बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में भारत के
तकनीकी-आर्थिक रूपांतरण के समांतर सबसे बड़ी परिघटना है सामाजिक जीवन में लड़कियों
की बढ़ती भागीदारी. सत्तर के दशक तक भारतीय महिलाएं घरों तक
सीमित थीं, आज वे जीवन के हर क्षेत्र में मौजूद हैं. युवा स्त्रियाँ आधुनिकीकरण और सामाजिक रूपांतरण में सबसे बड़ी भूमिका
निभा रहीं हैं. भूमिका बढ़ने के साथ उनसे जुड़े सवाल भी खड़े हुए
हैं. पिछले साल जब ‘मी-टू’ आंदोलन ने भारत में प्रवेश किया था, तब काफी
स्त्रियों ने अपने जीवन के ढके-छिपे पहलुओं को उजागर किया. न जाने कितने तथ्य अभी
छिपे हुए हैं.
‘यत्र नार्यस्तु...’ के देश में स्त्रियों के जीवन की जमीन बहुत कठोर है. उन्हें अपनी जगह
बनाने में जबर्दस्त चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. फिर भी वे इनका मुकाबला
करते हुए आगे बढ़ रहीं हैं. दिसम्बर, 2012 में दिल्ली रेप कांड के बाद
स्त्री-चेतना में विस्मयकारी बदलाव हुआ था. लम्बे अरसे से छिपा गुस्सा एकबारगी
सामने आया. यह केवल स्त्रियों का गुस्सा नहीं था, पूरे समाज की नाराजगी थी. उस आंदोलन
की अनुगूँज शहरों, कस्बों, गाँवों और गली-मोहल्लों तक में सुनाई पड़ी थी. उस आंदोलन
से बड़ा बदलाव भले नहीं हुआ, पर सामाजिक जीवन में एक नया नैरेटिव तैयार हुआ.
हम कितने भी आगे बढ़ गए हों, हमारी स्त्रियाँ
पश्चिमी स्त्रियों की तुलना में कमज़ोर हैं. व्यवस्था उनके प्रति सामंती दृष्टिकोण
रखती है. बेटियों की माताएं डरी रहती हैं. उन्हें व्यवस्था पर भरोसा नहीं है. आजादी
के 72 वर्ष होने को आए और आधी आबादी के मन में भय है. अपने घरों से निकल कर काम
करने या पढ़ने के लिए बाहर जाने वाली स्त्रियों की सुरक्षा का सवाल मुँह बाए खड़ा
है. ग्रामीण युवा स्त्रियों की आगे पढ़ने, आगे बढ़ने और राष्ट्रीय विकास में योगदान की राह
शहरी लड़कियों से भी ज्यादा मुश्किल है. उनके लिए घर से निकलना ही मुश्किल है, भले
ही घर वाले पढ़ाना चाहें.
रोजगार के लिए लड़कियाँ अपने घर के आसपास ही काम
की तलाश करती हैं, क्योंकि ‘बाहर’ को लेकर आशंकाएं हैं. सामाजिक जीवन
में युवा महिलाओं की भूमिका पुरुषों से ज्यादा बड़ी है. देश का राजनीतिक, सामाजिक
और आर्थिक विकास स्त्रियों के विकास पर निर्भर करता है. जब एक महिला सामाजिक और
आर्थिक रूप से सशक्त होती है तो न केवल उसका परिवार, गाँव, बल्कि देश भी मजबूती पाता है. पर तथ्य बता रहे हैं कि अब भी भारत में
कामकाजी महिलाओं का औसत विकासशील देशों की तुलना में कम है.
पिछले लोकसभा चुनाव के परिणामों के विश्लेषण से
एक बात सामने आई कि युवा और खासतौर से महिला मतदाताओं ने चुनाव में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई थी. यह भूमिका अगले चुनाव में और बढ़ेगी, पर राजनीतिक जीवन में उनकी
भागीदारी आज भी कम है. हमारी राजनीति पुरुषवादी है. कमोबेश यह दुनियाभर की
प्रवृत्ति है, पर भारतीय राजनीति में स्त्रियों की भूमिका वैश्विक औसत से भी कम है.
सामान्यतः संसद और विधानसभाओं में महिला सदस्यों की संख्या 10
फीसदी से ऊपर नहीं जाती.
सोलहवीं लोकसभा के 542 सदस्यों में से स्त्री
सदस्यों की संख्या 64 यानी कि 11.8 प्रश तक पहुँच पाई. शुरूआती वर्षों में स्थिति
और भी खराब थी. सन 1952 में पहली लोकसभा में केवल 4.4 फीसदी महिला सदस्य थीं. सन
1977 में केवल 3.5 फीसदी महिला सदस्य ही थीं. भारत के मुकाबले अफगानिस्तान की संसद
में 27.7, पाकिस्तान में 20.6, बांग्लादेश में 19, नेपाल में 30 और सऊदी अरब की
संसद में 19.9 फीसदी स्त्रियाँ हैं. वैश्विक औसत 21 से 22 फीसदी का है. इंटर
पार्लियामेंट्री यूनियन की एक रिपोर्ट के अनुसार जन-प्रतिनिधित्व में स्त्रियों की
भूमिका के लिहाज से भारत का दुनिया के देशों में 148वाँ स्थान है.
हैरत है कि बैंकों, कॉरपोरेट हाउसों, कारखानों,
प्रयोगशालाओं, सेना, हवाई जहाजों, रेल-इंजनों और मीडिया हाउसों का संचालन
स्त्रियाँ कर रहीं है, पर जन-प्रतिनिधि सदनों में उनकी संख्या इतनी कम है. जब
सत्ता के केन्द्रों की चाभी स्त्रियों के हाथ में लगेगी, तभी बड़े बदलावों की
उम्मीद हमें करनी चाहिए. जन-प्रतिनिधि के रूप में ही स्त्रियाँ उन संरचनात्मक
अवरोधों को गिराएंगी, जो उन्हें रोकते हैं.
सवाल है कि ऐसा क्यों नहीं हो पता है? 24 अप्रैल 1993 को भारत में संविधान के 73वें
संशोधन के आधार पर पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा हासिल कराया गया. यह
फैसला ग्राम स्वराज के स्वप्न को वास्तविकता में बदलने की दिशा में एक कदम था, पर
उतना ही महत्वपूर्ण महिलाओं की जीवन में भागीदारी के विचार से था. इसमें महिलाओं
के लिए एक तिहाई सीटों के आरक्षण की व्यवस्था थी. यह कदम क्रांतिकारी साबित हुआ.
पंचायत राज में अब दूसरी पीढ़ी की युवा लड़कियाँ सामने आ रहीं हैं. महिलाओं के
भूमिका में युगांतरकारी बदलाव आया है. अब इस आरक्षण को बढ़ाकर 50
प्रतिशत किया जा रहा है.
जब स्थानीय निकायों में आरक्षण से बदलाव आया
है, तो राष्ट्रीय स्तर पर क्यों नहीं? दूर से हमें लगता
है कि देश के राजनीतिक दलों के बीच सैद्धांतिक मतभेद हैं. महिला आरक्षण विधेयक सन
2008 में पेश किया गया था. 9 मार्च 2010 को राज्यसभा ने उसे पास कर भी दिया, पर
लोकसभा से वह पास नहीं हो पाया. सिद्धांततः महिला आरक्षण को बीजेपी और कांग्रेस
दोनों का समर्थन प्राप्त है, पर दोनों ने मिलकर इसे पास कराने की कोशिश नहीं की।
वास्तव में ये
मतभेद चुनाव के वक्त प्रचार के काम आते हैं. जिस वक्त संसद सदस्यों की सुविधाओं का
सवाल आता है, विधेयक मिनटों में सर्वानुमति से पास होते हैं. वहीं जिस बिल को पास
नहीं कराना होता है, वह कभी पास नहीं होता. दरअसल महिलाएं वोट बैंक नहीं हैं. महिला
आरक्षण चुनाव का मुद्दा नहीं बनता. आरक्षण तो दूर की बात है राजनीतिक दल अपनी एक
तिहाई सीटों के टिकट महिलाओं को देने पर सहमत नहीं हैं और उनसे कोई उम्मीद भी नहीं
है.
रोचक दृष्टिकोण। पंचायतों के मामले में भी आरक्षण भले ही दिया हो लेकिन उधर भी कई बार ये देखने में आया है ज्यादातर निर्णय महिला सरपंच के पति या ऐसे ही रिश्तेदार करते हैं। ऐसे में अगर आरक्षण दिया जाता है तो आखिर निर्णय किसका होगा ये सोचने वाला विषय होगा। क्या वो महिला जो आरक्षण की पूर्ती के लिए चुनकर आई हैं क्या वो असल में निर्णय ले रही हैं या वो केवल स्टाम्प बनकर रह जाएँगी? आपके इसके ऊपर क्या विचार हैं?
ReplyDeleteयह बात काफी हद तक सही है कि महिलाओं की जगह उनके पति, पिता, भाई या कोई पुरुष उस पद का काम देखता है, पर यह पूरा सच नहीं है। इस बात के दो पहलुओं पर और ध्यान देना चाहिए। एक, मान लें दस-बीस फीसदी महिलाएं भी अपना काम देख रहीं हैं, तो यह सफलता है। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि काफी कुशल और ऊर्जावान स्त्रियाँ इस दौर में सामने आईं हैं। दूसरे कहीं से तो शुरुआत होगी। पहली पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी का तरीका बदल जाता है। हम देख सकते हैं कि पन्द्रह साल पहले की महिला कार्यकर्ताओं और आज की पदाधिकारियों में अंतर है। हमेशा वैसा ही तो नहीं रहेगा, जैसा पहले था।
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