Sunday, December 8, 2013

चुनाव परिणाम जो भी कहें

जब आप इन पंक्तियों को पढ़ रहे होंगे तब तक पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम या तो आने वाले होंगे या आने शुरू हो चुके होंगे। या पूरी तरह आ चुके हों। अब इस बात का कोई मतलब नहीं कि परिणाम क्या हैं। वस्तुतः यह लोकसभा चुनाव का प्रस्थान-बिंदु है। तारीखों की घोषणा बाकी है। सभी प्रमुख पार्टियों ने प्रत्याशियों को चुनने का काम शुरू कर दिया है। स्थानीय स्तर पर छोटे-मोटे गठबंधनों को छोड़ दें तो इस बार चुनाव के पहले गठबंधन नहीं होंगे, क्योंकि ज्यादातर पार्टियाँ समय आने पर फैसला और सिद्धांत और कार्यक्रमों का विवेचन करेंगी। आने वाला चुनाव राजनीतिक मौका परस्ती का बेहतरीन उदाहरण बनने वाला है।

पिछले डेढ़-दो महीने की चुनावी गतिविधियों को देखते हुए यह भी समझ में आ रहा है कि आरोप-प्रत्यारोप का स्तर आने वाले समय में और भी घटिया हो जाएगा। गटर राजनीति अपने निम्नतम रूप में सामने आने वाली है। स्टिंग ऑपरेशनों और भंडाफोड़ पत्रकारिता के धुरंधरों का बाज़ार खुलने वाला है। दिल्ली में ‘आप’ के प्रदर्शन के मद्देनज़र यह देखने की ज़रूरत होगी कि क्या कोई वैकल्पिक राजनीति भी राष्ट्रीय स्तर पर उभरेगी। क्या ‘आप’ लोकसभा चुनाव लड़ेगी? इससे जुड़े लोग दावा कर रहे हैं कि पार्टी की जड़ें देश भर में हैं। पर वह व्यावहारिक सतह पर नज़र नहीं आती। हाँ शहरी मध्य वर्ग की बेचैनी और उसकी राजनीतिक चाहत साफ दिखाई पड़ रही है। और यह भी कि यह मध्य वर्ग कांग्रेस के साथ नहीं है।
इन पाँच राज्यों से लोकसभा चुनाव का संकेत भी निकाला जा सकता है। पाँचों राज्यों में लोकसभा की कुल 73 सीटें हैं। इनमें से 30 भाजपा के पास हैं और 41 कांग्रेस के पास। राजस्थान और दिल्ली में पराजय कांग्रेस के लिए अच्छा संदेश लेकर नहीं आएगी। अंदेशा है कि विधानसभा का यह चुनाव कांग्रेस के खाते से लोकसभा की 15 सीटें घटाने और तकरीबन इतनी ही भाजपा के खाते में बढ़ाने का सूचक होगा। आज एक और सवाल का जवाब मिलेगा। वह यह कि इसमें ‘आप’ की भूमिका क्या होने वाली है।

सायबर हिंदू

दिल्ली में ‘आप’ समर्थकों के साथ बातचीत करते हुए पता लगता है कि उनमें से काफी लोग ऐसे हैं जो पहले अरविंद केजरीवाल का समर्थन करते हैं और उसके बाद नरेंद्र मोदी का। पिछले हफ्ते समाचार एजेंसी रायटर्स ने एक नया शब्द दिया ‘सायबर हिंदू।’ यह शब्द हाल के चुनाव प्रचार की देन है। नरेंद्र मोदी के समर्थकों की एक-दूसरे से पहचान फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग या ऐसे ही किसी माध्यम से ऑनलाइन होती है। वैचारिक सहमति के साथ वे किसी न किसी रूप में संगठित हो रहे हैं। सायबर हिंदू और परंपरागत हिंदू में कई बार ज़मीन-आसमान का अंतर है। इनमें बड़ी संख्या में एनआरआई हैं, जिनकी दिलचस्पी भारतीय राजनीति में है। उनका मुद्दा मंदिर-मस्जिद नहीं है। उनकी दिलचस्पी नए रोज़गारों, काम की परिस्थितियों और ऐसी नागरिक-प्रशासनिक व्यवस्थाओं में है जो वे विदेश में देखते हैं। इस माने में मोदी आधुनिकीकरण के प्रतीक बन गए हैं। यह अपने आप में अंतर्विरोधी बात है।

मंदिर-मस्जिद का झगड़ा मध्य युग में ले जाता है और मोदी के नए समर्थक नई तकनीक की ओर ले जाते हैं। मोदी का नया प्रचार सायास या अनायास आर्थिक उदारीकरण को हिंदुत्व से ‘शुगरकोट’ करना है। मतलब यह नहीं कि भाजपा के परंपरागत हिंदुत्व की जगह यह अवधारणा लेगी या ले रही है। वस्तुतः यह परंपरागत हिंदुत्व के आगे है। इसमें मोदी ने गुजरात के कुछ मुसलमानों को भी साथ लिया है। आज के चुनाव परिणाम मोदी की पहली परीक्षा के रूप में देखे जाएंगे।

भारी मतदान

इस बार हुआ भारी मतदान विस्मय का बड़ा कारक है। भारी मतदान के पीछे युवा और महिला मतदाताओं का योगदान है। यह प्रवृत्ति अगले लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिलेगी। इस प्रवृत्ति का अर्थ क्या है, यह आज पता लगेगा। दोनों पार्टियाँ इसीलिए कुछ कहने में संकोच व्यक्त कर रहीं हैं। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में गुरुवार को हुई महा सचिवों की बैठक में तय किया गया कि रविवार तक ‘वेट एंड वाच’ की नीति पर चला जाए। यह इंतज़ार नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के आकलन का है।

नरेंद्र मोदी को लेकर अपने भीतर चल रहे असंतोष को भाजपा ने एक हद तक कम कर लिया है। मोदी का जादू न भी चल रहा हो, पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे विफल रहे। लालकृष्ण आडवाणी तक ने स्वीकार किया है कि मोदी के गमन से स्थिति बदली है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मोदी की चुनौती का ज़िक्र किया है। लगभग यही बात जयराम रमेश ने दो महीने पहले कही थी। पर यही बात राहुल गांधी के बारे में नहीं कही जा सकती। इसमें राहुल गांधी का दोष खोजने के बजाय यह भी देखना चाहिए कि यूपीए के शासन को लेकर स्वाभाविक ‘एंटी इनकंबैंसी’ है।

कांग्रेस के अंतर्विरोध

कांग्रेस पार्टी को अपने अंतर्विरोधों को भी समझना चाहिए। दागी सांसदों के बारे में राहुल गांधी के बयान और अध्यादेश की वापसी से पार्टी को फायदा हुआ या नुकसान इस पर विचार करने की ज़रूरत है। आम जनता का कांग्रेस पर सबसे बड़ा आरोप यही है कि वह फैसले नहीं कर पाती है। पर राहुल गांधी फैसले करने वाले नेता के रूप में भी सामने नहीं आए हैं। राहुल गांधी की अवधारणाओं में भी विसंगति है। राजस्थान की सभाओं में उन्होंने कहा कि सड़कें, पुल और फ्लाई ओवर विकास के प्रतीक नहीं हैं। यह बात उन्होंने मोदी के विकास के नारे के जवाब में कही। वहीं दिल्ली में आकर उन्होंने शीला दीक्षित के कार्यकाल में सड़कों, फ्लाईओवरों और मेट्रो को ही विकास का प्रतीक बताया।

यूपीए की सामाजिक कल्याण की योजनाओं का प्रभाव मतदाता पर कितना पड़ा है, इसका पता भी आज के परिणामों में मिलेगा। पत्रकार शेखर गुप्ता ने हाल में अपने राजस्थान दौरे का जिक्र करते हुए लिखा है कि सुदूर रेगिस्तानी कस्बों में भी अब एक्वागार्ड था अन्य इलेक्ट्रिकल उपकरणों की मरम्मत करने वालों की दुकानें मिल जाती हैं। नीचे स्तर पर जीवन में बदलाव आया है। कंडीशनल कैश तथा सार्वभौमिक शिक्षा के कार्यक्रम राजस्थान में काफी सोच-समझकर चलाए गए थे। जनता ने इन कार्यक्रमों से क्या निष्कर्ष निकाला यह देखना होगा।

यही आकलन राहुल गांधी का होगा। राहुल गांधी जिस सैद्धांतिक राजनीति की बात करते थे उसमें तभी छेद नज़र आने लगे जब पार्टी ने टिकट देने शुरू किए। उनकी टीम के बीच समन्वय की कमी भी देखी गई। खासतौर से स्थानीय कार्यकर्ताओं और दिल्ली के प्रतिनिधियों के बीच फासला अब भी है। राहुल गांधी ने तय किया था कि लगातार दो बार चुनाव हारने वाले या फिर 15 हजार से ज्यादा वोटों से हारे उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया जाएगा। अंततः यह फॉर्मूला पूरी तरह लागू नहीं हो पाया। दिल्ली की हरिनगर सीट पर हर शरण सिंह बल्ली को भाजपा से टिकट नहीं मिला तो वे जिस दिन कांग्रेस में आए उसी दिन उन्हें टिकट मिल गया। यह बात व्यवहारिक राजनीति के लिहाज से सही हो, पर दूरगामी लिहाज से घातक होगी।

राहुल की युवा राजनीति!

युवाओं का नेता कौन है? मोदी या राहुल गांधी? राहुल अगले लोकसभा चुनाव के बाद देश में युवा सरकार बनाने की बात कहते हैं, पर कांग्रेस में युवा नेता कहाँ हैं? राहुल के इर्द-गिर्द तीन-चार युवाओं को छोड़ दें तो कांग्रेस के युवा नेता कहाँ हैं? कांग्रेस की युवा राजनीति राहुल के इंतजार में खड़ी है। केंद्र में हुए नवीनतम कैबिनेट विस्तार में नए चार मंत्रियों की औसत उम्र 73 साल थी। पार्टी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि सन 2020 तक दुनिया की सबसे युवा आबादी भारत की होगी। 83 वर्षीय सीसराम ओला को श्रम और रोजगार मंत्रालय दिया गया। इस विभाग को युवा आकांक्षाओं का सबसे ज्यादा ध्यान देना है।

राहुल गांधी बेशक खाद्य सुरक्षा, भूमि अधिग्रहण और कैश ट्रांसफर को ‘गेम चेंजर’ मानते हों। पर असली गेम चेंजर आने वाले समय का नौजवान होगा। इस चुनाव में राजस्थान की ओसियान विधानसभा सीट से जेल में बंद मलखान सिंह की 82 साल की मां को टिकट दिया गया। एक अटकल है कि इन चुनावों में कांग्रेस को उम्मीद के हिसाब से अच्छे परिणाम नहीं मिले तो प्रियंका गांधी को उतारा जाएगा। पर यह सिर्फ अटकल ही लगती है। यह साफ है कि लोकसभा चुनाव राहुल के नेतृत्व में ही लड़े जाएंगे।

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण
सांप्रदायिक हिंसा निवारण विधेयक का मार्फत अचानक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण शब्द फिर से बहस का विषय बन गया है। संसद के मॉनसून सत्र में कांग्रेस ने खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण बिलों को पास कराकर राजनीतिक कदम बढ़ाए थे। क्या सांप्रदायिक हिंसा विधेयक उत्तर प्रदेश में मुज़फ्फरनगर की हिंसा के शिकार मुसलमानों की हमदर्दी जीतने की और कदम है? इस विधेयक के प्रारूप को भी राष्ट्रीय विकास परिषद ने तैयार किया है। पिछले दोनों विधेयकों की तरह इसे भी मूल रूप में पास कराना संभव नहीं लगता। इससे पार्टी को कितना लाभ मिलेगा कहना मुश्किल है, क्योंकि यह पास भी हुआ तो इसका काफी पानी उतर चुका होगा। अलबत्ता कांग्रेस पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का आरोप चस्पां ज़रूर हो जाएगा।

भारतीय राजनीति के लिए ध्रुवीकरण अच्छा शब्द नहीं है, क्योंकि यह वैचारिक आधार पर न होकर सामाजिक-सांस्कृतिक आधार पर है। हमारे सामाजिक जीवन के अंतर्विरोधों को दूर करने के बजाय यह उन्हें बढ़ाता है। नब्बे के दशक में भाजपा ने राम मंदिर को लेकर जो ध्रुवीकरण किया, वह घातक साबित हुआ। नब्बे के दशक में हुए सांप्रदायिक दंगों के अलावा आतंकवादी गतिविधियाँ एक हद तक भाजपा के उस ज़हरीले एजेंडा की देन हैं। उस ध्रुवीकरण के कारण भाजपा के खाते में हुई बढ़ोत्तरी को देखते हुए जातीय ध्रुवीकरण की राजनीति भी उभरी थी।

मोदी पर निशाना

ऐसा नहीं कि ध्रुवीकरण बढ़ाने में कांग्रेस की भूमिका नहीं है। सन 2002 के गुजरात दंगों को लेकर कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी को निशाने पर रखा है। सन 2007 के गुजरात विधान सभा चुनाव में प्रचार की शुरुआत करते हुए सोनिया गांधी ने मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कहा और मोदी को उसका ही लाभ मिला। जिस प्रकार इंदिरा गांधी ने खुद को गरीबी हटाने का पर्याय बना लिया था। नरेंद्र मोदी भी खुद को कड़क प्रशासक का पर्याय बनाने में कामयाब हुए हैं। नरेंद्र मोदी ने पिछले दस साल में हिंदुत्व वादी वक्तव्य नहीं के बराबर दिए हैं।

सीबीआई प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ऐसे मामलों को सामने ला रही है, जिनसे मोदी पर निशाना लगता है। मोदी को चुनाव या अदालत के अलावा किसी तीसरे तरीके से परास्त करने की कोशिश ध्रुवीकरण को बढ़ावा देगी। मोदी की राजनीति में हिंदुत्व को लेकर सावधानी बरती गई है। हिंदुत्व का लाभ मोदी को परोक्ष रूप में तभी मिलेगा जब उनके प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिक आधार पर निशाना लगाएंगे। मोदी खुद को विकास का पैरोकार और अपने विरोधियों को विकास-विरोधी साबित करेंगे। यह वैसा ही है जैसे 1971 में इंदिरा गांधी ने किया था, ‘मैं कहती हूँ गरीबी हटाओ और मेरे विरोधी कहते हैं इंदिरा हटाओ।’



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