हाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वह
टेलीविजन इंटरव्यू काफी चर्चित रहा, जो फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार ने लिया था.
सवालों से ज्यादा चर्चा अक्षय कुमार की नई भूमिका को लेकर है. चुनाव के ठीक पहले
अचानक तमाम सेलिब्रिटी राजनीति के मैदान में उतरे हैं. कुछ प्रचार के लिए और कुछ
प्रत्याशी बनकर. राजधानी दिल्ली से क्रिकेटर गौतम गम्भीर, बॉक्सर विजेन्द्र सिंह
और गायक हंसराज हंस मैदान में उतरे हैं. गायक मनोज तिवारी पहले से मैदान में हैं.
मथुरा में हेमा मालिनी हैं और मुम्बई में उर्मिला मातोंडकर. दक्षिण में कलाकारों
की भरमार है. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की मुनमुन सेन पहले से सांसद हैं, इसबार
मिमी चक्रवर्ती समेत कई कलाकारों को पार्टी ने टिकट दिए हैं.
दिवंगत अभिनेता विनोद खन्ना की गुरदासपुर सीट
से सनी देओल को बीजेपी टिकट मिलने की खबर भी मीडिया की सुर्खियों में है. खबर है
कि कांग्रेस ने भी उन्हें टिकट देने की पेशकश की थी, पर सनी देओल ने बीजेपी को
वरीयता दी. पिता धर्मेन्द्र के पदचिह्नों पर चलते हुए वे भी राजनीति के मैदान में
उतरे हैं. धर्मेन्द्र राजस्थान की बीकानेर सीट से दो बार भाजपा के सांसद रहे हैं.
उनकी पत्नी हेमा मालिनी मथुरा से सांसद हैं और फिर से चुनाव लड़ रहीं हैं.
बिहार के पटना साहिब से शत्रुघ्न सिन्हा चुनाव
मैदान में हैं. उनकी पत्नी पूनम सिन्हा लखनऊ से चुनाव लड़ रहीं हैं. भोजपुरी
फिल्मों के स्टार रवि किशन कांग्रेस से पाला बदलकर भाजपा में शामिल हो गए हैं और
अब गोरखपुर से चुनाव लड़ रहे हैं. सेलिब्रिटी कलाकारों और खिलाड़ियों की लम्बी
फेहरिस्त है, जिनकी दिलचस्पी राजनीति में बढ़ी है. सवाल है कि यह सब क्या है? क्या यह हमारे लोकतंत्र के उत्तम स्वास्थ्य की निशानी है?
सेलिब्रिटी समाज के महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं. वे
दूर से नजर आते हैं. लोग उनकी बात सुनते हैं. वे अपने प्रशंसकों को प्रेरणा दे
सकते हैं, बशर्ते उनके पास कहने और करने को कुछ हो. महत्वपूर्ण यह है कि हम किस सेलिब्रिटी-संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं और क्यों? संसद के उच्च सदन राज्यसभा में
राष्ट्रपति 12 ऐसे सदस्यों को नामित कर सकते हैं, जिनका साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा में कोई योगदान हो.
लता मंगेशकर से लेकर रेखा और सचिन तेन्दुलकर तक को सदस्यता देकर उनका सम्मान किया
गया, पर सदन की बैठकों में उनकी
उपस्थिति बहुत कम रही. इससे उन उद्देश्यों को लेकर संदेह पैदा होता है.
राजनीति में दूसरे क्षेत्रों से सेलिब्रिटी लाने
की परम्परा भारत के पहले दूसरे देशों में पड़ चुकी थी. हमने इसका अनुसरण मात्र
किया है. इसे ‘सेलिब्रिटी पॉलिटिक्स’ या ‘पॉलिटिकल स्टार-पॉवर’ कहते हैं. राजनीति को लोकप्रियता की तलाश रहती है. वह किसी भी रूप
में हो. खेल, संगीत, साहित्य, रंगमंच, सिनेमा जैसे दूसरे क्षेत्रों में नाम कमा
चुके व्यक्तियों को राजनीति में जगह देने का चलन अमेरिका में पहले से है. अमेरिकी
राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन फिल्म कलाकार थे. वहाँ ओप्रा विनफ्रे और जॉर्ज क्लूनी ने
राजनीति में भी प्रवेश किया.
हिन्दी फिल्मों के कलाकार सुनील दत्त और नर्गिस
दत्त की मशहूर जोड़ी ने राजनीतिक-सामाजिक भूमिकाएं भी निभाईं. सन 1984 के चुनाव
में इलाहाबाद से हेमवती नंदन बहुगुणा को हराकर अमिताभ बच्चन ने जिस तेजी से
राजनीति में प्रवेश किया, उतनी ही तेजी से उन्होंने इस मैदान से अपने हाथ वापस
खींच लिए. हालांकि वे परोक्ष रूप से राजनीति से अब भी जुड़े हैं, पर उसे सक्रिय
राजनीति नहीं कहा जा सकता. गोकि इस सहायक भूमिका में आज वे काफी सफल हैं. कई
प्रकार के सामाजिक कार्यक्रमों में उनकी पहल प्रभावशाली है. उनकी पत्नी जया बच्चन
सपा की सांसद है.
हिन्दी सिनेमा से काफी पहले तमिलनाडु की
राजनीति में सिनेमा कलाकारों का बोलबाला शुरू हो गया था. तमिलनाडु में ही ‘कटआउट’ संस्कृति का विकास हुआ था. वहाँ ‘आसमानी कद’ के राजनेता सिनेमा के पर्दे से आए. तमिलनाडु
अकेला ऐसा राज्य है, जहाँ लगातार पाँच मुख्यमंत्री सिनेमा जगत से आए. इसके पीछे
द्रविड़ राजनीतिक-सांस्कृतिक आंदोलन की भूमिका थी, जिसमें थिएटर ने काफी काम किया.
पर इस लोकप्रियता के पीछे सिनेमा की राजनीतिक-सामाजिक भूमिका थी. बंगाल की फिल्मों
ने भी इस भूमिका का निर्वाह किया था.
फिल्मों की स्क्रिप्ट में द्रविड़ विचारधारा को
डालने का काम पचास के दशक से पहले ही शुरू हो गया था. सन 1952 की फिल्म ‘पराशक्ति’ ने द्रविड़ राजनीतिक संदेश जनता तक
पहुँचाया था. इस फिल्म का स्क्रीनप्ले और संवाद के करुणानिधि ने लिखे थे, जो बाद
में राज्य के मुख्यमंत्री बने. उनके पहले सीएन अन्नादुरै ने भी कई फिल्मों की
पटकथाएं लिखीं. जैमिनी गणेश, एमजी रामचंद्र, जयललिता और अब रजनीकांत और कमलहासन
परोक्ष या प्रत्यक्ष राजनीति में हस्तक्षेप कर रहे हैं. आंध्र के मुख्यमंत्री एनटी
रामाराव सिनेमा से राजनीति में आए थे.
इन सभी कलाकारों की राजनीतिक भूमिका रही है.
आंध्र की राजनीति में एनटी रामाराव ने ऐसे समय में प्रवेश किया, जब राज्य की
अस्मिता का सवाल पैदा हुआ. एनटीआर ने न केवल विकल्प दिया, बल्कि एक समांतर राजनीति
को जन्म दिया. क्या हम सनी देओल, हेमा मालिनी और जयाप्रदा से उसी किस्म की
राजनीति की उम्मीद कर रहे हैं? हिन्दी सिनेमा से गई शबाना आज़मी और
जावेद अख्तर की जोड़ी ने राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उसके पहले सुनील
दत्त और नर्गिस की जोड़ी ने सामाजिक जिम्मेदारी निभाई. राज बब्बर फिल्मों में आने
के पहले से राजनीति से जुड़े रहे.
सवाल है कि इन नामधारी सेलिब्रिटी की क्या भूमिका
होगी? क्या हम उन्हें केवल इसलिए चुनें
कि वे मनोरंजन अच्छा करते हैं? सच यह है कि गाँवों, कस्बों
में चुनाव सभाएं शुरु करने के लिए नौटंकी, नाच और गाने-बजाने के कार्यक्रम रखे
जाते हैं? तब जाकर भीड़ जमा होती है. क्या ये कलाकार वोटर की
जागरूकता को बेहतर बनाने में मददगार होंगे? क्या वे अपने
विचारों और सुझावों से संसदीय कर्म को समृद्ध करेंगे? क्या
वे लोकतंत्र को तमाशा बनने से रोकेंगे? आप भी इन सवालों पर
विचार करें.
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