Thursday, March 4, 2021

‘हिन्दू’ में सोनिया गांधी का लेख


आज के
हिन्दू के सम्पादकीय पेज पर सोनिया गांधी का लेख The distress sale of national assets is unwiseप्रकाशित हुआ है। एक साल के भीतर हिन्दू में सोनिया गांधी का यह दूसरा लेख है। इसके पहले अगस्त, 2020 में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था। यह लेख शुद्ध राजनीति पर नहीं है, बल्कि आर्थिक-नीति से जुड़े विषय पर है। इसमें उन्होंने कहा है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों और बैंकों के पूँजीगत विनिवेश से देश की सार्वजनिक सम्पदा का दीर्घकालीन क्षय होगा। एकबारगी यह बात मन में आती है कि सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी इसके माध्यम से क्या कहना चाहती हैं। हिन्दू में उनके अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लेख भी प्रकाशित हुए हैं। मनमोहन सिंह नवंबर 2016 की नोटबंदी को लेकर मोदी सरकार की आलोचना करते रहे हैं। यह आलोचना अब भी जारी है। वे सामान्यतः रोजमर्रा की राजनीति पर टिप्पणी नहीं करते, पर नोटबंदी के बाद उन्होंने हिन्दू में इस विषय पर लेख लिखा। उनकी पार्टी ने नोटबंदी को लेकर बीजेपी पर हमला बोला तो उसमें मनमोहन सिंह को आगे रखा। नवम्बर, 2016 में उन्होंने राज्यसभा में कहा, नोटबंदी का फैसला ‘संगठित लूट और कानूनी डाकाजनी’ (ऑर्गनाइज्ड लूट एंड लीगलाइज्ड प्लंडर) है। उसके बाद प्रधानमंत्री ने राज्यसभा में मनमोहन सिंह पर ‘रेनकोट पहन कर नहाने’ के रूपक का इस्तेमाल करते हुए हमला बोला था। लगता यह है कि कांग्रेस इन लेखों के माध्यम से अपनी आर्थिक-सामाजिक नीतियों को भी स्पष्ट कर रही है, जो कई कारणों से अब सन 1991 की राह से अलग हैं। इसकी वजह या तो बीजेपी की नीतियों का विरोध है या पार्टी की दीर्घकालीन रणनीति। हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में निजीकरण और सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों के बड़े स्तर पर विनिवेश या निजीकरण की वकालत करके इस बहस को तेज कर दिया है। चूंकि विनिवेश की नीति उनकी सरकार की भी रही है, इसलिए उन्होंने इस बात को रखने में सावधानी बरती है और अपने तरीके का भी उल्लेख कर दिया है। मुझे लगता है कि यह बहस अब आगे बढ़ेगी, जिसका केंद्रीय विषय होगा कि हमारी अर्थव्यवस्था की गति में ठहराव के बुनियादी कारण क्या हैं। सोनिया गांधी के लेख के कुछ महत्वपूर्ण अंश इस प्रकार हैं:-

भारतीय अर्थव्यवस्था के चालू संकट के पीछे 8 नवंबर, 2016 की रात का वह फैसला है। डॉ मनमोहन सिंह ने संसद में कहा था कि इस फैसले से अर्थव्यवस्था में 2 प्रतिशत की गिरावट आएगी, पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनकी बात नहीं मानी। इसके विपरीत जल्दबाजी में खराब तरीके से बने जीएसटी को लागू किया गया, जिससे बड़ी संख्या में मझोले और छोटे कारोबार और अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र तबाह हो गया। इन दोनों तबाहियों ने करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी को छीना और अर्थव्यवस्था को मंदी की ओर धकेल दिया, जो कोविड-19 की महामारी के दौर में उपस्थित हुई।

तेल-टैक्स, निजीकरण

ऐतिहासिक रूप से अंतरराष्ट्रीय तेल-मूल्य में गिरावट होने से सरकार को मौका मिला था कि वह उसका लाभ उपभोक्ता को देकर अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा होने में मदद करती। पर मौके का लाभ उठाने के बजाय मोदी सरकार बढ़े हुए पेट्रोलियम टैक्स और उपकर के मार्फत हरेक परिवार के घटते बजट को निचोड़ती रही। इसके विपरीत 2019 में उसने कम्पनियों का टैक्स कम किया जिससे निवेश तो नहीं बढ़ा, हाँ देश के बजट में 1.45 लाख करोड़ रुपये का छिद्र जरूर हो गया।

इन आत्मघाती कदमों तक ही मोदी सरकार सीमित नहीं रही, महामारी के बाद से वह देश की सम्पदा अपने पसंदीदा क्रोनी-पूँजीपतियों को सौंप रही है। वह जल्दबाजी में सार्वजनिक उद्यमों (पीएसयू) के निजीकरण का इरादा घोषित करके देश की सम्पदा बेचकर नकदी हासिल करना चाहती है। यदि दीर्घकालीन नीतिगत तरीके से पूँजी विनिवेश (पीएसयू में सरकारी शेयरों की आंशिक बिक्री)  किया जाए, तो उससे सरकार के पास साधनों की व्यवस्था हो सकती है, उनके प्रबंधन में सुधार हो सकता है और पूँजी निवेश करने वाली जनता को लाभ मिल सकता है। इसी दृष्टि से हमारे 2019 के घोषणापत्र में कांग्रेस पार्टी ने विनिवेश के बीच के रास्ते को अपनाया था, जिसमें केवल गैर-कोर, गैर-स्ट्रैटेजिक सार्वजनिक उद्यमों के विनिवेश का वायदा किया था।  

सस्ते में बिक्री

मोदी सरकार ने खुले तौर पर विनिवेश का नाम न लेकर इसे निजीकरण कहा है। उसकी भाषा से उनका इरादे का पता लगता है। देश के वित्त की व्यवस्था करने में विफल रहने पर और निवेश को लेकर निजी-क्षेत्र का भरोसा बढ़ाने में नाकामयाब रहने पर सरकार ने राष्ट्रीय सम्पदा की बिक्री का रास्ता पकड़ लिया है। क्या फौरी लाभ के लिए सम्पदा की बिक्री दीर्घकालीन नुकसान नहीं पहुँचाएगी?

इसके पहले एनडीए सरकार के अटल बिहारी वाजपेयी अवतार ने विदेश संचार निगम (वीएसएनएल) को बेचा, तो उसकी पूरी कीमत प्राप्त नहीं की। होटल-व्यवसाय सरकार को बाहर करने के नाम पर होटल सस्ते में बेच दिए गए। मोदी सरकार इस नीति पर चलती रही, तो जनता को यह माँग करने का अधिकार है कि वह पारदर्शिता बरते और साफ बताए कि उसकी नजर में हमारी सार्वजनिक सम्पत्तियों की कीमत क्या है और उनकी रिजर्व कीमत की गणना किस आधार पर की गई है।

पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने जिन विनिवेशों को अपनी सफलता के रूप में पेश किया है, उन्हें सरकारी संस्थाओं ने ही खरीदा है। जैसे जीवन बीमा निगम ने आईडीबीआई को, ओएनजीसी ने हिन्दुस्तान पेट्रोलियम लिमिटेड को खरीदा। ऐसी खरीद से देश को किस प्रकार के लाभ की उम्मीद है?

एलआईसी में लगी सरकारी पूँजी के एक अंश को बेचने और शेयरों की प्रस्तावित बिक्री (आईपीओ) देश के बीमा क्षेत्र की मुकुटमणि जैसी संस्था के निजीकरण की तैयारी लगती है। क्या निजी क्षेत्र का जीवन बीमा निगम हमारी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की दीर्घकालीन निवेश जरूरतों को पूरा कर पाएगा?

सामाजिक न्याय पर असर

मोदी सरकार की निजीकरण परियोजना सामाजिक न्याय को भी धक्का लगाएगी। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों ने अविकसित क्षेत्रों के विकास में भूमिका निभाई है। आरक्षण के मार्फत पीएसयू ने दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए उच्चस्तरीय नौकरियाँ सुनिश्चित की थीं। जब पीएसयू का निजीकरण होगा या उनका स्वामित्व पचास फीसदी से कम होगा, तब इन वर्गों के लिए आरक्षण अतीत की बात हो जाएगी।

खतरे में बैंक

बैंकिंग क्षेत्र में एनपीए बहुत ज्यादा बढ़ा है। सन 2014-15 से 2019-20 के बीच एनपीए यूपीए सरकार के 2008-14 के छह वर्षों की तुलना में 365 प्रतिशत ज्यादा हो गए। एनपीए का सामना करने में असमर्थ मोदी सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण करना चाहती है। देश का यस बैंक तथा कुछ अन्य प्राइवेट बैंकों के साथ जो अनुभव है, वह नहीं बताता कि इससे बैंकिंग में लोभ-लालच और भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। हम शायद भूल गए हैं कि 2008-09 की वैश्विक मंदी के दौर में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने हमारी सहायता की थी।

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