अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी अब लगभग निश्चित है. अमेरिका मानता है कि पाकिस्तानी सहयोग के बिना यह समझौता सम्भव नहीं था. उधर तालिबान भी पाकिस्तान का शुक्रगुजार है. रविवार 10 फरवरी को पाकिस्तान के डॉन न्यूज़ टीवी पर प्रसारित एक विशेष इंटरव्यू में तालिबान प्रवक्ता ज़बीउल्ला मुजाहिद ने कहा कि हम सत्ता में वापस आए तो पाकिस्तान को भाई की तरह मानेंगे. उन्होंने कहा कि इस वक्त अफ़ग़ानिस्तान में जो संविधान लागू है, वह अमेरिकी हितों के अनुरूप है. हमारा शत-प्रतिशत मुस्लिम समाज है और हमारा संविधान शरिया पर आधारित होगा.
इसके पहले 6 फरवरी को मॉस्को में रूस की पहल पर हुई बातचीत में आए तालिबान प्रतिनिधियों ने कहा कि हम समावेशी इस्लामी-व्यवस्था चाहते हैं, इसलिए नया संविधान लाना होगा. तालिबानी प्रतिनिधिमंडल के नेता शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकज़ाई ने कहा कि काबुल सरकार का संविधान अवैध है. उसे पश्चिम से आयात किया गया है. वह शांति के रास्ते में अवरोध बनेगा. हमें इस्लामिक संविधान लागू करना होगा, जिसे इस्लामिक विद्वान तैयार करेंगे.
सवाल है कि अफ़ग़ानिस्तान की काबुल सरकार को मँझधार में छोड़कर क्या अमेरिकी सेना यों ही वापस चली जाएगी? पाकिस्तानी सेना के विशेषज्ञों को लगता है कि अब तालिबान शासन आएगा. वे मानते हैं कि तालिबान और अमेरिका के बीच बातचीत में उनके देश ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है और इसका पुरस्कार उसे मिलना चाहिए. अख़बार ‘दुनिया’ में प्रकाशित एक आलेख के मुताबिक़ पाकिस्तान ने तालिबान पर दबाव डाला कि वे अमेरिका से बातचीत के लिए तैयार हो जाएं. इस वक्त वह ऐसा भी नहीं जताना चाहता कि तालिबान उसके नियंत्रण में है. अलबत्ता अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान की सरकार को आश्वस्त किया है कि हम उसे मँझधार में छोड़कर जाएंगे नहीं. अमेरिका शुरू से मानता रहा है कि तालिबान को पाकिस्तान में सुरक्षित पनाह मिली हुई है.
सवाल है कि क्या अमेरिका सब कुछ जानते-बूझते अफ़ग़ानिस्तान को तालिबान और पाकिस्तान के हवाले छोड़कर चला जाएगा? अफ़ग़ानिस्तान में शांति-स्थापना के प्रयासों से जुड़ी खबरों के बीच 9 फरवरी के न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक विस्तृत समाचार प्रकाशित किया है कि अमेरिकी सेना ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान ठिकानों पर जबर्दस्त हमला बोला है. माना जा रहा है कि सन 2014 के बाद से यह अब तक का सबसे बड़ा हमला है. इन हमलों का उद्देश्य है तालिबान के साथ चल रही शांति-वार्ता में पकड़ अमेरिका के हाथ में रखना. तालिबान को यह भ्रम न रहे कि वे जीत रहे हैं, या अमेरिका मैदान छोड़कर भाग रहा है.
जो बातचीत चल रही है, उसके अनुसार अमेरिकी सेना की आंशिक वापसी ही होगी. अमेरिकी सेना के अड्डे देश में बने रहेंगे. तालिबान को शासन-व्यवस्था में भाग लेने की अनुमति होगी, पर आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने की नहीं. अमेरिकी दूत ज़लमय खलीलज़ाद का कहना है कि हमें उम्मीद है कि इस साल जुलाई में अफगान राष्ट्रपति के चुनाव के पहले ही हम समझौता कर लेंगे. यानी कि अमेरिका सांविधानिक-व्यवस्था में बड़े बदलाव नहीं होने देगा, पर इस बात की गारंटी वह कैसे लेगा कि अफगान जनता के फैसले किस दिशा में जाएंगे?
अमेरिकी फैसले के बरक्स इस इलाके के दूसरे देशों ने अपनी भावी रणनीति पर विचार शुरू कर दिया है. खासतौर से रूस और चीन ने तालिबान के साथ अपने रिश्ते बेहतर बनाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं. इस प्रक्रिया में भी पाकिस्तान की कोशिश अपने महत्व को ज्यादा से ज्यादा स्थापित करने की है. वह एक तरफ यह भी साबित करना चाहता है कि तालिबान अपनी मनमर्जी के मालिक हैं, वहीं यह भी बताना चाहता है कि हम ही उनपर दबाव बना सकते हैं.
पाकिस्तान के इस उत्साह के कारण ही भारत ने अपनी रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है. परम्परा से भारत के रिश्ते अफ़ग़ानिस्तान के नॉर्दर्न अलायंस के साथ रहे हैं. पर अब भारत को उन तालिबानी समूहों के साथ भी रिश्ते बनाने होंगे, जिनका प्रभाव ईरान से लगी अफगान सीमा पर है. देश के नवनिर्माण में पैसा लगाने वाली सबसे बड़ी क्षेत्रीय शक्ति भारत है. वहाँ का संसद भवन भारत ने बनाकर दिया है. साल 2011 में भयंकर सूखे से जूझ रहे अफ़ग़ानिस्तान को ढाई लाख टन गेहूं दिया था. हेरात में सलमा बांध भारत की मदद से बना. यह बांध 30 करोड़ डॉलर (क़रीब 2040 करोड़ रुपये) की लागत से बनाया गया. कंधार में अफ़ग़ान नेशनल एग्रीकल्चर साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी की स्थापना और काबुल में यातायात के सुधार के लिए भारत ने 1000 बसें देने का भी वादा किया है.
अफ़ग़ानिस्तान को कराची के विकल्प में बंदरगाह की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए चाबहार बंदरगाह का विकास करने में भी भारत भूमिका निभा रहा है. पाकिस्तान ने सड़क मार्ग से भारतीय माल को अफ़ग़ानिस्तान भेजने की अनुमति नहीं दी. इसके विकल्प में भारत चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे लाइन तैयार कर रहा है. इसके बाद ज़ाहेदान से अफ़ग़ानिस्तान के ज़रंज तक रेलवे लाइन का विस्तार होगा. भारत के सीमा सड़क संगठन ने अफ़ग़ानिस्तान में जंरंज से डेलाराम तक 215 किलोमीटर लम्बे मार्ग का निर्माण किया है, जो निमरोज़ प्रांत की पहली पक्की सड़क है.
अक्तूबर 2017 में भारत ने चाबहार के रास्ते अफ़ग़ानिस्तान को गेहूँ की पहली खेप भेजकर इस व्यापार मार्ग की शुरुआत कर भी दी है. ईरान के रास्ते मध्य एशिया के देशों को जोड़ते हुए रूस तक जाने वाले प्रस्तावित उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर में भी भारत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. हम नहीं भुला सकते कि अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान की दिलचस्पी सुरक्षा कारणों से है. वह अफ़ग़ानिस्तान को अपनी डीप डिफेंस योजना का हिस्सा मानता है. पर अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के हित भी टकराते हैं. दोनों देशों की सीमा बनाने वाली डूरंड लाइन को लेकर दोनों में असहमति है और तालिबानी भी उस असहमति से खुद को अलग नहीं रख सकते.
हमें बदलती परिस्थितियों पर नजर रखनी होगी और इस बात का इंतजार करना होगा कि होता क्या है. इसके अलावा कबायली समूहों के बीच अपने दोस्तों को भी तलाशना या बनाना होगा.
इसके पहले 6 फरवरी को मॉस्को में रूस की पहल पर हुई बातचीत में आए तालिबान प्रतिनिधियों ने कहा कि हम समावेशी इस्लामी-व्यवस्था चाहते हैं, इसलिए नया संविधान लाना होगा. तालिबानी प्रतिनिधिमंडल के नेता शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकज़ाई ने कहा कि काबुल सरकार का संविधान अवैध है. उसे पश्चिम से आयात किया गया है. वह शांति के रास्ते में अवरोध बनेगा. हमें इस्लामिक संविधान लागू करना होगा, जिसे इस्लामिक विद्वान तैयार करेंगे.
सवाल है कि अफ़ग़ानिस्तान की काबुल सरकार को मँझधार में छोड़कर क्या अमेरिकी सेना यों ही वापस चली जाएगी? पाकिस्तानी सेना के विशेषज्ञों को लगता है कि अब तालिबान शासन आएगा. वे मानते हैं कि तालिबान और अमेरिका के बीच बातचीत में उनके देश ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है और इसका पुरस्कार उसे मिलना चाहिए. अख़बार ‘दुनिया’ में प्रकाशित एक आलेख के मुताबिक़ पाकिस्तान ने तालिबान पर दबाव डाला कि वे अमेरिका से बातचीत के लिए तैयार हो जाएं. इस वक्त वह ऐसा भी नहीं जताना चाहता कि तालिबान उसके नियंत्रण में है. अलबत्ता अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान की सरकार को आश्वस्त किया है कि हम उसे मँझधार में छोड़कर जाएंगे नहीं. अमेरिका शुरू से मानता रहा है कि तालिबान को पाकिस्तान में सुरक्षित पनाह मिली हुई है.
सवाल है कि क्या अमेरिका सब कुछ जानते-बूझते अफ़ग़ानिस्तान को तालिबान और पाकिस्तान के हवाले छोड़कर चला जाएगा? अफ़ग़ानिस्तान में शांति-स्थापना के प्रयासों से जुड़ी खबरों के बीच 9 फरवरी के न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक विस्तृत समाचार प्रकाशित किया है कि अमेरिकी सेना ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान ठिकानों पर जबर्दस्त हमला बोला है. माना जा रहा है कि सन 2014 के बाद से यह अब तक का सबसे बड़ा हमला है. इन हमलों का उद्देश्य है तालिबान के साथ चल रही शांति-वार्ता में पकड़ अमेरिका के हाथ में रखना. तालिबान को यह भ्रम न रहे कि वे जीत रहे हैं, या अमेरिका मैदान छोड़कर भाग रहा है.
जो बातचीत चल रही है, उसके अनुसार अमेरिकी सेना की आंशिक वापसी ही होगी. अमेरिकी सेना के अड्डे देश में बने रहेंगे. तालिबान को शासन-व्यवस्था में भाग लेने की अनुमति होगी, पर आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने की नहीं. अमेरिकी दूत ज़लमय खलीलज़ाद का कहना है कि हमें उम्मीद है कि इस साल जुलाई में अफगान राष्ट्रपति के चुनाव के पहले ही हम समझौता कर लेंगे. यानी कि अमेरिका सांविधानिक-व्यवस्था में बड़े बदलाव नहीं होने देगा, पर इस बात की गारंटी वह कैसे लेगा कि अफगान जनता के फैसले किस दिशा में जाएंगे?
अमेरिकी फैसले के बरक्स इस इलाके के दूसरे देशों ने अपनी भावी रणनीति पर विचार शुरू कर दिया है. खासतौर से रूस और चीन ने तालिबान के साथ अपने रिश्ते बेहतर बनाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं. इस प्रक्रिया में भी पाकिस्तान की कोशिश अपने महत्व को ज्यादा से ज्यादा स्थापित करने की है. वह एक तरफ यह भी साबित करना चाहता है कि तालिबान अपनी मनमर्जी के मालिक हैं, वहीं यह भी बताना चाहता है कि हम ही उनपर दबाव बना सकते हैं.
पाकिस्तान के इस उत्साह के कारण ही भारत ने अपनी रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है. परम्परा से भारत के रिश्ते अफ़ग़ानिस्तान के नॉर्दर्न अलायंस के साथ रहे हैं. पर अब भारत को उन तालिबानी समूहों के साथ भी रिश्ते बनाने होंगे, जिनका प्रभाव ईरान से लगी अफगान सीमा पर है. देश के नवनिर्माण में पैसा लगाने वाली सबसे बड़ी क्षेत्रीय शक्ति भारत है. वहाँ का संसद भवन भारत ने बनाकर दिया है. साल 2011 में भयंकर सूखे से जूझ रहे अफ़ग़ानिस्तान को ढाई लाख टन गेहूं दिया था. हेरात में सलमा बांध भारत की मदद से बना. यह बांध 30 करोड़ डॉलर (क़रीब 2040 करोड़ रुपये) की लागत से बनाया गया. कंधार में अफ़ग़ान नेशनल एग्रीकल्चर साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी यूनिवर्सिटी की स्थापना और काबुल में यातायात के सुधार के लिए भारत ने 1000 बसें देने का भी वादा किया है.
अफ़ग़ानिस्तान को कराची के विकल्प में बंदरगाह की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए चाबहार बंदरगाह का विकास करने में भी भारत भूमिका निभा रहा है. पाकिस्तान ने सड़क मार्ग से भारतीय माल को अफ़ग़ानिस्तान भेजने की अनुमति नहीं दी. इसके विकल्प में भारत चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे लाइन तैयार कर रहा है. इसके बाद ज़ाहेदान से अफ़ग़ानिस्तान के ज़रंज तक रेलवे लाइन का विस्तार होगा. भारत के सीमा सड़क संगठन ने अफ़ग़ानिस्तान में जंरंज से डेलाराम तक 215 किलोमीटर लम्बे मार्ग का निर्माण किया है, जो निमरोज़ प्रांत की पहली पक्की सड़क है.
अक्तूबर 2017 में भारत ने चाबहार के रास्ते अफ़ग़ानिस्तान को गेहूँ की पहली खेप भेजकर इस व्यापार मार्ग की शुरुआत कर भी दी है. ईरान के रास्ते मध्य एशिया के देशों को जोड़ते हुए रूस तक जाने वाले प्रस्तावित उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर में भी भारत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. हम नहीं भुला सकते कि अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान की दिलचस्पी सुरक्षा कारणों से है. वह अफ़ग़ानिस्तान को अपनी डीप डिफेंस योजना का हिस्सा मानता है. पर अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के हित भी टकराते हैं. दोनों देशों की सीमा बनाने वाली डूरंड लाइन को लेकर दोनों में असहमति है और तालिबानी भी उस असहमति से खुद को अलग नहीं रख सकते.
हमें बदलती परिस्थितियों पर नजर रखनी होगी और इस बात का इंतजार करना होगा कि होता क्या है. इसके अलावा कबायली समूहों के बीच अपने दोस्तों को भी तलाशना या बनाना होगा.
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