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Friday, May 11, 2012

कितने सच सामने लाएंगे आमिर खान?

सतीश आचार्य का कार्टून साभार
नए रविवारी सीरियल ‘सत्यमेव जयते’ के प्रसारण के साथ ही लाखों-लाख लोगों ने आमिर खान से सम्पर्क किया है। इनमें राजस्थान के मुख्यमंत्री भी शामिल हैं। सत्यमेव जयते की वैबसाइट पर जाकर आप एक पोल में शामिल हो सकते हैं। इसमें पूछा गया है कि क्या राजस्थान में स्त्री भ्रूण हत्या के मामलों के लिए फास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना की जानी चाहिए? कुछ लोगों का कहना है कि यह सीरियल नहीं आंदोलन है। इसकी मार्केटिंग पर 20 करोड़ से ज्‍यादा खर्च हुआ है। आखिरी मिनट तक सामान्य दर्शक को नहीं पता था कि इस सीरियल में क्या है। मीडिया विशेषज्ञ इस बात पर निहाल हैं कि कितनी चतुराई से दूरदर्शन द्वारा वर्षों पहले तैयार किए गए स्लॉट का इस्तेमाल कर लिया गया। सीरियल प्रसारण के अगले रोज दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार के सम्पादकीय पेज पर आमिर खान का स्त्री भ्रूण हत्या विषय पर लेख प्रकाशित हुआ। अब हर सोमवार को उनका लेख पढ़ने को मिलेगा। शायद यह भी यह सीरियल की मार्केटिंग रणनीति का हिस्सा है। अखबारों को भी आईबॉल्स जमा करने के लिए के लिए टीवी स्टार चाहिए।

Thursday, May 3, 2012

हाईस्पीड रेलगाड़ियाँ यानी तेज रफ्तार शहरीकरण




शहरीकरण समस्या है या समस्याओं का समाधान है? पहली बात यह कि आर्थिक गतिविधियों के केन्द्र शहर हैं, गाँव नहीं हैं। दूसरे खेती में क्रांति के लिए भी औद्योगिक क्रांति की ज़रूरत है। खेती में विकास दर बढ़ भी जाए, पर गाँवों के विकास का रास्ता दिखाई नहीं पड़ता। गाँवों से शहर आए लोग तमाम दिक्कतों से जूझने के बावजूद गाँव वापस नहीं जाना चाहते। पर शहरीकरण विषमता और तमाम समस्याएं लेकर आता है। हमें मानवीय चेहरे वाले शहरीकरण की ज़रूरत है, जो प्रदूषण मुक्त हो और जहाँ गरीबों को सम्मान और सुख से जीने के साधन मुहैया हों। 

Friday, April 27, 2012

वैचारिक भँवर में फँसी कांग्रेस



हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून
पिछले कुछ समय से कांग्रेस के भीतर विचार-विमर्श का सिलसिला चल रहा है। पिछले दिनों हुए विधान सभा चुनाव में कांग्रेस को उम्मीद से कम सीटें मिलीं, खासतौर से उत्तर प्रदेश और पंजाब में। अगले साल हिमाचल, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, मेघालय, त्रिपुरा, नगालैंड और मिजोरम विधान सभाओं के चुनाव हैं। घटनाक्रम तेजी से बदल रहा है। तमाम राजनीतिक शक्तियाँ बदलते हालात में अपने लिए जगह खोज रहीं हैं।

Friday, April 20, 2012

क्षेत्रीय क्षत्रपों का राष्ट्रीयकरण

ऐसे चित्र आपको कई बार दिखाई पड़ेंगे, सिर्फ चेहरे बदलते रहेंगे

म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन ऑफ दिल्ली के हाल में हुए चुनाव में कांग्रेस की पराजय हुई। इसे बीजेपी की जीत भी कह सकते हैं। बीजेपी के खिलाफ एंटी इनकम्बैंसी फैक्टर जितना महत्वपूर्ण हो सकता था, नहीं हुआ। पर क्या नगरपालिका चुनाव को महत्व देना चाहिए? क्या उसका कोई राष्ट्रीय महत्व है? पालिका चुनाव में तो मुद्दे ही कुछ और होते हैं। दिल्ली के पहले मुम्बई नगर निगम के चुनाव में भी कांग्रेस की पराजय हो चुकी है।

Sunday, April 15, 2012

भारत-पाक रिश्तों की गर्मी-नर्मी

अब से दो साल पहले इन्हीं दिनों कश्मीर में माहौल काफी खराब हो गया था। एक तरफ जम्मू के इलाके में आंदोलन था तो दूसरी ओर मई-जून में श्रीनगर की घाटी में अचानक तनाव बढ़ गया। अलगाववादियों ने छोटे बच्चों को इस्तेमाल करना शुरू किया। सुरक्षा दस्तों पर पत्थर फेंकने की नई मुहिम शुरू हो गई। उमर अब्दुल्ला की अपेक्षाकृत नई सरकार के सामने परेशानियाँ खड़ी हो गईं। उस मौके पर भारत सरकार ने तीन वार्ताकारों की एक टीम को कश्मीर भेजा। बातचीत को व्यावहारिक बनाने के लिए इस टीम को अनौपचारिक तरीके से हरेक पक्ष से बातचीत करने की सलाह दी गई। इसके बाद एक सर्वदलीय टीम भी श्रीनगर गई, जिसने हुर्रियत से जुड़े नेताओं से भी बात की। हालांकि कश्मीर में खड़ा किया गया बवाल अपने आप धीमा पड़ गया, क्योंकि बच्चों की पढ़ाई का हर्जा हो रहा था और हासिल कुछ हो नहीं रहा था। भारत सरकार के तीनों वार्ताकारों का काम चलता रहा। इस दौरान तीनों के बीच के मतभेद भी उजागर हुए। बहरहाल पिछले साल अक्टूबर में इस दल ने अपनी रपट गृहमंत्री को सौंप दी, जो अब जारी हो रही है।

वार्ताकारों की सिफारिशों से ज्यादा महत्वपूर्ण है इस रपट के जारी होने का समय। पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी को अचानक अजमेर शरीफ यात्रा का विचार क्यों आया? और क्या इस यात्रा से कुछ भी हासिल नहीं हुआ? यह निजी यात्रा थी इस सिलसिले में कोई औपचारिक वक्तव्य जारी नहीं होना था और नीतिगत सवाल इससे जुड़े भी नहीं थे। पर प्रधानमंत्री ने दोनों देशों के रिश्तों में आ रहे बदलाव का संकेत अपने वक्तव्य में दिया। साथ ही उन्होंने हफीज सईद का मामला भी उठाया। दूसरी ओर विदेश सचिव रंजन मथाई ने स्पष्ट किया कि कश्मीर सहित सभी सवालों पर दोनों देशों के बीच बातचीत होगी। पिछले हफ्ते पाकिस्तानी प्रधानमंत्री युसुफ रज़ा गिलानी ने कहा कि भारत के साथ बातचीत को एक नई टीम आगे बढ़ाएगी। इस बयान से कुछ लोगों ने अनुमान लगाया कि शायद विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार का पत्ता कटने वाला है, पर ऐसा नहीं है।

कोई तो है मुद्दों को भटकाने वाला

राजनीतिक सवाल जब देश की रक्षा जैसे संजीदा मामलों पर हावी होने लगे हैं। यह गम्भीर चिंता का मामला है। 16 जनवरी की रात आगरा और हिसार से फौज की दो टुकड़ियों के दिल्ली की मूवमेंट की खबर दिल्ली के एक अखबार ने जिस तरह छापी है उससे कई तरह की चिंताएं एक साथ उजागर होती हैं। पहली चिंता यह है कि सुरक्षा से जुड़े मामलों पर जिस तरह से सार्वजनिक रूप से अब चर्चा हो रही है उसमें व्यक्तिगत मामलों को सार्वजनिक मामलों से जोडा जा रहा है। सेनाध्यक्ष के विरोधी उन्हें टार्गेट करने की कोशिश में तकरीबन वैसी ही हरकतें कर रहे हैं जैसी पिछले साल अन्ना हजारे के सहयोगियों के साथ हुईं थीं। कहना मुश्किल है कि कौन कहाँ पर दोषी है, पर संदेश यह जा रहा है कि एक ईमानदार जनरल जब रक्षा प्रतिष्ठान के भीतर पारदर्शी व्यवस्था कायम करना चाहता है तब स्वार्थी तत्व अनावश्यक वितंडे खड़े कर रहे हैं। हमारे फौजी प्रतिष्ठान की विसंगतियों को लेकर पाकिस्तान और चीन में जो प्रतिक्रिया होगी उसके बारे में भी सोचें।

सवाल सुरक्षा का नहीं व्यवस्था का है

हाल में स्टॉकहोम के पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) की रपट में बताया गया कि सन 2007 से 2010 के बीच दुनिया में सबसे ज्यादा हथियारों का आयात भारत ने किया। इसका मतलब निकालने के पहले हमें यह देखना चाहिए कि क्या इस बात का सेनाध्यक्ष वीके सिंह और सरकार के विवाद से भी कोई सम्बन्ध है? जनरल वीके सिंह ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा है। उस पत्र के लीक वगैरह की बातों को छोड़कर उसमें कही गई बातों पर गौर करें तो पता लगेगा कि सेना के पास तमाम उपकरणों की कमी है। इनमें से ज्यादातर उपकरणों की खरीद दूसरे देशों से होगी। यानी हमें और ज्यादा हथियारों का आयात करना होगा।

गरीबी का पेचीदा अर्थशास्त्र

गरीबी का अर्थशास्त्र बेहद जटिल और अनेकार्थी है। आँकड़ों का सहारा लेकर आप कई तरह के निष्कर्ष निकाल सकते हैं। योजना आयोग की एक रपट में बताया गया है कि सन 2004-05 के मुकाबले सन 2009-10 में भारत में गरीबों की संख्या 37.2 फीसदी से घटकर 29.8 फीसदी रह गई है। यानी पाँच साल में गरीबों की संख्या 40.7 करोड़ से घटकर 35.5 करोड़ हो गई। यह सब सैम्पल सर्वे के आधार पर कहा गया है, जिनकी विश्वसनीयता को लेकर हमेशा सवाल उठाए जा सकते हैं। पर इसे या इस ट्रेंड को सच मान लें तब भी इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि गरीबी घट रही है। मसलन जिस रोज हम योजना आयोग की रपट के बारे में खबर पढ़ रहे थे उसी रोज यह खबर भी हमारे सामने थी कि खाद्य सामग्रियों की कीमतों में दस फीसदी के इज़ाफे से तकरीबन तीन करोड़ लोग गरीबी के सागर में डूब जाएंगे। घरीबी एक चीज़ है नितांत गरीबी दूसरी चीज़ और असमानता तीसरी चीज़। अक्सर हम इन सब को एक साथ जोड़ लेते हैं।

यूपीए का इंजन फेल


लोकलुभावन राजनीति की खराबी है कि उसे लम्बा नहीं चलाया जा सकता। दो रुपए किलो गेहूँ दिया भी जा सकता है, किसानों को मुफ्त पानी, बिजली दी जा सकती है, मुफ्त में साइकिलें दी जा सकती हैं, पर यह हमेशा नहीं चलता। इस बार के रेलवे बजट में इस लोकलुभावन नीति पर केन्द्र सरकार ब्रेक लगाने में कामयाब हुई तो शाम होते-होते एक नया राजनीतिक संकट खड़ा हो गया। पिछले साल तीस्ता के पानी को लेकर बांग्लादेश के साथ समझौता नहीं हो सका, क्योंकि ममता बनर्जी की कुछ आपत्तियाँ थीं। भूमि अधिग्रहण कानून रुका पड़ा है, रिटेल में विदेशी निवेश का फैसला रोक दिया गया है, लोकपाल विधेयक पर राज्यसभा में संशोधनों की बौछार हो गई, नेशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर पर अड़ंगा लग गया है। सन 1989 के बाद से भारत में केन्द्र सरकार चलाना मुश्किल काम हो गया है। देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक अंतर्विरोधों का इतना जटिल रूप हो सकता है इसके बारे में संविधान निर्माताओं ने सोचा नहीं होगा। यूपीए-1 ने हालांकि पाँच साल पूरे किए, पर न्यूक्लियर बिल पर जिस तरह से राजनीतिक वितंडा हुआ उसकी कल्पना नहीं की गई थी। और अब जो हो रहा है वह आने वाले वक्त की भयावह तस्वीर पेश कर रहा है।

Friday, March 2, 2012

कुदानकुलम में नादानियाँ

हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की दो बुनियादी बातें थीं। पहली थी स्वतंत्रता और दूसरी आत्म निर्भरता। स्वतंत्रता का मतलब अंग्रेजों की जगह भारतीय साहबों को बैठाना भर नहीं था। स्वतंत्रता का मतलब है विचार-अभिव्यक्ति, आस्था, आने-जाने, रहने, सभाएं करने वगैरह की आज़ादी। इसमें लोकतांत्रिक तरीके से प्रतिरोध की स्वतंत्रता बेहद महत्वपूर्ण है। सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास तब तक सम्भव नहीं जब तक नागरिक को प्रतिरोधी स्वर व्यक्त करने की आज़ादी न हो। हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों को जिस तरह कानूनी संरक्षण दिया गया है वह विलक्षण है, पर व्यवहार में वह बात दिखाई नहीं पड़ती। 1947 से आज तक यह सवाल बार-बार उठता है कि जनांदोलनों के साथ हमारी व्यवस्था और पुलिस जिस तरह का व्यवहार करती है क्या वह अंग्रेजी सरकारों के तरीके से अलग है?

सुप्रीम कोर्ट ने रामलीला मैदान पर बाबा रामदेव के अनुयायियों पर हुए लाठी चार्ज की निन्दा करके और दिल्ली पुलिस पर जुर्माना लगाकर इस बात को रेखांकित किया है कि शांतिपूर्ण प्रतिरोध लोकतंत्र का बुनियादी अधिकार है। उसके साथ छेड़खानी नहीं होनी चाहिए। संविधान में मौलिक अधिकारों पर युक्तियुक्त प्रतिबंध भी हैं, पर धारा 144 जैसे अधिकार सरकारों को खास मौकों पर निरंकुश होने का मौका देते हैं। रामलीला मैदान में सोते व्यक्तियों पर लाठी चार्ज बेहद अमानवीय और अलोकतांत्रिक था, इसे अदालत ने स्वीकार किया है। यह आंदोलन किस हद तक शांतिपूर्ण था या उसकी माँगें कितनी उचित थीं, यह विचार का अलग विषय है। शांतिपूर्ण आंदोलन की भी मर्यादाएं हैं। आंदोलन के अराजक और हिंसक होने का समर्थन नहीं किया जा सकता, पर सरकारी मशीनरी की अराजकता तो और भी भयावह है।

Friday, February 17, 2012

पश्चिम एशिया के क्रॉस फायर में भारत

बुधवार को ईरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेज़ाद ने तेहरान के रिसर्च रिएक्टर में अपने बनाए नाभिकीय ईंधन के रॉड्स के इस्तेमाल की शुरूआत करके अमेरिका और इस्रायल को एक साथ चुनौती दी है। इस्रायल कह रहा है कि पानी सिर से ऊपर जा रहा है अब कोई कड़ी कारवाई करनी होगी। ईरान ने नाभिकीय अप्रसार संधि पर दस्तखत कर रखे हैं। उसका कहना है एटम बम बनाने का हमारा इरादा नहीं है, पर ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए हमारे एटमी कार्यक्रमों को रोका नहीं जा सकता। इसके साथ ही खबरें मिल रही हैं कि दिल्ली में इस्रायली दूतावास की कार पर हुए हमले का सम्बन्ध बैंकॉक की घटनाओं से जोड़ा जा सकता है।

दिल्ली में इस्रायली दूतावास की गाड़ी में हुआ विस्फोट क्या किसी बड़े वैश्विक महाविस्फोट की भूमिका है? क्या भारतीय विदेश नीति का चक्का पश्चिम एशिया की दलदल में जाकर फँस गया है? एक साथ कई देशों को साधने की हमारी नीति में कोई बुनियादी खोट है? इसके साथ यह सवाल भी है कि हमारी सुरक्षा व्यवस्था इतनी लचर क्यों है? दिल्ली के सबसे संवेदनशील इलाके में इस्रायल जैसे देश की अरक्षित कार को निशाना बनाने में सफल होना हमारी विफलता को बताता है। चिन्ता की बात यह भी है कि प्रधानमंत्री निवास काफी करीब था।

Saturday, February 11, 2012

लोकतांत्रिक राह में असम्भव कुछ भी नहीं

अपनी चुनाव प्रक्रिया को देखें तो आशा और निराशा दोनों के दर्शन होते हैं। पिछले 60 साल के अनुभव ने इस काम को काफी सुधारा है। दो दशक पहले बूथ कैप्चरिंग चुनाव का महत्वपूर्ण हिस्सा थी। चुनाव आयोग की मुस्तैदी से वह काफी कम हो गई। वोटर आईडी और ईवीएम ने भी इसमें भूमिका निभाई। गो कि इन दोनों को लेकर शिकायतें हैं। प्रचार का शोर कम हुआ है। पैसे के इस्तेमाल की मॉनीटरिंग सख्त हुई है। पार्टियों को अपराधियों से बगलगीर होने में गुरेज़ नहीं, पर जनता ने उन्हें हराना शुरू कर दिया है, जिनकी छवि ज्यादा खराब है। मतलब यह भी नहीं कि बाहुबलियों की भूमिका कम हो गई। केवल एक प्रतीकात्मक संकेत है कि जनता को यह पसंद नहीं।

प्रत्याशियों के हलफनामों का विश्लेषण करके इलेक्शन वॉच अपनी वैबसाइट पर रख देता है, जिसका इस्तेमाल मीडिया अपने ढंग से करता है। प्रत्याशियों की आय के विवरण उपलब्ध हैं। अब यह तुलना सम्भव है कि पिछले चुनाव से इस चुनाव के बीच प्रत्याशी के आय-विवरण में किस प्रकार की विसंगति है। जन प्रतिनिधि की शिक्षा से लोकतंत्र का बहुत गहरा नाता नहीं है। व्यक्ति को समझदार और जनता से जुड़ाव रखने वाला होना चाहिए। काफी पढ़े-लिखे लोग भी जन-विरोधी हो सकते हैं। कानूनों का उल्लंघन और अपराध को बचाने की शिक्षा भी इसी व्यवस्था से मिलती है। बहरहाल प्रत्याशियों से इतनी अपेक्षा रखनी चाहिए कि वह मंत्री बने तो अपनी शपथ का कागज खुद पढ़ सके और सरकारी अफसर उसके सामने फाइल रखें तो उस पर दस्तखत करने के पहले उसे पढ़कर समझ सके।

Friday, February 3, 2012

बढ़ता मतदान माने क्या?

पाँच राज्यों के चुनाव की प्रक्रिया में तीन राज्यों में मतदान का काम पूरा हो चुका है। अच्छी खबर यह है कि तीनों जगह मतदान का प्रतिशत बढ़ा है। यह सच है कि मणिपुर में परम्परा से अच्छा मतदान होता रहा है, पर इन दिनों यह प्रदेश जातीय हिंसा और लम्बे ब्लॉकेड के बाद मतदान कर रहा था। इसी तरह उत्तराखंड में मौसम का खतरा था। उम्मीद है कि उत्तर प्रदेश और गोवा में भी बेहतर मतदान होगा। इस बेहतर मतदान का मतलब क्या निकाला जाए? सामान्यतः हम मानते हैं कि ज्यादा वोट या तो समर्थन में पड़ता है या विरोध में। यानी जनता निश्चय की भूमिका में आती है। हमारी चुनाव प्रक्रिया में पाँच साल बाद एक मौका मिलता है जब जनता अपनी राय रखती है। वह राय भी समर्थन या विरोध के रूप में कभी-कभार व्यक्त होती है। वर्ना आमतौर पर बिचौलियों की मदद से पार्टियाँ वोट बटोरती हैं। पूरे परिवार और अक्सर पूरे मोहल्ले का वोट एक प्रत्याशी को जाता रहा है। जाति और धर्म भी चुनाव जीतने के बेहतर रास्ते हो सकते हैं, यह पिछले तीन दशक में देखने को मिला। और यह प्रवृत्ति खत्म नहीं हो रही, बल्कि बढ़ रही है।

Friday, January 20, 2012

नए गठबंधनों को जन्म देगा उत्तर प्रदेश


पिछले साल का राजनीतिक समापन राज्यसभा में लोकपाल बिल को लेकर पैदा हुए गतिरोध के साथ हुआ था। वह गतिरोध जारी है। यूपीए के महत्वपूर्ण सहयोगी तृणमूल कांग्रेस के साथ शुरू हुआ टकराव अनायास नहीं था। और यह टकराव लगातार बढ़ रहा है। आने वाले वक्त की राजनीति और नए बनते-बिगड़ते समीकरणों की आहट सुनाई पड़ने लगी थी। पाँच राज्यों के चुनाव के शोर में ये आहटें नेपथ्य में चली गईं है। पर लगता है कि इस साल राष्ट्रीय राजनीति में कुछ बड़े फेरबदल होंगे, जो 2014 के लोकसभा चुनाव में उतरने वाले गठबंधनों को नई शक्ल देंगे।

इस साल राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव होंगे, उसके बाद जून में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होना है। भाजपा अध्यक्ष पद पर नितिन गडकरी का कार्यकाल भी इस साल के अंत में पूरा हो जाएगा। और यदि कांग्रेस लोकसभा चुनाव में किसी नए नेतृत्व के साथ उतरना चाहती है तो शायद प्रधानमंत्री पद पर बदलाव भी हो। इन सारे बदलावों का एक-दूसरे से कोई रिश्ता नहीं, पर इनका मिला-जुला असर देश की राजनीति और व्यवस्था पर पड़े बगैर नहीं रहेगा।

Friday, January 13, 2012

कसौटी पर पाकिस्तानी लोकतंत्र

इस वक्त भारत के पाँच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं और हैं और हम अपने लोकतंत्र के गुण-दोषों को लेकर विमर्श कर रहे हैं, पड़ोसी देश पाकिस्तान से आ रही खबरें हमें इस बातचीत को और व्यापक बनाने को प्रेरित करती हैं। भारत और पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति एक नज़र में एक-दूसरे को प्रभावित करती नज़र नहीं आती, पर व्यापक फलक पर असर डालती है। मसलन भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सामान्य हो जाएं तो पाकिस्तान की राजनीतिक संरचना बदल जाएगी। वहाँ की सेना की भूमिका बदल जाएगी। इसी तरह भारत में ‘राष्ट्रवादी’ राजनीति का रूप बदल जाएगा। रिश्ते बिगड़ें या बनें दोनों देशों के नागरिक एक-दूसरे में गहरी दिलचस्पी रखते हैं। इसीलिए पिछले साल अगस्त में अन्ना हजारे के अनशन के बाद पाकिस्तान में भी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की हवाएं चलने लगी थीं। भारत की तरह पाकिस्तान में भी सबसे बड़ा मसला भ्रष्टाचार का है। पाकिस्तान में लोकतांत्रिक संस्थाएं मुकाबले भारत के अपेक्षाकृत कमज़ोर हैं और देर से विकसित हो रहीं हैं, पर वहाँ लोकतांत्रिक कामना और जन-भावना नहीं है, ऐसा नहीं मानना चाहिए। हमारे मीडिया में इन दिनों अपने लोकतंत्र का तमाशा इस कदर हावी है कि हम पाकिस्तान की तरफ ध्यान नहीं दे पाए हैं।

Thursday, January 12, 2012

बैकरूम पॉलिटिक्स का जवाब है जागरूक वोटिंग

उत्तर प्रदेश के चुनाव का माहौल पिछले छह महीने से बना हुआ है। एक ओर सरकार की घोषणाएं तो दूसरी ओर मंत्रियों की कतार का बाहर होना। सन 2007 के चुनाव के ठीक पहले का माहौल इतना सरगर्म नहीं था। हाँ इतना समझ में आता था कि मुलायम सरकार गई और मायावती की सरकार आई। मुलायम सरकार के पतन का सबसे बड़ा कारण यह माना जाता है कि प्रदेश में आपराधिक तत्वों का बोलबाला था। तब क्या जनता ने अपराध के खिलाफ वोट दिया था?
यह बात शहरों या गाँवों में भी कुछ उन लोगों पर शायद लागू होती हो, जो मसलों और मुद्दों पर वोट देते हैं। पर सच यह है कि उस चुनाव में समाजवादी पार्टी का वोट प्रतिशत बढ़ा था। सन 2002 के 25.37 से बढ़कर वह 2007 में 25.43 प्रतिशत हो गया था। फिर भी सीटों की संख्या 143 से घटकर 97 रह गई। वह न तो मुलायम सिंह की हार थी और न गुंडागर्दी की पराजय। वह सीधे-सीधे चुनाव की सोशल इंजीनियरिंग थी।

Friday, December 30, 2011

मुआ स्वांग खूब रहा

कानून सड़क पर नहीं संसद में बनते हैं। शक्तिशाली लोकपाल विधेयक सर्वसम्मति से पास होगा। देश की संवैधानिक शक्तियों को काम करने दीजिए। राजनीति को बदनाम करने की कोशिशें सफल नहीं होंगी। इस किस्म के तमाम वक्तव्यों के बाद गुरुवार की रात संसद का शीतकालीन सत्र भी समाप्त हो गया। कौन जाने कल क्या होगा, पर हमारा राजनीतिक व्यवस्थापन लोकपाल विधेयक को पास कराने में कामयाब नहीं हो पाया। दूसरी ओर अन्ना मंडली की हवा भी निकल गई। इस ड्रामे के बाद आसानी से कहा जा सकता है कि देश की राजनीतिक शक्तियाँ ऐसा कानून नहीं चाहतीं। और उनपर जनता का दबाव उतना नहीं है जितना ऐसे कानूनों को बनाने के लिए ज़रूरी है। 

लोकपाल बिल को लेकर चले आंदोलन और मुख्यधारा की राजनीति के विवाद और संवाद को भी समझने की जरूरत है। आमतौर पर हम या तो आंदोलन के समर्थक या विरोधी के रूप में सोचते हैं। सामान्य नागरिक यह देखता है कि इसमें मैं कहाँ हूँ। लोकपाल कानून को लेकर संसद में चली बहस से दो-एक बातें उजागर हुईं। सरकार, विपक्ष, अन्ना-मंडली और जनता सभी का रुख इसे लेकर एक सा नहीं है। पर सामान्य विचार बनाने का तरीका भी दूसरा नहीं है। इसके लिए कई प्रकार टकराहटों का इंतजार करना पड़ता है। लोकपाल विधेयक पर चर्चा के दौरान लोकसभा में वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का वक्तव्य बहुत महत्वपूर्ण था। पता नहीं किसी ने उस पर ध्यान दिया या नहीं। उनका आशय था कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं विकसित होती हैं। हम इस विधेयक को पास हो जाने दें और भविष्य में उसकी भूमिका को सार्थक बनाएं।

Friday, December 23, 2011

कांग्रेस की इस युद्ध घोषणा में कितना दम है?

कांग्रेस का मुकाबला अन्ना हजारे से नहीं भाजपा और वाम मोर्चे से है। उसका तात्कालिक एजेंडा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में सफलता हासिल करना है। उम्मीद थी कि संसद के इस सत्र में कांग्रेस कुछ विधेयकों के मार्फत अपने नए कार्यक्रमों की घोषणा करेगी। पिछले साल घोटालों की आँधी में सोनिया गांधी ने बुराड़ी सम्मेलन के दौरान पार्टी को पाँच सूत्री प्रस्ताव दिया था, पर अन्ना-आंदोलन के दौरान वह पीछे रह गया। सोनिया गांधी अचानक युद्ध मुद्रा में नजर आ रहीं हैं।  क्या कांग्रेस इन तीखे तेवरों पर कायम रह सकेगी?

पिछले साल 19 दिसम्बर को सोनिया गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं से भ्रष्टाचार के खिलाफ एकताबद्ध होने का आह्वान किया था। कांग्रेस महासमिति के बुराड़ी सम्मेलन में सोनिया गांधी ने जो पाँच सूत्र दिए थे, उनकी चर्चा इस साल शुरू के महीनों में सुनाई पड़ी, पर धीरे-धीरे गुम हो गई। अन्ना हजारे के आंदोलन के शोर में यह आवाज़ दबती चली गई। पिछले साल इन्हीं दिनों टूजी मामले में जेपीसी को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष में टकराव चल रहा था। कांग्रेस को उस मामले में विपक्ष के साथ समझौता करना पड़ा। धीरे-धीरे पार्टी रक्षात्मक मुद्रा में उतर आई। बुधवार को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में सोनिया गांधी ने लोकपाल को लेकर अपने तेवर तीखे किए हैं। बीमारी से वापस लौटीं सोनिया गांधी का यह पहला महत्वपूर्ण राजनीतिक वक्तव्य है।

Friday, December 16, 2011

बहुत हुई बैठकें, अब कानून बनाइए

सरकार पहले कहती है कि हमें समय दीजिए। अन्ना के अनशन की घोषणा के बाद जानकारी मिलती है कि शायद मंगलवार को विधेयक आ जाएगा। शायद सदन का कार्यकाल भी बढ़ेगा। यह सब अनिश्चय की निशानी है। सरकार को  पहले अपनी धारणा को साफ करना चाहिए। 

लोकपाल पर यह पहली सर्वदलीय बैठक नहीं थी। इसके पहले 3 जुलाई को भी एक बैठक हो चुकी थी जब संयुक्त ड्राफ्टिंग समिति की बैठकों के बाद सरकार ने अपना मन लगभग बना लिया था। अगस्त के अंतिम सप्ताह में संसद की इच्छा पर चर्चा हुई तब भी प्रायः सभी दलों की राय सामने आ गई थी। बुधवार की बैठक में पार्टियों के रुख में कोई बड़ा बदलाव नहीं था। बहरहाल 1968 से अब तक के समय को जोड़ें तो देश की संसदीय राजनीति के इतिहास में किसी भी कानून पर इतना लम्बा विचार-विमर्श नहीं हुआ होगा। यह अच्छी बात है और खराब भी। खराब इसलिए कि केवल इस कानून के कारण देश का, मीडिया का और संसद का काफी समय इस मामले पर खर्च हो रहा है जबकि दूसरे मामले भी सामने खड़े हैं। अर्थ-व्यवस्था संकट में है, औद्योगिक उत्पादन गिर रहा है, यूरो और डॉलर के झगड़े में रुपया कमजोर होता जा रहा है। जनता को महंगाई और बेरोजगारी सता रही है। ऐसे में पार्टियाँ सत्ता की राजनीति के फेर में फैसले पर नहीं पहुँच पा रहीं हैं।

Sunday, December 11, 2011

सरकार बनाम सरकार !!!


लड़ाई राजनीति में होनी चाहिए सरकारों में नहीं
नवम्बर के आखिरी हफ्ते में लखनऊ में हुई एक रैली में मायावती ने आरोप लगाया कि हमने केन्द्र सरकार से 80,000 करोड़ रुपए की सहायता माँगी थी, पर हमें मिला कुछ नहीं। यही नहीं संवैधानिक व्यवस्थाओं के तहत जो कुछ मिलना चाहिए वह भी नहीं मिला। संघ सरकार पर राज्य सरकार का करोड़ों रुपया बकाया है। इस तरह केन्द्र सरकार उत्तर प्रदेश के विकास को बंधक बना रही है। कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में अपनी खस्ता हालत को देखकर इस कदर डरी हुई है कि उसके महासचिव राहुल गांधी दिल्ली में सारे काम छोड़कर उत्तर प्रदेश में ‘नाटकबाजी’ कर रहे हैं।

उधर राहुल गांधी ने बाराबंकी की एक रैली में कहा कि लखनऊ में एक हाथी विकास योजनाओं का पैसा खा रहा है। पिछले बीस साल से उत्तर प्रदेश में कोई काम नहीं हुआ है। देश आगे जा रहा है और उत्तर प्रदेश पीछे। राहुल गांधी का कहना है कि मनरेगा और शिक्षा से जुड़ी जो रकम उत्तर प्रदेश को मिली उसका दुरुपयोग हुआ। दो साल पहले संसद में पूछे गए एक सवाल में बताया गया था कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में सबसे ज्यादा शिकायतें उत्तर प्रदेश से मिली हैं। हाल में केन्द्रीय रोजगार गारंटी परिषद के सदस्य संदीप दीक्षित ने कहा कि प्रदेश में मनरेगा के तहत 10,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का घोटाला है। हाल में केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने भी इसी किस्म के आरोप लगाए और इसकी सीबीआई जाँच की माँग भी की। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने इस घोटाले को लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय पर सीधे आरोप लगाए हैं। उत्तर प्रदेश में ग्रामीण स्वास्थ्य योजना के घोटालों को लेकर सीएजी की कोई रपट भी जल्द आने वाली है। प्रदेश में तीन वरिष्ठ डॉक्टरों की हत्या के बाद से उत्तर प्रदेश की ग्रामीण स्वास्थ्य योजना को लेकर कांग्रेस पार्टी लगातार आलोचना कर रही है।