Saturday, April 6, 2019

लोकपाल को लेकर खामोशी क्यों?


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हमारी राजनीति और समाज की प्राथमिकताएं क्या हैं? सन 2011 में इन्हीं दिनों के घटनाक्रम पर नजर डालें, तो लगता था कि भ्रष्टाचार इस देश की सबसे बड़ी समस्या है और उसका निदान है जन लोकपाल. लोकपाल आंदोलन के विकास और फिर संसद से लोकपाल कानून पास होने की प्रक्रिया पर नजर डालें, तो नजर आता है कि राजनीति और समाज की दिलचस्पी इस मामले में कम होती गई है. अगस्त 2011 में देश की संसद ने असाधारण स्थितियों में विशेष बैठक करके एक मंतव्य पास किया. फिर 22 दिसम्बर को लोकसभा ने इसका कानून पास किया, जो राज्यसभा से पास नहीं हो पाया.

फिर उस कानून की याद दिसम्बर, 2013 में आई. राज्यसभा ने उसे पास किया और 1 जनवरी को उसे राष्ट्रपति की मंजूरी मिली और 16 जनवरी, 2014 को यह कानून लागू हो गया. सारा काम तेजी से निपटाने के अंदाज में हुआ. उसके पीछे भी राजनीतिक दिखावा ज्यादा था. देश फिर इस कानून को भूल गया. सोलहवीं लोकसभा के चुनाव के ठीक पहले यह कानून अस्तित्व में आया और अब सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव के ठीक पहले लोकपाल की नियुक्ति हुई है. इसकी नियुक्ति में हुई इतनी देरी पर भी इस दौरान राजनीतिक हलचल नहीं हुई. सुप्रीम कोर्ट में जरूर याचिका दायर की गई और उसकी वजह से ही यह नियुक्ति हो पाई. 


पूरे पाँच साल यह संस्था तकनीकी दाँव-पेचों की शिकार बनी रही. और अब खामोशी से नियुक्ति हो गई. हैरत की बात है कि समूची राजनीति इसे लेकर खामोश है. हमारी राजनीतिक प्राथमिकताएं क्या हैं? जिस माँग ने पूरे देश को सिर पर खड़ा कर दिया था, उसके बारे में इस चुनाव में कोई दो शब्द भी नहीं बोल रहा है. ऐसा क्यों? 
शायद हमने लोकपाल की नियुक्ति तो करवा ली, पर उसके इस्तेमाल के बारे में नहीं सोचा. दूसरे, हमने जो चाहा था, क्या वैसा ही लोकपाल हमें मिला है? क्या हम राफेल, अगस्ता-वेस्टलैंड, नीरव मोदी और विजय माल्या के मामले लोकपाल के सामने ले जा सकते हैं? क्या हम जानते हैं कि लोकपाल के सामने किस तरह से मामले जाएंगे और उसके पास जाँच के अधिकार किस प्रकार के हैं? इसकी वजह यह है कि हमारा सारा ध्यान कॉस्मेटिक्स पर यानी बाहरी आवरण पर रहता है. हम बारीकियों पर नहीं जाते. 
सत्ताधारी दल और विपक्ष क्या इसे लेकर खुश हैं? क्या वजह है कि इस चुनाव में लोकपाल को लेकर कोई चर्चा ही नहीं है? लोकपाल की नियुक्ति में लगी देरी और नियुक्ति प्रक्रिया पर किसी किस्म की चर्चा मीडिया में नहीं है. यह नियुक्ति भी तब हुई है, जब सुप्रीम कोर्ट ने लोकपाल और उसके सदस्यों के लिए नामों की सूची तैयार करने की डैडलाइन तय कर दी. कोर्ट ने सर्च कमेटी को फरवरी के अंत तक नामों की सूची को अंतिम रूप देने का निर्देश दिया.

सोलहवीं लोकसभा चुनाव के बाद जब लोकपाल की नियुक्ति का सवाल आया, तो चयन समिति की सदस्यता को लेकर एक तकनीकी पेच उभरा. सदस्यों की संख्या के आधार पर नेता विपक्ष का पद किसी को नहीं मिला. इस तकनीकी त्रुटि का निवारण जल्दी कर लिया जाता, तो नियुक्ति की प्रक्रिया जल्द शुरू की जा सकती थी, पर ऐसा नहीं हुआ. प्रक्रिया तभी शुरू हुई, जब सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल इसका निर्देश दिया. सितम्बर 2018 में जाकर आठ सदस्यों की सर्च कमेटी बनी.

इस समिति ने जो नाम सुझाए, उनपर चयन समिति ने विचार किया. इस चयन समिति में थे प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस के प्रतिनिधि एसए बोबडे, लोकसभा अध्यक्ष, प्रतिष्ठित न्यायविद मुकुल रोहतगी, विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे, जिन्होंने निमंत्रण ठुकरा दिया. अब जब नियुक्ति हो गई है, तब भी कुछ लोगों ने संदेह प्रकट किया है.

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील राजीव धवन के अनुसार पूरी प्रक्रिया पारदर्शी और निष्पक्ष नहीं है. वे जो भी कहें, प्रक्रिया संसद से पास अधिनियम के अनुरूप है. लोकपाल अधिनियम की धारा 4(1) के तहत चयन समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, विपक्ष के नेता, मुख्य न्यायाधीश या उनके प्रतिनिधि और एक प्रतिष्ठित न्यायविद होंगे. चूंकि विपक्ष के नेता के पद पर कोई नहीं है, इसलिए सबसे बड़े दल के नेता को विशेष अतिथि के रूप में बुलाया गया था. वे नहीं आए.

इस प्रक्रिया के आलोचकों का कहना है कि प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष दोनों बीजेपी के सदस्य हैं. मुकुल रोहतगी 2014 से 2017 तक देश के अटॉर्नी जनरल रह चुके हैं. केवल जस्टिस बोबडे की ऐसे थे, जो सत्ताधारी दल से जुड़े नहीं थे. सर्च कमेटी और चयन समिति के सदस्यों के बारे में जो स्थिति है, वह बदलने वाली नहीं है. भविष्य की नियुक्तियाँ भी ऐसे ही होंगी. हमने जिस ब्रिटिश व्यवस्था पर आधारित संसदीय व्यवस्था को अपनाया है, उसमें भारतीय तत्व भी जुड़े हैं.

सिद्धांततः संसद के पीठासीन अधिकारी को दलीय राजनीति से बाहर माना जाता है, पर हमारी राजनीति में ऐसा नहीं है. और ऐसा शुरू से होता चला आ रहा है. सीबीआई के डायरेक्टर की नियुक्ति और उन्हें हटाए जाने के दोनों फैसलों में सबसे बड़े दल के नेता के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे ने अपनी असहमति दर्ज कराई थी. यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार है और इन अधिकारों को राजनीतिक मर्यादाओं की दृष्टि से ही देखना चाहिए. हाँ, लोकपाल की नियुक्ति में जो देरी हुई है, उससे सरकार को बरी नहीं किया जा सकता.

जहाँ तक इस प्रक्रिया की पारदर्शिता का सवाल है, उसे स्पष्ट किया जाना चाहिए. देश को बताया जाना चाहिए कि इसके लिए किन-किन लोगों ने आवेदन किया, सर्च कमेटी ने कितने नामों को चयन समिति के सामने रखा वगैरह. मसलन लोकपाल के अध्यक्ष के लिए जो पाँच नाम और सदस्यों के लिए जो 24 नाम थे, उन्हें भी बताया जाना चाहिए.

लोकपाल की नियुक्ति के बाद अगले कुछ महीनों में उसकी व्यावहारिक भूमिका का पता लगेगा. दिसंबर 2011 में इस विषय पर चली चर्चा में मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव ने लोकसभा में कहा था कि यह कानून दरोगाओं को ताकत देगा. जाँच का सिद्धांत है कि जो भी जाँच करे वही महत्वपूर्ण है. वह दरोगा हो या डीआईजी उसे पूरी ताकत मिलनी चाहिए. दरोगा शब्द को कलंकित किसने किया? राजनेताओं को अपने गिरेबान में भी झाँकना चाहिए. यह भी सच है कि सिर्फ कानूनों से सामाजिक बदलाव नहीं होता. हमारे पास दुनिया के सबसे ज्यादा कानून हैं. पर दुनिया की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था का दावा तो हम नहीं कर सकते.





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