इस सवाल को भारतीय राजनीति ने गम्भीरता से नहीं लिया कि पंजाब और हरियाणा का किसान आंदोलन बड़ी जोत वाले किसानों (कुलक) के हितों की रक्षा के लिए खड़ा हुआ है या गाँव से जुड़े पूरे खेतिहर समुदाय से, जिनमें खेत-मजदूर भी शामिल हैं? किसान आंदोलन के सहारे वामपंथी विचारधारा उत्तर भारत में अपनी जड़ें जमाने का प्रयास करती नजर आ रही है। लम्बे अरसे तक साम्यवादियों ने किसानों को क्रांतिकारी नहीं माना। चीन के माओ जे दुंग ने उनके सहारे राज-व्यवस्था पर कब्जा किया, जबकि यूरोप में साम्यवादी क्रांति नहीं हुई, जहाँ औद्योगिक-क्रांति हुई थी। बहरहाल साम्यवादी विचारों में बदलाव आया है और भारत की राजनीति में वे अब आमूल बदलाव के बजाय सामाजिक-न्याय और जल, जंगल और जमीन जैसे सवालों पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।
हरियाणा के कैथल से खबर है कि जवाहर पार्क में रविवार को एससी बीसी संयुक्त मोर्चा कैथल द्वारा बहुजन महापंचायत एवं सामाजिक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी ने शिरकत की और लोगों को सम्बोधित किया। गुरनाम चढूनी ने कहा कि ये आंदोलन केवल किसानों का आंदोलन नहीं है। ये आंदोलन किसानों ने शुरू किया है, अब यह जनमानस का आंदोलन है, क्योंकि इन तीन कृषि कानूनों का केवल किसानों को ही नुकसान नहीं है बल्कि देश के हर वर्ग को इन कृषि कानूनों का नुकसान है, क्योंकि पूरे देश का भोजन चंद लोगों के खजाने में जाकर कैद हो जाएगा. उन्होंने कहा कि आज की पंचायत को हमने दलित सम्मेलन के नाम से बुलाया है। अब हम सभी एक साथ मिलकर इस आंदोलन को लड़ेंगे क्योंकि यह देश चंद लोगों के हाथों में बिक रहा है।
पंजाब में
कांग्रेस, अकाली दल और आम आदमी
पार्टी तीनों किसी न किसी रूप में गाँव की राजनीति करना चाहते हैं। पर पंजाब के
गाँवों में जबर्दस्त अंतर्विरोध हैं। पंजाब में बड़े किसानों का वर्चस्व है,
पर गाँवों में बहुत बड़ी आबादी
भूमिहीनों या बटाई पर खेती करने वालों की है। असमानता के गिनी इंडेक्स पर देखेंगे,
तो पंजाब में संभवतः सबसे ज्यादा
असमानता है। यहाँ आर्थिक के अलावा सामाजिक असमानता सबसे ज्यादा है। राज्य की आबादी
में 32
फीसदी दलित हैं। यह प्रतिशत गाँवों में 38 फीसदी है। इतनी बड़ी संख्या में
भूमिहीन जब इस राज्य में हैं, तब यहाँ बिहार और उत्तर प्रदेश से खेत मजदूर क्यों आते हैं? इसकी एक वजह यह है कि यहाँ के खेत-मजदूर
महंगे पड़ते हैं।
यहाँ के ज्यादातर दलित
भूमिहीन मजदूर खेती से जुड़े उद्योगों या सहायक कारोबारों में काम करते हैं।
उनके हित जाट भूस्वामियों से टकराते हैं। कम जोत वाले किसानों की जमीन धीरे-धीरे
बड़े किसानों के पास पहुँचती जा रही है। दलितों के अलग धर्मस्थल और डेरे हैं। जिस
तरह उत्तर प्रदेश और बिहार की जातीय संरचना ने राजनीति को प्रभावित किया है,
वैसे ही पंजाब की जातीय
संरचना उसे प्रभावित कर रही है और आने वाले समय में और ज्यादा करेगी।
पिछले साल महामारी
के दौरान लॉकआउट होने पर पंजाब के गाँवों में जाट सिख गुरुद्वारों के लंगर
दलितों के लिए भी खुले हुए थे। इससे काफी सद्भावना पैदा हुई है। पंजाब के
किसान आंदोलन के संचालकों को अब समझ में आ रहा है कि यह आंदोलन अब काफी लम्बा
चलेगा। गुरनाम
सिंह चढूनी का कहना है कि किसानों ने यह आंदोलन शुरू किया था, पर अब यह समाज
के हरेक वर्ग का आंदोलन है। सवाल है कि क्या इस आंदोलन में दलितों के प्रति होते
भेदभाव का भी विरोध होगा? चढूनी का प्रभाव पंजाब में नहीं है। वे
हरियाणा के नेता हैं। हरियाणा में 20 फीसदी आबादी दलितों की है। क्या इस आंदोलन के
माध्यम से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलितों और ताकतवर
भूस्वामियों के बीच रिश्ते सुधरेंगे? क्या यह सामाजिक सुधार का
आंदोलन बनेगा?
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 25-03-2021 को चर्चा – 4,016 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
सब कुछ समय के गर्भ में हैं ।
ReplyDeleteचिंतन परक लेख।