Wednesday, February 2, 2011

क्या पाठक विचार पढ़ना नहीं चाहते?


सम्पादकीय पेज खत्म करने के बाद आज के डीएनए में उसके पाठकों की चिट्ठियाँ छपीं हैं। कुछ ने समर्थन किया है और कुछ ने असहमति जताई है। बेशक पाठक पसंद करें तो सब ठीक है, पर क्या अखबार ने सम्पादकीय पेज खत्म करने के पहले पाठकों से पूछा था?

कुछ लोग मानते हैं कि बाज़ार तय करता है कि सही क्या है और गलत क्या है। पर बाज़ार क्या सोचता है इसका पता कैसे लगता है? मुम्बई में बाज़ार का लीडर तो टाइम्स ऑफ इंडिया है। करीब दसेक साल पहले टाइम्स ऑफ इंडिया के लखनऊ संस्करण में सम्पादकीय पेज खत्म कर दिया गया था। सिर्फ पेज खत्म किया था। सम्पादकीय किसी पेज में छपते थे, मुख्य लेख किसी और पेज में पाठकों के पत्र किसी और पेज में। खैर टाइम्स ने बाद में सम्पादकीय पेज अपनी जगह वापस कर दिया। टाइम्स के सम्पादकीय पेज आज भी श्रेष्ठ है।


सम्पादकीय पेज को हटाने के पक्ष में दो तर्क मुझे लचर लगते हैं। एक तो यह कि अब इसे ज्यादा पाठक नहीं पढ़ते। और दूसरे युवा पाठकों को आकर्षित करने के लिए इसे हटाना ही बेहतर है।

अनेक के बीच विचार को गहराई से समझने वाला एक होता है
क्या उसे हटा देना चाहिए?
जहाँ तक पहली बात है,  सम्पादकीय पेज के पाठकों की संख्या कभी बहुत ज्यादा नहीं रही। वैसे ही जैसे गम्भीर साहित्य और दार्शनिक विषयों की किताबों के मुकाबले सस्ता रूमानी, चटपटा साहित्य ज्यादा बिकता है। पर सम्पादकीय पेज का पाठकों ने कभी विरोध नहीं किया। डीएनए के पाठकों ने किया होगा, मुझे यकीन नहीं। एक अखबार तकरीबन पूरे समाज का आइना होता है। उसमें चटपटा माल भी होता है गम्भीर भी।

दूसरी बात युवा पाठकों की है। यह कैसे मान लिया गया कि युवा पाठक गरिष्ठ और गहरी बातें नहीं पढ़ना चाहते। जो चाहते हैं उनमें युवा भी हैं। और जो नहीं चाहते उनमें बूढ़े भी हैं। क्या हम समूची युवा पीढ़ी को मौज-मस्ती में मशरूफ मानते हैं? मेरे विचार से आज की युवा पीढ़ी पिछली युवा पीढ़ी के मुकाबले ज्यादा जागरूक और जानकार है। इससे अगली पीढ़ी और बेहतर होगी। हमारे देश में जब मताधिकार की उम्र 21 से घटाकर 18 की जा रही थी तब तर्क यह था कि युवा वर्ग भी जागरूक है उसे व्यवस्था में शामिल करें। पिछले लोकसभा चुनाव में जागो रे या मतदाता को जागरूक करने वाले कार्यक्रमों में युवा वर्ग की जबर्दस्त भागीदारी थी।

फर्क पॉइंट ऑफ व्यू का है।
 उसे आप नहीं समझाएंगे तो कौन समझाएगा?
सम्पादकीय पेज हो या न हो यह मसला ही नहीं है। मसला है क्या हम किसी दृष्टिकोण को अपनाना चाहते हैं। पॉइंट ऑफ व्यू पास में होना चाहिए। डीएनए मार्केट में जमा नहीं है। वह किसी करतब से बढ़ना चाहता है। अखबारों को जमने के लिए पैसा भी चाहिए। पैसा विज्ञापन से आता है। सिद्धांत है कि विज्ञापन तब मिलेगा जब अखबार की पाठक तक पहुँच होगी। पाठक तक पहुँच बनाने के लिए सत्ता और प्रतिष्ठान की आलोचना भी करनी पड़ेगी। उस प्रतिष्टान के साथ मीडिया मैनेजर भी हैं। मीडिया मैनेजर माने विज्ञापन देने वाले। इनमे दो तरह के लोग हैं. एक, जो उपभोक्ता माल किसी भी कीमत पर खरीदार के गले में उंड़ेलना चाहते हैं। दूसरे वे जो किसी कारोबार या उद्योग को चलाते हैं और उसके पक्ष में जनमत, सरकारी नीतियाँ और यहां तक कि सरकार  बनाना चाहते हैं।

आप सावधानी से देखें तो पाएंगे कि इस वक्त समूचे मीडिया का कंटेंट प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में विज्ञापनदाता  तय कर रहे हैं। अभी हाल में मैने दिल्ली प्रेस के प्रमुख परेश नाथ का साक्षात्कार पढ़ा। उनका कहना था कि उनकी पत्रिका सरस सलिल देश में सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिका है। पर उसमें विज्ञापन उतना नहीं है जितना अंग्रेजी की एक बेहद मामूली बिकने वाली पत्रिका में होता है। इसके अनेक कारण होंगे, पर एक बात साफ है कि विज्ञापनदाता सबसे पावरफुल है। वही विज्ञापनदाता मौका पड़ने पर अपने पक्ष में खबर छपवा लेता है या अपने खिलाफ जाने वाली खबर रुकवा लेता है। विज्ञापनदाता को ज्यादा सोचने-समझने वाला समाज नहीं चाहिए।

विडंबना है कि हमारी व्यवस्था गरीबों को बाहर निकलने का मौका दे रही है। यह उसका उद्देश्य नहीं है। पर दूसरा कोई रास्ता नहीं है। पढ़-लिखकर लोग सामने आएंगे तो व्यवस्था के ढोंग पर प्रहार करेंगे। मुख्य.धारा का मीडिया एक कृत्रिम राजनैतिक दर्शन के पक्ष में आम सहमति बनाना चाहता है। पर उसे उन लोगों से चिढ़ है जो सवाल पूछते हैं। मीडिया माने वे विज्ञापन जो एक खास तरह के टूथपेस्ट, तेल-फुलेल, क्रीम, टीवी, मोबाइल फोन या वैसे ही माल को ज्यादा से ज्यादा बेचने में मदद करे। इसके लिए बच्चों को पसंद आने वाले तरीके खोजे गए। महिलाओं को पसंद आने वाले मुहावरे उठाए गए। इसके समांतर मनोरंजन चैनलों के सीरियलों के विषय बदले, महिलाओं के परिधान बदले, पात्रों का सामाजिक-आर्थिक परिवेश बदला। यही मनोदशा युवा वर्ग से कहती है कि सोचना-विचारना बूढ़ी मनोवृत्ति है। आओ मौज करो।

पर यह चलेगा नहीं। युवा वर्ग ही बदलाव का वाहक है। संयोग है कि भारत का युवा वर्ग बूढ़ों के प्रति संवेदनशील है। वह अपने पारिवारिक-सामाजिक दायित्वों को समझता है। नौजवान हमेशा मस्ती चाहते रहे है। इसमें नई बात क्या है। कोई आज के नौजवान ही मस्त नहीं हैं। नौजवानों की कुछ दूसरी प्रवृत्तियों पर भी ध्यान दें। 1.वे आदर्शवादी होते हैं, 2.उनमें जिज्ञासु भावना होती है, 3.वे जोखिम उठाने को तैयार होते हैं, 4.वे रोमांटिक होते हैं. रोमांटिक माने दूसरे के प्रति दर्द। यह दर्द प्रेमी-प्रेमिका का भी होता है इंसानियत के प्रति भी। चूंकि उन्हें रोजगार या कारोबार की ज़रूरत होती है इसलिए वे पूरी व्यवस्था को समझना भी चाहते हैं।

हम विषय से ज्यादा न भटकें इसलिए मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि  कोई चीज़ बोरिंग, बोझिल और निरर्थक है तो उसे हटा दीजिए। पर ऐसा तो पूरे अखबार में था. आपने पेज 1 को रोचक बनाया, खेल के पेज को रोचक बनाया, बिजनेस पेज की रंगत बेहतर की, लोकल खबरों का रूप बदला। पर इनमें से किसी पेज को खत्म तो नहीं किया। आपको ओपीनियन एक विषय के रूप में ही बोरिंग क्यों लगा। जैसे-जैसे बदलाव आ रहा है पाठक को घटनाओं, प्रवृत्तियों, नीतियों और विचारों के पर्सपेक्टिव और रेफरेंस समझने की ज़रूरत बढ़ेगी या घटेगी। लिखने या पेश करने के तरीके बदलें। चित्रों-ग्रैफिक्स का सहारा लें।  जैसे खबर एक सूचना है वैसे ही विचार भी एक सूचना है। लोग विचार जानना चाहते हैं। खासतौर से नौजवान, क्योंकि कई बार वे असमंजस में होते हैं। उन्हें राह बताने की ज़रूरत होती है।

बहरहाल डीएनए के पाठकों के विचार पढ़ें-

Innovative step


At the outset, I was a bit shocked to read the front page headline saying ‘From today, DNA does away with the edit page’ (Feb 1). But even before I could become disappointed, I could see reasons in what you had stated. Gone are the days when the editorial page & its columns were avidly read for a newspaper’s views & its standings. In fact, I recollect that the edit page and the 
editor’s views were rather mandatory, even during the Emergency, a couple of newspapers carried a “recipe” in cookery or a piece on travel etc... as “edit” topics! As a letter writer for over 30 years, I was wondering what will happen to the letters column. I was happy to note that you will be retaining the readers’ letters column. This is perhaps the first time that the readers’ letters column has gained a promotion or an elevation by being moved to page 2 in a major newspaper.Thank you and hats off to this innovative step
—S Krishna Kumar, Dombivli


II
The initiative of DNA to do away with the editorial (Feb 1) is innovative.No daily, weekly or periodical has taken such a bold step and a departure from the general convention. With the new editor-in-chief Aditya Sinha joining DNA recently, surely it will add verve to the daily. There were days when readers never missed the editorial, with their busy schedules.The contemporary generation scans the headlines.
—H P Murali, Bangalore


III
I laud your revolutionary idea of doing away with the edit page. You are right that nobody reads 3 edits in a paper written anonymously by people who don’t care and who write simply to fill up the space. But at a time when the Sena is anyways dying, I was shocked to Jyoti Punwani harping about them as the goons of Mumbai. Punwani lives in the past. There is no Sena on the streets any more, not in the way they were 20 years ago. 
—Tarun Gaikwad,via email


IV
DNA relinquishing the editorials and the edit page comes as a whiff of fresh air. It is a very encouraging change which will surely prompt many youngsters to read newspapers which are slowly but surely fading into oblivion due to television, mobile phones and the Internet. DNA has taken a bold step and ventured out to wipe out serious and - for many - boring editorials and lengthy articles that people hardly read. An occasional editorial on the first page, however, would be welcomed as it would reflect the opinion and the voice of the newspaper. Kudos for ushering in this change.
—K Chidanand Kumar, Bangalore



What’s up, DNA?


It is hard to comprehend how many of the numerous DNA readers would hazard a guess behind your logic to do away with the edit page. Your reasoning that “it has long lived its usefulness, it’s boring, very few read it” sounds presumptuous, ambiguous and partial.An editorial reflects the policy, profile and philosophy of the paper. Some papers have editorials with 2 or 3 parts written by different sub-editors or assistant.editors. Your change in the format is welcome.However, I’ve never heard of a newspaper without an editorial!
—Cliff J D’Souza, Mumbai


II
By doing away with the edit page you’ve smothered the soul of DNA. A newspaper without edit page is like a nation without a flag.Your audacity amounts to self-flagellation. Moreover, in the beginning, Speak Up was the liveliest page. The page was been gradually shrunk. What’re you up to, DNA?
—KP Rajan , via email

6 comments:

  1. आपके आलेख से पूरी तरह सहमत हूँ सर! सम्पादकीय पृष्ठ की महत्ता इन दुश्चक्रों से कभी ख़त्म नहीं होगी.

    सादर

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  2. Very interesting and important issue.But again,nowadays, market decides. And market decide in favor of Profit. For market powers Profit is important than all the other issues.

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  3. यदि किसी अखबार में विचार नहीं हैं तो उसे पढ़ना ही पसंद नहीं करूंगा।

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  4. मेरा विचार है कि सम्पादकीय सभी तथ्यों का विश्लेषण करने के उपरांत आयी अखबार कि राय होती है . आजकल के अनेकों अखबार किसी भी न्यूज़ के साथ - साथ अपनी भी राय व्यक्त करते चलते हैं. इसके कारण क्या हैं तो मैं नहीं जानता, परन्तु वे समाचार को निष्पक्ष नहीं रहने देते. ऐसे अखबार अगर सम्पादकीय पृष्ठ न रखे तो कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि अपनी अधकचरी राय तो वे न्यूज़ के साथ दे ही चुके हैं, परन्तु जो समाचार पत्र निष्पक्ष समाचार छापने पर विश्वास रखते हैं, उसमे अगर सम्पादकीय नहीं होगा तो निश्चित रूप से एक अधूरापन लगेगा. सम्पादकीय से वास्तव में ज्ञान मिलता है, जबकि शेष पत्र सूचना देता है. शायद सम्पादकीय का हटना एक अच्छा निर्णय नहीं होगा.

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  5. दिवेदी जी ने यथार्थ कह ही दिया.

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  6. डीएनए का यदि यह सोचना है कि संपादकीय पेज पाठक नहीं पढ़ते तो उसे हटाने के बजाए ज्यादा पाठक पाने के लिए पॉर्न साहित्य छापने लगते!
    हद है. पाठक को इन्नोवेशन चाहिए, मगर एक समाचार पत्र में संपादकीय पेज न हो तो वो एक विज्ञापनों से भरे पैम्प्लेट से ज्यादा क्या हुआ?

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