नेपाल की
संविधान सभा की 601 सीटों के लिए हुए चुनाव में किसी भी पार्टी को साफ बहुमत न मिल
पाने के कारण संशय के बादल अब भी कायम हैं, पर इस बार सन 2008 के मुकाबले कुछ बदली
हुई परिस्थितियाँ भी हैं। माओवादियों के दोनों धड़े किसी न किसी रूप में पराजित
हुए हैं। पुष्प दहल कमल यानी प्रचंड की एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)
तीसरे नम्बर पर रही है। वहीं उनके प्रतिस्पर्धी मोहन वैद्य किरण की भारत-विरोधी नेकपा-माओवादी
और 33 अन्य दलों की चुनाव बहिष्कार घोषणा भी बेअसर रही। इसका मतलब है कि नेपाली
जनमत शांतिपूर्ण तरीके से अपने लोकतंत्र को परिभाषित होते हुए देखना चाहता है। हालांकि
नेपाल कांग्रेस और एमाले चाहें तो मिलकर सरकार बना सकते हैं। और अपनी मर्जी का
संविधान भी तैयार कर सकते हैं। पर कोशिश होनी चाहिए कि बहु दलीय राष्ट्रीय सरकार
बनाई जाए, क्योंकि देश को इस समय आम सहमति की ज़रूरत है। व्यवहारिक अर्थ में यह
संसद भी है, पर वास्तव में यह संविधान सभा है। अभी इस मंच पर मतभेदों को राजनीतिक
शक्ल नहीं देनी चाहिए। कोशिश होनी चाहिए कि फैसले आम राय से हों। इस बार पार्टियों
ने विश्वास दिलाया है कि वे एक साल के भीतर देश को संविधान दे देंगी। यह तभी संभव
है, जब वे अतिवादी रुख अख्तियार न करें।
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए दिल्ली विधानसभा का चुनाव ओपीनियन पोल का काम करेगा. कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए.
दिल्ली एक बेहतरीन बैरोमीटर बनता, पर ‘आप’ ने एंटी क्लाइमैक्स तैयार कर दिया है.
अंदेशा है कि दिल्ली का वोटर त्रिशंकु विधानसभा चुनकर दे सकता है. ऐसा हुआ तो ‘आप’ के सामने बड़ा धर्मसंकट पैदा होगा. यह उस धर्मसंकट का ट्रेलर भी होगा, जो 2014 के लोकसभा परिणामों के बाद जन्म ले सकता है.
दिल्ली से उठने वाली हवा के झोंके पूरे देश को प्रभावित करते हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सातों संसदीय सीटों पर कांग्रेस के प्रत्याशी जीते थे.
इनमें कपिल सिब्बल, अजय माकन, कृष्णा तीरथ और संदीप दीक्षित की राष्ट्रीय पहचान है. यहाँ होने वाली राजनीतिक हार या जीत के चाहे व्यावहारिक रूप से कोई मायने न हों पर प्रतीकात्मक अर्थ गहरा होता है.
पिछले कुछ साल में देश के शहरी नौजवानों के आंदोलनों को सबसे अच्छा हवा-पानी दिल्ली में ही मिला. राजधानी होने के नाते दिल्ली इस आयु और आय वर्ग का बेहतरीन नमूना है.