पुलवामा कांड पर देश में दो तरह की प्रतिक्रियाएं हैं। पहली है, ‘निंदा नहीं, एक भी आतंकी जिंदा
नहीं चाहिए...याचना नहीं, अब रण
होगा...आतंकी ठिकानों पर हमला करो’ वगैरह। दूसरी है, ‘धैर्य रखें, बातचीत से ही हल निकलेगा।’ दोनों बातों के निहितार्थ समझने चाहिए। धैर्य रखने का सुझाव उचित है, पर
लोगों का गुस्सा भी गलत नहीं है। जैशे मोहम्मद ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है,
जिसमें उसने बिलकुल भी देर नहीं लगाई है। उसके हौसले बुलंद हैं। जाहिर है कि उसे
पाकिस्तान में खुला संरक्षण मिल रहा है। नाराजगी के लिए क्या इतना काफी नहीं है? अब आप किससे बात करने का सुझाव दे रहे हैं? जैशे-मोहम्मद से?
पुलवामा कांड में हताहतों की संख्या बहुत बड़ी है, इसलिए इसकी आवाज
बहुत दूर तक सुनाई पड़ रही है। जाहिर है कि हम इसका निर्णायक समाधान चाहते हैं।
भारत सरकार ने बड़े कदम उठाने का वादा किया है। विचार इस बात पर होना चाहिए कि ये
कदम सैनिक कार्रवाई के रूप में होंगे या राजनयिक और राजनीतिक गतिविधियों के रूप
में। सारा मामला उतना सरल नहीं है, जितना समझाया जा रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में
तालिबान के पुनरोदय से भी इसका रिश्ता है।
इस कांड के साथ जैशे-मोहम्मद का जो वीडियो जारी हुआ है, उसके विवेचन
की जरूरत भी है। इस वीडियो को जैश के पाकिस्तान में बैठे नेतृत्व ने नकारा नहीं
है। दूसरे इसमें केवल कश्मीर की आजादी की बात नहीं है, बल्कि पूरे भारत को तोड़ने
का दावा है। पूरा संदेश साम्प्रदायिक उन्माद से भरा है। बावजूद इसके पाकिस्तान ने
इस कांड की बुझी सी निन्दा जरूर की है, पर भारत के आरोप को बेबुनियाद बताया है और
यह भी कहा है कि यह सब दुनिया का ध्यान बँटाने की कोशिश है। दुनिया को अब क्या
किसी दूसरे प्रमाण की जरूरत है?
कश्मीर में छाया-युद्ध के तीन दशक पूरे हो रहे हैं। उसे खत्म करने के
लिए हमें ठंडे दिमाग से सोचना ही होगा। पर कार्रवाई कड़ी ही करनी होगी। इस बड़े और
कड़े काम के लिए सरकार को भी देश का समर्थन चाहिए। राहुल गांधी ने अपने समर्थन का वायदा
किया है। सरकार को भी सभी दलों को अपने साथ लेना चाहिए। उनसे सलाह करनी चाहिए और
आमराय से ही कोई काम करना चाहिए। साथ ही देश के अन्य हिस्सों में रह रहे कश्मीरियों की रक्षा करनी चाहिए। हम उनके साथ अच्छा व्यवहार करेंगे, तो वे हमारे संदेशवाहक का काम करेंगे। हमारा झगड़ा आतंकवाद और उग्र अलगाववाद से है। कश्मीर के राजनीतिक सवालों पर खुले मन से हमें बात करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
राजनीतिक दलों को भी कश्मीर के महत्व और जनता की भावनाओं को भी समझना
चाहिए। इस मसले को राजनीतिक फुटबॉल बनाने के बजाय, दीर्घकालीन रणनीति बनानी चाहिए।
शुक्रवार को देशभर में लोगों ने अपने घरों में मोमबत्तियाँ जलाकर पुलवामा की घटना
पर अपना शोक और रोष एकसाथ प्रकट किया। एकता कायम रहे, तो समाधान मुश्किल भी नहीं
है। पर हमारी एकता में छिद्र हैं। इन छिद्रों को भी भरना चाहिए।
कार्रवाई क्या हो, कब हो और किस स्तर पर हो, इसे जाँचने-परखने के लिए
विशेषज्ञता की जरूरत है। अपने फौजी नेतृत्व पर भरोसा कीजिए। कहा जा रहा है कि यह ‘इंटेलिजेंस फेल्यर’ है। हर आतंकी घटना इंटेलिजेंस की खामियों के कारण होती है। न्यूयॉर्क
के ट्विन टॉवर से लेकर मुम्बई हमले के पीछे इंटेलिजेंस की चूक थी। खामियों की जाँच
होनी चाहिए, पर कोई जरूरी है कि सुरक्षा बलों की छीछालेदर की जाए। यह छीछालेदर
जरूरत से ज्यादा है। सुरक्षा बलों पर हमला करने वालों पर जब गोलियाँ चलती हैं, तब
मानवाधिकार के सवाल उठते हैं। हमला सफल हो जाए, तो सुरक्षा-बलों की नाकामी का रोना
शुरू हो जाता है।
स्टैंडर्ड प्रोसीजर के तहत आतंकी की गाड़ी नजदीक आ ही नहीं सकती थी, पर
सुरक्षा-बल गोली चलाने के पहले दस बार सोचने लगे हैं। एक बड़ा तबका कश्मीर को राजनीतिक नज़रिए से देखता है।
उसे दोष सरकारी नीतियों में दिखाई पड़ता है। जिस युद्धोन्माद पर काबू करने की
बातें हो रही हैं, वह मुखर क्यों नहीं होगा? धैर्य का उपदेश देने वाले भारत सरकार, संविधान और संसद की नीतियों से अपनी असहमतियों
को वे चालाकी से छिपा लेते हैं। बेशक इस समस्या का राजनीतिक समाधान ही होगा, पर
कैसे? इसका जवाब तभी दिया जा सकता है जब स्पष्ट हो कि कश्मीर के बारे में आपकी
नीति क्या है।
जैशे-मोहम्मद और लश्करे तैयबा जैसे गिरोहों
पर पाकिस्तान कार्रवाई नहीं करेगा, तो हम बातचीत कैसे और क्यों करेंगे? पुलवामा हमले का पाकिस्तान और तालिबान के साथ सीधा रिश्ता है। सन 1999 में
भारतीय जेल से मसूद अज़हर को छुड़ाकर ले जाने में पाकिस्तान और तालिबान ने मिलकर
साज़िश की थी। तालिबान ने ही जैशे-मोहम्मद को तैयार करने में मदद की है। सन 2001
में जम्मू-कश्मीर विधानसभा पर हुए हमले में जैश का हाथ था। पिछले तीन साल में पठानकोट
और उड़ी समेत कश्मीर में हुए ज्यादातर बड़े हमलों में उसका हाथ है। उसे पाकिस्तान
का खुला समर्थन मिला है, फिर भी कुछ लोग चाहते हैं कि हम पाकिस्तान से बातचीत
करें।
नब्बे के दशक में पाकिस्तान ने तालिबान को
अफ़ग़ानिस्तान के साथ-साथ कश्मीर में लड़ने के लिए तैयार किया था। वह रणनीति बदली
नहीं है। अमेरिका ने हाल में तालिबान के साथ जो बातचीत शुरू की है, उसकी वजह से आतंकियों
के हौसले बुलंद हैं। तालिबान का एक आईडी विशेषज्ञ ग़ाज़ी
रशीद इन दिनों कश्मीर में काम
कर रहा है। शायद पुलवामा में उसका ही हाथ है। इस घटना का अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से
रिश्ता है। इसपर काबू पाने के लिए हमें ज्यादा बड़े स्तर पर रणनीति बनानी होगी। हमें
अमेरिका के साथ रूस और चीन से भी इस सिलसिले में सम्पर्क रखना पड़ेगा।
तीनों देशों ने पुलवामा की घटना की भर्त्सना
की है, पर उनसे राजनयिक समर्थन हासिल करने के लिए अंदरूनी तौर पर ही बातें करनी
होंगी। पुलवामा की घटना के एक दिन पहले ईरान के सिस्तान प्रांत में एक और घटना हुई
है, जिसमें पाकिस्तानी गिरोह जैशे-अद्ल का हाथ बताया जा रहा है। हालांकि दोनों
घटनाओं का एक-दूसरे से कोई जुड़ाव नहीं है, पर दोनों सुन्नी संगठन हैं। इस बात से पाकिस्तान
में बढ़ती कट्टरपंथी प्रवृत्तियों पर रोशनी पड़ती है। ईरान ने उस हमले के पीछे
अमेरिका का हाथ भी देखा है, पर उसने पाकिस्तान की भी भर्त्सना की है। इन बातों के
पीछे कई तरह की पेचीदगियाँ हैं।
वीगुर अलगाववादियों के मामले में भारत ने
हमेशा चीन के साथ सहयोग किया है, पर चीन ने मसूद अज़हर को आतंकवादी घोषित होने से
हमेशा बचाया है। अमेरिका का भी सीमित समर्थन हमें हासिल है। वह पहले अपने हितों को
देखेगा, फिर हमारे। कश्मीर समस्या इन वैश्विक शक्तियों की देन है। अब जब भारत की
भूमिका बढ़ रही है, इसके अंतर्विरोधों के बारे में भी हमें सोचना चाहिए। इस नज़रिए
से यह घटना पाकिस्तान के खिलाफ जाएगी।
भारत सरकार ने पकिस्तान से ‘मोस्ट फेवरेट नेशन’ का दर्जा वापस लेने की घोषणा की है। इससे बड़ा फर्क
नहीं पड़ेगा। पाकिस्तान को कुछ भारतीय माल महंगा मिलेगा। यह एक सांकेतिक कार्रवाई
है। सर्जिकल स्ट्राइक जैसे समाधान भी बड़े परिणाम नहीं देंगे। पाकिस्तानी फौज इन
गिरोहों के साथ है। ज्यादा हुआ तो कुछ दिन का युद्ध छिड़ सकता है। हाँ, पाकिस्तानी
समाज का अतिशय फौज-प्रेम उनपर भारी पड़ेगा। वह आर्थिक संकट की चपेट में है। उसका यह
अंतर्विरोध ही परिस्थितियों को बदलेगा। जैशे-मोहम्मद ने बड़ी गलती कर दी है, जो
उसके लिए घातक साबित होगी।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 136वां बलिदान दिवस - वासुदेव बलवन्त फड़के और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteज्ञानवर्धक आलेख जो की जो कि इस विषय से जुड़े सभी बिंदुओं पर बात करता है। आभार।
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