इस बात को शुरू में
ही कहना उचित होगा कि भारत में चुनाव घोषणापत्र भ्रामक हैं। जिस देश में चुनाव
जीतने के सैकड़ों क्षुद्र हथकंडे इस्तेमाल में आते हों, वहाँ विचारधारा, दर्शन और
आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं। फिर भी इन घोषणापत्रों का राजनीतिक
महत्व है, क्योंकि न केवल चुनाव प्रचार के दौरान, बल्कि चुनाव के बाद भी पार्टियों
के कार्य और व्यवहार के बारे में इन घोषणापत्रों के आधार पर सवाल किए जा सकते हैं।
उन्हें वायदों की याद दिलाई जा सकती है और लोकमंच पर विमर्श के प्रस्थान-बिन्दु
तैयार किए जा सकते हैं।
कांग्रेस के इसबार
के घोषणापत्र पर सरसरी निगाह डालने से साफ ज़ाहिर होता है कि पार्टी अपने ‘सामाजिक कल्याणवाद’ पर वापस आ रही है। बीजेपी के आक्रामक ‘छद्म राष्ट्रवाद’ के जवाब में कांग्रेस
ने अपनी रणनीति को सामाजिक कल्याण और सम्पदा के वितरण पर केन्द्रित किया है। एक
अरसे से कहा जा रहा था कि पार्टी को अपने राजनीतिक कार्यक्रम के साथ सामने आना
चाहिए। केवल ‘गैर-बीजेपीवाद’ कोई रणनीति नहीं हो सकती। वह नकारात्मक राजनीति है। अच्छी बात यह है
कि कांग्रेस अब अपनी विचारधारा को एक दायरे में बाँधकर पूरी ताकत के साथ मैदान में
उतरी है।
वह बीजेपी के
आक्रामक राष्ट्रवाद के मुकाबले नागरिक अधिकारों, अभिव्यक्ति की आजादी और वैचारिक
बहुलता की अवधारणाओं को लेकर सामने आ रही है। पर उसका ध्यान खेतिहर समाज में फैली
बेचैनी पर सबसे ज्यादा है। समावेशी विकास की जिस अवधारणा का विवरण इस घोषणापत्र में
है, यह विचार कांग्रेस की दीर्घकालीन अवधारणाओं का ही हिस्सा है। फिर भी पार्टी की
आर्थिक-सामाजिक नीतियों पर गौर करें, तो पाएंगे
कि 1991, 2004 और 2009 में बनी सरकारों ने अलग-अलग किस्म की नीतियों पर चलने का
प्रयास किया था।
वायदे ही वायदे
इस
घोषणापत्र से यह जरूर नजर आता है कि पार्टी एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के साथ कमर
कसकर मैदान में उतरी है। इसके मुखपृष्ठ पर लिखा है 'हम निभाएंगे।'
उसका सबसे बड़ा वादा है आर्थिक-न्याय। देश के 20
फीसदी निर्धनतम परिवारों के लिए 72,000 रुपये की सालाना आय की गारंटी ‘न्याय’ (न्यूनतम आय योजना)। इसके अलावा ‘किसान बजट’ शुरू करने और कई प्रकार
के अधिकारों की गारंटी देने का वादा किया गया है।
आवास का अधिकार, मुफ्त इलाज, मुफ्त जाँच और मुफ्त दवाई पाने का अधिकार। सन
2023-24 तक स्वास्थ्य पर जीडीपी की 3 फीसदी राशि खर्च होने लगेगी। शिक्षा पर
जीडीपी की 6 फीसदी राशि लगने लगेगी। सत्रहवीं
लोकसभा के पहले ही सत्र में महिला आरक्षण विधेयक पास कर दिया जाएगा। नीति आयोग
खत्म होगा, योजना आयोग की वापसी होगी, चुनावी चंदे के बॉण्ड खत्म होंगे।
भारतीय दंड संहिता
की धारा 124ए यानी देशद्रोह के आरोप को खत्म कर दिया जाएगा। यह कानून सन 2012 में
कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी के बाद चर्चा का विषय बना था। तब यूपीए की
सरकार थी। मॉब लिंचिंग और हेट क्राइम के लिए पुलिस और जिला प्रशासनों को जिम्मेदार
ठहराया जाएगा। महिलाओं और दलितों पर जुल्म करने वालों पर सख्त कार्रवाई की जाएगी।
हेट क्राइम के खिलाफ कानून बनाया जाएगा। आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट
(एएफएसपीए) की समीक्षा की जाएगी।
इस घोषणापत्र को 1.काम, 2.दाम, 3.शान, 4.सुशासन, 5.स्वाभिमान और 6.सम्मान
शीर्षकों से छह भागों में बाँटा गया है। मोटे तौर पर इसके तीन हिस्से हैं। पहला,
सामाजिक कल्याण, दूसरा राष्ट्रीय एकता से जुड़ी सवाल और तीसरे प्रशासनिक सुधार। इस
कार्यक्रम के आलोचकों का पहला सवाल होता है कि पार्टी इन वायदों को पूरा कैसे
करेगी? पार्टी का कहना है
कि हमने विशेषज्ञों से बात करके यह कार्यक्रम बनाया है। ऐसे सवाल ग्रामीण रोजगार
गारंटी योजना और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों को लेकर भी उठाए गए थे।
बहरहाल ये लिखित
वायदे हैं और इन्हें पूरा करने की जिम्मेदारी पार्टी की है, बशर्ते जनता उसे इन्हें
पूरा करने की जिम्मेदारी सौंपे। बढ़ते शहरीकरण और खेती के बदलते स्वरूप को देखते
हुए भी पार्टी को नई रणनीति बनानी होगी। किसानों की कर्ज-माफी क्या समस्या का
समाधान है या नई समस्या है? इसका जवाब पार्टी को ही देना है।
रोजगारों की रक्षा
इस घोषणा में लाखों
सरकारी नौकरियों को देने का वादा लोक-लुभावन ज्यादा है व्यावहारिक कम। रोजगार के
मोर्चे पर पार्टी ने वायदा किया है कि वर्तमान रोजगारों की रक्षा की जाएगी और
रोजगार के नए अवसर तैयार किए जाएंगे। इसके लिए उद्योग, सेवा और रोजगार का एक नया
मंत्रालय बनाया जाएगा, जो औद्योगिक विकास और रोजगार के अवसरों के बीच सेतु का काम
करेगा। मार्च 2020 तक केन्द्र सरकार और सार्वजनिक उपक्रमों में खाली पड़े चार लाख
पदों को भरा जाएगा। इसके अलावा केन्द्र सरकार राज्यों से कहेगी कि वे 20 लाख पदों
को भरें।
हरेक ग्राम पंचायत
और हरेक नगर निकाय में सेवामित्रों की नियुक्ति की जाएगी। इनकी संख्या करीब 10 लाख
होगी। यह काम सरकारी सेवाओं की डिलीवरी सुनिश्चित करने के लिए किया जाएगा। सरकारी
नियुक्तियों के लिए परीक्षा फीस नहीं ली जाएगी। पार्टी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं
के विस्तार का काम करेगी जिससे बड़े स्तर पर शिक्षकों, डॉक्टरों, नर्सों,
पैरामेडिकों, टेक्नीशियनों, इंस्ट्रक्टरों और प्रशासकों के नए पद तैयार हो सकें।
ग्रामीण क्षेत्रों में आशा कार्यक्रम का विस्तार किया जाएगा।
किसानों के लिए ‘कर्ज माफी’ के स्थान पर ‘कर्ज मुक्ति’ का कार्यक्रम लेकर
पार्टी आई है। यानी कि अनाज की सही कीमत और कृषि लागत कम करके किसान को सबल
बनाएंगे। उसे संस्थागत ऋण की सुविधा मिलेगी। कर्ज नहीं चुका पाने वाले किसानों के
खिलाफ कार्रवाई आपराधिक के स्थान पर दीवानी होगी।
उदारीकरण का क्या होगा?
इस
पूरे कार्यक्रम पर गौर करें तो यह कई दिशाओं में भाग रहा है। पार्टी उन वर्गों को
सम्बोधित कर रही है, जिनसे उसे वोटों की आशा है। खासतौर से गाँवों में बैठी गहरी
निराशा को उसने सम्बोधित किया है। पार्टी का कहना है कि वह देश को आर्थिक प्रगति
के रास्ते पर ले जाएगी। जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र का हिस्सा 16 फीसदी से बढ़कर
25 फीसदी हो जाएगा। व्यापारियों के लिए जीएसटी को सरल बनाया जाएगा, एक ही दर रहेगी, निर्यात पर
शून्य दर होगी, आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं को टैक्स से मुक्ति मिलेगी और पंचायतों
तथा नगरपालिकाओं को भी जीएसटी के राजस्व में हिस्सेदारी मिलेगी। देश में ‘मेक फॉर द वर्ल्ड पॉलिसी’ बनाई जाएगी।
दुनियाभर के उद्योगों को भारत आने का निमंत्रण दिया जाएगा, ताकि वे यहाँ बनाएं और
दुनिया में बेचें।
देश
में उदारीकरण का श्रेय कांग्रेस को जाता है, पर कांग्रेस ने पूरे आत्मविश्वास के
साथ इसका समर्थन कभी नहीं किया। समूची राजनीति में उदारीकरण को लेकर वैचारिक
स्पष्टता नहीं रही। उम्मीद थी कि 2009 के चुनाव के बाद उदारीकरण के बचे काम को
पूरा किया जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ। इसी बात को लेकर कौशिक बसु ने ‘पॉलिसी पैरेलिसिस’ का जुमला गढ़ा था और कहा था कि अब 2014 के
बाद ही उदारीकरण की गाड़ी आगे बढ़ेगी।
तकरीबन तीन दशक के उदारीकरण का दोतरफा अनुभव हैं। सभी दल किसी न किसी रूप में
उदारीकरण की गंगा में स्नान कर चुके हैं, पर मौका लगते ही वे इसके विरोध को वैतरणी पार
करने का माध्यम समझ लेते हैं। नब्बे के दशक में मैरिल लिंच की एक रपट थी कि भारत
में आर्थिक बदलाव के सामने सबसे बड़ी बाधा राजनीति है। 1996 में कांग्रेस हारी तो
किसी ने पूछा अब आर्थिक उदारीकरण का क्या होगा। इसके बाद आया संयुक्त मोर्चा
जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल थी। उसके वित्त मंत्री अपने चिदम्बरम जी थे।
उन्होंने पहिया पीछे नहीं घुमाया। भाजपा आई तब भी पीछे नहीं घूमा। सन 1991 में जब उदारीकरण को हमने अपनाया तब कोई बहस
नहीं की। 1995-96 में विश्व व्यापार संगठन में शामिल हुए, पर बहस हवाला कांड पर थी। आज भी आर्थिक मंदी और
बेरोजगारी के कारणों पर हमारा ध्यान नहीं है। बीजेपी ने इन सवालों पर से ध्यान
हटाने के लिए राष्ट्रवाद का सहारा लिया है। कांग्रेस उन सवालों का अपना समाधान पेश
कर रही है। पता नहीं जनता इन बातों को पढ़ना जानती भी है या नहीं।
राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित
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