Thursday, August 10, 2023

हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के…

 


आज़ादी के सपने-01

वैबसाइट आवाज़ द वॉयस में 6 से 14 अगस्त, 2023 को प्रकाशित नौ लेखों की सीरीज़ का पहला लेख

पिछले साल इन्हीं दिनों जब हम अपनी स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे कर रहे थे, तब हमारे मन में स्वतंत्रता के 100वें वर्ष की योजनाएं जन्म ले रही थीं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त 2022 को लालकिले के प्राचीर से जो भाषण दिया, उसमें भविष्य के भारत की परिकल्पना थी.

उन्होंने 2047 का खाका खींचा, जिसके लिए अगले 25 वर्षों को ‘अमृत-काल’ बताते हुए कुछ संकल्पों और कुछ संभावनाओं का जिक्र किया. एक देश जिसने अपनी स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे किए हैं, और जो 100 वर्ष की ओर बढ़ रहा है, उसकी महत्वाकांक्षाओं और इरादों को उसमें पढ़ना होगा.

उसके पहले एक नज़र उन वर्षों पर भी डालनी चाहिए, जिनसे गुज़र कर हम यहाँ तक आए हैं. 15 अगस्त, 1947 को जब हम स्वतंत्र हो रहे थे, तब हमने कुछ सपने देखे थे. पिछले 76 साल में कुछ पूरे हुए और कुछ नहीं हुए.

सपना क्या था?

उस भव्य भारतवर्ष की पुनर्स्थापना, जो कभी वास्तव में सच था. नागरिकों की खुशहाली. क्या हैं क्या हैं हमारी 76 साल की उपलब्धियाँ? और अगले 25 साल में ऐसा क्या हम कर पाएंगे, जो हमें अपने सपनों को साकार करने में मददगार बने?

भारत के नीति आयोग ने संयुक्त राष्ट्र मल्टी डायमेंशनल पोवर्टी इंडेक्स (एमपीआई) के आधार पर हाल में जानकारी दी है कि मार्च 2021 को पूरे हुए पाँच वर्षों में देश में करीब 13.5 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से ऊपर आए हैं.

इसके कुछ साल परले संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम और ऑक्सफोर्ड गरीबी एवं मानव विकास पहल (ओपीएचआई) के आँकड़ों के अनुसार 2005-06 से 2015-16 के दौरान भारत में 27.3 करोड़ लोग गरीबी के दायरे से बाहर निकले.

हम कहाँ हैं?

नॉमिनल जीडीपी के आधार पर इस समय भारत, दुनिया की पाँचवीं और पर्चेज़िंग पावर पैरिटी (पीपीपी) के आधार पर तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से ही देश की औसत सालाना संवृद्धि 6 से 7 फीसदी की रही है. सन 2016 में नोटबंदी और 2017 में गुड्स एंड सर्विस टैक्स लागू होने के कारण और 2020 से 2022 तक कोविड के कारण अर्थव्यवस्था को झटके भी लगे हैं.

हमारी अर्थव्यवस्था की खासियत है, इसका 70 फीसदी घरेलू उपभोग पर आधारित होना. दूसरी महत्वपूर्ण बात है जीडीपी में सर्विस सेक्टर की 50 फीसदी से ज्यादा की भागीदारी. 1950 में हमारी जीडीपी में खेती का हिस्सा 54 फीसदी था, सन 1970 में 43 फीसदी और 1991-92 में घटकर 29.4 फीसदी हो गया. हम खेतिहर-व्यवस्था से बाहर निकल कर आधुनिक औद्योगिक-द्वार में प्रवेश कर रहे हैं.

रोज़गार-सृजन

इस समय जीडीपी में खेती की भागीदारी 16 फीसदी से भी कम है, पर देश के 55 फीसदी श्रमिक खेती से आज भी जुड़े हैं. गाँवों से  शहरीकरण के रूपांतरण के लिए रोज़गारों को बढ़ाने की जरूरत है. खेती की भूमिका कम जरूर हो रही है, पर उसके भी रूपांतरण की जरूरत है, ताकि उत्पादकता बढ़े.

खेती की जगह सेवा क्षेत्र, औद्योगिक उत्पादन और गैर-कृषि कारोबार बढ़ा है, पर गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगारों की संख्या उस अनुपात में नहीं बढ़ी है. हमें खेती और उद्योगों दोनों में पूँजी निवेश और संतुलन की जरूरत है.

देश में आर्थिक-गतिविधियों और निजी कारोबार को बढ़ावा देने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे हैं. 2014 में भारत का संयुक्त राष्ट्र की ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस में 142 वाँ रैंक था, जो 2019 में 63वाँ हो गया. ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स में 2015 में भारत का रैंक 81वाँ था, जो 2022 में 40वाँ हो गया.

आर्थिक-उदारीकरण

1991 में लागू हुई नई आर्थिक नीतियों के विस्तार का यह दौर है. इस दौरान हमने तेज आर्थिक विकास देखा. नए हाईवे, मेट्रो और दूर-संचार क्रांति को देखा. उस इंटरनेट को आते देखा जो एटमी ताकत से भी ज्यादा बलवान है.

दूसरी तरफ हर्षद मेहता, रामलिंगा राजू, अब्दुल करीम तेलगी, विजय माल्या और नीरव मोदी से लेकर, टूजी, सीडब्ल्यूजी, कोल-गेट से लेकर आदर्श घोटाले तक को देखा. सोशल मीडिया पर बड़े कड़वे सवाल पूछे जा रहे हैं. क्या अपने गिरेबान में झाँकने की कुव्वत हममें है?

सच यह है कि इसके नायक-नायिका आप हैं, इसका कथानक आपका है, पटकथा आपकी, परिस्थितियाँ आपकी, समस्याएं आपकी और समाधान भी आपके.

लोकतंत्र

समाधान हमारे लोकतंत्र में हैं. स्वतंत्र भारत ने अपने नागरिकों को तीन महत्वपूर्ण लक्ष्य पूरे करने का मौका दिया है. ये लक्ष्य हैं राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय और गरीबी का उन्मूलन. इन लक्ष्यों को पूरा करने का साजो-सामान हमारी राजनीति और व्यवस्था में मौजूद है.

लोकतंत्र बहुत पुरानी राज-पद्धति नहीं है. औद्योगिक क्रांति के साथ इसका विकास हुआ है. लोकतंत्र की सफलता के लिए एक स्तर का आर्थिक विकास होना चाहिए. नागरिकों की शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रशासनिक और न्याय-व्यवस्था भी. यह बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि पश्चिमी लोकतंत्र के बरक्स भारतीय लोकतंत्र विकासशील देशों का प्रेरणा स्रोत है.

जब हम आज़ाद हुए

15 अगस्त, 1947 को जो भारत आजाद हुआ, वह लुटा-पिटा और बेहद गरीब देश था. अंग्रेजी-राज ने उसे उद्योग-विहीन कर दिया था. देश के नागरिकों का छठा हिस्सा ही साक्षर था, सामाजिक-अलगाव इतना भारी था कि लगता था कि देश छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट जाएगा.

कैम्ब्रिज के इतिहासकार एंगस मैडिसन लिखा है, सन 1700 में वैश्विक-व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 22.6 फीसदी थी, जो पूरे यूरोप की हिस्सेदारी (23.3) के करीब-करीब बराबर थी. यह हिस्सेदारी 1952 में केवल 3.2 फीसदी रह गई. नए भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती देश के हर क्षेत्र में पुनर्निर्माण की थी.

इस पुनर्निर्माण के लिए औद्योगीकरण की जरूरत थी और उद्योग लगाने के लिए पूँजी की. तब तक स्वदेशी पूँजी का विकास हो ही नहीं पाया था, इसलिए राज्य को बड़ी भूमिका निभानी थी.

समाजवाद या बाजारवाद

उसी दौर में बुनियादी बहस भी शुरू हुई कि भारत को समाजवादी रास्ते पर जाना चाहिए या खुली-व्यवस्था बनानी चाहिए? निजी तौर पर नेहरू सोवियत-क्रांति के प्रशंसक थे. 1948 की औद्योगिक-नीति में मिश्रित-अर्थव्यवस्था की हिमायत की गई. उसके पहले 1944 में देश के आठ प्रमुख उद्योगपतियों ने एक वृहत सार्वजनिक-क्षेत्र के साथ स्वदेशी-उद्योगों के संरक्षण के लिए नियामक संस्थाएं बनाने का सुझाव दिया था. इसे 'बॉम्बे प्लान' कहा जाता है.

1950 में योजना आयोग की स्थापना हुई. सन 51 से पंचवर्षीय योजनाएं शुरू हुईं. यह सोवियत मॉडल था. पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56) में खेती और सिंचाई पर जोर था. देश की काफी विदेशी-मुद्रा अनाज के आयात पर खर्च हो रही थी. पहली योजना में जीडीपी की वार्षिक संवृद्धि का लक्ष्य 2.1 फीसदी था, और परिणाम इससे बेहतर आया 3.6 फीसदी.

दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61) में खेती से ध्यान हटाकर सार्वजनिक उद्योगों के सहारे विकास का लक्ष्य रखा गया, जिसके लिए राजकोषीय घाटे की सलाह दी गई. इस सलाह का खुली अर्थव्यवस्था के समर्थक बीआर शिनॉय जैसे अर्थशास्त्रियों ने विरोध किया. उन्होंने कहा कि सरकारी नियंत्रणों और औद्योगिक-लाइसेंसों की व्यवस्था से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा.

लाइसेंस-परमिट राज

जवाहरलाल नेहरू के सलाहकार थे प्रशांत चंद्र महालनबीस. उन्होंने ही सन 1955 में इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट की स्थापना की थी. दूसरी पंचवर्षीय योजना को महालनबीस मॉडल माना जाता है. इसमें तेज औद्योगीकरण की परिकल्पना की गई थी. इसके साथ जुड़ी 1956 की औद्योगिक नीति ने देश में सार्वजनिक उद्योगों और लाइसेंस राज की शुरुआत की.

उद्योगों को तीन वर्गों में बाँटा गया. बुनियादी और दूरगामी महत्व के उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र में रखे गए, दूसरे ऐसे उद्योग जिन्हें क्रमशः राज्य के अधीन आना था और तीसरे उपभोक्ता उद्योगों को लाइसेंसों के दायरे में निजी क्षेत्र के लिए छोड़ा गया. सरकारी पूँजी से उद्योग लगे, पर व्यवस्था में पेच पैदा हो गए.

नेहरू जी ने बिजली और इस्पात को दूसरी योजना का बुनियादी आधार बनाया. भाखड़ा नांगल बाँध को उदीयमान भारत के नए मंदिर का नाम दिया. दूसरी योजना में 60 लाख टन स्टील के उत्पादन का लक्ष्य रखा गया. राउरकेला में स्टील प्लांट लगाने के लिए जर्मनी की, भिलाई और दुर्गापुर में रूस और ब्रिटेन की सहायता ली गई. देश के नए तकनीकी-मंदिरों के रूप में आईआईटी खले गए और नाभिकीय ऊर्जा आयोग की स्थापना की गई.

खेती को धक्का

नेहरू तेज औद्योगिक विकास चाहते थे, ताकि पूँजी खेती से हटकर उद्योगों में आए. दूसरी योजना में खेती के परिव्यय में भारी कमी करके उसे करीब आधा कर दिया गया. इसका नकारात्मक असर हुआ. अन्न-उत्पादन कम हो गया, महंगाई बढ़ गई. अनाज का आयात करना पड़ा, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार पर असर पड़ा. दूसरी पंचवर्षीय योजना अपने लक्ष्य को भी हासिल नहीं कर सकी. 

दूसरी में धक्का लगने के बाद तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-67) में कृषि और गेहूं के उत्पादन में सुधार पर जोर दिया. यह योजना भी अपने लक्ष्यों में पूरी तरह सफल नहीं रही. संवृद्धि लक्ष्य 5.6 था, लेकिन वास्तविक संवृद्धि 2.4 प्रतिशत रही.

1962 की लड़ाई ने अर्थव्यवस्था की कमजोरियों को और उजागर किया. देश ने रक्षा-उद्योग और सेना की ओर ध्यान देना शुरू किया. 1964 में नेहरू जी के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने, जो नेहरू के मंत्रिमंडल में बिना विभाग के मंत्री थे. उनके सामने समस्याओं के पहाड़ खड़े थे.

बदलाव की घड़ी

एक मायने में वह रूपांतरण का प्रस्थान-बिंदु था. चीनी हमले ने देश का मनोबल गिरा दिया था. खेती में विफलता के कारण खाद्यान्न का संकट था. पाकिस्तान ने मौका देखकर कश्मीर पर हमला बोल दिया. शास्त्री जी को 1965 में पाकिस्तान पर विजय के रूप में मजबूत राजनीतिक आधार जरूर मिला, पर जनवरी 1966 में उनके असामयिक निधन से फिर एक धक्का लगा.

उस साल देश में सूखा भी पड़ा. भारत ने पहली बार आईएमएफ से कर्जा लिया. 1966 में रुपये का पहली बार अवमूल्यन किया गया. भारत को अपनी पंचवर्षीय योजना उसी दौर में स्थगित करनी पड़ी. उसी दौरान देश में हरित-क्रांति का सूत्रपात हुआ, जो स्वतंत्रता के बाद भारत की एक बड़ी उपलब्धि है.

इंदिरा गांधी का प्रवेश

नेहरू और शास्त्री के निधन से देश स्तब्ध था. राजनीति में असमंजस था. ऐसे में इंदिरा गांधी क्रांतिकारी नारों के साथ आईं. उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, रुपये का अवमूल्यन किया और देशी रियासतों के प्रीवी पर्स की समाप्ति की.

उनके पास थीं आक्रामक समाजवादी नीतियाँ और गरीबी हटाओ का नारा. बांग्लादेश के जन्म की सूत्रधार भी वे बनीं. बैंकों के राष्ट्रीयकरण की वजह से किसानों को आसानी से कर्ज मिला, पर उनकी बुनियाद दरक गई. कर्जा लेकर वापस न करने की परम्परा शुरू हुई, जो आज भी जारी है.

बहरहाल इंदिरा गांधी को 1971 के चुनाव में जबर्दस्त सफलता मिली, पर जनता के असंतोष को वे दूर नहीं कर पाईं. हालांकि उसी साल बांग्लादेश-युद्ध में विजय के साथ उन्होंने राष्ट्रीय-स्वाभिमान को स्थापित किया, पर गरीबी नहीं मिटी.

भारतीय राजनीति में आपातकाल अपने आप में एक अलग अध्याय है. उस दौरान तीन बातें हुईं. कांग्रेस पार्टी परिवार में तब्दील हुई, सांविधानिक संस्थाओं से छेड़छाड़ की परम्परा पड़ी और प्रतिरोध को कुचलने के क्रूर तरीके विकसित हुए. इंदिरा गांधी की हार के बाद आई जनता पार्टी के आंतरिक अंतर्विरोध इतने ज्यादा थे कि वह चली नहीं. 1980 में इंदिरा गांधी की फिर वापसी हुई.

समाजवाद को नमस्कार

अपने दूसरे दौर में इंदिरा गांधी ने समाजवादी झंडा फेंक दिया. अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से कर्जा लेने के लिए उन्होंने छठी पंचवर्षीय योजना के दौरान कई प्रकार के सुधारों की घोषणा की. पर पंजाब की अस्थिरता ने उनकी जान ले ली. उनके उत्तराधिकारी राजीव गांधी ने भी आर्थिक सुधारों और आधुनिकीकरण की जरूरत को महसूस किया. नई सूचना प्रौद्योगिकी यानी कंप्यूटर के प्रवेश का श्रेय उन्हें जाता है.

वह मंडल-कमंडल उभार का दौर भी था. श्रीलंका के तमिल आंदोलन की लपेट में राजीव गांधी की हत्या हो गई. राम-मंदिर आंदोलन और उसकी प्रतिक्रिया में देशभर में साम्प्रदायिक दंगे हुए. देश व्याकुल हो उठा, पर असली खतरा आर्थिक था.

बदली तस्वीर

इस पृष्ठभूमि में 1991 के चुनाव हुए. इन चुनावों के बाद बनी सरकार ने आर्थिक उदारीकरण का काम शुरू किया, जो आज भी जारी है. आर्थिक-सुधार ऐसी अल्पसंख्यक-सरकार ने शुरू किए, जिसके प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री खुद संसद-सदस्य नहीं थे. फिर भी वह जबर्दस्त शुरूआत थी.

भारत ने जब यह फैसला किया, देश असाधारण राजकोषीय घाटे और भुगतान संकट में था. सरकार यूनियन बैंक ऑफ स्विट्ज़रलैंड और बैंक ऑफ इंग्लैंड में 67 टन सोना गिरवी रख चुकी थी.

जनवरी 1991 में हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 1.2 अरब डॉलर था, जो जून आते-आते इसका आधा रह गया. आयात भुगतान के लिए तकरीबन तीन सप्ताह की मुद्रा हमारे पास थी. चन्द्रशेखर की अल्पमत सरकार कांग्रेस के सहयोग पर टिकी थी. फौरी तौर पर हमें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 2.2 अरब डॉलर का कर्ज लेना पड़ा और सोना गिरवी रखना पड़ा.

अगले अठारह साल में तस्वीर बदल गई. 1991 में सोना गिरवी रखने वाले देश ने नवम्बर 2009 में उल्टे आईएमएफ से 200 टन सोना खरीदा. अपने विदेशी-मुद्रा भंडार पर नजर डालें. इस समय हमारा विदेशी मुद्रा कोष 600 अरब डॉलर के ऊपर है.

तीन साल पहले यह इससे भी काफी ऊपर था. कोविड और वैश्विक संकट के दौर में अर्थव्यवस्था को एकबार फिर से मुश्किलों का सामना करना पड़ा, पर इस वक्त अर्थव्यवस्था एक नए दौर में है और उम्मीद की जा रही है कि अगले कुछ वर्षों में हम पाँच ट्रिलियन की रेखा पार कर लेंगे.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

अगले अंक में पढ़ें

खेती और ग्रामीण बदलाव की कहानी

 

4 comments:

  1. बेहतरीन अवलोकन।
    सादर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ११ अगस्त २०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के
    वाह!!!
    बहुत विस्तृत एवं शानदार विवरण

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  3. हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के
    बहुत विस्तृत एवं पठनीय विवरण।
    लाजवाब...

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