Thursday, July 15, 2010

प्रगतिशील इस्लाम


फ्रांस की संसद ने बुर्का पहनने पर पाबंदी लगाने का प्रस्ताव पास कर दिया है। हालांकि अभी यह कानून नहीं बना है। उसके लिए सितम्बर में इस प्रस्ताव को उच्च सदन यानी सीनेट से भी पास कराना होगा, पर इस कदम को जिस तरह का समर्थन प्राप्त है उससे लगता है कि यह प्रस्ताव आसानी से पास हो जाएगा। 

इस कदम का मतलब कई तरह से लगाया जा रहा है। पहली नज़र में इसे इस्लाम विरोधी या मुसलमानों से छेड़खानी करने वाला कदम माना जा रहा है। यों फ्रास की संवैधानिक व्यवस्था से ताल्लुक रखने वाले जानते हैं कि यह देश गहराई से सेक्युलर है। यहाँ 1905 से लागू संवैधानिक व्यवस्था ने धर्म और राज-व्यवस्था को पूरी तरह अलग कर रखा है। यहाँ जनगणना में व्यक्ति के धर्म को दर्ज नहीं किया जाता। इस वजह से कहा नहीं जा सकता कि फ्रास में कितने व्यक्ति किस धर्म को मानते हैं। यह एक बात है। दूसरी बात यह कि यहाँ बहुसंख्यक ईसाई रहते हैं। इसलिए यह अंदेशा है कि सेक्युलरिज्म की आड़ में मुसलमानों की पहचान को ही निशाना बनाया गया है। फ्रांस के बाद अब ब्रिटेन में भी बुर्के पर पाबंदी की माँग उठ रही है। 

क्या बुर्का पहनना इस्लाम की बुनियादी ज़रूरत है? शालीन लिबास पहनना सभ्यता की पहली निशानी है। आधुनिकता की आड़ में नंगेपन का जैसा बोलबाला है, वह समझ में नहीं आता। पर क्या फ्रांस के कानून के पीछे नंगेपन की संस्कृति के दर्शन होते हैं? परिधान कैसा पहना जाय यह व्यक्ति का बुनियादी अधिकार है। पर बुर्का पहनना भी क्या बुनियादी अधिकार की सीमा का उल्लंघन नही है? यों तमाम मुसलमान स्त्रियाँ बुर्के का समर्थन करतीं हैं। उन्हें बुर्का पहनने में आपत्ति नहीं है। हो सकता है कोई महिला समर्थक न हो, तो क्या उसे अपनी बात कहने का अधिकार है? बुनियादी बात यह है कि पहली माँग उनकी तरफ से ही आनी चाहिए। साथ ही उन्हें आश्वस्त होना चाहिए कि बुर्के पर पाबंदी के पीछे कोई दुर्भावना नहीं है। इक्कीसवीं सदी के समाज को डेढ़ हजार साल पुराने नज़रिए से न देखें। 

 बुर्के पर पाबंदी लगने पर कट्टरपंथियों की ओर से विरोध के स्वर उठेंगे। इससे कट्टरपंथ को मजबूती मिलेगी। सारी दुनिया में कट्टरपंथ की आँधी है। खासकर पाकिस्तान में इसका उभार है। चौक डॉट कॉम में   मुहम्मद गिल का लेख  लेख पठनीय है। हमें लगता है कि इस्लामी दुनिया में सब कट्टरपंथी ही बसते हैं। ऐसा नहीं है। आयशा उमर का यह लेख  आपको अपनी राय बदलने को प्रेरित कर सकता है। 

दरअसल इस्लाम के बारे में इतनी निगेटिव दृष्टि है कि हम सोच नहीं पाते कि उनमें समझदारी की बातें भी करने वाले हैं। बेशक वे कम हैं, पर हैं ज़रूर । इसी 14 जुलाई के पाकिस्तानी अखबार डॉन में छपा इरफान हुसेन का यह लेख पढ़ें। हाल में नवभारत टाइम्स में युसुफ अंसारी ने एक लेख लिखा जिसमे कहने की कोशिश की गई थी कि मुसलमानों की प्रगतिशील बातों को मीडिया में जगह नहीं मिलती। देखें युसुफ किरमानी का लेख। मैं यहाँ कट्टरपंथी बातें नहीं दे रहा। उन्हें आप कहीं से भी पढ़ सकते हैं। मेरा उद्देश्य केवल इतना है कि मुलमानों के भीतर जो समझदार तबका है उसे मज़बूत किया जाना चाहिए। ऐसे विचारों  के बारे में जानकारी बढ़ाएं। 



Wednesday, July 14, 2010

रियलिटी शो


मलेशिया के एक रियलिटी टीवी शो में नए इमाम का चयन किया जा रहा है। इसमें इमाम बनने के इच्छुक कुछ नौजवानों को जमा किया गया है। वे धर्म के बाबत अपनी जानकारी देते हैं। जन्म से मृत्यु तक के धार्मिक संस्कारों के बारे में अपने ज्ञान का परिचय देते हैं। धर्म गुरु उनके ज्ञान की परीक्षा लेते हैं। इस कार्यक्रम को जनता और धर्मगुरुओं दोनों का आशीर्वाद प्राप्त है,  सो सफल होना चाहिए। बीबीसी की वैब साइट ने इस आशय की खबर दी है।


इस रियलिटी शो से हमारे शो-संचालकों को भी सीख लेनी चाहिए। आस्था या संस्कार चैनल वाले पुरोहितों का चुनाव कर सकते हैं। कम से कम युवा ज्योतिषियों का चुनाव तो हो ही सकता है। हर नेता-अभिनेता और उद्योगपति को भविष्य की फिक्र है। हमने स्वयंवर करा दिए, करोड़पति बना दिए, एंकर हंट कर डाले। हीरो-हीरोइन भी चुन लिए जाएंगे। गायक और अब डांसर चुने ही जा रहे हैं। 

क्या हम नेताओं का रियलिटी शो कर सकते हैं? और क्या माफिया भी खोजे जा सकते हैं? अखबारों के सम्पादक, चैनलों के हैड, राज्यो के मुख्यमंत्री, देश के प्रधानमंत्री, कम्पनियों के सीईओ, सरकारों के चीफ सेक्रेटरी, फिल्मों के डायरेक्टर भी तो खोजे जा सकते हैं। जिन्दगी में जो कुछ खोजना है, क्यों न टीवी के मार्फत खोजा जाय। हो सकता इनके बीच कहीं हमें अपनी गरीबी, भुखमरी, फटेहाली, अंधविश्वास, अज्ञान वगैरह का हल भी मिल जाय। बहरहाल यह बदलते वक्त का सच है। 


छोटी बातें और मिलावटी गवर्नेंस

हत्याओं, आगज़नी और इसी तरह के बड़े अपराधों को रोकना बेशक ज़रूरी है, पर इसका मतलब यह नहीं कि छोटी बातों से पीठ फेर ली जाय। सामान्य व्यक्ति को छोटी बातें ज्यादा परेशान करती हैं। सरकारी दफ्तरों में बेवजह की देरी या काम की उपेक्षा का असर कहीं गहरा होता है। हाल में लखनऊ के रेलवे स्टेशन पर एक फर्जी टीटीई पकड़ा गया। कुछ समय पहले गाजियाबाद में फर्जी आईएएस अधिकारी पकड़ा गया। दिल्ली मे नकली सीबीआई अफसर पकड़ा गया। जैसे दूध में मिलावट है वैसे ही सरकार भी मिलावटी लगती है।

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Monday, July 12, 2010

संकट और समाधान के दोराहे पर


यह सवाल अब बार-बार पूछा जाने लगा है कि पत्रकारिता क्या खत्म हो जाएगी? इसके मूल्य, सिद्धांत और विचार कूड़ेदान में चले जाएंगे? मनी और मसल पावर की ही जीत होगी?  काफी लोगों को लगता है कि पत्रकारिता के सामने संकट है और इससे निकलने का रास्ता कोई खोज नहीं पा रहा है। इस कर्म से जुड़े ज्यादातर लोग यों किसी भी दौर में व्यवस्था को लेकर संतुष्ट नहीं रहे, पर इस वक्त वे सबसे ज्यादा व्यथित लगते हैं। रविवार की दोपहर दिल्ली के कांस्टीट्यूशन हॉल में उदयन शर्मा फाउंडेशन के संवाद-2010 में विचार व्यक्त करने और दूसरों को सुनने के लिए जिस तरह से मीडिया से जुड़े लोग जमा हुए उससे इतनी आश्वस्ति ज़रूर होती है कि सब लड़ाई को इतनी आसानी से हारने को तैयार नहीं हैं। गोकि इस मसले को अलग-अलग लोग अलग-अलग ढंग से देखते हैं।

खबरों को बेचना सारी बात का एक संदर्भ बिन्दु है, पर घूम-फिरकर हम इस बिजनेस के व्यापक परिप्रेक्ष्य को छूने लगते हैं। फिर बातें पूँजी, कॉरपोरेट कंट्रोल और राजनैतिक-व्यवसायिक हितों के इर्द-गिर्द घूमने लगती हैं। ऐसा भी लगता है कि हम बहुत सी बातें जानते हैं, पर उन्हें खुलकर व्यक्त कर नहीं पाते या करना नहीं चाहते। भारतीय भाषाओं का मीडिया पिछले तीन दशक में काफी ताकतवर हुआ है। यह ताकत राजनीति-समाज और बिजनेस तीनों क्षेत्रों में उसके बढ़ते असर के कारण है। पर तीनों क्षेत्रों में हालात तीन दशक पहले बाले नहीं हैं।   
राजनीति-बिजनेस और पत्रकारिता तीनों में नए लोगों, नए विचारों और नई प्रवृत्तियों का प्रवेश हुआ है। राजनीति में अपराध और बिजनेस के प्रतिनिधि बढ़े हैं। अपराध का एक रूप यूपी और बिहार में नज़र आता है। इसमें अपहरण, हत्या, फिरौती वगैरह हैं। दूसरा रूप आर्थिक है। यह नज़र नहीं आता, पर यह हत्याकारी अपराध से ज्यादा खतरनाक है। यह गुलाबजल और चांदी के वर्क से पगा है। राजनीति में अपराधी का प्रवेश सहज है। वह सत्ता का सिंहासन लेकर चलती है। ऐसा ही मीडिया के साथ है। वह भी व्यक्ति के सामाजिक रुतबे और रसूख को बनाता है। पुराने पत्रकार को पाँच-सौ या हज़ार के नोट दिखाने के बजाय आज बेहतर तरीके मौज़ूद हैं। चैनल शुरू किया जा सकता है। अखबार निकाला जा सकता है।

पत्रकारिता एक नोबल प्रोफेशन है। और नब्बे फीसदी या उससे भी ज्यादा पत्रकार इसे अपने ऊपर लागू करते हैं। इसीलिए वे व्यथित हैं। और उनकी व्यथा ही इसे भटकाव से रोकेगी। पेड न्यूज़ पर पूरी तरह रोक लग पाएगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता, पर वह उस तरीके से ताल ठोककर जारी भी नहीं रह पाएगी। जिस पेड न्यूज़ पर हम चर्चा कर रहे हैं वह पत्रकारों की ईज़ाद नहीं है। यह पैसा उन्हें नहीं मिला। मिला भी तो कुछ कमीशन। एक या दो संवाददाता अपने स्तर पर ऐसा काफी पहले से करते रहे होंगे। पर इस बार मामला इंस्टीट्यूशनलाइज़ होने का था। इसका इलाज़ इंस्टीट्यूशनल लेवल पर ही होना चाहिए। यानी सरकार, इंडियन न्यूज़पेपर सोसायटी और पत्रकारों की संस्थाओं को मिलकर इस पर विचार करना चाहिए। सार्वजनिक चर्चा या पब्लिक स्क्रूटनी से इस मंतव्य पर प्रहार हुआ ज़रूर है, पर कोई हल नहीं निकला है। एक विडंबना ज़रूर है कि मीडिया जो पब्लिक स्क्रूटनी का सबसे महत्वपूर्ण मंच होता था,  इस सवाल पर चर्चा करना नहीं चाहता। एक-दो अखबारों को छोड़ दें तो, ज्यादातर चर्चा मीडिया के बाहर हुई है। इस मामले के असली प्लेयर अभी तक सामने नहीं आए हैं। शायद आएंगे भी नहीं।

कुछ महीने पहले इसी कांस्टीट्यूशन क्लब में एडीटर्स गिल्ड और वीमेंस प्रेस कोर ने मिलकर एक गोष्ठी की थी, जिसमें टीएन नायनन ने कहा था कि सम्पादक को खड़े होकर ना कहना चाहिए। रविवार की गोष्ठी में किसी ने गिरिलाल जैन का उल्लेख किया, जिन्होंने सम्पादकीय विभाग में आए विज्ञापन विभाग के व्यक्ति से कहा कि इस फ्लोर पर सम्पादकीय विभाग की बातों पर चर्चा होती है, बिजनेस की नहीं। कह नहीं सकते कि उस अखबार में आज क्या हालात हैं। पर हमें गिरिलाल जैन के कार्यकाल का अंतिम दौर याद है। उस मसले पर इलस्ट्रेटेड वीकली में कवर स्टोरी छपी। यह बात उस दौर के मीडिया हाउसों के मालिकों के व्यवहार और उसमें आते बदलाव पर रोशनी डालती है।

सम्पादक वह छोर है, जहाँ से प्रबंधन और पत्रकारिता की रेखा विभाजित होती है। सम्पादक कुछ व्यक्तिगत साहसी होते हैं, कुछ व्यवस्था उन्हें बनाती है। बहुत से तथ्य शायद अभी सामने आएंगे या शायद न भी आएं। पर इतना साफ है कि मीडिया की साख बनाने की जिम्मेदारी समूचे प्रबंधतंत्र की है। इनमें मालिक भी शामिल हैं। सामान्य पत्रकार कभी नहीं चाहेगा कि उसकी साख पर बट्टा लगे। इसमें व्यक्तिगत राग-द्वेष, महत्वाकांक्षाएं और दूसरे को पीछे धकेलने की प्रवृत्तियाँ भी काम करती हैं। पैराडाइम बदलता है, तब ऐसे व्यक्ति आगे आते हैं, जो खुद को संस्थान और बिजनेस के बेहतर हितैषी के रूप में पेश करते हैं। ऐसे अनेक अंतर्विरोध और विसंगतियां हैं।

इस मामले के दो प्रमुख सूत्रधारों की ओर हम ध्यान नहीं देते। एक मीडिया ओनरिशप और दूसरा पाठक या ग्राहक। देश के पहले प्रेस कमीशन ने मीडिया ओनरशिप का सवाल उठाया था। हम प्रायः दुनिया के दूसरे देशों का इंतज़ार करते हैं। या नकल करते हैं। कहा जाता है कि यही एक मॉडल है, हम क्या करें। पर हमें कुछ करना होगा। जो हालात हैं वे ऐसे ही नहीं रहेंगे। या तो वे सुधरेंगे या बिगड़ेंगे। तत्व की बात यह है कि यह सब किसी कारोबार का मसला नहीं है। यह काम हम पाठक-जनता या लोकतंत्र के लिए करते हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जानकारी पाने का हमारा अधिकार जाने-अनजाने दुनिया की सबसे अनोखी संवैधानिक व्यवस्था है। अमेरिकी संवैधानिक व्यवस्था की तरह यह केवल प्रेस की फ्रीडम नहीं है। अपने  लोकतांत्रिक कर्तव्यों को निभाने के लिए हमें सूचना की मुक्ति चाहिए। यह सूचना बड़ी पूँजी या कॉरपोरेट हाउसों की गिरफ्त में कैद रहेगी तो इससे नागरिक हितों को चोट पहुँचेगी। राइट टु इनफॉरमेशन ही नहीं हमें फ्रीडम ऑफ इनफॉरमेशन चाहिए। सूचना का अधिकार हमें सरकारी सूचना का अधिकार देता है। पर हमें सार्वजनिक महत्व की हर सूचना की ज़रूरत है। पूँजी को मुक्त विचरण की अनुमति इस आधार पर मिली है कि उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संगति है। उसकी आड़ में मोनोपली, कसीनो या क्रोनी कैपिटलिज्म का प्रवेश अनुचित है। मीडिया की ताकत पूँजी नहीं है। जनता या पाठक-दर्शक है। यदि मीडिया का वर्तमान ढाँचा अपनी साख को ध्वस्त करके सूचना को खरीदने और बेचने लायक कमोडिटी में तब्दील करना चाहता है तो मीडिया की ओनरशिप के बारे में सोचा जाना चाहिए।

चूंकि सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर पहल स्टेट और सिविल सोसायटी को लेनी होती है, इसलिए यह राजनेताओं और जन-प्रतिनिधियों के लिए भी महत्वपूर्ण विषय है। इसके कानूनी और सांस्कृतिक पहलू भी हैं। कानूनी व्यवस्था से भी सारी बातें ठीक नहीं हो जातीं। सार्वजनिक व्यवस्था में बीबीसी और जापान के एनएचके काम कर सकते हैं, पर हमारे यहां तमाम कानूनी बदलाव के बावजूद प्रसार भारती कॉरपोरेशन नहीं कर पाता। हमारा लोकतंत्र और व्यवस्थाएं इवॉल्व कर रहीं हैं। उसके भीतर से नई बातें निकलेंगी। नई प्रोसेस, नए चैक्स एंड बैलेंसेज़ और मॉनीटरिंग आएगी। शायद पाठक भी हस्तक्षेप करेगा, जो अभी तक मूक दर्शक है। पेड न्यूज समस्या नहीं समस्या का एक लक्षण है। उसे लेकर पब्लिक स्क्रूटनी शुरू हुई है, यह उसके समाधान का लक्षण है। 

Tuesday, July 6, 2010

चमत्कार को मीडिया का नमस्कार


टेलीशॉपिंग या होम शॉपिंग के किसी चैनल पर आपने अक्सर विज्ञापन देखे होंगे, जिनमें किसी की बुरी नज़र से बचाने या दुर्भाग्य से मुक्ति पाने के लिए किसी सिद्ध कवच को खरीदने का आग्रह किया जाता है। किसी सुखी परिवार को देखकर किसी स्त्री या पुरुष की आँखों से बुरी नज़र की किरणें निकलतीं हैं। वे उस परिवार का जीवन तबाह कर देती हैं। ऐसे ही किसी का चलता कारोबार बिगड़ जाता है। हमारे जीवन में ऐसे कवच, गंडे-ताबीज़ों की कमी नहीं है। बड़े-बड़े सेलेब्रिटी भी इनका सहारा लेते हैं। खराब वक्त प्रायः हर व्यक्ति के जीवन में आता है। ज्यादातर सेलेब्रिटीज़ के सेलेब्रिटी एस्ट्रॉलॉजर होते हैं। ज्यादातर चैनलों, अखबारों और पत्रिकाओं में भाग्य बताने वाले कॉलम होते हैं। यह व्यक्तिगत आस्था का मामला है। कोई इनपर यकीन करता है, तो उसके यकीन करने पर रोक नहीं लगाई जा सकती। पर गंडे-ताबीज़, कवच और जादुई चिकित्सा के प्रचार पर हमारे देश में कानूनी रोक है। फिर भी ऐसे विज्ञापन आराम से छपते हैं।
ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ (ऑब्जेक्शनेबल एडवर्टीज़मेंट्स) एक्ट 1954 के अंतर्गत कई तरह के औषधीय दावों और रोगों के इलाज की चमत्कारिक दवाओं के विज्ञापन गैर-कानूनी हैं। खासकर जिन दावों को साबित न किया जा सके। इस आरोप में छह महीने से साल भर तक की सज़ा और ज़ुर्माने की व्यवस्था है। हिन्दी या अंग्रेजी का शायद ही कोई अखबार हो, जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में ऐसे दावे के विज्ञापन न छपते हों। कुछ विज्ञापनों पर ध्यान दीजिएः-
खुला चैलेंजः शक्ति चमत्कार देखें अपनी आँखों से
गुरूजी कमाल खान बंगाली

लव मैरिज, वशीकरण, सौतन, दुश्मन से छुटकारा आदि सभी का A to Z समाधान
बाबा खान बंगाली

जापानी ऑटोमेटिक इन्द्रीयवर्धक यंत्र

डायबिटीज़ः हैरतंगेज़ नई खोज

लम्बाई बढ़ाएं

नज़र रक्षा कवच

दुर्गा रक्षा कवच

इनमें मालिश करने वाले, एस्कॉर्ट्स और मैत्री के विज्ञापन भी शामिल हैं, जो अश्लीलता, अभद्रता और सार्वजनिक जीवन की मर्यादा से ताल्लुक रखते हैं। कुछ साल पहले ऋषिकेश के नीरज क्लीनिक के मामले को लेकर काफी विवाद हुआ था। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन तक ने उसमें हस्तक्षेप किया। देश की एडवर्टाइज़िंग स्टैंडर्ड काउंसिल ने भी दबाव डाला और वह विज्ञापन बंद हुआ। पर वह मनोवृत्ति कायम है। इसकी वजह विज्ञापन देने वालों के अलावा विज्ञापन लेने वाले भी हैं। केरल के अखबारों में एक विज्ञापन छपता था जिसमें ऊँचाई बढ़ाने का वादा था। नादिया नाम की एक लड़की उसके चक्कर में फँस गई। उसकी ऊँचाई बढ़ना तो बाद की बात है, चलना-फिरना मुश्किल हो गया। अंततः अपोलो अस्पताल में उसे इलाज कराना पड़ा। हालांकि इस कानून के तहत सरकारी अधिकारी अपने तईं हस्तक्षेप करके सम्बद्ध व्यक्ति या संस्था के खिलाफ कार्रवाई कर सकते हैं, पर व्यावहारिक रूप से कुछ नहीं होता।
एडवर्टाइज़िग स्टैंडर्ड काउंसिल के दिशा-निर्देशों के अनुसार विज्ञापन को स्वीकार करते वक्त उसके नैतिक पक्ष की जाँच होनी चाहिए। विज्ञापन का अर्थ यह नहीं होता कि आप पैसा देकर कुछ भी छपवा लें। काउंसिल के सेल्फ रेग्युलेशन कोड के मुताबिक विज्ञापन देने वाले के साथ-साथ विज्ञापन बनाने वालों, उसे प्रकाशित करने वालों और इसमें सहयोग करने वालों की जिम्मेदारी भी इसमें है। यह देखना ज़रूरी है कि विज्ञापन में कही गई बातें भ्रम तो नहीं फैला रहीं। इस गैर-जिम्मेदारी से हिन्दी का पाठक ज्यादा प्रभावित होता है। खासकर दुर्गा रक्षा-कवच या शिव रक्षा-कवच की गुणवत्ता को सर्टिफाई करने वाली कोई संस्था देश में नहीं है। ऐसे कवच विज्ञापन के बगैर भी बिकेंगे, पर विज्ञापन से उसे वैधानिकता मिलती है। सरकार के पास कानून का सहारा है, जो आसानी से उसे रोक सकती है। वहीं, जिन चैनलों पर ऐसे विज्ञापन नज़र आते हैं, उनकी भी जिम्मेदारी बनती है। दिक्कत यह है कि कानूनी व्यवस्था होने के बावजूद ऐसे विज्ञापन धड़ल्ले से दिखाए जाते हैं।
तकरीबन हर शहर में दुनिया के सारे रोगों का इलाज करने वाली दवाएं मिलतीं हैं। इसकी एक वजह हमारा अवैज्ञानिक मन, दूसरे चमत्कार में यकीन और तीसरे महंगी आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था तक पहुँच न हो पाने की वजह से वैकल्पिक व्वस्था को खोजना है। विकल्प है देशी और वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ। बेशक इन पद्धतियों की चिकित्सा को बढ़ावा देने की ज़रूरत है। इनके पीछे हजारों साल का अनुभव है। पर इनकी आड़ में कमाई करने वाले भी हैं। अमेरिका में औषधि नियम बहुत सख्त हैं। शायद हमारे यहाँ उतना सख्त करना व्यावहारिक नहीं, पर कानून इतना लचर भी नहीं होना चाहिए कि उसका मज़ाक बन जाए। इधर अनेक चमत्कारिक दवाएं फूड सप्लीमेंट के रूप में बेची जा रहीं हैं। ताकत, स्फूर्ति और मर्दानगी की तमाम दवाएं इसी श्रेणी में आतीं हैं। हिन्दी के अखबारों में इनके विज्ञापन ज्यादा होते हैं। इसे वह वर्ग पढ़ता है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के बाहर हो चुका है और जिसके पास विशेषज्ञों से कंसल्ट करने की न तो आर्थिक शक्ति है और न आत्मविश्वास। वह ठगे जाने को अभिशप्त है। उसके पक्ष में खड़े होने की ज़िम्मेदारी मीडिया की है, जो जाने-अनजाने अपनी ज़िम्मेदारी को भूल गया है।
पहले पत्रकारिता का जन्म हुआ था। उसके करीब सौ साल बाद विज्ञापन आए थे। पर सारी नकारात्मक भूमिका विज्ञापन की नहीं है। कंटेंट मे भी यही सब है। ऐसे में उसे कानून से नहीं रोका जा सकेगा। दूर-दराज़ की बात नहीं है दिल्ली के अखबारों तक में जाको राखे साइयाँ टाइप खबरें छपतीं हैं। 1995 में गणेश प्रतिमाओं के दुग्धपान की खबरें छपते वक्त हम इसे देख चुके हैं। ऐसा ही दिल्ली में काले बंदर की खबरों को लेकर हुआ था। कोई रिपोर्टर खोज पर निकले तो उसे हिन्दी प्रदेशों के शहरों और कस्बों में अनेक कथाएं इस किस्म की चर्चित और प्रचारित मिलेंगी। चमत्कारी बकरी, तीन सिर वाला बच्चा, आसमान से बरसे फूल ऐसी खबरें गाहे-बगाहे अखबारों में जगह पाती हैं। लोक-रुचि के नाम पर वैज्ञानिक विषयों की खबरें भी चमत्कारिक ढंग से लिखी जाती हैं। विज्ञान को किसी अखबार ने गम्भीरता से नहीं लिया। विज्ञान के नाम पर टेक्नॉलजी खूब छपती है, क्योंकि उसका कमर्शियल पहलू है। विज्ञान बड़े स्तर पर उपेक्षित है।  
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार हमें अंधविश्वास को बढ़ावा देने की अनुमति भी देता है। ज्योतिषीय परामर्श तक बात ठीक है, पर आए दिन चमत्कारों की कहानियों का क्या अर्थ है? वैज्ञानिक खबरों के साथ भी यही होता है। उन्हें चमत्कार के रूप में लिखने की कोशिश की जाती है। आधुनिकता सिर्फ खाने-पीने, पहनने और बोलने की रह गई है, जो वस्तुतः नकल और प्रकारांतर से पिछड़ापन है। विवेक-विचार और विश्लेषण की आधुनिकता नहीं। इसे सुधारना तभी सम्भव है जब विज्ञान और चमत्कारों के बारे में मीडिया कोई कोड ऑफ कंडक्ट बनाए। बीटी बैंगन, जेनेटिक्स और विज्ञान की नैतिकता पर विमर्श करने से अधकचरा ज्ञान रोकता है।