भारतीय चुनावों में पाकिस्तान का मुद्दा कभी इतना महत्वपूर्ण बनकर
नहीं बना, जितना इसबार नजर आ रहा है. इसकी
एक वजह 14 फरवरी के पुलवामा हमले को माना जा रहा है. इसके पहले 1999 के करगिल कांड और 2008 के मुम्बई हमले के बाद भी चुनाव हुए थे, पर तब इतनी शिद्दत से पाकिस्तान चुनाव का मुद्दा नहीं बना था, जितना इस बार है. 1999 के लोकसभा चुनाव करगिल युद्ध खत्म होने के दो महीने के
भीतर हो गए थे, इसबार चुनाव के दो दौर पूरे हो चुके हैं फिर भी पाकिस्तान
और आतंकवाद अब भी बड़ा मसला बना हुआ है.
यह भी सच है कि नरेन्द्र मोदी और बीजेपी को पाकिस्तानी फैक्टर से लाभ मिल रहा है, पर सवाल है कि यह इतना महत्वपूर्ण बना ही क्यों? कुछ लोगों को लगता है कि पुलवामा कांड जानबूझकर कराया गया है. यह अनुमान जरूरत से ज्यादा है. यों तो 26 नवम्बर 2008 के मुम्बई हमले के पीछे भी भारतीय साजिश का एंगल लोगों ने खोज लिया था, पर उसे 2009 के चुनाव से नहीं जोड़ा था. इस बार के चुनाव में पाकिस्तान कई ऐतिहासिक कारणों से महत्वपूर्ण बना है. सबसे महत्वपूर्ण यह कि इस बार पाकिस्तान खुद एक कारण बनना चाहता है.
हाल में पाकिस्तानी
विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कहा, हमारे पास विश्वसनीय जानकारी है कि भारत हमारे
ऊपर 16 से 20 अप्रैल के बीच फिर हमला करेगा. 16 अप्रैल की तारीख निकल गई, कुछ नहीं
हुआ. भारत में अंदेशा था कि शायद पुलवामा जैसा कुछ और न हो जाए. दूसरी तरफ इमरान
खान का बयान था कि भारत में नरेंद्र मोदी दूसरा कार्यकाल मिला तो यह पाकिस्तान के
लिए बेहतर होगा और कश्मीर के हल की संभावनाएं बेहतर होंगी. पाकिस्तानी नेताओं मुँह
से पहले कभी इस किस्म के बयान सुनने को नहीं मिले.
इमरान भी बोलकर नहीं रह गए. पाकिस्तान के
दिल्ली स्थित उच्चायुक्त सोहेल महमूद विदेश सचिव बनने जा रहे हैं. पिछले हफ्ते
दिल्ली में अपने विदाई समारोह में उन्होंने इमरान खान के बयान को दोहराया और
उम्मीद जताई कि लोकसभा चुनाव के बाद दोनों देशों के बीच बातचीत का दौर शुरू हो
सकता है. क्या मान लें कि चुनावी कड़वाहट सिर्फ चुनाव तक के
लिए है? क्या इमरान किसी नई परिस्थिति की तरफ इशारा कर
रहे हैं? क्या पाकिस्तानी सेना भी इस रंजिश से बाहर
निकलना चाहती है? या यह कोई राजनीतिक चाल है? चाल है तो बीजेपी के पक्ष में या माहौल बिगाड़ने के लिए है?
हमारे विदेश मंत्रालय ने इस बयान का जवाब भी
नहीं दिया. क्या यह मामूली बात थी, केवल राजनीतिक शोशेबाजी? मोदी सरकार पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए एक और कार्यकाल माँग रही
है. पाकिस्तान कह रहा है कि मोदी जीतकर आए, तो सब ठीक हो जाएगा. क्या यह मोदी की
राजनीति में अड़ंगा डालने की कोशिश है? या
इमरान को आने वाले वक्त की तस्वीर नजर आ रही है और वे अपने देश में राजनीतिक
पेशबंदी कर रहे हैं. ताकि मौके विरोधियों की गाली न खानी पड़ें. दोनों देशों की
राजनीति के कई अद्भुत सत्य हैं. दोनों तरफ रिश्तों को सुधारने की बात कहना
आत्मघाती होता है.
सन 2014 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने
पाकिस्तान का नाम बहुत कम बार लिया था. जबकि पाकिस्तान में हुए 2013 के चुनाव में
नवाज शरीफ ने भारत के साथ रिश्तों को सुधारने के प्रयासों को एक मुद्दा बनाया था.
इसी वजह से जब मोदी-शपथ समारोह का उन्हें निमंत्रण दिया गया, तो वहाँ जबर्दस्त बहस
चली थी. शरीफ उस समारोह में आए थे, जिसका वहाँ विरोध भी हुआ था. नई बात ह थी कि दिल्ली
में उन्होंने हुर्रियत नेताओं से मुलाकात नहीं की और न कश्मीर के बाबत कोई बात
कही. इसके अगले साल उन्होंने उफा में उन्होंने ‘आतंकवाद
पर पहले बात’ करने का आश्वासन देकर पाकिस्तान में हड़कम्प
मचा दिया था.
लगता है कि यह वह प्रस्थान बिन्दु था, जहाँ से
पाकिस्तानी सेना ने नवाज शरीफ को हटाने का फैसला कर लिया. उसी दौरान इमरान खान ने
सेना के साथ अपने रिश्तों को सुधारा. उसी साल के अंत में 25 दिसम्बर को नरेन्द्र
मोदी अचानक लाहौर पहुँचे थे. उसके एक हफ्ते बाद ही पठानकोट पर हमला हुआ और फिर कुछ
न कुछ होता रहा, जिसकी नवीनतम कड़ी है पुलवामा.
क्या माना जाए कि इमरान खान और वहाँ की सेना अब
एक पेज पर हैं? क्या पाकिस्तान बदल रहा है? क्या वे लश्कर, जैश और हिज्ब पर नकेल डाल पाएंगे? इनपर नकेल डाल पाना क्या इतना आसान है? इमरान खान क्या पाकिस्तान को बदल सकते हैं? हमें अभी कुछ दूसरी बातों की तरफ भी ध्यान देना चाहिए. अमेरिका और
रूस दोनों की तरफ से अफगानिस्तान में शांति स्थापना के प्रयास चल रहे हैं. इन
प्रयासों के मूर्त रूप लेने की घड़ी नजदीक आती जा रही है. वैश्विक अर्थ-व्यवस्था
में तेजी लानी है, तो इसके लिए दक्षिण एशिया में शांति-स्थापना जरूरी है. जेहादी
राजनीति ने पाकिस्तान को खोखला कर दिया है. वह अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से बेल आउट
पैकेज के लिए प्रयास कर रहा है. बदले में उसे कई तरह की कड़ी शर्तों को मानना
पड़ेगा. उसके सिर पर एफएटीएफ की काली सूची की तलवार लटकी हुई है, जो जून में
वास्तविकता बन सकती है.
अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस ने संरा सुरक्षा
परिषद में मसूद अज़हर के खिलाफ प्रस्ताव रखा हुआ है. ये तीनों देश चीन को दबाव में
ले रहे हैं. उनका कहना है कि चीन 23 अप्रैल तक कोई फैसला कर ले. हालांकि चीन ने
समय सीमा पर कोई टिप्पणी नहीं की है, पर बुधवार को उसके विदेश मंत्रालय के
प्रवक्ता ने कहा कि हम मामले को सुलझा रहे हैं. इमरान खान अगले हफ्ते चीन जा रहे
हैं. इस यात्रा का मकसद ‘रोड एंड बेल्ट’ शिखर सम्मेलन और आईएमएफ का बेल आउट पैकेज है, पर भारत पर भी बात
होगी.
चुनावी नारों, भाषणों और घोषणाओं का मतलब केवल
चुनाव जीतने तक होता है. कहना मुश्किल है कि मोदी फिर से जीतकर आएंगे या नहीं, पर
डिप्लोमेसी के प्लान ए और बी पहले से बनते हैं. मोदी जीते तो वे पाकिस्तान को सबक
सिखाएंगे या बातचीत पर सहमत होंगे, अभी कहना मुश्किल है. उनके विरोधियों की भूमिका
क्या होगी, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है. चुनाव में पाकिस्तान एक मुद्दा है,
तो उसके पीछे कुछ बड़े कारण जरूर हैं. इन कारणों के पीछे दम है, तो चुनाव परिणाम
आने के बाद उसके निहितार्थ भी नजर आएंगे. पाकिस्तान मसला बनेगा. आप इसे महसूस
करेंगे. शपथ के फौरन बाद मैनचेस्टर में भारत-पाकिस्तान मैच है.
No comments:
Post a Comment