पाँच वर्षों में सरकार ने नर्म रुख अख्तियार करने की कोशिश भी की, पर हालात ऐसे बने कि उसका रुख सख्त होता चला गया। पिछले हफ्ते की कुछ घटनाओं से लगता है कि सरकार ने राजनयिक स्तर पर एक और नई रेखा खींची है। यह रेखा हुर्रियत के खिलाफ है। हुर्रियत के दो महत्वपूर्ण घटकों जमाते-इस्लामी और अब जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) पर प्रतिबंध लगाया गया है। 


पाकिस्तान दिवस (23 मार्च) की पूर्व-संध्या पर दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायोग में हुए कार्यक्रम में भारत सरकार के मंत्री इसलिए शामिल नहीं हुए, क्योंकि हुर्रियत को बुलाया गया था। यह एक और रेड लाइन रेखा है। उधर प्रधानमंत्री ने इमरान खान के नाम बधाई संदेश भी भेजा है। इसे कुछ लोग संशय बता रहे हैं। ऐसा नहीं है। कश्मीर के मामले में भारत का कड़ा संदेश है और बधाई एक परम्परा के तहत है, जो दुनिया के सभी देश एक-दूसरे के साथ निभाते हैं। इन पत्रों का औपचारिक महत्व होता है आधिकारिक नहीं।  

Sunday, March 17, 2019

गठबंधन राजनीति का बिखराव!

http://epaper.haribhoomi.com/epaperimages/17032019/17032019-MD-RAI-4.PDF
बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने कहा है कि कांग्रेस के साथ हम किसी भी राज्य में गठबंधन नहीं करेंगे। मायावती ने ही साथ नहीं छोड़ा, आंध्र प्रदेश में कांग्रेस और तेदेपा का गठबंधन टूट गया है। बीजेपी को हराने के लिए सामने आई ममता बनर्जी तक ने अपने बंगाल में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाना उचित नहीं समझा। दिल्ली में कांग्रेसी झिड़कियाँ खाने के बावजूद अरविन्द केजरीवाल बार-बार चिरौरी कर रहे हैं। सम्भव है कि दिल्ली और हरियाणा में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का गठबंधन हो जाए। इसकी वजह है कांग्रेस के भीतर से लगातार बाहर आ रहे विपरीत स्वर।

17वीं लोकसभा और चार राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों की प्रक्रिया सोमवार 18 मार्च से शुरू हो रही है, पर अभी तक क्षितिज पर एनडीए और यूपीए के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर कोई तीसरा चुनाव पूर्व मोर्चा या महागठबंधन नहीं है। जो भी होगा, चुनाव परिणाम आने के बाद होगा और फिर उसे मौके के हिसाब से सैद्धांतिक बाना पहना दिया जाएगा। यह भारतीय राजनीति में तीसरे मोर्चे का यथार्थ है। जैसा हमेशा होता था स्थानीय स्तर पर सीटों का बँटवारा हो जरूर रहा है, पर उसमें जबर्दस्त संशय है। टिकट कटने और बँटने के चक्कर में एक पार्टी छोड़कर दूसरी में जाने की दौड़ चल रही है।

Friday, March 15, 2019

शिखर पर पहुँचाएंगे नई पीढ़ी के वोटर


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लोकसभा के आगामी चुनाव में भारत के 89.9 करोड़ वोटर भाग लेंगे. दुनिया के किसी लोकतंत्र में एकसाथ इतने वोटरों की भागीदारी कभी नहीं हुई. सन 2014 के चुनाव में 81.5 करोड़ वोटरों ने हिस्सा लिया था. इसबार 8.4 करोड़ वोटरों की वृद्धि हुई है. इनमें भी 1.6 करोड़ वोटरों की आयु 18 से 19 वर्ष के बीच है. उनके अलावा छह करोड़ से ऊपर वोटर भी नौजवानों की परिभाषा में आते हैं. इतनी बड़ी संख्या में युवा वोटरों की चुनाव में भागीदारी क्या बताती है? ये वोटर अपनी राजनीति और व्यवस्था से क्या चाहते हैं?

राष्ट्रीय राजनीति के ज्यादातर नियंता अपने जीवन के संध्याकाल में प्रवेश कर चुके हैं. सही या गलत उनके पास अनुभव हैं और अतीत की यादें हैं. पर नए मतदाताओं के पास केवल उम्मीदें और हौसले हैं. इनमें से काफी नौजवान कुपोषण, गरीबी और तमाम असुविधाओं की बाधाओं को पार करके यहाँ तक पहुँचे हैं. व्यवस्था के निर्माण में उनकी भागीदारी बेहद महत्वपूर्ण है। उनके सपने पूरे होंगे, तो इसी व्यवस्था की मदद से होंगे. और वे इस व्यवस्था को पुष्ट करेंगे. सवाल है कि क्या हमारा लोकतंत्र इतनी बड़ी संख्या में नौजवानों की उम्मीदों को पूरा करेगा?

संयुक्त राष्ट्र की परिभाषाएं सामान्यतः 15 से 24 साल की अवस्था को युवा की श्रेणी में रखती हैं. भारत की राष्ट्रीय युवा नीति-2003 में 13 से 35 वर्ष की आयु को युवा की श्रेणी में रखा गया था. बाद में 2014 की राष्ट्रीय नीति में इसे 15-29 वर्ष कर दिया गया. यह परिभाषा बदलती रहती है, पर किसी भी परिभाषा से देखें, तो पाएंगे कि दुनिया के सबसे युवा देशों में भारत सबसे आगे है. सन 2018 में भारत की सकल आबादी की औसत उम्र 27.9 वर्ष थी और 2020 में देश की कुल आबादी में 34 फीसदी युवा होंगे.

Wednesday, March 13, 2019

स्त्रियों को टिकट देने में हिचक क्यों?

http://www.rashtriyasahara.com/epaperpdf//13032019//13032019-md-hr-10.pdf
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने घोषणा की है कि हम एक तिहाई सीटें महिला प्रत्याशियों को देंगे। प्रगतिशील दृष्टि से यह घोषणा क्रांतिकारी है और उससे देश के दूसरे राजनीतिक दलों पर भी दबाव बनेगा कि वे भी अपने प्रत्याशियों के चयन में महिला प्रत्याशियों को वरीयता दें। उधर ममता बनर्जी ने लोकसभा चुनाव में 41 फीसदी टिकट महिलाओं को दिए हैं। दोनों घोषणाएं उत्साहवर्धक हैं, पर दोनों लोकसभा के लिए हैं। ओडिशा में विधानसभा चुनाव भी हैं, पर उसमें टिकट वितरण का यही फॉर्मूला नहीं होगा। बंगाल में अभी चुनाव नहीं हैं, इसलिए कहना मुश्किल है कि विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की रणनीति क्या होगी। बहरहाल दोनों घोषणाएं सही दिशा में बड़ा कदम हैं। 
सत्रहवें लोकसभा चुनाव में देश के 90 करोड़ मतदाताओं को भाग लेने का मौका मिलेगा, इनमें से करीब आधी महिला मतदाता हैं। पर व्यावहारिक राजनीति इस आधार पर नहीं चलती। आने दीजिए पार्टियों की सूचियाँ, जिनमें पहलवानों की भरमार होगी। राजनीति की सफलता का सूत्र है विनेबिलिटीयानी जीतने का भरोसा। यह राजनीति पैसे और डंडे के जोर पर चलती है। पिछले लोकसभा चुनाव के परिणामों के विश्लेषण से एक बात सामने आई कि युवा और खासतौर से महिला मतदाताओं ने चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह भूमिका इसबार के चुनाव में और बढ़ेगी, पर राजनीतिक जीवन में उनकी भागीदारी आज भी कम है। कमोबेश दुनियाभर की राजनीति पुरुषवादी है, पर हमारी राजनीति में स्त्रियों की भूमिका वैश्विक औसत से भी कम है। सामान्यतः संसद और विधानसभाओं में महिला सदस्यों की संख्या 10 फीसदी से ऊपर नहीं जाती।

Monday, March 11, 2019

चुनावी मुद्दा बनेगा राष्ट्रवाद!

चुनाव घोषित होने के बाद अब सबका ध्यान इस बात पर जाएगा कि मतदाता किस बात पर वोट डालेगा। तीन महीने पहले हुए पाँच राज्यों के विधान सभा चुनावों के दौरान जो मुद्दे थे, वे अब पूरी तरह बदल गए हैं।  हाल में रायटर्स ने एक लम्बी रिपोर्ट जारी की है, जिसमें कहा गया है कि पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर भारतीय वायुसेना के हमले से देश के ग्रामीण इलाकों में पिछले कुछ समय से छाई निराशा के बादल छँटते नजर आ रहे हैं। देश की तकरीबन 70 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है और देश की राजनीति की दिशा तय करने में गाँवों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है। रायटर्स ने इस सिलसिले में किसानों से बात की है। अपनी बदहाली से नाखुश होने के बावजूद किसानों को लगता है कि मोदी अगर पाकिस्तान को सबक सिखाता है, तो अच्छी बात है। पर यह सब देशभक्ति तक सीमित नहीं होगा, राष्ट्रवाद का अर्थ, उसकी जरूरत, भारतीय राष्ट्र राज्य की संरचना, उसकी अवधारणा और उसका विकास ये सारे मुद्दे उसमें शामिल होंगे। हमारे यहाँ किसी वजह से कुछ लोग राष्ट्रवाद का नाम सुनकर ही भड़कने लगते हैं। जबकि जरूरत इस विषय पर गहराई से जाने की है।  

Saturday, March 9, 2019

कांग्रेस का ‘सर्जिकल-संकट’


http://www.rashtriyasahara.com/epaperpdf//09032019//09032019-md-hst-2.pdf
कांग्रेस नेता बीके हरिप्रसाद ने पिछले गुरुवार को कहा कि पुलवामा आतंकी हमला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के बीच ‘मैच फिक्सिंग’ का नतीजा है। उनका कहना था कि पुलवामा हमले के बाद के घटनाक्रम पर यदि आप नजर डालेंगे तो पता चलता है कि यह पीएम नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के बीच मैच फिक्सिंग थी।  हरिप्रसाद कांग्रेस के बहुत बड़े नहीं, तो छोटे नेता भी नहीं हैं। पिछले साल राज्यसभा के उप सभापति के चुनाव में पार्टी ने कर्नाटक के इस सांसद को अपना प्रत्याशी बनाया था। हालांकि कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी ने बाद में सफाई दी, बीके हरिप्रसाद ने जो भी कहा है कि वह पार्टी का स्टैंड नहीं है, उनकी अपनी राय है। पर कैसी राय? उन्होंने मामूली बात नहीं कही है। साफ है कि पार्टी ने उनके बयान की अनदेखी की। यह अनदेखी सायास थी या अनायास?

मंदिर-मस्जिद विवाद के समाधान की दिशा में पहला बड़ा कदम

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता की जो पहल की है, उससे बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं बाँधनी चाहिए, पर इसे समाधान की दिशा में पहला बड़ा कदम माना जा सकता है। इसकी कुछ बड़ी वजहें हैं। एक, अदालत ने तीनों मध्यस्थों को तय करते समय इस बात का ख्याल रखा है कि वे पूर्वग्रह से मुक्त हों। तीनों दक्षिण भारतीय हैं और उत्तर भारत के क्षेत्रीय विवादों से दूर हैं। कहा जा सकता है कि समाधान के प्रयासों से श्रीश्री रविशंकर पहले से जुड़े हैं। वे कई बार समाधान के प्रयास कर चुके हैं, इसलिए इससे जुड़े मुद्दों के बेहतर समझते हैं। दोनों पक्षों के साथ उनके सम्बन्ध मधुर हैं। पर उनकी तटस्थता को लेकर आपत्तियाँ हो सकती हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके पहले हुई मध्यस्थताओं और इसबार में अंतर है। यह कोर्ट की निगरानी में चलने वाली मध्यस्थता है, इसमें एक अनुभवी न्यायाधीश शामिल हैं और मध्यस्थों को एक समय सीमा दी गई है। फिर वे मध्यस्थ हैं, समझौता पक्षकारों के बीच होगा, मध्यस्थों की भूमिका उसमें मदद करने की होगी। वे जज नहीं हैं। तीसरे, मध्यस्थता से हासिल हुए समझौते में कटुता नहीं होगी, किसी पक्ष की हार या किसी की जीत की भावना नहीं होगी। चौथी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस मामले पर अब जो भी होगा, वह लोकसभा चुनाव के बाद होगा। मध्यस्थ किसी समझौते पर पहुँचे भी तो इसमें दो महीने लगेंगे। यानी कि मई के दूसरे हफ्ते से पहले कुछ होगा नहीं और उसी वक्त चुनाव परिणाम आ रहे होंगे। उसके बाद अदालती कार्यवाही चलेगी।

Friday, March 8, 2019

राजनीति के दरवाजे से बाहर क्यों हैं स्त्रियाँ?

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बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में भारत के तकनीकी-आर्थिक रूपांतरण के समांतर सबसे बड़ी परिघटना है सामाजिक जीवन में लड़कियों की बढ़ती भागीदारी. सत्तर के दशक तक भारतीय महिलाएं घरों तक सीमित थीं, आज वे जीवन के हर क्षेत्र में मौजूद हैं. युवा स्त्रियाँ आधुनिकीकरण और सामाजिक रूपांतरण में सबसे बड़ी भूमिका निभा रहीं हैं. भूमिका बढ़ने के साथ उनसे जुड़े सवाल भी खड़े हुए हैं. पिछले साल जब मी-टू आंदोलन ने भारत में प्रवेश किया था, तब काफी स्त्रियों ने अपने जीवन के ढके-छिपे पहलुओं को उजागर किया. न जाने कितने तथ्य अभी छिपे हुए हैं.

यत्र नार्यस्तु...के देश में स्त्रियों के जीवन की जमीन बहुत कठोर है. उन्हें अपनी जगह बनाने में जबर्दस्त चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. फिर भी वे इनका मुकाबला करते हुए आगे बढ़ रहीं हैं. दिसम्बर, 2012 में दिल्ली रेप कांड के बाद स्त्री-चेतना में विस्मयकारी बदलाव हुआ था. लम्बे अरसे से छिपा गुस्सा एकबारगी सामने आया. यह केवल स्त्रियों का गुस्सा नहीं था, पूरे समाज की नाराजगी थी. उस आंदोलन की अनुगूँज शहरों, कस्बों, गाँवों और गली-मोहल्लों तक में सुनाई पड़ी थी. उस आंदोलन से बड़ा बदलाव भले नहीं हुआ, पर सामाजिक जीवन में एक नया नैरेटिव तैयार हुआ. 

Sunday, March 3, 2019

क्या यह सिर्फ मीडिया का स्वांग था?


http://epaper.haribhoomi.com/?mod=1&pgnum=1&edcode=75&pagedate=2019-03-03
पिछले पखवाड़े भारत-पाकिस्तान टकराव का एक और दौर पूरा हो गया। इस दौरान सीमा के दोनों तरफ के मीडिया का एक और चिंतनीय चेहरा सामने आया है। मीडिया ने हमारे विमर्श का एजेंडा तय करना शुरू कर दिया है, जबकि वह खुद संशयों का शिकार है। वह अपने थिएटरी निष्कर्षों को दर्शकों के दिलो-दिमाग में डाल रहा है। यह बात पिछले एक पखवाड़े के घटनाक्रम से समझी जा सकती है। शुक्रवार देर रात तक टीवी से चिपके लोगों को एंकर और रिपोर्टर समझाते रहे कि अभिनंदन अब आए, अब आने वाले हैं, आते ही होंगे वगैरह। बहरहाल जब वे आए वाघा सीमा पर मौजूद भीड़ से मुखातिब होने का मौका उन्हें नहीं मिला। क्यों हुआ इतना लम्बा ड्रामा? 

Friday, March 1, 2019

आतंकवाद से लड़ने की पेचीदगियाँ

http://inextepaper.jagran.com/2048752/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/01-03-19#page/12/1
भारतीय पायलट की वापसी के कारण फिलहाल दोनों देशों के बीच फैला तनाव कुछ समय के लिए दूर जरूर हो गया है, पर आतंकवाद का बुनियादी सवाल अपनी जगह है. यह सब पुलवामा कांड के कारण शुरू हुआ था. बुधवार को अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में फिर से प्रस्ताव रखा है कि जैशे-मोहम्मद के प्रमुख मसूद अज़हर को वैश्विक आतंकवादी घोषित किया जाए. परिषद की प्रतिबंध समिति अगले दस दिन में इसपर विचार करेगी. पता नहीं, प्रस्ताव पास होगा या नहीं. चीन ने पुलवामा कांड की निंदा की है और बालाकोट पर की गई भारतीय वायुसेना की कार्रवाई की आलोचना भी नहीं की है, पर इस प्रस्ताव पर उसका दृष्टिकोण क्या होगा, यह देखना होगा.

पिछले दस साल में यह चौथी कोशिश है. सारी कोशिशें चीन ने नाकाम की हैं. वुज़ान में विदेश मंत्रियों के सम्मेलन में हालांकि चीन ने आतंकवाद के खिलाफ भारत की सारी बातों का समर्थन किया, पर पाकिस्तान का नाम नहीं लिया. एक प्रतिबंधित संगठन के नेता पर प्रतिबंध लगाने में इतने पेच हैं. हम इस वास्तविकता की अनदेखी नहीं कर सकते.

आतंकवाद पर विजय केवल फौजी कार्रवाई से हासिल नहीं होगी. उसके लिए राजनयिक मोर्चे पर ही लड़ना होगा. और केवल मसूद अज़हर पर पाबंदी लगाने से सारा काम नहीं होगा. पर वह बड़ा कदम होगा. सफलता तभी मिलेगी, जब पाकिस्तानी समाज इसके खिलाफ खड़ा होगा. सीमा के दोनों तरफ कट्टरता का माहौल खत्म होगा और कश्मीर में शांति की स्थापना होगी. क्या यह सब आसानी से सम्भव है? 


बालाकोट स्थित जैशे-मोहम्मद के ट्रेनिंग सेंटर पर हमले के बाद पाकिस्तानी आईएसपीआर के मेजर जनरल आसिफ़ ग़फ़ूर ने सुबह 5.12 मिनट पर पहला ट्वीट किया था, पर भारत सरकार की तरफ से पहली आधिकारिक जानकारी 11.30 बजे विदेश सचिव विजय गोखले ने दी. रक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी की बैठक में काफी सोच-विचार के बाद भारत ने इसे ‘नॉन-मिलिट्री’ एक्शन बताया था. हमला पाकिस्तान पर नहीं था, बल्कि ऐसे दुश्मन पर था, जो पाकिस्तान में तो है, पर नॉन-स्टेट एक्टर है. 

Monday, February 25, 2019

कश्मीरियों को जोड़िए, तोड़िए नहीं


http://inextepaper.jagran.com/2042227/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/25-02-19#page/8
पुलवामा हमले के बाद देश के कई इलाकों में कश्मीरी मूल के लोगों पर हमले की खबरें आईं और इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार समेत 11 राज्यों को नोटिस जारी किया है. अदालत ने सभी राज्यों के चीफ सेक्रेटरी और डीजीपी को निर्देश दिया है कि कश्मीरियों पर होने वाले किसी भी हमले के खिलाफ तुरंत कार्रवाई करें. जिन राज्यों को नोटिस दिया गया है उनमें जम्मू कश्मीर उत्तराखंड, हरियाणा, यूपी, बिहार, मेघालय, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल, पंजाब और महाराष्ट्र शामिल हैं.

कश्मीरियों पर हमलों की खबरों के साथ ऐसी खबरें भी हैं कि कई जगहों पर इन्हें बचाने वाले लोग भी सामने आए. हालांकि ऐसी खबरों को ज्यादा तवज्जोह नहीं मिली, पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से भरोसा बढ़ा है. भले ही बचाने वालों की संख्या कम रही हो, पर हमारे बीच सकारात्मक सोच वाले भी मौजूद हैं. लोगों को भावनाओं में बहाना आसान है, सकारात्मक सोच पैदा करना काफी मुश्किल है. पर हमें इसके व्यापक पहलुओं पर विचार करना चाहिए. साथ ही मॉब लिंचिंग की मनोदशा को पूरी ताकत से धिक्कारना होगा. यदि हम कश्मीरियों को कट्टरपंथी रास्ते पर जाने से रोकना चाहते हैं, तो पहले हमें उस रास्ते का बहिष्कार करना होगा. 

Sunday, February 24, 2019

पाकिस्तान पर जकड़ता शिकंजा

http://epaper.haribhoomi.com/?mod=1&pgnum=1&edcode=75&pagedate=2019-02-24
पुलवामा पर आतंकवादी हमले के फौरन बाद भारत ने और सहयोगी देशों ने जो कदम उठाए हैं उनके परिणाम नजर आने लगे हैं। अभी तक ज्यादा कार्रवाइयाँ राजनयिक हैं। कोई बड़ी फौजी कार्रवाई नहीं की गई है, पर वह नहीं होगी, ऐसा संकेत भी नहीं है। ऐसी कार्रवाई के लिए उचित समय और तैयारियाँ दोनों जरूरी हैं। इसमें महत्वपूर्ण होता है ‘सरप्राइज’ का तत्व। उसके समय की पहले से घोषणा नहीं की जाती। हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा है कि भारत कोई बड़ा कदम उठाने की सोच रहा है। इस कदम को उठाने के पहले यह भी सोचना होगा कि टकराव किस हद तक बढ़ सकता है। यह भी स्पष्ट है कि भारत जो भी कार्रवाई करेगा, उसकी जानकारी अपने मित्र देशों को भी देगा।

इस राजनयिक दबाव का संकेत तीन बड़ी घटनाओं से मिलता है। गुरुवार को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने पुलवामा के हमले की न केवल निन्दा की, बल्कि उसमें पाकिस्तानी आतंकी संगठन जैशे-मोहम्मद का नाम भी लिया। सुरक्षा परिषद के पांचों स्थायी एवं 10 अस्थायी सदस्यों ने सर्वसम्मति से इसे पास किया। चीन ने इसकी भाषा के साथ छेड़खानी करने की कोशिश की, पर उसे सफलता नहीं मिली। वैश्विक नाराजगी इतनी ज्यादा है कि चीन ने अपने वीटो अधिकार का इस्तेमाल करने की हिम्मत भी नहीं की।


यह पहला मौका है, जब सुरक्षा परिषद ने जम्मू-कश्मीर में किसी आतंकी हमले की निन्दा की है। इसके तकनीकी कारण हैं, जिनका लाभ पाकिस्तान उठाता रहा है। सुरक्षा परिषद की दृष्टि में जम्मू-कश्मीर ‘विवादग्रस्त क्षेत्र’ है। संरा ने अभी तक आतंकवाद की सर्वमान्य परिभाषा तैयार नहीं की है। इसके पहले सुरक्षा परिषद ने कश्मीरी आतंकवाद को लेकर कभी कोई कड़ा बयान जारी नहीं किया था। आतंकी घटनाओं को राजनीतिक आंदोलन का आवरण पहना दिया जाता था। इस लिहाज से यह प्रस्ताव ऐतिहासिक है।

Saturday, February 23, 2019

पुलवामा और पनीली एकता का राजनीतिक-पाखंड


http://www.rashtriyasahara.com/epaperpdf//23022019//23022019-md-hst-4.pdf
लोकसभा के पिछले चुनाव में पाकिस्तान, कश्मीर और राम मंदिर मुद्दे नहीं थे। पर लगता है कि आने वाले चुनाव में राष्ट्रवाद, देशभक्ति, कश्मीर समस्या और पाकिस्तानी आतंकवाद बड़े मुद्दे बनकर उभरेंगे। पुलवामा कांड इस सिलसिले में महत्वपूर्ण ट्रिगर का काम करेगा। एक अरसे के बाद ऐसा लगा था कि देश में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच किसी एक बात पर मतैक्य है। दोनों को देशहित की चिंता है और दोनों चाहते हैं कि राष्ट्रीय एकता और अखंडता की खातिर सरकार और विपक्ष एकसाथ रहे। पर यह एकता क्षणिक थी और देखते ही देखते गायब हो गई। अब मोदी से लेकर अमित शाह और राहुल गांधी, ममता बनर्जी और सीताराम येचुरी तक पुलवामा हमले से ज्यादा उसके राजनीति नफे-नुकसान को लेकर बयान दे रहे हैं। इनमें निशाना जैशे-मोहम्मद या पाकिस्तान नहीं, प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दल है।  

पुलवामा हमले के बाद शनिवार 16 फरवरी को सरकार ने जो सर्वदलीय बैठक बुलाई थी उसमें अरसे बाद राजनीतिक दलों के रुख में सकारात्मकता नजर आई। बैठक गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने बुलाई थी। इस बैठक के बाद कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद ने कहा, 'हम राष्ट्र और सुरक्षा बलों की एकता और सुरक्षा के लिए सरकार के साथ खड़े हैं। फिर चाहे वह कश्मीर हो या देश का कोई और हिस्सा। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस पार्टी सरकार को अपना पूरा समर्थन देती है।'

हिन्दुस्तान की आत्मा पर हमला

इस बैठक और बयान के पहले राहुल गांधी ने 15 फरवरी को प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, आतंकी हमले का मकसद देश को विभाजित करना है। यह हिंदुस्तान की आत्मा पर हमला है। हमारे दिल में चोट पहुंची है। पूरा का पूरा विपक्ष, देश और सरकार के साथ खड़ा है। करीब-करीब यही बात मनमोहन सिंह ने भी कही। पर्यवेक्षकों को इस एकता पर विस्मय था। जाहिर है कि हमले का सदमा बड़ा था, और देशभर में नाराजगी थी। यह एकता भी एक प्रकार का राजनीतिक फैसला था। राजनीतिक दलों को लगा कि जनता एकमत होकर जवाब देना चाहती है।

Friday, February 22, 2019

क्या अब कार्टून कम नहीं हो गए हैं?


आज मुझे कीर्तीश भट्ट का यह कार्टून अच्छा लगा। मैं प्रायः अखबारों के कार्टूनों को देखता रहता हूँ। इनमें दो तरह के कार्टून मुझे नजर आते हैं। एक कार्टून बेहद एकतरफा और प्रचारात्मक होते हैं। पर सामान्यतः मैंने पाया है कि विश्लेषकों के मुकाबले कार्टूनिस्ट ज्यादा वस्तुनिष्ठ होते हैं। मेरी समझ में अच्छा कार्टूनिस्ट वही है, जो किसी को बख्शता न हो। दूसरे कार्टूनिस्ट की जरूरत तब ज्यादा होती है, जब कोई सीधे अपनी बात कहने की स्थिति में नहीं हो। यह बात व्यंग्य लेखन पर भी लागू होती है। वह दिन न कभी नहीं आएगा, जब दुनिया को व्यंग्य की जरूरत नहीं होगी। व्यंग्य ही उन लोगों के मन की बात कहता है, जो कुछ कह नहीं पाते। इन दिनों देश के अखबारों में कार्टूनिस्टों की कमी है। खासतौर से हिन्दी अखबारों में कार्टूनिस्ट नहीं हैं। हिन्दी अखबारों का वैचारिक कोना यों भी बहुत कमजोर है। ज्यादातर अखबार महत्वपूर्ण प्रश्नों पर टिप्पणी करने से बचते हैं। बहरहाल यह विषय लम्बा विमर्श माँगता है।

हाल में मुझे  पत्रकारिता से जुड़ी एक वैबसाइट मद्रास कूरियर में एक लेख भारतीय पत्रकारिता के विकास में कार्टूनों की भूमिका पर पढ़ने को मिला। देश के आधुनिक इतिहास को समझने के लिए इन कार्टूनों पर नजर डालना जरूरी है। फिलहाल मैंने यह आलेख इस लेख को पढ़ाने के लिए लिखा है। इस विषय पर भविष्य में कुछ और लिखूँगा।  

Wednesday, February 20, 2019

इमरान खान पर भरोसा किसे है?



पुलवामा कांड पर पाँच दिन बाद अपनी प्रतिक्रिया में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा है कि भारत हमें जानकारी दे, तो हम जाँच करेंगे। इस बात को काफी लोगों ने सकारात्मक रूप से लिया है, पर एक बड़ी संख्या में लोगों को, खासतौर से भारत के लोगों को विश्वास नहीं है। आज के इंडियन एक्सप्रेस में राहुल त्रिपाठी की एक रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया है कि इमरान पर यकीन न करने के कारण क्या हैं। आज के एक्सप्रेस में सम्पादकीय भी इसी विषय पर है। राहुल त्रिपाठी की रिपोर्ट में कहा गया है कि जैशे-मोहम्मद के बाबत भारत की और से दी गई सूचनाओं पर पाकिस्तान पहले से कुंडली मारे बैठा है। भारत के तमाम अनुरोधों के बावजूद वह कुछ करके नहीं दे रहा है। भारत में हुई कम से कम दो बड़ी आतंकी घटनाओं में मसूद अज़हर का नाम है। एक है 2001 का संसद पर हमला और दूसरी है 2016 का पठानकोट हमला। मसूद अज़हर के नाम दो बार इंटरपोल ने दो रेड कॉर्नर नोटिस जारी किए हैं। पहला 2004 में संसद पर हुए हमले के बाबत और दूसरा 2016 में पठानकोट हमले के संदर्भ में। 

Tuesday, February 19, 2019

कुलभूषण जाधव को क्या हम बचा पाएंगे?


पुलवामा कांड के ठीक चार दिन बाद सोमवार से हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में कुलभूषण जाधव के मामले की सुनवाई शुरू हो गई है, जो चार दिन चलेगी. इन चार दिनों में न केवल इस मामले के न्यायिक बिन्दुओं की चर्चा होगी, बल्कि भारत-पाकिस्तान रिश्तों की भावी दिशा भी तय होगी. भारत लगातार इस बात पर जोर दे रहा है कि पाकिस्तान का फौजी प्रतिष्ठान अंतरराष्ट्रीय नियमों-मर्यादाओं और मानवाधिकार के बुनियादी सिद्धांतों को मानता नहीं है. पर ज्यादा बड़ा सवाल है कि क्या हम कुलभूषण जाधव को छुड़ा पाएंगे? इस कानूनी लड़ाई के अलावा भारत के पास दबाव बनाने के और तरीके क्या हैं? पर इतना तय है कि आंशिक रूप से भी यदि हम सफल हुए तो वह पाकिस्तान पर दबाव बनाने में मददगार होगा.

इतिहास के बेहद महत्वपूर्ण पड़ाव पर हम खड़े हैं. इस मामले में अदालत ने सन 2017 में पाकिस्तान को आदेश दिया था कि वह जाधव का मृत्युदंड स्थगित रखे. अदालत का फैसला आने में चार-पाँच महीने लगेंगे, पर यह फैसला दोनों देशों के रिश्तों को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. पाकिस्तान को लगता है कि भारत में चुनाव के बाद बनने वाली नई सरकार से उसकी बात हो सकती है, पर जाधव को कुछ हुआ, तो वार्ता की उम्मीद नहीं करनी चाहिए.

Sunday, February 17, 2019

जैश को भुगतना होगा




पुलवामा कांड पर देश में दो तरह की प्रतिक्रियाएं हैं। पहली है, निंदा नहीं, एक भी आतंकी जिंदा नहीं चाहिए...याचना नहीं, अब रण होगा...आतंकी ठिकानों पर हमला करो वगैरह। दूसरी है, धैर्य रखें, बातचीत से ही हल निकलेगा। दोनों बातों के निहितार्थ समझने चाहिए। धैर्य रखने का सुझाव उचित है, पर लोगों का गुस्सा भी गलत नहीं है। जैशे मोहम्मद ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है, जिसमें उसने बिलकुल भी देर नहीं लगाई है। उसके हौसले बुलंद हैं। जाहिर है कि उसे पाकिस्तान में खुला संरक्षण मिल रहा है। नाराजगी के लिए क्या इतना काफी नहीं है? अब आप किससे बात करने का सुझाव दे रहे हैं? जैशे-मोहम्मद से?

पुलवामा कांड में हताहतों की संख्या बहुत बड़ी है, इसलिए इसकी आवाज बहुत दूर तक सुनाई पड़ रही है। जाहिर है कि हम इसका निर्णायक समाधान चाहते हैं। भारत सरकार ने बड़े कदम उठाने का वादा किया है। विचार इस बात पर होना चाहिए कि ये कदम सैनिक कार्रवाई के रूप में होंगे या राजनयिक और राजनीतिक गतिविधियों के रूप में। सारा मामला उतना सरल नहीं है, जितना समझाया जा रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के पुनरोदय से भी इसका रिश्ता है।

Tuesday, February 12, 2019

गुर्जर आंदोलन और आरक्षण का दर्शन


http://www.rashtriyasahara.com/epaperpdf//12022019//12022019-md-hr-10.pdf
राजस्थान में आरक्षण की मांग को लेकर गुर्जर समुदाय के लोग फिर से आंदोलन की राह पर निकल पड़े हैं। राजस्थान सरकार असहाय नजर आ रही है। सांविधानिक सीमा के कारण वह कोई फैसला कर पाने की स्थिति में नहीं है। आरक्षण के बारे में अब नए सिरे से विचार करने का समय आ गया है। सन 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को ओबीसी कोटा के तहत आरक्षण देने के केंद्र के फैसले को रद्द करने के साथ स्पष्ट किया था कि आरक्षण के लिए नए आधारों को भी खोजा जाना चाहिए। अदालत की दृष्टि में केवल ऐतिहासिक आधार पर फैसले करने से समाज के अनेक पिछड़े वर्ग संरक्षण पाने से वंचित रह जाएंगे, जबकि हमें उन्हें भी पहचानना चाहिए।
अदालत ने ‘ट्रांस जेंडर’ जैसे नए पिछड़े ग्रुप को ओबीसी के तहत लाने का सुझाव देकर इस पूरे विचार को एक नई दिशा भी दी थी। कोर्ट ने कहा कि हालांकि जाति एक प्रमुख कारक है, लेकिन पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए यह एकमात्र कारक नहीं हो सकता। पिछले 13 वर्ष में गुर्जर आंदोलनों में 72 व्यक्तियों की मृत्यु हो चुकी है। मई 2008 में भरतपुर की हिंसा में 15 व्यक्तियों की एक स्थान पर ही मौत हुई थी। स्थिति पर नियंत्रण के लिए सेना बुलानी पड़ा। राजस्थान के गुर्जर स्वयं को अनुसूचित जनजाति वर्ग में रखना चाहते थे, जैसाकि जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में है। मीणा समुदाय ने गुर्जरों को इस आरक्षण में शामिल करने का विरोध किया, क्योंकि यदि गुर्जरों को शामिल किया गया तो उनका कोटा कम हो जाएगा। गुर्जर बाद में अति पिछड़ा वर्ग में आरक्षण के लिए तैयार हो गए। पर कानूनी कारणों से उन्हें केवल एक फीसदी आरक्षण मिल पाया है।
केंद्र सरकार ने जबसे आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए 10 फीसदी आरक्षण की घोषणा की है और उसके लिए संविधान संशोधन भी किया है, उनकी माँग फिर से खड़ी हो गई है। चुनाव करीब हैं। आंदोलन का असर चुनाव पर पड़ने की उम्मीद भी है, शायद इसी वजह से वह फिर से भड़कता नजर आ रहा है। गुर्जरों की आबादी राजस्थान में सात फीसदी है। उनके आंदोलन की शुरूआत अपने लिए पाँच फीसदी आरक्षण की माँग से हुई थी। आंदोलन की शुरूआत सन 2006 में भरतपुर और दौसा में महापंचायतों से हुई थी।

अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय भूमिका की परीक्षा

http://inextepaper.jagran.com/2022523/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/12-02-19#page/8/1
अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी अब लगभग निश्चित है. अमेरिका मानता है कि पाकिस्तानी सहयोग के बिना यह समझौता सम्भव नहीं था. उधर तालिबान भी पाकिस्तान का शुक्रगुजार है. रविवार 10 फरवरी को पाकिस्तान के डॉन न्यूज़ टीवी पर प्रसारित एक विशेष इंटरव्यू में तालिबान प्रवक्ता ज़बीउल्ला मुजाहिद ने कहा कि हम सत्ता में वापस आए तो पाकिस्तान को भाई की तरह मानेंगे. उन्होंने कहा कि इस वक्त अफ़ग़ानिस्तान में जो संविधान लागू है, वह अमेरिकी हितों के अनुरूप है. हमारा शत-प्रतिशत मुस्लिम समाज है और हमारा संविधान शरिया पर आधारित होगा.

इसके पहले 6 फरवरी को मॉस्को में रूस की पहल पर हुई बातचीत में आए तालिबान प्रतिनिधियों ने कहा कि हम समावेशी इस्लामी-व्यवस्था चाहते हैं, इसलिए नया संविधान लाना होगा. तालिबानी प्रतिनिधिमंडल के नेता शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकज़ाई ने कहा कि काबुल सरकार का संविधान अवैध है. उसे पश्चिम से आयात किया गया है. वह शांति के रास्ते में अवरोध बनेगा. हमें इस्लामिक संविधान लागू करना होगा, जिसे इस्लामिक विद्वान तैयार करेंगे.

सवाल है कि अफ़ग़ानिस्तान की काबुल सरकार को मँझधार में छोड़कर क्या अमेरिकी सेना यों ही वापस चली जाएगी? पाकिस्तानी सेना के विशेषज्ञों को लगता है कि अब तालिबान शासन आएगा. वे मानते हैं कि तालिबान और अमेरिका के बीच बातचीत में उनके देश ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है और इसका पुरस्कार उसे मिलना चाहिए. अख़बार ‘दुनिया’ में प्रकाशित एक आलेख के मुताबिक़ पाकिस्तान ने तालिबान पर दबाव डाला कि वे अमेरिका से बातचीत के लिए तैयार हो जाएं. इस वक्त वह ऐसा भी नहीं जताना चाहता कि तालिबान उसके नियंत्रण में है. अलबत्ता अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान की सरकार को आश्वस्त किया है कि हम उसे मँझधार में छोड़कर जाएंगे नहीं. अमेरिका शुरू से मानता रहा है कि तालिबान को पाकिस्तान में सुरक्षित पनाह मिली हुई है.

Monday, February 11, 2019

ममता के पराभव का दौर


अंततः कोलकाता के पुलिस-कमिश्नर राजीव कुमार को सीबीआई के सामने पेश होना पड़ा। इसके पहले इस परिघटना ने जो राजनीतिक शक्ल ली, वह परेशान करने वाली है। अभी तक हम सीबीआई के राजनीतिक इस्तेमाल की बातें करते रहे हैं, पर इस मामले में राज्य पुलिस के राजनीतिक इस्तेमाल का उदाहरण भी है। गत 3 फरवरी को सीबीआई ने राजीव कुमार के घर जाने का फैसला अचानक नहीं किया। उन्हें पिछले डेढ़ साल में चार समन भेजे गए थे। चौथा समन दिसम्बर 2018 में गया था। राज्य पुलिस और सीबीआई के बीच पत्राचार हुआ था।

सीबीआई के फैसले पर भी सवाल हैं। जब सीबीआई के नए डायरेक्टर आने वाले थे, तब अंतरिम डायरेक्टर के अधीन इतना बड़ा फैसला क्यों हुआ? पर सीबीआई पूछताछ करने गई थी, गिरफ्तार करने नहीं। तब मीडिया में ऐसी खबरें किसने फैलाईं कि उन्हें गिरफ्तार किया जाने वाला है? फिर राज्य पुलिस के कुछ अफसरों का मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ धरने पर बैठने को क्या कहेंगे? यह बात अपने आप में आश्चर्यजनक है कि किसी पुलिस-प्रमुख से पूछताछ के लिए सीबीआई के सामने समन जारी करने की नौबत आ जाए।

विस्मय है कि आर्थिक अपराध को विरोधी दल राजनीतिक चश्मे से देख रहे हैं। इस बात से आँखें मूँद रहे हैं कि पुलिस को राज्य सरकार के एजेंट के रूप में तब्दील कर दिया गया है। यह सिर्फ बंगाल में नहीं हुआ है, हर राज्य में ऐसा है। सुप्रीम कोर्ट ने सन 2006 में पुलिस सुधार के निर्देश जारी किए थे, उनपर आजतक अमल नहीं हुआ है। सन 2013 में इशरत जहाँ के मामले में सीबीआई और आईबी के बीच जबर्दस्त मतभेद पैदा हो गया था। केन्द्र की यूपीए सरकार ने गुजरात के बीजेपी-नेताओं को घेरने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल किया।  आज हमें उसका दूसरा रूप देखने को मिल रहा है।