Saturday, February 11, 2012

लोकतांत्रिक राह में असम्भव कुछ भी नहीं

अपनी चुनाव प्रक्रिया को देखें तो आशा और निराशा दोनों के दर्शन होते हैं। पिछले 60 साल के अनुभव ने इस काम को काफी सुधारा है। दो दशक पहले बूथ कैप्चरिंग चुनाव का महत्वपूर्ण हिस्सा थी। चुनाव आयोग की मुस्तैदी से वह काफी कम हो गई। वोटर आईडी और ईवीएम ने भी इसमें भूमिका निभाई। गो कि इन दोनों को लेकर शिकायतें हैं। प्रचार का शोर कम हुआ है। पैसे के इस्तेमाल की मॉनीटरिंग सख्त हुई है। पार्टियों को अपराधियों से बगलगीर होने में गुरेज़ नहीं, पर जनता ने उन्हें हराना शुरू कर दिया है, जिनकी छवि ज्यादा खराब है। मतलब यह भी नहीं कि बाहुबलियों की भूमिका कम हो गई। केवल एक प्रतीकात्मक संकेत है कि जनता को यह पसंद नहीं।

प्रत्याशियों के हलफनामों का विश्लेषण करके इलेक्शन वॉच अपनी वैबसाइट पर रख देता है, जिसका इस्तेमाल मीडिया अपने ढंग से करता है। प्रत्याशियों की आय के विवरण उपलब्ध हैं। अब यह तुलना सम्भव है कि पिछले चुनाव से इस चुनाव के बीच प्रत्याशी के आय-विवरण में किस प्रकार की विसंगति है। जन प्रतिनिधि की शिक्षा से लोकतंत्र का बहुत गहरा नाता नहीं है। व्यक्ति को समझदार और जनता से जुड़ाव रखने वाला होना चाहिए। काफी पढ़े-लिखे लोग भी जन-विरोधी हो सकते हैं। कानूनों का उल्लंघन और अपराध को बचाने की शिक्षा भी इसी व्यवस्था से मिलती है। बहरहाल प्रत्याशियों से इतनी अपेक्षा रखनी चाहिए कि वह मंत्री बने तो अपनी शपथ का कागज खुद पढ़ सके और सरकारी अफसर उसके सामने फाइल रखें तो उस पर दस्तखत करने के पहले उसे पढ़कर समझ सके।


प्रत्याशियों के हलफनामों के आधार पर दागी प्रत्याशियों की सूची मीडिया देता है। इन दागी प्रत्याशियों में संगीन अपराधों से जुड़े लोगों की संख्या में गिरावट आनी चाहिए। सार्वजनिक जीवन में झूठे आरोपों का खतरा हमेशा रहता है। न्याय-व्यवस्था भी धीमी है। बहरहाल काफी वोटर इसे समझते हैं, पर जो नहीं समझते उनके लिए यह महत्वपूर्ण बात नहीं।

पाँच राज्यों में चल रहे चुनाव के इस दौर में प्रचार की पद्धति पर गौर करें तो एक बात और नज़र आती है कि सभी पार्टियाँ भावनात्मक सवालों पर चुनाव लड़ रही हैं। कांग्रेस और बीजेपी के विज़न स्टेटमेंट या चुनाव घोषणापत्र क्या हैं? इन पार्टियों की वैबसाइट पर भी इन्हें खोजना मुश्किल है। पार्टियों के अपने कार्यकर्ता इन्हें पढ़ना नहीं चाहते। मीडियाकर्मी भी इनके आधार पर विश्लेषण नहीं करते। सब मानते हैं कि ये रद्दी कागज़ हैं। पूरे उत्तर प्रदेश में हर इलाके के अपने मुद्दे भी होंगे। पानी, बिजली, सड़क वगैरह से हटकर मुद्दे भी होंगे। हाल में जमीन के अधिग्रहण को लेकर एक मुद्दा बना है, पर वह भी राजनीति और प्रशासन की भूल-भुलैया में खो गया है। प्रचार के शोर में मुद्दे सैकड़ों हैं, पर आपके काम का मुद्दा कोई नहीं। वोटर को पार्टियाँ भावना के जाल में फँसाती हैं। और उसके सवालों से भागती हैं। कुछ दिन पहले तक अन्ना आंदोलन के दौरान जनता उद्वेलित थी। आज वह भ्रमित है।

क्या यह ऐसा ही रहेगा? हर बार छल-बल के सहारे राजनीतिक दल वोटर के हाथ से वोट छीन ले जाएंगे, जैसे बंदर हाथ की रोटी ले जाता है और फिर किसी छत की मुंडेर पर बैठकर खाता है? लोकतांत्रिक इतिहास में साठ साल बहुत ज्यादा नहीं होते। पर कई बार एक साल ही बहुत बड़ा साबित होता है। जैसे पिछला साल, जिसने भले ही दिया कुछ न हो, पर व्यवस्था को झकझोर दिया। इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स सहित अनेक संगठन इन दिनों वोटर को जगाने के काम में लगे हैं। इस बात की कोशिश भी हो रही है कि वोटर अपने अधिकार का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करें। पर यह सिर्फ कर्मकांड नहीं है।

केवल वोट डालना कोई काम नहीं। काम उसके बाद शुरू होता है। वोट उस मशीनरी की स्थापना का पहला कदम है, जिसे देश-प्रदेश के कार्यों को संचालित करना है। इसकी शुरूआत पारदर्शिता से होनी चाहिए। चूंकि तमाम बातों के मूल में पैसा है इसलिए राजनीति को बताना चाहिए कि उसके पास पैसा कहाँ से आता है और कहाँ जाता है। जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत पार्टियों को चन्दा लेने का अधिकार है और आयकर कानून के अनुसार इस चन्दे पर आयकर से छूट है, फिर भी पार्टियाँ सफेद पैसे में चन्दा लेने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रखतीं। पिछले कुछ साल से पार्टियों ने आयकर विवरणी भरने का काम शुरू किया है। इस विवरणी से जनता को पता लगता है कि किस पार्टी की सालभर में कितनी आय है, उसे दान कौन देता है और 20,000 रुपए से ऊपर दान देने वाले कौन हैं। इसमें काफी घालमेल है। सन 2008-09 के विवरण उपलब्ध हैं, जिनसे धुँधली सी तस्वीर बनती है। यह तस्वीर साफ होनी चाहिए। बीस हजार के दानदाताओं से ज्यादा हमारी दिलचस्पी उनमें है जो करोड़ों के दानदाता हैं। इसके साथ ही पार्टियों के खातों की जाँच का काम सीएजी को दिया जाना चाहिए। आखिरकार ये पार्टियाँ राष्ट्रीय व्यवस्था का अंग हैं किसी व्यक्ति की जागीर नहीं। हालांकि व्यावहारिक रूप में देखें तो कुछ वामपंथी दलों को छोड़ दें तो ज्यादातर पार्टियाँ नेताओं की व्यक्तिगत सम्पत्ति जैसी लगती हैं।

चुनाव की हमारी व्यवस्था में ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ का सिद्धांत नाकाफी है। कुल मतदाताओं के दस फीसदी वोट पाने वाला व्यक्ति अक्सर चुनाव जीतता है और वह इसे जनादेश कहता है। ठीक है यही चुनाव पद्धति व्यावहारिक है, पर अब इस प्रकार के सुझाव आ रहे हैं कि कम से कम कुल पड़े वोटों के पचास फीसदी से एक वोट ज्यादा होने पर ही प्रत्याशी को विजेता घोषित किया जाए। ऐसा न होने पर पहले दो प्रत्याशियों के बीच फिर से चुनाव कराया जाए।

एक दूसरा सुझाव यह है कि ईवीएम में नन ऑफ द एबव (नोटा) ऑप्शन रखा जाए। यानी वोटर कह सकें कि हमें इनमें से किसी को नहीं चुनना। यदि ‘नोटा’ वोट पचास फीसदी से ज्यादा हों तो दुबारा चुनाव हों और पिछले प्रत्याशियों में से कोई भी उसमें शामिल न हो। एडीआर का सुझाव है कि प्रत्याशियों द्वारा अपने खर्च का विवरण देने के लिए मुकर्रर समय को 30 दिन से घटाकर 15 दिन किया जाए और प्रत्याशी के चुनाव को अदालत में चुनौती देने का समय कम किया जाए।

एडीआर के सुझावों में पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र को लेकर जो सुझाव हैं वे भी व्यवस्था को पारदर्शी बनाने की इच्छा से हैं। विधि आयोग का सुझाव है कि पार्टियों के आंतरिक चुनाव सीक्रेट बैलट के मार्फत हों। पाँच राज्यों के परिणाम आने दीजिए और देखिए कि मुख्यमंत्रियों का चयन किस तरीके से होता है। संसदीय सिद्धांत है कि बहुमत ग्रुप अपना नेता चुने, पर पार्टियों के फैसले हाईकमान करती हैं। गठबंधन के दौर में कई हाईकमानों के फैसले होते हैं। बेशक लोकतांत्रिक पद्धति में जबरन सुधार नहीं हो सकता, पर ऐसा क्यों मान लिया जाए कि समस्याओं के समाधान सम्भव नहीं। पार्टियों के नेतृत्व पर परिवारों का वर्चस्व यदि जनता को स्वीकार हो तो उसमें गलत कुछ नहीं, पर क्या वास्तव में जनता ऐसा चाहती है? या व्यवस्था के घालमेल से इसे लोकतांत्रिक मान लिया गया है? बहरहाल इसमें सुधार के रास्ते खोजने चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र की मूल भावना से ऐसी प्रवृत्तियों का मेल नहीं।

प्रशासन और राजनीति का सीधा रिश्ता है। हाल में खबरें आ रहीं हैं कि सरकार अधिकारियों की सेवा के दौरान दो बार समीक्षा की व्यवस्था करने जा रही है। एक बार पन्द्रह साल की सेवा अवधि के बाद और दूसरी बार 50 साल की उम्र पूरी होने पर। कहते हैं कि पक्की सरकारी नौकरी अकुशलता का बड़ा कारण है। ऐसी ही पक्केपन के नियम राजनीति के लिए भी हमने छोड़ रखे हैं। सुधार हर तरफ होने चाहिए। राजनीति और प्रशासन की जिम्मदारी है सरकार और जनता के बीच कीखाई को दूर करना। यह काम आज असम्भव लगता है, पर जनता जागरूक होगी तो असम्भव कुछ भी नहीं है।
जनवाणी में प्रकाशित


1 comment:

  1. प्रमोद सर, निश्चित रुप से चुनाव से बूथ कैप्चरिंग और झंडे बैनरों का शोर कम हुआ है। इस बार चुनाव कवर करने पंजाब गया था लेकिन कहीं भी पोस्टरबाजी उतने बड़े पैमाने पर नहीं दिखी, जितनी पहले हुआ करती थी। लेकिन इसकी जगह ले ली है, शराब और पैसे के जोर ने।

    ReplyDelete