समय-संदर्भ
अब राजनीति माने काजू-कतरी
ब्रिटिश कॉमन सभा में सन 1857 में पहली बार यह माँग उठी थी कि सरकारी खर्च सही तरीके से हुए हैं या नहीं, इसपर निगाह रखने के लिए एक समिति होनी चाहिए। सन 1861 में वहाँ पहली पब्लिक एकाउंट्स कमेटी की स्थापना की गई। हमने इसे ब्रिटिश व्यवस्था से ग्रहण किया है। ब्रिटिश व्यवस्था में भी पीएसी अध्यक्ष पद परम्परा से मुख्य विपक्षी दल के पास होता है। इन दिनों वहाँ लेबर पार्टी की मारग्रेट हॉज पीएसी की अध्यक्ष हैं। पीएसी क्या होती है और क्यों वह महत्वपूर्ण है, यह बात पिछले साल तब चर्चा में आई जब टू-जी मामले की जाँच का मसला उठा।
पीएसी या जेपीसी, जाँच जहाँ भी होगी वहाँ राजनैतिक सवाल उठेंगे। मुरली मनोहर जोशी द्वारा तैयार की गई रपट सर्वानुमति से नही है, यह बात हाल के घटनाक्रम से पता लग चुकी है। पर क्या समिति के भीतर सर्वानुमति बनाने की कोशिश हुई थी या नहीं यह स्पष्ट नहीं है। बेहतर यही था कि रपट के एक-एक पैरा पर विचार होता। पर क्या समिति में शामिल कांग्रेस और डीएमके सदस्य उन पैराग्राफ्स पर सहमत हो सकते थे, जो प्रधानमंत्री के अलावा तत्कालीन वित्त और संचार मंत्रियों के खिलाफ थे। और क्या पार्टी का अनुशासन ऐसी समितियों के सदस्यों पर लागू नहीं होता? साथ ही क्या मुरली मनोहर जोशी राजनीति को किनारे करके ऑब्जेक्टिव रपट लिख सकते थे? बहरहाल जोशी जी के फिर से पीएसी अध्यक्ष बन जाने के बाद एक नया राजनैतिक विवाद खड़ा होने के पहले ही समाप्त हो गया। यह हमारी व्यवस्था की प्रौढ़ता की निशानी भी है।