पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव राजनीतिक दलों के लिए सत्ता
की लड़ाई है। वोटर के लिए उसका मतलब क्या
है? चुनाव-प्रक्रिया में सुधार जीवन में बदलाव लाने का महत्वपूर्ण रास्ता है।
बावजूद इसके चुनाव सुधारों का
मसला चुनावों का विषय नहीं बनता। तमाम नकारात्मक बातों के बीच यह सच है कि पिछले
दो दशक में हमारी चुनाव-प्रणाली में काफी सुधार हुए हैं। एक जमाने में बूथ
कैप्चरिंग और रिगिंग का बोलबाला था। अब प्रत्याशियों की जवाबदेही बढ़ी है। क्यों न
इन चुनावों में हम पारदर्शिता के सवाल उठाएं।
Sunday, January 15, 2017
Saturday, January 14, 2017
‘गरीब-मुखी’ राजनीति: मोदी कथा का दूसरा अध्याय
पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव एक तरह से मध्यावधि जनादेश का काम करेंगे। सरकार के लिए ही नहीं
विपक्ष के लिए भी। चूंकि सोशल मीडिया की भूमिका बढ़ती जा रही है, इसलिए इन चुनावों
में ‘आभासी माहौल’ की भूमिका कहीं ज्यादा होगी। कहना मुश्किल है
कि छोटी से छोटी घटना का किस वक्त क्या असर हो जाए। दूसरे राजनीति उत्तर प्रदेश की
हो या मणिपुर की सोशल मीडिया पर वह वैश्विक राजनीति जैसी महत्वपूर्ण बनकर उभरेगी।
इसलिए छोटी सी भी जीत या हार भारी-भरकम नजर आने लगेगी।
बहरहाल इस बार स्थानीय सवालों पर राष्ट्रीय प्रश्न हावी
हैं। ये राष्ट्रीय सवाल दो तरह के हैं। एक, राजनीतिक गठबंधन के स्तर पर और दूसरा
मुद्दों को लेकर। सबसे बड़ा सवाल है कि नरेंद्र
मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ क्या कहता है? लोकप्रियता बढ़ी है या घटी? दूसरा सवाल है कि
कांग्रेस का क्या होने वाला है? उसकी गिरावट रुकेगी या
बढ़ेगी? नई ताकत के रूप में आम आदमी पार्टी की भी परीक्षा
है। क्या वह गोवा और पंजाब में नई ताकत बनकर उभरेगी? और जनता
परिवार का संगीत मद्धम रहेगा या तीव्र?
Monday, January 9, 2017
साइंस की उपेक्षा मत कीजिए
पिछले हफ्ते तिरुपति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 104वीं भारतीय साइंस कांग्रेस का उद्घाटन करते हुए कहा कि भारत
2030 तकनीकी विकास के मामले में दुनिया के ‘टॉप तीन’ देशों में शामिल होगा. मन के बहलाने को गालिब ये ख्याल
अच्छा है, पर व्यावहारिक नजरिए से आज हमें एशिया के टॉप तीन देशों में भी शामिल होने
का हक नहीं है. एशिया में जापान, चीन, दक्षिण कोरिया, ताइवान, इसरायल और सिंगापुर
के विज्ञान का स्तर हमसे बेहतर नहीं तो, कमतर भी नहीं है.
Sunday, January 8, 2017
राष्ट्रीय सवालों का मध्यावधि जनादेश
फरवरी-मार्च में होने वाले पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव एक तरह से केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए मध्यावधि जनादेश का काम करेंगे। आमतौर पर विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दे ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। खासतौर से नब्बे के दशक से राज्यों के स्थानीय नेतृत्व का उभार हुआ है, जिसके कारण राज्य-केंद्रित मसले आगे आ गए हैं। पर इसबार लगता है कि चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाएगी। मणिपुर को छोड़ दें तो शेष चारों राज्यों की राजनीति फिलहाल केंद्रीय राजनीति के समांतर चल रही है। इसकी एक वजह बीजेपी की मोदी-केंद्रित रणनीति भी है।
नरेंद्र मोदी की सन 2014 की सफलता का प्रभाव अब भी कायम है। उसकी सबसे बड़ी परीक्षा इसबार उत्तर प्रदेश में होगी, जो राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। इन चुनावों के राष्ट्रीय महत्व की झलक उस प्रयास में देखी जा सकती है, जो एनडीए के समांतर एक राष्ट्रीय गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा है। इन चुनावों के ठीक पहले आम बजट पेश होने वाला है। इसे लेकर विरोधी दलों की लामबंदी उस प्रयास का एक हिस्सा है। यही वजह है कि बजट-विरोधी मुहिम में तृणमूल कांग्रेस और शिवसेना जैसी पार्टियाँ आगे हैं।
नरेंद्र मोदी की सन 2014 की सफलता का प्रभाव अब भी कायम है। उसकी सबसे बड़ी परीक्षा इसबार उत्तर प्रदेश में होगी, जो राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से देश का सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। इन चुनावों के राष्ट्रीय महत्व की झलक उस प्रयास में देखी जा सकती है, जो एनडीए के समांतर एक राष्ट्रीय गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा है। इन चुनावों के ठीक पहले आम बजट पेश होने वाला है। इसे लेकर विरोधी दलों की लामबंदी उस प्रयास का एक हिस्सा है। यही वजह है कि बजट-विरोधी मुहिम में तृणमूल कांग्रेस और शिवसेना जैसी पार्टियाँ आगे हैं।
तीन सर्वे, तेरह नतीजे
चुनाव-सर्वेक्षणों की
साख पर फिरता पानी
भारत के चुनाव सर्वेक्षणों का क्या रोना रोएं, इस बार
तो अमेरिका के पोल भी असमंजस में रहे। हिलेरी क्लिंटन की जीत की आशा धरी की धरी रह
गई। फिर भी पश्चिमी देशों के सर्वेक्षणों की साख बनी हुई है। हमारे यहाँ सर्वेक्षण
मनोरंजन के लिए पढ़े जाते हैं, गंभीर विवेचन के लिए नहीं। इन चुनाव-पूर्व
सर्वेक्षणों जैसी हवा सन 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में निकली थी, वैसी कभी
नहीं निकली होगी। पर ऐसा ज्यादातर होता रहा है जब तीन सर्वेक्षणों के तेरह तरह के
नतीजे होते हैं और परिणाम फिर भी कुछ और आता है।
अक्सर होता रहा है कि कभी किसी सर्वेक्षण का अनुमान
सही हुआ और कभी दूसरे का। पर कुल मिलाकर ज्यादातर सर्वे गलत साबित होते रहे हैं।
लगता है कि भारतीय मतदाता के दिल और दिमाग का पता लगाने वाली कोई पद्धति अभी तक
विकसित नहीं हुई है। पर उससे बड़ा सच यह है कि बार-बार गलत साबित होने के बाद भी
सर्वे हो रहे हैं और टीवी स्टूडियो में बैठे एंकर इन नतीजों के आधार पर गर्दन उठाकर
ऐसे सवाल करते हैं कि गोया वे किसी ‘ध्रुव सत्य’ की घोषणा कर रहे हैं।
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