पिछले पाँच साल में कश्मीर को लेकर मोदी सरकार की
नीतियाँ निरंतर सख्त होती गईं हैं और इस वक्त अपने कठोरतम स्तर पर हैं। इन पाँच
वर्षों में सरकार ने नर्म रुख अख्तियार करने की कोशिश भी की, पर हालात ऐसे बने कि
उसका रुख सख्त होता चला गया। पिछले हफ्ते की कुछ घटनाओं से लगता है कि सरकार ने
राजनयिक स्तर पर एक और नई रेखा खींची है। यह रेखा हुर्रियत के खिलाफ है। हुर्रियत
के दो महत्वपूर्ण घटकों जमाते-इस्लामी और अब जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ)
पर प्रतिबंध लगाया गया है।
पाकिस्तान दिवस (23 मार्च) की पूर्व-संध्या पर दिल्ली
में पाकिस्तानी उच्चायोग में हुए कार्यक्रम में भारत सरकार के मंत्री इसलिए शामिल
नहीं हुए, क्योंकि हुर्रियत को बुलाया गया था। यह एक और रेड लाइन रेखा है। उधर
प्रधानमंत्री ने इमरान खान के नाम बधाई संदेश भी भेजा है। इसे कुछ लोग संशय बता
रहे हैं। ऐसा नहीं है। कश्मीर के मामले में भारत का कड़ा संदेश है और बधाई एक
परम्परा के तहत है, जो दुनिया के सभी देश एक-दूसरे के साथ निभाते हैं। इन पत्रों का औपचारिक महत्व होता है आधिकारिक नहीं।
पुलवामा हमले के बाद भारतीय वायुसेना ने बालाकोट
कार्रवाई के बाद तनाव कम होता नजर आ रहा था, पर ऐसा है नहीं। भारत के रुख में सख्ती
बढ़ती जा रही है। सैनिक गतिविधियाँ बढ़ रहीं हैं। पिछले एक महीने में आतंकियों के
खिलाफ कार्रवाई बढ़ी है। हर रोज एनकाउंटर की खबरें आ रहीं हैं। मसूद अज़हर के
खिलाफ हालांकि संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव पर चीन ने फौरी तौर पर रोक लगा दी है, पर
अमेरिका, यूरोपियन यूनियन, फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन ने दबाव बढ़ाया है।
जेकेएलएफ पर प्रतिबंध महत्वपूर्ण घटना है। पिछले चार दशक
से यासीन मलिक के नेतृत्व वाला यह संगठन कश्मीर के जेहादी आंदोलन की धुरी बना हुआ
है। शुरुआत फरवरी 1984 में हुई थी, जब इसके सदस्यों ने बर्मिंघम में भारतीय
राजनयिक रवीन्द्र म्हात्रे का अपहरण करके उनकी हत्या कर दी थी। जवाब में एक हफ्ते
के भीतर इस संगठन के नेता मकबूल भट्ट को फाँसी पर चढ़ा दिया गया था। अदालत ने सज़ा
काफी पहले सुना दी थी, पर फाँसी टलती जा रही थी।
हुर्रियत की स्थापना के काफी पहले जेकेएलएफ का गठन
ब्रिटेन में हुआ था। इस संगठन के तीन घोषित कार्यक्रमों में से एक सशस्त्र बगावत
भी था। बाद में इसके दो ग्रुप बने, पर अंततः यासीन मलिक वाला ग्रुप ही प्रभावी
रहा। बड़ी वजह है इसकी आईएसआई से साठगाँठ। कश्मीर की घाटी में अस्सी के दशक तक
आईएसआई का कोई नेटवर्क नहीं था। जेकेएलएफ ने वह नेटवर्क उपलब्ध कराया। सन 1987 में
राज्य विधानसभा के चुनावों में धाँधली का आरोप लगाकर कश्मीर में असंतोष पैदा किया
गया। उसके बाद रुबैया सईद का अपहरण हुआ। यह सब जेकेएलएफ की देखरेख में हुआ।
हालांकि 1994 में यासीन मलिक ने घोषणा की थी कि हमारा
संगठन हिंसा की रणनीति को छोड़ रहा है, पर यह धोखा था। इस तरह से उसने खुद को
हिंसक गतिविधियों की ढाल बनाया। कश्मीर के अलगाववादी संगठन अब दुनिया के सामने खुद
को नागरिक अधिकारों के हामी घोषित कर रहे हैं, पर उनकी सारी गतिविधियाँ हिंसक और
अमानवीय हैं। दूसरी तरफ हमारी आंतरिक राजनीति के अंतर्विरोधों का भी फायदा उन्हें
मिलता है। ये अंतर्विरोध भी आसानी से दूर नहीं होंगे।
जेकेएलएफ बुनियादी तौर पर आतंकवादी संगठन है। कश्मीरी
हिंसा व्यापक रणनीति के साथ शुरू हुई थी। 14 सितंबर, 1989 को बीजेपी के राज्य सचिव टिक्का लाल
टपलू की हत्या हुई। मक़बूल बट को सज़ा सुनाने वाले जज नीलकंठ गंजू की हत्या उसके
डेढ़ महीने बाद हुई। फिर 13 फ़रवरी, 1990 को
श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र के निदेशक लासा कौल की हत्या हुई। तकरीबन चार लाख पंडित
बेघरबार हुए या मारे गए। 8 दिसंबर, 1989 को रुबैया सईद का अपहरण किया गया था,
जिसके पीछे यही संगठन था। चौदह साल बाद जेकेएलएफ के जावेद मीर ने इस अपहरण की बात
कबूल की।
25 जनवरी 1990 को वायु सेना के पाँच अधिकारियों की हत्या
हुई। खुद यासीन मलिक ने बीबीसी के टिम सेबेस्टियन के कार्यक्रम हार्ड टॉक में स्वीकार
किया था कि वह हत्याओं में भागीदार था। बावजूद इसके वह कानून के शिकंजे से बाहर घूमता
रहा। अब उसपर मुकदमे चलाने की तैयारी है। कहना मुश्किल है कि सरकार की यह नीति
किसी व्यापक रणनीति का हिस्सा है या राजनीति है।
पिछले पाँच साल में कश्मीर और पाकिस्तान को लेकर गरम और नरम
दोनों तरह की सरकारी रणनीतियाँ देखने को मिली हैं। सन 2014 में नरेन्द्र मोदी की
सरकार बनने के बाद अगस्त के महीने में दोनों देशों के बीच बातचीत की पेशकश हुई थी।
सबसे पहले 25 अगस्त को दोनों देशों के विदेश सचिवों की वार्ता होने जा रही थी कि 18
अगस्त को अलगाववादी नेता शब्बीर शाह की पाकिस्तानी उच्चायुक्त के साथ बैठक हुई। इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया ने इसे दिन भर दिखाया। कांग्रेस पार्टी ने सरकार पर हमला बोल दिया।
भारत सरकार इसके पहले भी हुर्रियत नेताओं के साथ
पाकिस्तानी नेतृत्व की मुलाकातों की आलोचना करती रही है। हर बार औपचारिक विरोध भी
दर्ज कराया गया, पर पूर्व निर्धारित बैठकें रद्द नहीं हुईं। वह पहली लाल रेखा थी। इसके
बाद 25 दिसम्बर 2015 की घटना है, जब नरेन्द्र मोदी अफगानिस्तान से लौटते समय अचानक
लाहौर में उतरे। उसकी पृष्ठभूमि पर ध्यान दें। उसी साल जुलाई में रूस के शहर उफा
मोदी और नवाज शरीफ की मुलाकात के बाद दोनों देशों के बीच बातचीत पर सहमति हुई थी।
इसमें सबसे पहले आतंकवाद के सवालों पर ही बातचीत करने की बात थी। इसे लेकर नवाज
शरीफ के खिलाफ पाकिस्तानी सेना ने और भारत में कांग्रेस पार्टी ने नाराजगी व्यक्त
की।
जनवरी 2016 के दूसरे हफ्ते में दोनों देशों के विदेश
सचिवों की बातचीत तय थी। उसके तीन हफ्ते पहले मोदी की लाहौर-यात्रा हुई। पर उसके
अगले हफ्ते ही पठानकोट एयरबेस पर हमला हो गया। इन बातों में तारतम्यता है। पठानकोट
हमला न हुआ होता और सचिव स्तर की वार्ता हो गई होती, तो शायद कहानी कुछ और होती।
नब्बे के दशक में जब कश्मीर में हिंसा चरमोत्कर्ष पर थी।
बढ़ती हुई आतंकवादी हिंसा के मद्देनज़र हमारी संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी
1994 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया और कहा कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत
का अभिन्न अंग है। पाकिस्तान को अपने कब्जे वाले हिस्सों को खाली करना होगा। तब देश
ने जिस राजनीतिक एकता का परिचय दिया था, उसकी हमें आज भी जरूरत है।
ईमानदारी जरूरी है।
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