गुरुवार की रात मीडियाकर्मी करन थापर अपने एक शो
में कुछ लोगों के साथ बैठे नरेन्द्र मोदी और देश के चुनाव आयोग को कोस रहे थे।
मोदी ने वर्धा में कहा कि कांग्रेस ने हिन्दुओं का अपमान किया है, उसे सबक सिखाना
होगा। चुनाव आयोग ने तमाम नेताओं के बयानों पर कार्रवाई की है, मोदी के बयान पर
नहीं की। चुनाव आयोग मोदी सरकार से दब रहा है। एक गोष्ठी में कहा जा रहा था, चुनाव
में जनता के मुद्दे ही गायब हैं। पहली बार गायब हुए क्या? यह बात हर चुनाव में कही जाती है।
हरेक चुनाव के दौरान हमें लगता है कि लोकतंत्र का
स्तर गिर रहा है। नैतिकता समाप्त होती जा रही है। यही बात हमने बीस बरस पहले भी
कही थी। तब हमें लगता था कि उसके बीस बरस पहले की राजनीति उदात्त, मूल्यबद्ध,
ईमानदार और जिम्मेदार थी। ऐतिहासिक दस्तावेजों को ठीक से पढ़ें, तो पाएंगे कि
संकीर्णता, घृणा, स्वार्थ और झूठ का तब भी बोलबाला था।
वोटर की गुणवत्ता
जातिवाद, साम्प्रदायिकता, भावनाओं का दोहन, गुंडागर्दी,
अपराधियों की भूमिका, पैसे का बढ़ता इस्तेमाल वगैरह-वगैरह। पर ये क्यों हैं? हैं तो इनके पीछे कोई वजह होगी। हम जिस सिस्टम की रचना
कर रहे हैं, वह हमारे देश में तो नया है ही, सारी दुनिया में भी बहुत पुराना नहीं
है। हमने क्यों मान लिया कि सार्वभौमिक मताधिकार जादू की छड़ी है, जो चमत्कारिक
परिणाम देगा? हमारे विमर्श पर यह बात हावी है कि जबर्दस्त
मतदान होना चाहिए। जितना ज्यादा वोट पड़ेगा, उतना ही वह ‘जन-भावनाओं’ का प्रतिनिधित्व करेगा। यह जाने बगैर कि जनता की दिलचस्पी चुनाव में
कितनी है? और सिस्टम के बारे में उसकी जानकारी का स्तर क्या
है?
लोकतंत्र की बुनियादी इकाई नागरिक है। उसकी
गुणवत्ता के सवाल हम नहीं उठाते। सारे वोटर एक जैसे नहीं हैं। समझदारी, शिक्षा और
सिस्टम को सही रास्ते पर लाने में उनकी दिलचस्पी का भी महत्व है। हमें आर्थिक
विकास के उस स्तर को भी छूना होगा, जहाँ से ‘जन-भावनाओं’ का प्रतिनिधित्व हो सके। सच है कि पिछले
बहत्तर साल में वोटर की दिलचस्पी का स्तर बढ़ा है, पर वह अधूरा है। 1952 के चुनाव
में यदि दो फीसदी वोटर जागरूक थे, तो आज बीस फीसदी होंगे। यह केवल अनुमान है।
मतदान का प्रतिशत भले ही कम हो, पर उसमें भाग लेने वालों की दिलचस्पी पूरी होनी
चाहिए। आप इस तथ्य से वाकिफ हैं कि गाँवों, कस्बों में चुनाव सभाएं शुरु करने के
लिए नौटंकी, नाच और गाने-बजाने के कार्यक्रम रखे जाते हैं?
तब जाकर भीड़ जमा होती है।
झूठे का बोलबाला!
हम आदर्शों
की बातें करते हैं, पर राजनीति ‘ऑब्जेक्टिव रियलिटी’ पर चलती है।
इस बार के चुनाव की सबसे बड़ी सच्चाई है ‘फेक न्यूज’। कहावत है ‘सच्चे का बोलबाला और झूठे का मुँह काला’। पर सच्चाई इसके उलट है। इसरायली लेखक युवाल नोह हरारी ने 21वीं सदी के
21 सबक शीर्षक से अपनी किताब में लिखा है कि हम ‘उत्तर-सत्य’ दौर में हैं। यह दौर मनुष्य प्रजाति के जन्म के बाद से ही है। फेसबुक,
ट्विटर, ट्रम्प, पुतिन, मोदी और राहुल को मत कोसिए। इंसान की फितरत है झूठ बोलना।
इस झूठ को हम इस आधार पर सही साबित करते हैं कि यह ज्यादा बड़े उद्देश्य के लिए
बोला जाता है। महाभारत की लड़ाई में धर्मराज युधिष्ठिर ने बोला। ‘वृहत्तर सत्य’ की रणनीति के रूप में फरेब को कृष्ण
ने सही साबित किया।
राजनीति
इस वृहत्तर सत्य की खोज है। जब तक जनता की वृहत्तर समझ इसमें शामिल नहीं होगी,
हमें फरेब घेरते रहेंगे। जोनाथन
स्विफ्ट ने लिखा है, दुनिया जिसे राजनीति के नाम से जानती है वह केवल भ्रष्टाचार
है और कुछ नहीं। सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के इंग्लैंड में राजनीतिक व्यवस्था बन ही
रही थी। पत्रकारिता जन्म ले रही थी। उन दिनों विमर्श पैम्फलेट्स के मार्फत होता
था। स्विफ्ट अपने दौर के श्रेष्ठ पैम्फलेटीयर थे। वह भी नई विधा थी। स्विफ्ट ने उस
दौर की दोनों महत्वपूर्ण पार्टियों टोरी और ह्विग के लिए पर्चे लिखे थे। तकरीबन
तीन सौ साल पहले उनकी राजनीति के बारे में ऐसी राय थी।
करीब डेढ़ दशक पहले कहावत प्रसिद्ध थी, ‘सौ में नब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान।’ यह बात ट्रकों के
पीछे लिखी नजर आती थी। यह एक प्रकार का सामाजिक अंतर्मंथन है। एक सच्चाई की
स्वीकृति। आप निराश होना चाहें, तो कोई रोकेगा नहीं, पर सच यह है कि रास्ता इसी
राजनीति के भीतर से निकलेगा।
आपकी भूमिका क्या है?
सवाल पूछने वालों से भी सवाल होने चाहिए। निराशा
के इस गंदे गटर को बहाने में आपकी भूमिका क्या है? ऐसे सवाल हमें कुछ देर के लिए विचलित कर देते हैं। यह भावनात्मक मामला
है। भारत जैसे देश को बदलने और एक ‘नई व्यवस्था’ को कायम करने के लिए बहत्तर साल काफी नहीं होते। खासतौर से तब, जब हमें
ऐसा देश मिला हो, जो औपनिवेशिक दौर में बहुत कुछ खो चुका था।
आजादी के सत्तर साल में हम न जाने हम कितनी बार
अंदेशों से घिरे हैं और हर बार बाहर निकल कर आए हैं। ट्रेन के सफर में आपने भी कभी
उन चर्चाओं में हिस्सा लिया होगा, जो सहयात्रियों के बीच अचानक शुरू हो जाती हैं।
ट्रेन के लेट चलने से लेकर बात शुरू होती है और घूम-फिरकर विदेश नीति तक जाती है।
और बात का लब्बो-लुबाव निकलता है कि सब चोर हैं, मिलकर लूट रहे हैं, हम कुछ नहीं
कर सकते वगैरह।
ऐसी वार्ताओं में कभी ऐसा बंदा भी निकलता है, जो
बताता है कि हमारी ट्रेन का नेटवर्क दुनिया के सबसे बड़े नेटवर्क में से एक है।
यहाँ दुनिया का सबसे सस्ता किराया है। जिस पटरी पर सत्तर साल पहले पाँच गाड़ियाँ
चलती थीं, उसपर आज सौ गाड़ियाँ चलती हैं। हम धक्के खा रहे हैं, पर बदलाव भी हो रहा
है। सब कुछ चल रहा है, तो इसके पीछे भी कुछ लोग हैं। वे काम कर रहे हैं, तभी देश
चल रहा है। बातचीत दूसरी पटरी पर चली जाती है।
हमें राजनीति चाहिए
सारा दोष राजनीति का है। पॉलिटिक्स हमारे यहाँ
गाली बन चुकी है। पर हमें राजनीति चाहिए, क्योंकि बदलाव का सबसे बड़ा जरिया
राजनीति है। उससे हम बच नहीं सकते। सुधार होना है तो सबसे पहले राजनीति में होना
चाहिए। वोट की राजनीति और बदलाव की राजनीति दो अलग-अलग ध्रुवों पर खड़ी है।
सामाजिक टकरावों का सबसे बड़ा कारण वोट की राजनीति है। यह तबतक रहेगी, जबतक
सामान्य वोटर की समझ अपने हितों को परिभाषित करने लायक नहीं होती। यह भी वक्त-खाऊ
प्रक्रिया है।
कितनी भी गाली दें, पिछले सत्तर साल की
उपलब्धियों की सूची बनाएंगे तो लोकतंत्र का नाम सबसे ऊपर होगा। लोकतंत्र के साथ
उसकी संस्थाएं और व्यवस्थाएं दूसरी बड़ी उपलब्धि है। इन संस्थाओं का ह्रास और उस
ह्रास पर हमारी तीखी नजरें, भी एक उपलब्धि है। चुनाव उसका सबसे महत्वपूर्ण जरिया
है।
भारत के चुनाव-संचालन की सफलता के इर्द-गिर्द एक
सवाल ब्रिटिश पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’ ने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान उठाया था। भारत
चुनाव-संचालन में इतना सफल क्यों है? इसके साथ जुड़ा उसका एक और सवाल था। जब इतनी सफलता के साथ वह चुनाव
संचालित करता है, तब उसके बाकी काम इतनी सफलता से क्यों नहीं
होते? मसलन उसके स्कूल, स्वास्थ्य
व्यवस्था, पुलिस वगैरह से लोगों को शिकायत क्यों है?
शिकायत जिनसे है, वही काम आते हैं
पत्रिका ने एक सरल जवाब दिया कि जो काम छोटी अवधि
के लिए होते हैं, उनमें भारत के लोग पूरी
शिद्दत से जुटते हैं। वही सरकारी कर्मचारी अपने रोजमर्रा कार्यों में इतने अनुशासन
से काम नहीं करते। इकोनॉमिस्ट का निष्कर्ष था कि उस विभाग के सरकारी कर्मचारी
बेहतर काम करते हैं, जिसपर जनता की निगाहें होती हैं। चुनाव
आयोग का अपना कोई स्टाफ नहीं होता। चुनाव का कार्य वही प्रशासनिक मशीनरी करती है,
जो सामान्य दिनों में दूसरे काम करती है।
बहरहाल राजनीति ने हमें जोड़ा है और तोड़ा भी है।
हमारे सबसे समझदार लोग राजनीति में हैं और सबसे बड़े अपराधी भी। आदर्श और पाखंड
दोनों हमें एकसाथ राजनीति में दिखाई पड़ते हैं। स्वतंत्र भारत ने अपने नागरिकों को
तीन महत्वपूर्ण लक्ष्य पूरे करने का मौका दिया। ये लक्ष्य हैं राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय और गरीबी का उन्मूलन। इन लक्ष्यों को
पूरा करने का साजो-सामान हमारी राजनीति में है। भारत की कोई राजनीति इन लक्ष्यों
से मुँह नहीं फेर सकती। इनपर हमारी आमराय है। आमराय का बनना हमारे लोकतंत्र का
विशेष गुण है। धीरे-धीरे यही बात हमें रास्ते पर लेकर जाएगी। नेहरू का हो अटल का
या मोदी का ‘विज़न’ या दृष्टि की जरूरत हमें तब भी थी और आज भी है। आर्थिक दृष्टि
से सन 1991 में भारत ने जो रास्ता पकड़ा वह नेहरू के रास्ते से अलग था। बावजूद
इसके कि पीवी नरसिंहराव और मनमोहन सिंह दोनों नेहरू की विरासत वाली पार्टी के नेता
थे। इस दृष्टि को राष्ट्रीय सहमति की दरकार है।
लोकतंत्र
को भी समझें
चुनावी लोकतंत्र को लेकर हमारे समाज में हमेशा
विस्मय, अचम्भे और अविश्वास का भाव रहा है। इकबाल का इकबाल की मशहूर पंक्तियाँ हैं:-
जम्हूरियत एक तर्जे हुकूमत है कि जिसमें/बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते
परम्परा से हम सब को बराबर नहीं मानते हैं। हमें
लगता है कि हमारे बीच कुछ लोग कम समझदार हैं, जिन्हें समझा-बुझाकर लोग सत्ता के
सिंहासन पर बैठ जाएंगे। वास्तव में हुआ भी ऐसा ही है। वोटरों को खुश करने की कला
का नाम राजनीति हो गया है। राजनीति देश का सबसे बड़ा बिजनेस भी है। घोटालों और
वित्तीय अनियमितताओं का रिश्ता देश की चुनाव व्यवस्था से जुड़ा है। चुनावों के साथ-साथ उसकी पद्धति को दुरुस्त
करने की लड़ाई भी साथ-साथ चल रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था को अभी और लोकतांत्रिक
होना है।
बदलाव एक क्रमिक व्यवस्था है, जिसके लिए संस्थाएं भी चाहिए।
चुनाव व्यवस्था भी एक संस्थागत व्यवस्था है। यह तेज बदलाव नहीं लाती, पर लाती है।
खासतौर से देश के फटेहाल लोगों और वंचितों का सहारा यही राजनीति है। जब ऐसा है तो
क्या यह राजनीति इन फटेहालों को शिक्षित और सबल बनाने का प्रयास करेगी? नहीं करेगी, तो लगातार बढ़ता
मध्यवर्ग उसे इसके लिए बाध्य करेगा। आपके दुःखी होने पर रोक नहीं है, पर रास्ते
हैं जो आपके आसपास से गुजरते हैं।
राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित
सटीक लेखन हेतु साधुवाद आदरणीय ।
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