खेलों की समाज में भूमिका सिर्फ शरीर स्वस्थ रखने या मनोरंजन तक नहीं है। खेल हमें नियमों का पालन करने की संस्कृति, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा और निपुणता-कुशलता को बढ़ावा देने का रास्ता दिखाते हैं। सिर्फ खेल के रास्ते पर चलकर हम समाज का विकास कर सकते हैं। बेहतर खेलने वाला किसी भी जाति, धर्म, क्षेत्र या आर्थिक वर्ग का हो सिर्फ अपने कौशल के कारण सम्मान पाता है। अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में वह देश का नाम ऊँचा करता है। राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के लिए हमें खेलों और खिलाड़ियों को संरक्षण देना चाहिए।
दुर्भाग्य से हमारे खेल प्रतिष्ठान ही हमारे खेल के दुश्मन हो गए हैं। पैसे और रसूख के कारण खेल संघों पर तमाम तरह के अवांछित लोग हावी हो गए हैं। आईपीएल में हमने गंदगी और भ्रष्टाचार का कुरूप चेहरा देखा। खेल संघों में बढ़ती राजनीति और पैसे की भूमिका पर हमें गम्भीरता से विचार करना चाहिए।
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Wednesday, May 26, 2010
Tuesday, May 25, 2010
यूपीए-2 का एक साल
आज के अखबारों में लीड खबर है कि मनमोहन सिंह अभी रहेंगे। ज़रूरी हुआ तो राहुल गांधी के लिए गद्दी छोड़ देंगे वगैरह। वास्तव में क्या इस प्रेस कांफ्रेंस का विषय यही था। जब से मनमोहन सिंह इस पद पर आए हैं, यह सवाल रोज़ पूछा जा रहा है। सच यह है कि राहुल जिस दिन चाहेंगे, प्रधानमंत्री बन जाएंगे। न तो राहुल गांधी ने न सोनिया गांधी ने कभी ऐसा संकेत किया, पर मीडिया के सवाल वही हैं।
ऐसा लगता है कि मीडिया ने होमवर्क करना बंद कर दिया है। बड़े-बड़े पत्रकार भी गॉसिप छापना चाहते हैं। यूपीए के एक साल के काम का लेखा-जोखा क्या इसी सवाल से ज़ाहिर होता है। महंगाई अगर आज का बड़ा मुद्दा है, तो किसी ने प्रधानमंत्री से क्यों नहीं जानना चाहा कि यह क्यों है और अगर उन्हें उम्मीद है कि यह दिसम्बर तक कम होगी, तो किस तरह से कम होगी। राइट टु फूड बिल क्यों नहीं लाया जा सका। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बारे में वे क्या करने वाले हैं। आर्थिक विकास दर इस साल के आखिर में 8.5 प्रतिशत की आशा है, पर मुद्रास्फीति और राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है।
रजनीति से जुड़े़ सवाल भी बेहद बचकाने थे। सरकार के पास लोकसभा में झीना सा बहुमत है। राज्यसभा में वह भी नहीं है। पार्टी सपा, राजद, बसपा और तृणमूल के साथ आँख-मिचौली खेल रही है। झारखंड में शिबू सोरेन के सम्पर्क में है, जबकि यह साफ है कि वहाँ अब किसी किस्म का गठबंधन चलने वाला नहीं। हो सकता है ये सवाल बड़े न लगते हों, पर यह सवाल क्या हुआ कि वे दो महिलाओं की सलाह कितनी मानते हैं। ऐसे चिरकुट सवाल लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सितारे शाम को गम्भीर मुखमुद्रा के साथ विचार-विमर्श करते हैं तो हँसी आती है।
ऐसा लगता है कि मीडिया ने होमवर्क करना बंद कर दिया है। बड़े-बड़े पत्रकार भी गॉसिप छापना चाहते हैं। यूपीए के एक साल के काम का लेखा-जोखा क्या इसी सवाल से ज़ाहिर होता है। महंगाई अगर आज का बड़ा मुद्दा है, तो किसी ने प्रधानमंत्री से क्यों नहीं जानना चाहा कि यह क्यों है और अगर उन्हें उम्मीद है कि यह दिसम्बर तक कम होगी, तो किस तरह से कम होगी। राइट टु फूड बिल क्यों नहीं लाया जा सका। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के बारे में वे क्या करने वाले हैं। आर्थिक विकास दर इस साल के आखिर में 8.5 प्रतिशत की आशा है, पर मुद्रास्फीति और राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है।
रजनीति से जुड़े़ सवाल भी बेहद बचकाने थे। सरकार के पास लोकसभा में झीना सा बहुमत है। राज्यसभा में वह भी नहीं है। पार्टी सपा, राजद, बसपा और तृणमूल के साथ आँख-मिचौली खेल रही है। झारखंड में शिबू सोरेन के सम्पर्क में है, जबकि यह साफ है कि वहाँ अब किसी किस्म का गठबंधन चलने वाला नहीं। हो सकता है ये सवाल बड़े न लगते हों, पर यह सवाल क्या हुआ कि वे दो महिलाओं की सलाह कितनी मानते हैं। ऐसे चिरकुट सवाल लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सितारे शाम को गम्भीर मुखमुद्रा के साथ विचार-विमर्श करते हैं तो हँसी आती है।
Monday, May 24, 2010
क्या हमें विचार और ज्ञान की ज़रूरत नहीं?
प्रमोद जोशी
इस महीने भारतीय सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम आने के बाद एनडीटीवी के अंग्रेजी चैनल ने पंजाब की एक सफल प्रतियोगी संदीप कौर से बात प्रसारित की। संदीप कौर के पिता चौथी श्रेणी के कर्मचारी हैं। यह सफलता बेटी की लगन और पिता के समर्थन की प्रेरणादायक कहानी है। जिस इलाके में स्त्री-पुरुष अनुपात बहुत खराब है और जहाँ से बालिका भ्रूण हत्या की खबरें बहुत ज्यादा आती हैं, उम्मीद है वहां संदीप कौर समाज के सामने नया आदर्श पेश करेगी। पंजाब सरकार ने इस दिशा में पहल भी की है।
संदीप कौर ने यह परीक्षा बगैर किसी कोचिंग के पास की। उसने एक बात और मार्के की कही। वह कहती हैं कि मेरी तैयारी का सबसे महत्वपूर्ण तत्व था दैनिक अखबार ‘ द हिन्दू’ को नियमित रूप से पढ़ना। संदीप के पिता या चचेरा भाई घर से करीब 20 किमी दूर खरड़ कस्बे से ‘हिन्दू’ खरीद कर लाते थे। रोज़ अखबार नहीं मिलता था, तो अखबार का एजेंट उसके लिए दो-तीन दिन का अखबार अपने पास रखता था। संदीप का कहना है कि मैने ‘हिन्दू’ के सम्पादकीय पेज पर छपे सारे लेख पढ़े हैं। इसके अलावा अखबार के ओपीनियन सेक्शन की सारी सामग्री भी पढ़ी। इस अखबार में करेंट अफेयर्स, नेशनल और इंटरनेशनल डेवलपमेंट की प्रॉपर इनसाइट मिलती है।
संदीप कौर का हिन्दू पढ़ना व्यक्तिगत पसंद का मामला है, पर पत्रकारिता को लेकर ज़ेहन में एक-दो बातें आतीं हैं। प्रतियोगिताओं की तैयारी करने वालों को हिन्दू पढ़ना पसंद है। इस अखबार में ही राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खबरों को उचित पृष्ठभूमि के साथ छापा जाता है। बीस साल पहले दूसरे अंग्रेजी अखबार भी इसी तरह पढ़े जाते थे। पर अब शायद हिन्दू ही इस काम के लिए बचा है। इस बात का क्या पत्रकारिता से कोई रिश्ता है? कुछ समय पहले तक अखबार देश-काल का दर्पण होता था। पिछले दो दशक में सारे नहीं तो बड़ी संख्या में अखबारों ने टेबलॉयड अखबारों की सनसनी को अंगीकार कर लिया। एक ने किया तो दूसरे ने उसकी नकल की। बड़ी से बड़ी खबरें मिस होने पर भी अखबारों को शर्मिन्दगी नहीं होती। सामान्य खबरें और उनके फॉलोअप छापना अखबारों की प्राथमिकता में शामिल नहीं।
हिन्दू के बारे में दो-तीन बातें ऐसी हैं, जिन्हें सब मानते हैं। एक खबरों का वज़न तय करने का उसका परम्परागत ढंग है। यह अखबार सनसनी में भरोसा नहीं करता। उसकी एक राजनैतिक लाइन है, जिसे हम नापसंद कर सकते हैं। पर खबरें लिखते वक्त वह पत्रकारीय मर्यादाओं का पालन करता है। रेप विक्टिम का नाम नहीं छापना है, तो हिन्दू उसका पालन करता है। उसकी डिज़ाइन बहुत आकर्षक न लगती हो, पर वह विषय को पाठक पर आरोपित भी नहीं करती। खेल, विज्ञान, विदेशी मामलों से लेकर लोकल खबरों तक उसकी खबरें ऑब्जेक्टिविटी की परिभाषा पर खरी उतरतीं हैं। उसकी फेयरनेस पर आँच आने के भी एकाध मौके आए हैं। खासतौर से बंगाल में सिंगूर की हिंसा के दौरान उसकी कवरेज में एक पक्ष नज़र आया। यह उसकी नीति है। और किसी अखबार को उसका हक होता है। उसकी इस नीति और विचारधारा की आलोचना की जा सकती है, पर उसके सम्पादकीय और ऑप-एडिट पेज की गुणवत्ता के बारे में दो राय नहीं हो सकतीं।
इस लेख को शुरू करते वक्त मेरा उद्देश्य हिन्दू की प्रशंसा करना नहीं था। मैं दो-तीन बातों को हाइलाइट करना चाहता था। उसमें एक तो यह बात कि कुछ साल पहले तक अखबारों में अपने व्यवसाय को लेकर भी सामग्री पढ़ने को मिल जाती थी। मसलन जस्टिस गजेन्द्र गडकर की अध्यक्षता में बने पहले प्रेस आयोग की सिफारिश थी कि पत्र उद्योग को शेष उद्योग से डिलिंक किया जाय। यह विषय अखबारों के सम्पादकीय पेज पर भी उपस्थित था। आज का मीडिया अपने कारोबार के बारे में डिसकस करने को तैयार नहीं। इसलिए पेड न्यूज़ का मामला जब आया तब पी साईंनाथ के लेखों के लिए सिर्फ हिन्दू में ही जगह थी। ऐसा उसकी ओनरशिप के कारण हुआ। बेशक इंडियन एक्सप्रेस, टेलिग्राफ और टाइम्स ऑफ इंडिया का कवरेज स्तर आज भी काफी अच्छा है, पर कारोबार के मामले में उनपर पक्का यकीन नहीं किया जा सकता।
अखबारों के सम्पादकीय पेज और सम्पादकीय के बारे में भी सोचने का ज़माना शायद गया। यह सब मैं अंग्रेज़ी के अच्छे अखबारों के संदर्भ में कह रहा हूँ। हिन्दी अखबारों की बात अभी नहीं है। किसी ने कहा कि डीएवीपी की शर्त है कि सम्पादकीय होना चाहिए, वर्ना इसकी ज़रूरत ही क्या है। वास्तव में ज़रूरत नहीं है। जब जेब में विचार ही नहीं है, तब चेहरे पर विचारक की मुद्रा बनाने की ज़रूरत भी नहीं होनी चाहिए। संदीप कौर को एडिट पेज की ज़रूरत इसलिए थी क्योंकि सिविल सेवा परीक्षा के जनरल स्टडीज़ में करेंट अफेयर्स के सवाल पूछे जाते हैं। आज कौन बनेगा करोड़पति जैसा कोई कार्यक्रम भी नहीं है, जो लोगों को सामान्य ज्ञान की ज़रूरत हो। वास्तव में प्रथमिकता हमारी रोजी से तय होती है और हमारी रोजी में ज्ञान की ज़रूरत नहीं रह गई है।
किसी ने सलाह दी कि अखबार में विचार के पेज का मतलब क्या है। आप समाचार दीजिए पाठक अपने विचार बना लेगा। यों भी एडिट पेज को चार-छह फीसदी लोग ही पढ़ते हैं। बात सच है, पर हम अपने आसपास देखें। हमें ओपीनियन लीडर्स की ज़रूरत होती है। ऐसा न होता तो चैनलों पर सनसनीखेज खबर आते ही उसका विश्लेषण करने वालों की ज़रूरत महसूस होने लगती है। हाँ यह भी सही है कि मरे हुए विचार, पिटा-पिटाए तरीके से पेश करके हम विचार की बेइज्जती करते हैं। ऐसा क्यों है और रास्ता क्या है? इसका उत्तर देने के बजाय हम विचार की अवधारणा को ही त्याग देंगे, तो जो शून्य पैदा होगा वह खौफनाक होगा।
हिन्दी अखबार की सबसे बड़ी ज़रूरत पृष्ठभूमि देने की है। हमारा पाठक जानना चाहता है। उसे ज़मीन से आसमान तक की बातों की ज़रूरत है। हम उसे फैशन परेड की तस्वीरें, पार्टियां, मस्ती वगैरह पेश कर रहे हैं। यह सब भी ठीक है, पर उसके पहले बुनियादी ज्ञान की ज़रूरत है। संदीप कौर को कोई हिन्दी अखबार पसंद क्यों नहीं था? इसकी एक वजह यह भी है कि कोई हिन्दी अखबार हिन्दू जैसा बनना नहीं चाहता। हिन्दी में ज्ञान से जुड़ी बातें अधकचरा और अविश्वसनीय होतीं हैं। ज़रूरत इस बात की है कि हम युवा पत्रकारों को ज्ञान और विचार के लिए तैयार करें। चूंकि इस काम को प्रफेशनल ढंग से नहीं किया गया है इसलिए विचार की डोर एक्टिविस्ट्स के हाथों चली गई है। उनके पास विचार तो हैं, पर किसी एक संगठन या विचार से जुड़े हुए। वे अपने प्रतिस्पर्धी विचार को दबाना चाहते हैं। बहरहाल इस रास्ते पर सोचना चाहे। सम्पादकीय पेज पर फिल्मी कलाकारों के या सेलेब्रिटीज़ के लेख छापकर पाठकों का ध्यान तो खींचा जा सकता है, पर एक समझदार समाज की रचना नहीं हो सकती। पता नहीं समझदार समाज की रचना अखबार की जिम्मेदारी है भी या नहीं।
Sunday, May 23, 2010
जाति आधारित जनगणना
भारत की जनगणना दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे सफल प्रशासनिक-सांख्यिकीय गतिविधि है। इस मामले में हम अपने इलाके में यानी दक्षिण एशिया में ही नहीं, दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं। पाकिस्तान में 2001 की जनगणना अभी तक नहीं हो पाई है। इसबार हमारी जनगणना में नागरिकों का रजिस्टर और पहचान संख्या बनाने की बात भी है। हमारे देश की बहुरंगी तस्वीर की झलक हमें अपनी जनगणना से मिलती है। साथ ही विकास के लिए आवश्यक सूचनाएं भी हमें मिलतीं हैं। इसबार कम से 15 पैरामीटर्स का डेटा एकत्र करने की तैयारी है। यह डेटा किस क्षेत्र का होगा, यह जानने के पहले इसबार के ज़्यादा चर्चित विषय पर बात करनी चाहिए।
हमारी जनगणना में सन 1931 तक जातियों की संख्या भी गिनी जाती थी। वह बंद कर दी गई। सन 2001 की जनगणना के पहले यह माँग उठी कि हमें जातियों की संख्या की गिनती भी करनी चाहिए। वह माँग नहीं मानी गई। सन 2009 में तमिलनाडु की पार्टी पीएम के ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की कि जनगणना में जातियों को भी शामिल किया जाय़। यह अपील नहीं मानी गई। अदालत के विचार से यह नीतिगत मामला है, और सरकार को इसे तय करना चाहिए। सरकार लगातार कहती रही है कि जातियों को शामिल करने में व्यावहारिक दिक्कतें हैं। इधर लगभग सभी पार्टियों ने जाति धारित जनगणना का समर्थन शुरू कर दिया है। इनमें ओबीसी आधारित पार्टियाँ लीड ले रहीं हैं।
संसद के चालू सत्र के आखिरी दिन 7 मई को मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया कि सरकार इस मामले में कोई फैसला जल्द करेगी। हालांकि उसी रोज़ गृहमंत्री चिदम्बरम ने कहा कि जाति आधारित जनगणना कराने में व्यावहारिक दिक्कतें हैं। फिलहाल लगता है कि जनगणना जाति आधारित होगी। इस वक्तव्य के बाद जाति आधारित जनगणना का कुछ लोगों ने विरोध किया है। उनके विचार से इससे जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा।
मुझे लगता है कि जाति आधारित जनगणना सम्भव हो तो उसे कराना चाहिए। जातिवाद या जाति-चेतना अपनी जगह है और वह जनगणना न कराने मात्र से खत्म नहीं होगी। और निकट भविष्य में वह खत्म होती लगती भी नहीं। इसके विपरीत जो लोग जाति आधारित जनगणना चाहते हैं, उनका भी कोई उद्देश्य इससे पूरा नहीं होगा। मोटे तौर पर माना जाता है कि देश मे 24-25 प्रतिशत अजा-जजा, 25 प्रतिशत सवर्ण और लगभग 50 प्रतिशत ओबीसी हैं। जनगणना के बाद लगभग यही तस्वीर सामने आएगी। बेहतर है कि जो भी तस्वीर है उसे सामने आने दीजिए। दरअसल जातीय आरक्षण के जो सवाल हैं, वे अलग हैं। संख्या उसमें बुनियादी तत्व नहीं है। दूसरी ओर जो लोग हिन्दुस्तानी लिखकर जातीय भावना को दूर करना चाहते हैं, वे हवा में सोच रहे हैं।
भारतीय संविधान धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर व्यक्ति के साथ भेदभाव न होने देने के लिए कृत संकल्प है। संविधान के 14 से 18 अनुच्छेद समानता पर केन्द्रित हैं। जातीय आरक्षण के बारे में संवैधानिक व्यवस्था की ज़रूरत तब पड़ी जब मद्रास राज्य बनाम चम्पकम दुरईराजन केस में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी आदेश को रद्द कर दिया। इसके बाद संविधान के पहले संशोधन में अनुच्छेद 15 में धारा 4 जोड़ी गई। इस धारा में समानता के सिद्धांत के अपवाद के रूप में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को या अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गईं।
संविधान में संशोधन करते वक्त अजा-जजा का नाम साफ लिखा गया। साथ ही अनुच्छेद 366(24)(25) के तहत अनुच्छेद 341 और 342 में अजा-जजा की परिभाषा भी कर दी गई। सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की परिभाषा नहीं की गई। इसे परिभाषित करने के लिए 1953 में काका कालेलकर आयोग और 1978 में बीपी मंडल की अध्यक्षता में आयोग बनाए गए। दोनों आयोगों की रपटों में पिछड़ेपन का एक महत्वपूर्ण आधार जाति है। संविधान की शब्दावली में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों का उल्लेख अपेक्षाकृत निरपेक्ष है। इसमें जाति शब्द से बचा गया है। हालांकि तबसे ज्यादातर अदालती फैसलों में जाति एक महत्वपूर्ण बिन्दु है। पर केवल मात्र जाति पिछड़ेपन का आधार नहीं है।
अदालतों की भावना यह है कि जाति भी नागरिकों का एक वर्ग है, जो समूचा सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हो सकता है। जाति का अस्तित्व है। उसका नाम और सामाजिक पहचान है, इसलिए उससे शुरूआत की जा सकती है। कई जगह गाँव का निवासी होना या पहाड़ी क्षेत्र का निवासी होना भी पिछड़ेपन का आधार बनता है। पर जाति का सवाल कानूनी सवाल नहीं है। अदालतों में जाति से जुड़े तमाम मसले पड़े हैं और अभी और मसले जाएंगे। अदालतों का काम संवैधानिक व्यवस्था देखना है। हमारी व्यवस्था में सार्वजनिक हित देखने की ज़िम्मेदारी विधायिका की है। इसलिए यह मसला राजनैतिक दलों के पास है। जनगणना का सवाल राजनैतिक दलों के दबाव में हुआ, पर यह पार्टियों का अधिकार था।
जाति से जुड़े कई सवाल अभी निरुत्तरित हैं। मसलन क्या कोई वर्ग अनंत काल तक सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा रहेगा। पूरा वर्ग न भी रहे तो क्या उसका कोई हिस्सा पिछड़ेपन से कभी उबरेगा। इस दृष्टि से मलाईदार परत की अधारणा बनी है। संसद और कार्यपालिका का यह दायित्व है कि मलाईदार परत को अलग करे।
जनगणना में जाति की पहचान होने से सिर्फ बेस डेटा मिलेगा। जातीय प्रमाणपत्र देने वाली व्यवस्था अलग है। इससे यह पता भी लगेगा कि किस जाति के लोग कहाँ पर और किस संख्या में हैं। उनके शैक्षिक और आर्थिक स्तर का पता भी लगेगा। उनके लैंगिक अनुपात की जानकारी भी मिलेगी। अब मीडिया को और राजनैतिक दलों को किसी खास चुनाव क्षेत्र की जातीय संरचना के लिए राजनैतिक पार्टियों का मुंह जोहना नहीं होगा। आमतौर पर हर राजनैतिक दल के पास इलाके के जातीय आँकड़े होते हैं। अब ये आँकड़े सरकारी स्तर पर तैयार होंगे। दूसरे बहुत सी जातीय पहचानों और उनके नेताओं की जमात भी खड़ी होगी। अजा-जजा और ओबीसी में अनेक जातियों के लोगों के अपने नेता नहीं हैं। इससे कोई सामाजिक टकराव नहीं होगा। यह वास्तविकता है, जो सरकारी आँकड़ों में भी आ जाएगी।
जातीय समरसता और एकता अलग सवाल हैं। वे अपनी जगह रहेंगे। हाल में विजातीय विवाह करने पर हत्याएं होने की खबरें मिलीं हैं। इन्हें लोग जातीय ऊँच-नीच से जोड़कर देख रहे हैं। सारे मामले ऊँच-नीच के नहीं हैं। हरियाणा में खाप के झगड़े एक ही जातीय स्तर के हैं। विजातीय होना ऊँच-नीच से नहीं जुड़ा। ब्राह्मणों के अनेक वर्ग एक-दूसरे से शादी-विवाह नहीं करते। क्षत्रिय और वैश्यों में भी ऐसा है।
ऊँच-नीच का हल तो शहरी जीवन से हो जाएगा, पर जातीय पहचान अलग चीज़ है। वह इतनी आसानी से खत्म नहीं होगी। फिर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जाति एक औपचारिक रूप ले रही है। कुछ खास पार्टियाँ, जाति विशेष का प्रितनिधित्व करतीं हैं। उत्तर में भी और दक्षिण में भी। यदि ब्राह्मणों की एक, क्षत्रियों की एक, वैश्यों की एक और ओबीसी की एक पार्टी बन पाती तो शायद राजनीति की नब्ज़ को समझा जा सकता था। ऐसा नहीं है। दलितों की सिर्फ एक पार्टी नहीं है। बीजेपी को लोग हिन्दू सवर्णों की पार्टी मानते हैं, पर उसमें ओबीसी विधायकों की भरमार है। हमें इन बातों से भागना नहीं चाहिए। समझना चाहिए।
हमारी जनगणना में सन 1931 तक जातियों की संख्या भी गिनी जाती थी। वह बंद कर दी गई। सन 2001 की जनगणना के पहले यह माँग उठी कि हमें जातियों की संख्या की गिनती भी करनी चाहिए। वह माँग नहीं मानी गई। सन 2009 में तमिलनाडु की पार्टी पीएम के ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की कि जनगणना में जातियों को भी शामिल किया जाय़। यह अपील नहीं मानी गई। अदालत के विचार से यह नीतिगत मामला है, और सरकार को इसे तय करना चाहिए। सरकार लगातार कहती रही है कि जातियों को शामिल करने में व्यावहारिक दिक्कतें हैं। इधर लगभग सभी पार्टियों ने जाति धारित जनगणना का समर्थन शुरू कर दिया है। इनमें ओबीसी आधारित पार्टियाँ लीड ले रहीं हैं।
संसद के चालू सत्र के आखिरी दिन 7 मई को मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया कि सरकार इस मामले में कोई फैसला जल्द करेगी। हालांकि उसी रोज़ गृहमंत्री चिदम्बरम ने कहा कि जाति आधारित जनगणना कराने में व्यावहारिक दिक्कतें हैं। फिलहाल लगता है कि जनगणना जाति आधारित होगी। इस वक्तव्य के बाद जाति आधारित जनगणना का कुछ लोगों ने विरोध किया है। उनके विचार से इससे जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा।
मुझे लगता है कि जाति आधारित जनगणना सम्भव हो तो उसे कराना चाहिए। जातिवाद या जाति-चेतना अपनी जगह है और वह जनगणना न कराने मात्र से खत्म नहीं होगी। और निकट भविष्य में वह खत्म होती लगती भी नहीं। इसके विपरीत जो लोग जाति आधारित जनगणना चाहते हैं, उनका भी कोई उद्देश्य इससे पूरा नहीं होगा। मोटे तौर पर माना जाता है कि देश मे 24-25 प्रतिशत अजा-जजा, 25 प्रतिशत सवर्ण और लगभग 50 प्रतिशत ओबीसी हैं। जनगणना के बाद लगभग यही तस्वीर सामने आएगी। बेहतर है कि जो भी तस्वीर है उसे सामने आने दीजिए। दरअसल जातीय आरक्षण के जो सवाल हैं, वे अलग हैं। संख्या उसमें बुनियादी तत्व नहीं है। दूसरी ओर जो लोग हिन्दुस्तानी लिखकर जातीय भावना को दूर करना चाहते हैं, वे हवा में सोच रहे हैं।
भारतीय संविधान धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर व्यक्ति के साथ भेदभाव न होने देने के लिए कृत संकल्प है। संविधान के 14 से 18 अनुच्छेद समानता पर केन्द्रित हैं। जातीय आरक्षण के बारे में संवैधानिक व्यवस्था की ज़रूरत तब पड़ी जब मद्रास राज्य बनाम चम्पकम दुरईराजन केस में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी आदेश को रद्द कर दिया। इसके बाद संविधान के पहले संशोधन में अनुच्छेद 15 में धारा 4 जोड़ी गई। इस धारा में समानता के सिद्धांत के अपवाद के रूप में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को या अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गईं।
संविधान में संशोधन करते वक्त अजा-जजा का नाम साफ लिखा गया। साथ ही अनुच्छेद 366(24)(25) के तहत अनुच्छेद 341 और 342 में अजा-जजा की परिभाषा भी कर दी गई। सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की परिभाषा नहीं की गई। इसे परिभाषित करने के लिए 1953 में काका कालेलकर आयोग और 1978 में बीपी मंडल की अध्यक्षता में आयोग बनाए गए। दोनों आयोगों की रपटों में पिछड़ेपन का एक महत्वपूर्ण आधार जाति है। संविधान की शब्दावली में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों का उल्लेख अपेक्षाकृत निरपेक्ष है। इसमें जाति शब्द से बचा गया है। हालांकि तबसे ज्यादातर अदालती फैसलों में जाति एक महत्वपूर्ण बिन्दु है। पर केवल मात्र जाति पिछड़ेपन का आधार नहीं है।
अदालतों की भावना यह है कि जाति भी नागरिकों का एक वर्ग है, जो समूचा सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हो सकता है। जाति का अस्तित्व है। उसका नाम और सामाजिक पहचान है, इसलिए उससे शुरूआत की जा सकती है। कई जगह गाँव का निवासी होना या पहाड़ी क्षेत्र का निवासी होना भी पिछड़ेपन का आधार बनता है। पर जाति का सवाल कानूनी सवाल नहीं है। अदालतों में जाति से जुड़े तमाम मसले पड़े हैं और अभी और मसले जाएंगे। अदालतों का काम संवैधानिक व्यवस्था देखना है। हमारी व्यवस्था में सार्वजनिक हित देखने की ज़िम्मेदारी विधायिका की है। इसलिए यह मसला राजनैतिक दलों के पास है। जनगणना का सवाल राजनैतिक दलों के दबाव में हुआ, पर यह पार्टियों का अधिकार था।
जाति से जुड़े कई सवाल अभी निरुत्तरित हैं। मसलन क्या कोई वर्ग अनंत काल तक सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा रहेगा। पूरा वर्ग न भी रहे तो क्या उसका कोई हिस्सा पिछड़ेपन से कभी उबरेगा। इस दृष्टि से मलाईदार परत की अधारणा बनी है। संसद और कार्यपालिका का यह दायित्व है कि मलाईदार परत को अलग करे।
जनगणना में जाति की पहचान होने से सिर्फ बेस डेटा मिलेगा। जातीय प्रमाणपत्र देने वाली व्यवस्था अलग है। इससे यह पता भी लगेगा कि किस जाति के लोग कहाँ पर और किस संख्या में हैं। उनके शैक्षिक और आर्थिक स्तर का पता भी लगेगा। उनके लैंगिक अनुपात की जानकारी भी मिलेगी। अब मीडिया को और राजनैतिक दलों को किसी खास चुनाव क्षेत्र की जातीय संरचना के लिए राजनैतिक पार्टियों का मुंह जोहना नहीं होगा। आमतौर पर हर राजनैतिक दल के पास इलाके के जातीय आँकड़े होते हैं। अब ये आँकड़े सरकारी स्तर पर तैयार होंगे। दूसरे बहुत सी जातीय पहचानों और उनके नेताओं की जमात भी खड़ी होगी। अजा-जजा और ओबीसी में अनेक जातियों के लोगों के अपने नेता नहीं हैं। इससे कोई सामाजिक टकराव नहीं होगा। यह वास्तविकता है, जो सरकारी आँकड़ों में भी आ जाएगी।
जातीय समरसता और एकता अलग सवाल हैं। वे अपनी जगह रहेंगे। हाल में विजातीय विवाह करने पर हत्याएं होने की खबरें मिलीं हैं। इन्हें लोग जातीय ऊँच-नीच से जोड़कर देख रहे हैं। सारे मामले ऊँच-नीच के नहीं हैं। हरियाणा में खाप के झगड़े एक ही जातीय स्तर के हैं। विजातीय होना ऊँच-नीच से नहीं जुड़ा। ब्राह्मणों के अनेक वर्ग एक-दूसरे से शादी-विवाह नहीं करते। क्षत्रिय और वैश्यों में भी ऐसा है।
ऊँच-नीच का हल तो शहरी जीवन से हो जाएगा, पर जातीय पहचान अलग चीज़ है। वह इतनी आसानी से खत्म नहीं होगी। फिर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जाति एक औपचारिक रूप ले रही है। कुछ खास पार्टियाँ, जाति विशेष का प्रितनिधित्व करतीं हैं। उत्तर में भी और दक्षिण में भी। यदि ब्राह्मणों की एक, क्षत्रियों की एक, वैश्यों की एक और ओबीसी की एक पार्टी बन पाती तो शायद राजनीति की नब्ज़ को समझा जा सकता था। ऐसा नहीं है। दलितों की सिर्फ एक पार्टी नहीं है। बीजेपी को लोग हिन्दू सवर्णों की पार्टी मानते हैं, पर उसमें ओबीसी विधायकों की भरमार है। हमें इन बातों से भागना नहीं चाहिए। समझना चाहिए।
Friday, May 21, 2010
English Skills तेज़ करें और BPO में नौकरी पाएं
'English Skills तेज़ करें और BPO में नौकरी पाएं', इस शीर्षक का विज्ञापन आपको इंटरनेट की साइटों पर मिलेगा। टाटास्काई खोलें तो सबसे पहले अंग्रेजी सिखाने वाली उनकी सेवा का विज्ञापन आता है। हर छोटे-बड़े शहर में आपको अमेरिकन इंग्लिश सिखाने वाले इंस्टीट्यूट मिल जाएंगे। ऐसी कोई जगह नहीं मिलेगी, जहाँ हिन्दी सिखाई जाती है।
हाल में मेरे पास एक सुझाव आया कि आप हिन्दी सिखाने का काम क्यों नहीं करते। मुझे लगा, भला आज के ज़माने में हिन्दी का क्या काम ? ऐसा नहीं है, किसी कोरियन कम्पनी को, ऐसे लोगों की ज़रूरत थी, जो उनके अधिकारियों को कामकाज़ी हिन्दी सिखा सकें। सीनियर अधिकारी को कोई सानियर व्यक्ति ही सिखाए, ऐसा आग्रह भी था। कोई अमेरिकन महिला टॉप एक्ज़िक्यूटिव भारत आ रहीं हैं। क्या आप एक-दो रोज़ के लिए अपना समय दे सकेंगे? वे हिन्दी के अलावा भारत के बारे में जानना चाहतीं हैं। भारत के बारे में प्रकाशित गाइडों में वैसी जानकारी नहीं है, जो व्यावहारिक हो। आपने सोचा वह जानकारी क्या हो सकती है? यहाँ की राजनीति के बारे में राजनेताओं के बारे में। एकदम बुनियादी खानपान के बारे में। लोगों के शौक क्या हैं, वे पढ़ते क्या हैं, सोचते क्या हैं वगैरह।
हिन्दी पत्रकार से उम्मीद की जाती है कि वह ज़मीनी जानकारी रखता है। मैनेजमेंट के टॉप लीडर भारत के बारे में जानना नहीं चाहते। अमेरिकन जानना चाहते हैं। गाँव-कस्बों के हमारे बच्चे हागड़-बिल्लू अंग्रेजी सीख कर बहुत सस्ते में बीपीओ की नौकरी करने को राज़ी हैं। अंग्रेजी इसलिए नहीं सीखनी कि उसमें ज्ञान है। आज भी पूरे विश्वास से लूली-लँगड़ी अंग्रेजी बोलकर आप भारत के काले अंग्रेजों को जितना प्रभावित कर सकते हैं, उतना अपनी भाषा बोलकर नहींकर सकते, भले ही आपका ज्ञान उच्चस्तरीय हो।
कुछ साल पहले चीन यात्रा करके आए एक सज्जन बता रहे थे कि चीन में सॉफ्टवेयर अपने घरेलू इस्तेमाल के लिए ज्यादा बनता है। चूंकि घरेलू काम चीनी भाषा में होता है, इसलिए सॉफटवेयर के काम में चीनी भाषा का इस्तेमाल खूब होता है। आज भी इंटरनेट पर अंग्रेजी के बाद दूसरे नम्बर की भाषा चीनी है। उच्च स्तरीय साइंस, मेडिसन, टेक्नॉलजी, अर्थ शास्त्र और अन्य विषयों पर चीनी भाषा में सामग्री उपलब्ध है। हाँ वे लोग अंग्रेजी में हमसे पीछे हैं। इसपर हमें गर्व है। हाल में खबर थी कि चीन में अंग्रेजी शब्दों के निरर्थक इस्तेमाल पर सजा दी जाती है। बात अलोकतांत्रिक है, पर विचारणीय भी।
भला चीनी अपनी भाषा के माध्यम से आधुनिक कैसे होंगे? उससे बड़ा सवाल यह है कि आधुनिक हो गए तो क्या होगा? तब अंग्रेजी की ज़रूरत कम हो जाएगी। शायद चीनी की ज़रूरत बढ़ जाएगी। तब हम क्या करंगे? हम तो अपनी भाषा का श्राद्ध कर चुके होंगे। शायद तब हम चीनी भाषा सीखना शुरू करेंगे। तब बीपीओ चीनी में काम करने लगेंगे। पता नहीं ऐसा होगा या नहीं। और होगा भी तो कब होगा, अपुन लोग ज्यादा सोचते नहीं। जैसा होगा देखा जाएगा।
हाल में मेरे पास एक सुझाव आया कि आप हिन्दी सिखाने का काम क्यों नहीं करते। मुझे लगा, भला आज के ज़माने में हिन्दी का क्या काम ? ऐसा नहीं है, किसी कोरियन कम्पनी को, ऐसे लोगों की ज़रूरत थी, जो उनके अधिकारियों को कामकाज़ी हिन्दी सिखा सकें। सीनियर अधिकारी को कोई सानियर व्यक्ति ही सिखाए, ऐसा आग्रह भी था। कोई अमेरिकन महिला टॉप एक्ज़िक्यूटिव भारत आ रहीं हैं। क्या आप एक-दो रोज़ के लिए अपना समय दे सकेंगे? वे हिन्दी के अलावा भारत के बारे में जानना चाहतीं हैं। भारत के बारे में प्रकाशित गाइडों में वैसी जानकारी नहीं है, जो व्यावहारिक हो। आपने सोचा वह जानकारी क्या हो सकती है? यहाँ की राजनीति के बारे में राजनेताओं के बारे में। एकदम बुनियादी खानपान के बारे में। लोगों के शौक क्या हैं, वे पढ़ते क्या हैं, सोचते क्या हैं वगैरह।
हिन्दी पत्रकार से उम्मीद की जाती है कि वह ज़मीनी जानकारी रखता है। मैनेजमेंट के टॉप लीडर भारत के बारे में जानना नहीं चाहते। अमेरिकन जानना चाहते हैं। गाँव-कस्बों के हमारे बच्चे हागड़-बिल्लू अंग्रेजी सीख कर बहुत सस्ते में बीपीओ की नौकरी करने को राज़ी हैं। अंग्रेजी इसलिए नहीं सीखनी कि उसमें ज्ञान है। आज भी पूरे विश्वास से लूली-लँगड़ी अंग्रेजी बोलकर आप भारत के काले अंग्रेजों को जितना प्रभावित कर सकते हैं, उतना अपनी भाषा बोलकर नहींकर सकते, भले ही आपका ज्ञान उच्चस्तरीय हो।
कुछ साल पहले चीन यात्रा करके आए एक सज्जन बता रहे थे कि चीन में सॉफ्टवेयर अपने घरेलू इस्तेमाल के लिए ज्यादा बनता है। चूंकि घरेलू काम चीनी भाषा में होता है, इसलिए सॉफटवेयर के काम में चीनी भाषा का इस्तेमाल खूब होता है। आज भी इंटरनेट पर अंग्रेजी के बाद दूसरे नम्बर की भाषा चीनी है। उच्च स्तरीय साइंस, मेडिसन, टेक्नॉलजी, अर्थ शास्त्र और अन्य विषयों पर चीनी भाषा में सामग्री उपलब्ध है। हाँ वे लोग अंग्रेजी में हमसे पीछे हैं। इसपर हमें गर्व है। हाल में खबर थी कि चीन में अंग्रेजी शब्दों के निरर्थक इस्तेमाल पर सजा दी जाती है। बात अलोकतांत्रिक है, पर विचारणीय भी।
भला चीनी अपनी भाषा के माध्यम से आधुनिक कैसे होंगे? उससे बड़ा सवाल यह है कि आधुनिक हो गए तो क्या होगा? तब अंग्रेजी की ज़रूरत कम हो जाएगी। शायद चीनी की ज़रूरत बढ़ जाएगी। तब हम क्या करंगे? हम तो अपनी भाषा का श्राद्ध कर चुके होंगे। शायद तब हम चीनी भाषा सीखना शुरू करेंगे। तब बीपीओ चीनी में काम करने लगेंगे। पता नहीं ऐसा होगा या नहीं। और होगा भी तो कब होगा, अपुन लोग ज्यादा सोचते नहीं। जैसा होगा देखा जाएगा।
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