चुनाव घोषणापत्रों का महत्व चुनाव-प्रचार के लिए नारे तैयार करने से
ज्यादा नहीं होता। मतदाताओं का काफी बड़ा हिस्सा जानता भी नहीं कि उसका मतलब क्या
होता है। अलबत्ता इन घोषणापत्रों की कुछ बातें जरूर नारों या जुमलों के रूप में
याद रखी जाती हैं। जिस देश में चुनाव जीतने के सैकड़ों क्षुद्र हथकंडे इस्तेमाल
में आते हों, वहाँ विचारधारा, दर्शन और आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं।
फिर भी इन घोषणापत्रों का राजनीतिक महत्व है, क्योंकि न केवल चुनाव प्रचार के
दौरान, बल्कि बाद में भी पार्टियों के कार्य-व्यवहार को लेकर इनके आधार पर सवाल
किए जाते हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों की पहली नजर इनकी व्यावहारिकता पर जाती है। इसे लागू कैसे कराया
जाएगा? फिर तुलनाएं होती हैं। अभी बीजेपी ने अपना घोषणापत्र जारी नहीं किया है, कांग्रेस ने किया है।
इसपर निगाह डालने से ज़ाहिर होता है कि पार्टी ‘सामाजिक कल्याणवाद’ के अपने उस रुख पर
वापस पर वापस आ रही है, जो सन 2004 में वामपंथी दलों के समर्थन पाने के बाद ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ के रूप में जारी हुआ था। इसकी झलक पिछले साल कांग्रेस महासमिति के
84वें अधिवेशन में मिली थी।
अरसे से कहा जा रहा है कि पार्टी को केवल
मोदी-विरोध के बजाय राजनीतिक कार्यक्रम के साथ सामने आना चाहिए। यह घोषणापत्र बीजेपी के ‘आक्रामक राष्ट्रवाद’ के मुकाबले नागरिक
अधिकारों, अभिव्यक्ति की आजादी और वैचारिक बहुलता की कांग्रेसी अवधारणाओं को पेश
कर रहा है। पार्टी की आर्थिक-सामाजिक नीतियों पर गौर करें, तो पाएंगे कि 1991, 2004 और 2009
में बनी सरकारों ने अलग-अलग किस्म की नीतियों पर चलने का प्रयास किया था।
सन 1991 में देश की राजनीति पर मंदिर और मंडल
आंदोलनों का दबाव था, कश्मीर में पाकिस्तान-प्रेरित आतंकवाद का साया था और आर्थिक
स्थिति इतनी खराब थी कि देश को अपना सोना गिरवी रखना पड़ा था। कांग्रेस ने सरकार
बनाई और उदारीकरण का रास्ता दिखाया, पर 2004 में बीजेपी के ‘इंडिया शाइनिंग’ के अनुभव के बाद उदारीकरण के विलोम की राजनीति को
अपनाया। पर वामपंथी दलों से दोस्ती लम्बी नहीं चली और अमेरिका के साथ न्यूक्लियर
डील के कारण वह सम्बंध विच्छेद हो गया। 2009 के बाद फिर उम्मीद बँधी कि देश आर्थिक
उदारीकरण की राह पर जाएगा, पर अर्थव्यवस्था पर वैश्विक मंदी का असर पड़ा, जो
कमोबेश अबतक जारी है।
इसबार के घोषणापत्र का दायरा काफी बड़ा है,
जिसके कुछेक पहलुओं पर ही हमारा ध्यान गया है। मुखपृष्ठ पर लिखा है 'हम निभाएंगे।' सबसे बड़ा वादा आर्थिक-न्याय का है। देश के 20
फीसदी निर्धनतम परिवारों के लिए 72,000 रुपये की सालाना आय की गारंटी ‘न्याय’ (न्यूनतम आय योजना)। इसके
अलावा ‘किसान बजट’ शुरू करने और कई प्रकार के अधिकारों की गारंटी देने का
वादा किया गया है। आवास का अधिकार, मुफ्त इलाज, मुफ्त जाँच और मुफ्त दवाई पाने का
अधिकार। सन 2023-24 तक स्वास्थ्य पर जीडीपी की 3 फीसदी राशि खर्च होने लगेगी।
शिक्षा पर जीडीपी की 6 फीसदी राशि लगने लगेगी। नीति
आयोग खत्म होगा, योजना आयोग की वापसी होगी, चुनावी चंदे के बॉण्ड खत्म होंगे।
पार्टी का कहना है कि वह देश को आर्थिक प्रगति
के रास्ते पर ले जाएगी। जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र का हिस्सा 16 फीसदी से बढ़कर
25 फीसदी हो जाएगा। लाखों सरकारी नौकरियाँ दी जाएंगी, व्यापारियों के लिए जीएसटी को सरल बनाया
जाएगा, एक ही दर रहेगी, निर्यात पर जीएसटी शून्य होगी, आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं
को टैक्स से मुक्ति मिलेगी और पंचायतों तथा नगरपालिकाओं को भी जीएसटी के राजस्व
में हिस्सेदारी मिलेगी।
उद्योग, सेवा और रोजगार का एक नया मंत्रालय बनाया जाएगा, जो औद्योगिक
विकास और रोजगार के अवसरों के बीच सेतु का काम करेगा। देश में ‘मेक फॉर द वर्ल्ड पॉलिसी’ बनाई जाएगी। दुनियाभर के उद्योगों को भारत आने का निमंत्रण दिया
जाएगा, ताकि वे यहाँ बनाएं और दुनिया में बेचें। पर यह जादू कैसे होगा? वर्तमान सरकार का ‘स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप’ नीति की धीमी गति बता रही है कि हमारी व्यवस्था में जादू नहीं होता। घोषणापत्रों
में हो सकता है।
न्यूनतम आय योजना पर सवाल नहीं है। उसे लागू
करने में दिक्कतें भी आईं, तब भी पार्टी के मंतव्य का देश समर्थन करेगा। घोषणापत्र
में भी उसे एकदम से लागू करने की बात नहीं कही गई है। पहले तीन महीने का डिजाइन
चरण होगा और फिर छह से नौ महीने का पायलट और टेस्टिंग फेज़ होगा। साधन कहाँ से आएंगे, ऐसे सवाल ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना और खाद्य
सुरक्षा कार्यक्रमों को लेकर भी उठाए गए थे। इस बात को मान लेना चाहिए। आर्थिक
संवृद्धि भी इसमें मदद करेगी, पर जो दूसरे वायदे हैं, उनमें से कई की व्यावहारिकता
पर सवाल हैं।
घोषणापत्र में लिखा है कि सत्रहवीं लोकसभा के पहले ही सत्र में महिला
आरक्षण विधेयक पास कर दिया जाएगा। पार्टी को क्या यकीन है कि वह लोकसभा और
राज्यसभा में संविधान संशोधन कराने लायक बहुमत लेकर आएगी? बहुमत भी ले आए, पर क्या उसने अपने सहयोगी दलों से इस
विषय पर सहमति बनाई है? कोई वजह है कि 1996 से 2008 तक संसद में चार बार महिला आरक्षण विधेयक पेश किए गए, पर राजनीतिक दलों ने
उन्हें पास होने नहीं दिया। क्या वे दल इसबार तुले बैठे हैं कि आते ही इसे पास कर
देंगे?
पार्टी ने कहा है कि
वह भारतीय दंड संहिता से धारा 499 यानी मानहानि कानून को हटा देगी, अपराध
प्रक्रिया संहिता में संशोधन करके ‘जेल नहीं बेल’ की व्यवस्था करेगी,
टॉर्चर के खिलाफ कानून बनेगा, विचाराधीन कैदियों की एकमुश्त रिहाई होगी, पुलिस
सुधार होंगे, मॉब लिंचिंग और हेट क्राइम के खिलाफ कानून बनेंगे। आर्म्ड फोर्सेस
स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव होगा, भारतीय दंड संहिता
की धारा 124ए यानी देशद्रोह के कानून को भी हटाया जाएगा। यह कानून सन 2012 में
कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी के बाद चर्चा का विषय बना था। तब नहीं हटा,
अब कैसे हटेगा? इन कानूनों को बदलने के लिए संसद में बहुमत के अलावा राजनीतिक
आम सहमति भी चाहिए।
ऐसे तमाम विवरण इस घोषणापत्र में हैं, जिनकी
व्यावहारिकता को लेकर सवाल हैं। क्या इन्हें सांविधानिक नीति-निर्देशक तत्वों जैसा
मानें? बेशक पार्टी को इन्हें पेश करने का हक है,
पर ये लिखित वायदे हैं और इन्हें पूरा करने की
जिम्मेदारी पार्टी की है, बशर्ते जनता उसे इन्हें पूरा करने की जिम्मेदारी सौंपे।
पूरा घोषणापत्र यहाँ पढ़ें
https://www.scribd.com/document/404073232/Hindi-Manifesto-MobilePDF-2April19पूरा घोषणापत्र यहाँ पढ़ें
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति 99वीं जयंती - पंडित रवि शंकर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।
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