नागरिकता कानून
में संशोधन को लेकर चल रही बहस में कुछ ऐसे सवाल उठ रहे हैं, जो देश के विभाजन के समय
पैदा हुए थे. इसके समर्थन और विरोध में जो भी तर्क हैं, वे हमें 1947 या उससे पहले
के दौर में ले जाते हैं. समर्थकों का कहना है कि दुनिया में भारत अकेला ऐसा देश
है, जिसने धार्मिक आधार पर विश्व के सभी पीड़ित-प्रताड़ित समुदायों को आश्रय दिया
है. हम देश-विभाजन के बाद धार्मिक आधार पर पीड़ित-प्रताड़ित लोगों को शरण देना
चाहते हैं. कुछ लोगों का कहना है कि तीन देशों से ही क्यों, म्यांमार और श्रीलंका
से क्यों नहीं? इसका जवाब है कि केवल तीन
देश ही घोषित रूप से धार्मिक देश हैं. शेष देश धर्मनिरपेक्ष हैं, वहाँ धार्मिक
उत्पीड़न को सरकारी समर्थन नहीं है.
जिन देशों का
घोषित धर्म इस्लाम है, वहाँ कम से कम मुसलमानों का उत्पीड़न धार्मिक आधार पर नहीं
होता. पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों पर दबाव डाला जाता है कि वे धर्मांतरण करें.
उनकी लड़कियों को उठा ले जाते हैं और फिर उनका धर्म परिवर्तन कर दिया जाता है. पाकिस्तान
में बहुत से मुस्लिम संप्रदायों का भी उत्पीड़न होता है. जैसे शिया और अहमदिया. पर
शिया को सुन्नी बनाने की घटनाएं नहीं हैं. उत्पीड़न के आर्थिक, भौगोलिक और अन्य
सामाजिक आधार भी हैं. मसलन पाकिस्तान में बलूचों, पश्तूनों, मुहाजिरों और सिंधियों
को भी उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है, पर यह धार्मिक उत्पीड़न नहीं है.