Tuesday, November 19, 2019

पाँचवीं पीढ़ी के स्वदेशी लड़ाकू विमान की तैयारी


भारतीय वायुसेना के अध्यक्ष एयर चीफ मार्शल राकेश कुमार सिंह भदौरिया ने इस साल के वायुसेना दिवस के ठीक पहले कहा कि भारत की योजना अब विदेशी लड़ाकू विमानों के आयात की नहीं है और हम अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए स्वदेशी एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एएमसीए या एम्का) के विकास पर ध्यान केंद्रित करेंगे। उनका यह वक्तव्य अनेक कारणों से महत्वपूर्ण है और इससे देश की रक्षा प्राथमिकताओं पर प्रकाश भी पड़ता है, पर उससे पहले सवाल है कि स्वतंत्रता के 72 साल बाद आज हम ऐसी बात क्यों कह रहे हैं? हमने पहले ही स्वदेशी तकनीक के विकास पर ध्यान क्यों नहीं दिया?
सवाल यह भी है कि क्या पाँचवीं पीढ़ी के विमान का विकास करने की तकनीकी सामर्थ्य हमारे पास है? प्रश्न केवल स्वदेशी युद्धक विमान का ही नहीं है, बल्कि संपूर्ण रक्षा तकनीक में आत्मनिर्भर होने का है। रक्षा के क्षेत्र में बेहद जटिल और उच्चस्तरीय तकनीकों और उसमें समन्वय और सहयोग की जरूरत भी होती है। दुनिया में कोई भी संस्था ऐसी नहीं है, जो पूरा लड़ाकू विमान तैयार करती हो। विमान के अलग-अलग अंगों को कई तरह की संस्थाएं विकसित करती हैं। विमान की परिकल्पना और विभिन्न उपकरणों को जोड़कर विमान बनाना (इंटीग्रेशन) और उपकरणों की आपूर्ति का इंतजाम करने की महारत भी आपके पास होनी चाहिए।
निजी क्षेत्र की भागीदारी
रक्षा तकनीक खुले बाजार में नहीं बिकती। उसके लिए सरकारों के साथ समन्वय करना होता है। दुनियाभर में सरकारें रक्षा-तकनीक को नियंत्रित करती हैं। यह सच है कि हम अपनी रक्षा आवश्यकताओं की 60-65 फीसदी आपूर्ति विदेशी सामग्री से करते हैं। दूसरी तरफ यह भी सच है कि विकासशील देशों में भारत ही ऐसा देश है, जिसके पास रक्षा उत्पादन का विशाल आधार-तंत्र है। हमारे पास रक्षा अनुसंधान विकास से जुड़े संस्थान हैं, जिनमें सबसे बड़ा रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (डीआरडीओ) संगठन है।

Monday, November 18, 2019

राफेल-राजनीति को विदा कीजिए


राफेल विमान सौदे को लेकर दायर किए गए मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया है, उसके बाद इस विवाद को खत्म हो जाना चाहिए या कम से कम इसे राजनीतिक विवाद का विषय नहीं बनाना चाहिए। पर फैसले के बाद आई कुछ प्रतिक्रियाओं से लगता है कि ऐसा होगा नहीं। इस मामले में न तो किसी प्रकार की धार बची और न जनता की दिलचस्पी इसके पिष्ट-पेषण में है। अदालत ने कहा कि हमें ऐसा नहीं लगता है कि इस मामले में कोई एफआईआर दर्ज होनी चाहिए या फिर किसी तरह की जांच की जानी चाहिए।
अदालत ने केंद्र सरकार के हलफनामे में हुई एक भूल को स्वीकार किया है, पर उससे कोई महत्वपूर्ण निष्कर्ष नहीं निकाला है। बुनियादी तौर पर कांग्रेस पार्टी की दिलचस्पी लोकसभा कि पिछले चुनाव में थी। चुनाव में यह मुद्दा सामने आया ही नहीं। इस मामले में उच्चतम न्यायालय के 14 दिसंबर 2018 के आदेश पर प्रशांत भूषण समेत अन्य लोगों की ओर से पुनर्विचार के लिए याचिका दाखिल की गई थी।
याचिका में कुछ 'लीक' दस्तावेजों के हवाले से आरोप लगाया गया था कि डील में पीएमओ ने रक्षा मंत्रालय को बगैर भरोसे में लिए अपनी ओर से बातचीत की थी। कोर्ट ने अपने पिछले फैसले में कहा था कि बिना ठोस सबूतों के हम रक्षा सौदे में कोई भी दखल नहीं देंगे। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस एसके कौल और जस्टिस केएम जोसफ ने पाया कि पुनर्विचार याचिकाओं में मेरिट यानी कि दम नहीं है।

Tuesday, November 12, 2019

अब राष्ट्र-राज्य का मंदिर बनाइए


अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विश्लेषण लंबे समय तक होता रहेगा, पर एक बात निर्विवाद रूप से स्थापित हुई है कि भारतीय राष्ट्र-राज्य के मंदिर का निर्माण सर्वोपरि है और इसमें सभी धर्मों और समुदायों की भूमिका है. हमें इस देश को सुंदर और सुखद बनाना है. हमें अपनी अदालत को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने एक जटिल गुत्थी को सुलझाया. प्रतीक रूप में ही सही अदालत ने यह फैसला सर्वानुमति से करके एक संदेश यह भी दिया है कि हम एक होकर अपनी समस्याओं के समाधान खोजेंगे. इस फैसले में किसी एक जज की भी राय अलग होती, तो उसके तमाम नकारात्मक अर्थ निकाले जा सकते थे.

एक तरह से यह फैसला भारतीय सांविधानिक व्यवस्था में मील का पत्थर साबित होगा. सुप्रीम कोर्ट के सामने कई तरह के सवाल थे और बहुत सी ऐसी बातें, जिनपर न्यायिक दृष्टि से विचार करना बेहद मुश्किल काम था, पर उसने भारतीय समाज के सामने खड़ी एक जटिल समस्या के समाधान का रास्ता निकाला. इस सवाल को हिन्दू-मुस्लिम समस्या के रूप में देखने के बजाय राष्ट्र-निर्माण के नजरिए से देखा जाना चाहिए. सदियों की कड़वाहट को दूर करने की यह कोशिश हमें सही रास्ते पर ले जाए, तो इससे अच्छा क्या होगा?

Sunday, November 10, 2019

इस फैसले की भावना को समझिए


अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनेक पहलू हैं, जिनपर अलग-अलग तरीके से विचार करना होगा। सबसे महत्वपूर्ण पहलू है एक विवाद का खत्म होना। देश की राजनीतिक ताकतों को इसे हाथोंहाथ लेना चाहिए। इस विवाद की समाप्ति के पीछे देश में रचनात्मक माहौल बनाने की कोशिश है। लम्बे अरसे से चली आ रही कड़वाहट को खत्म होना चाहिए। जनता के बड़े तबके की आस्था से जुड़े इस मामले का इससे बेहतर समाधान नहीं हो सकता था। जहाँ तक इसके कानूनी पहलुओं की बात है, अदालत के फैसले का विस्तार से अध्ययन करना होगा। इसपर विशेषज्ञों की राय भी जल्द सामने आएगी।

गौर करने वाली बात है कि यह पाँच जजों के पीठ का सर्वानुमति से दिया गया फैसला है। एक भी जज की विपरीत राय होती, तो शायद वह बड़ी खबर होती, पर सर्वानुमति से फैसला होना उससे भी बड़ी खबर है। बेहतर होता कि सभी पक्ष इस बात को अदालत के बाहर समझौता करके स्वीकार कर लेते, पर इस बात को नामंजूर करके कुछ लोग बेवजह सामाजिक टकराव को बढ़ावा देना चाहते हैं।

सर्वानुमति इस फैसले की विशेषता है


अयोध्या फैसले के कानूनी पहलू, अपनी जगह हैं और राजनीतिक और सामाजिक पहलू अपनी जगह। असदुद्दीन ओवेसी का कहना है कि हमें नहीं चाहिए पाँच एकड़ जमीन। हम जमीन खरीद सकते हैं। उन्हें फैसले पर आपत्ति है। उन्होंने कहा भी है कि हम अपनी अगली पीढ़ी को यह संदेश देकर जाएंगे। जफरयाब जिलानी साहब अभी फैसले का अध्ययन कर रहे हैं, पर पहली नजर में उन्हें खामियाँ नजर आ गईं हैं। कांग्रेस पार्टी ने फैसले का स्वागत किया है। प्रतिक्रियाएं अभी आ ही रही हैं।

इस फैसले का काफी बारीकी से विश्लेषण होगा। पहली नजर में शुरू हो भी चुका है। अदालत क्यों और कैसे अपने निष्कर्ष पर पहुँची। यह समझ में आता है कि अदालत ने परंपराओं और ऐतिहासिक घटनाक्रम को देखते हुए माना है कि इस स्थान पर रामलला का विशिष्ट अधिकार बनता है, जबकि मुस्लिम पक्ष यह साबित नहीं कर पाया कि विशिष्ट अधिकार उसका है। अदालत ने 116 पेज का एक परिच्छेद इस संदर्भ में अपने फैसले के साथ लगाया है।

अलबत्ता अदालत ने बहुत साफ फैसला किया है और सर्वानुमति से किया है। सर्वानुमति छोटी बात नहीं है। छोटे-छोटे मामलों में भी जजों की असहमति होती है। पर इस मामले में पाँचों जजों ने कॉमा-फुल स्टॉप का अंतर भी अपने फैसले में नहीं छोड़ा। यह बात अभूतपूर्व है। 1045 पेज के इस फैसले की बारीकियों और कानूनी पहलुओं पर जाने के अलावा इस फैसले की सदाशयता पर ध्यान देना चाहिए।

सन 1994 में पीवी नरसिंहराव सरकार ने अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से इस मसले पर सलाह मांगी थी। तब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में राय देने से मना कर दिया था, पर आज उसी अदालत ने व्यापक हित में फैसला सुनाया है। इसे स्वीकार किया जाना चाहिए। 

यह भी कहा जा रहा है कि अयोध्या तो पहला मामला है, अभी मथुरा और काशी के मामले उठेंगे। उनके पीछे एक लंबी कतार है। शायद ऐसा नहीं होगा, क्योंकि सन 1991 में पीवी नरसिंह राव की सरकार ने धार्मिक स्थल कानून बनाकर भविष्य में ऐसे मसलों की संभावना को खत्म कर दिया था।