Wednesday, March 13, 2019

स्त्रियों को टिकट देने में हिचक क्यों?

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ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने घोषणा की है कि हम एक तिहाई सीटें महिला प्रत्याशियों को देंगे। प्रगतिशील दृष्टि से यह घोषणा क्रांतिकारी है और उससे देश के दूसरे राजनीतिक दलों पर भी दबाव बनेगा कि वे भी अपने प्रत्याशियों के चयन में महिला प्रत्याशियों को वरीयता दें। उधर ममता बनर्जी ने लोकसभा चुनाव में 41 फीसदी टिकट महिलाओं को दिए हैं। दोनों घोषणाएं उत्साहवर्धक हैं, पर दोनों लोकसभा के लिए हैं। ओडिशा में विधानसभा चुनाव भी हैं, पर उसमें टिकट वितरण का यही फॉर्मूला नहीं होगा। बंगाल में अभी चुनाव नहीं हैं, इसलिए कहना मुश्किल है कि विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की रणनीति क्या होगी। बहरहाल दोनों घोषणाएं सही दिशा में बड़ा कदम हैं। 
सत्रहवें लोकसभा चुनाव में देश के 90 करोड़ मतदाताओं को भाग लेने का मौका मिलेगा, इनमें से करीब आधी महिला मतदाता हैं। पर व्यावहारिक राजनीति इस आधार पर नहीं चलती। आने दीजिए पार्टियों की सूचियाँ, जिनमें पहलवानों की भरमार होगी। राजनीति की सफलता का सूत्र है विनेबिलिटीयानी जीतने का भरोसा। यह राजनीति पैसे और डंडे के जोर पर चलती है। पिछले लोकसभा चुनाव के परिणामों के विश्लेषण से एक बात सामने आई कि युवा और खासतौर से महिला मतदाताओं ने चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह भूमिका इसबार के चुनाव में और बढ़ेगी, पर राजनीतिक जीवन में उनकी भागीदारी आज भी कम है। कमोबेश दुनियाभर की राजनीति पुरुषवादी है, पर हमारी राजनीति में स्त्रियों की भूमिका वैश्विक औसत से भी कम है। सामान्यतः संसद और विधानसभाओं में महिला सदस्यों की संख्या 10 फीसदी से ऊपर नहीं जाती।


सोलहवीं लोकसभा के 542 सदस्यों में से स्त्री सदस्यों की संख्या 64 यानी कि 11.8 प्रश तक पहुँची। शुरूआती वर्षों में स्थिति और भी खराब थी। सन 1952 में पहली लोकसभा में केवल 4.4 फीसदी महिला सदस्य थीं। सन 1977 में केवल 3.5 फीसदी महिला सदस्य ही थीं। भारत के मुकाबले अफगानिस्तान की संसद में 27.7, पाकिस्तान में 20.6, बांग्लादेश में 19, नेपाल में 30 और सऊदी अरब की संसद में 19.9 फीसदी स्त्रियाँ हैं। वैश्विक औसत 21 से 22 फीसदी का है। इंटर पार्लियामेंट्री यूनियन की एक रिपोर्ट के अनुसार जन-प्रतिनिधित्व में स्त्रियों की भूमिका के लिहाज से भारत का दुनिया के देशों में 148वाँ स्थान है।

इस विषय पर आगे बात करने के पहले नवीन पटनायक की पहल पर नजर डालें। नवीन पटनायक उस महिला आरक्षण विधेयक के पक्ष में थे, जो संसद से आजतक पास नहीं हो पाया है। सन 1996 से 2008 तक संसद में चार बार महिला आरक्षण विधेयक पेश किए गए हैं, पर राजनीतिक दलों ने उन्हें पास होने नहीं दिया। नवीन पटनायक को कम से कम इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि उन्होंने इसे दूसरे रास्ते से लागू करने की कोशिश की है। ओडिशा विधानसभा महिला आरक्षण के पक्ष में सर्वानुमति से एक प्रस्ताव पास करके केन्द्र से माँग कर चुकी है कि स्त्रियों को जन-प्रतिनिधित्व में 33 फीसदी आरक्षण दिया जाए।

ओडिशा की कुल 21 लोकसभा सीटों में से पिछली बार 20 पर बीजू जनता दल को विजय मिली थी। इनमें केवल तीन महिला सदस्य थीं। एक तिहाई के वायदे को पूरा करने के लिए इसबार बीजद को 21 में से सात पर महिला प्रत्याशियों को टिकट देना होगा। सात महिला प्रत्याशी खड़े करने के लिए उन्हें कम से कम तीन ऐसे प्रत्याशियों का पत्ता काटना होगा, जो पिछली बार जीते थे। बैजयंत पांडा पहले से हट चुके हैं, इसलिए यह संख्या तीन है, वरना चार होती। यह काम अपेक्षाकृत सरल है। ज्यादा मुश्किल काम तब होता, जब वे विधानसभा चुनाव में भी एक तिहाई महिलाओं को टिकट देने की घोषणा करते। वर्तमान विधानसभा में बीजद की केवल 11 महिला सदस्य हैं। इस कोटे को पूरा करने की कसरत में बड़ी संख्या में पुरुष प्रत्याशियों के टिकट काट पड़ते और इतना बड़ा जोखिम उठाने की स्थिति में वे आज भी नहीं हैं।  

पार्टियों के प्रत्याशियों का चयन करते समय आंतरिक कोटा तय करने की बात आकर्षक जरूर है, पर व्यावहारिक रूप से यह भी काफी मुश्किल काम है। दिसम्बर के महीने में जब संसद में ट्रिपल तलाक विधेयक पर विचार चल रहा था, तब ममता बनर्जी ने कहा था कि राजनीतिक दलों को संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिया जाना चाहिए। सच यह है कि ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी में 33 फीसदी सीटें महिलाओं को देने का फैसला नहीं किया है। हाल में उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने राजनीतिक दलों से अपील की कि वे महिला आरक्षण को लेकर आम सहमति बनाएं। सच यह है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों इस आरक्षण के पक्ष में हैं। दोनों चाहें तो यह विधेयक पास हो सकता है, पर पास नहीं होता।

सवाल है कि ऐसा क्यों नहीं हो पाता है?  24 अप्रैल 1993 को भारत में संविधान के 73वें संशोधन के आधार पर पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा हासिल कराया गया। यह फैसला ग्राम स्वराज के स्वप्न को वास्तविकता में बदलने की दिशा में एक कदम था, पर उतना ही महत्वपूर्ण महिलाओं की जीवन में भागीदारी के विचार से था। इसमें महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों के आरक्षण की व्यवस्था थी। यह कदम क्रांतिकारी साबित हुआ। पंचायत राज में अब दूसरी पीढ़ी की युवा लड़कियाँ सामने आ रहीं हैं। महिलाओं की भूमिका में युगांतरकारी बदलाव आया है। अब यह आरक्षण 50 प्रतिशत हो रहा है। जब स्थानीय निकायों में आरक्षण से बदलाव आया है, तो राष्ट्रीय स्तर पर क्यों नहीं? इसकी भी वजह है। नई संस्था या नई संरचना में ऐसे प्रयोगों को लागू करना आसान होता है। पहले से चल रही संस्थाओं में बड़े बदलाव करना मुश्किल होता है।

पार्टियों के भीतर क्रमिक रूप से स्त्रियों के महत्व को स्थापित करने और सीटों के आवंटन में उन्हें वरीयता देने से ही अब यह काम होगा। दुनिया के कई देशों में इसे सफलता भी मिली है। मसलन स्वीडन की संसद में सीटों का कोटा नहीं है, बल्कि पार्टियों के भीतर कोटा है। वहाँ संसद में 47 फीसदी स्त्रियों की उपस्थिति है। अर्जेंटीना में सीटों का भी कोटा है और पार्टियों के भीतर भी कोटा है। वहाँ 40 फीसदी स्थान स्त्रियों के पास है। नॉर्वे की संसद में 36 फीसदी महिला सदस्य है।

इस काम के लिए स्त्रियों की पहल और सामाजिक समर्थन की जरूरत भी है। हमारे यहाँ पहिया उल्टा घूम रहा है। पहले राजनीति में साफ छवि के लोग जाते थे। अब अपराधियों की भूमिका बढ़ रही है। इस वजह से एक बड़ा तबका राजनीति को अच्छी निगाहों से नहीं देखता, खासतौर से स्त्रियाँ। जबकि हमारा पूरा जीवन राजनीतिक फैसलों पर टिका है।

जब स्त्रियाँ बैंकों, कॉरपोरेट हाउसों, कारखानों, प्रयोगशालाओं, सेना, हवाई जहाजों, रेल-इंजनों और मीडिया हाउसों का संचालन कर रहीं है, तो वे संसद और विधानसभाओं की कार्य-पद्धति में भी क्रांतिकारी बदलाव ला सकता हैं। सत्ता के केन्द्रों की चाभी स्त्रियों के हाथ में लगेगी, तभी बड़े बदलावों की उम्मीद करनी चाहिए। जन-प्रतिनिधि के रूप में ही स्त्रियाँ उन संरचनात्मक अवरोधों को गिराएंगी, जो समस्या के रूप में हमारे सामने खड़े हैं। पर यह काम एकतरफा तरीके से नहीं हो सकता। नवीन पटनायक की इस पहल से कोई बड़ी उम्मीद नहीं लगाई जा सकती। इसे महिला वोटरों को खुश करने की कोशिश कह सकते हैं। फिलहाल इतना ही काफी है।







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