
अन्ना हज़ारे के लिए बेहतर होगा कि वे अपने आंदोलन को किसी एक राजनीतिक दल के फायदे में जाने से बचाएं। पर इस बारे में क्या कभी किसी को संशय था कि उनका आंदोलन कांग्रेस विरोधी है? खासतौर से जून के आखिरी हफ्ते में जब यूपीए सरकार की ओर से कह दिया गया कि हम कैबिनेट में लोकपाल विधेयक कानून का अपना प्रारूप रखेंगे। सबको पता था कि इस प्रारूप में अन्ना आंदोलन की बुनियादी बातें शामिल नहीं होंगी। रामलीला मैदान में यह आंदोलन किस तरह चला, संसद में इसे लेकर किस प्रकार की बहस हुई और किसने इसे समर्थन दिया और किसने इसका विरोध किया, यह बताने की ज़रूरत नहीं। भाजपा ने इसका मुखर समर्थन किया और कांग्रेस ने दबी ज़ुबान में सीबीआई को इसके अधीन रखने, राज्यों के लिए भी कानून बनाने और सिटीज़ंस चार्टर पर सहमत होने की कोशिश करने का भरोसा दिलाया। भाजपा से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस आंदोलन का समर्थन करने की घोषणा कर दी थी। फिर भी सितम्बर के पहले हफ्ते तक आधिकारिक रूप से यह आंदोलन किसी राजनीतिक दल के साथ नहीं था। और आज भी नहीं है। पर परोक्षतः यह भाजपा के पक्ष में जाएगा। महत्वपूर्ण बात यह है कि आंदोलन वोटर के सामने सीधे यह सवाल रख रहा है। चुनाव लड़ने के बजाय इस तरीके से चुनाव में हिस्सा लेने में क्या हर्ज़ है? इसका नफा-नुकसान आंदोलन का नेतृत्व समझे।





