Monday, February 15, 2021

अमेरिका के ‘मानवीय चेहरे’ की वापसी, भारत से सहयोग जारी रहेगा

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने गत 4 फरवरी को अपने विदेशमंत्री और विदेश विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों के बीच जो पहला बयान दिया है, उसे काफी लोग उनका विदेश-नीति वक्तव्य मान रहे हैं। एक मायने में वह है भी, क्योंकि उसमें उन्होंने अपनी विदेश-नीति की कुछ वरीयताओं का हवाला दिया है, पर इसे विस्तृत बयान नहीं माना जा सकता। करीब 20 मिनट के भाषण में ऐसा संभव भी नहीं है।

भारत के संदर्भ में पर्यवेक्षक कुछ बातों पर ध्यान दे रहे थे। डोनाल्ड ट्रंप ने 20 जनवरी, 2016 को शपथ लेने के बाद सबसे पहले जिन छह शासनाध्यक्षों से फोन पर बात की थी, उनमें भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल थे, पर जो बाइडेन ने उनसे बात करने में कुछ देरी की। अपने राजनयिकों के सामने उन्होंने जिन पहले नौ देशों के शासनाध्यक्षों से बातचीत का हवाला दिया था, उनमें भारत का नाम नहीं था। बहरहाल उन्होंने भारत का ध्यान रखा और सोमवार 8 फरवरी को प्रधानमंत्री मोदी के साथ भी उनकी फोन-वार्ता हो गई।

इस वार्ता के बारे में प्रधानमंत्री ने ट्वीट कर कहा, मैं और राष्ट्रपति जो बाइडेन दुनिया में नियम-कानून आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के पक्षधर हैं। हम हिन्द प्रशांत क्षेत्र में शांति एवं स्थिरता को बढ़ावा देने के लिए अपनी रणनीतिक साझेदारी को और मजबूत करने की ओर देख रहे हैं। उधर ह्वाइट हाउस की ओर से जारी बयान में भी दोनों देशों के आपसी सहयोग को बढ़ाने की बात कही गई है।

इसके पहले विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन, रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन तथा सुरक्षा सलाहकार जेक सुलीवन की भारत के क्रमशः विदेशमंत्री, रक्षामंत्री और रक्षा सलाहकार से फोन वार्ताएं हो चुकी थीं। उनकी मैत्री-कामना का संदेश भारत तक पहुँच चुका है। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि पाकिस्तान के साथ बाइडेन प्रशासन का इस किस्म का संवाद अभी तक नहीं हो पाया है। विदेशमंत्री ब्लिंकेन की एक शिकायती कॉल केवल पर्ल हत्याकांड के अभियुक्त की रिहाई के संदर्भ में गई है।

मित्र और प्रतिस्पर्धी

बाइडेन ने अपने वक्तव्य में कहा, ‘पिछले दो सप्ताह में मैंने अपने सबसे करीबी मित्रों से बात की।’ उन्होंने जिन देशों के नाम लिए वे हैं कनाडा, मैक्सिको, यूके, जर्मनी, फ्रांस, नेटो, जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया। ये देश अमेरिका के परंपरागत मित्र हैं और उसके साथ कई तरह की संधियों से जुड़े हैं। उन्होंने अपने कुछ प्रतिस्पर्धियों के नाम भी लिए। चीन का उल्लेख उन्होंने पाँच बार किया और उसे अमेरिका का ‘सबसे गंभीर प्रतिस्पर्धी’ बताया। रूस का नाम आठ बार लिया और उसे ‘अमेरिकी लोकतंत्र को नष्ट करने पर उतारू देश’ बताया। साथ ही उन्होंने कहा कि हम इन दोनों देशों के साथ मिलकर काम करना चाहेंगे।
भारत उनके लिए चुनौती नहीं है, बल्कि संभावनाओं वाला देश है। अफगानिस्तान में चुनौतियाँ हैं, जहाँ से मई के बाद सेना की वापसी हो या न हो, इसका फैसला उन्हें करना है। संभावना है कि सेनाओं की पूरी वापसी नहीं होगी। क्या तालिबान-समझौता लागू होगा? पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि शायद ही समझौता आगे बढ़े। पिछले साल हुए राष्ट्रपति के चुनाव में अशरफ ग़नी की विजय के बाद अमेरिका को उनके प्रशासन का समर्थन करना होगा। वहाँ तालिबान के साथ मिलकर सरकार बनने की संभावनाएं क्षीण हैं।

उनके पहले बयान में बुनियादी तौर पर दो बातों पर जोर है। मानवाधिकार से अमेरिकी प्रतिबद्धता और चीन और रूस से प्रतियोगिता। यह वक्तव्य अमेरिकी जनता को ध्यान में रखते हुए दिया गया था। अमेरिका के साथ भारतीय सरोकार तीन तरह के हैं। एक, सामरिक, दूसरे कारोबारी और तीसरे पाकिस्तान और चीन के संदर्भ में। बाइडेन प्रशासन की पहली परीक्षा का मौका भा आने वाला है। रूसी एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम की तैनाती के साथ ही सवाल खड़ा होगा कि अमेरिका भारत पर काट्सा ('काउंटरिंग अमेरिकाज़ एडवर्सरीज़ थ्रू सैंक्शंस एक्ट) के अंतर्गत पाबंदियाँ लगाएगा या नहीं।

हाल में एक अमेरिकी अधिकारी ने स्पष्ट किया था कि काट्सा के भारत को कोई छूट नहीं दी गई है। दूसरी तरफ ट्रंप के कार्यकाल में ही तुर्की पर पाबंदियाँ लगाई गई थीं। तुर्की नेटो का सदस्य होने के बावजूद पिछले कुछ समय से अलग रास्ते पर जा रहा है। पर भारत को अमेरिका सहयोगी देश मानता है। इसलिए भारत को उसी पलड़े पर नहीं रखा जा सकता, जिस पलड़े पर तुर्की है।

सांकेतिक बदलाव

जो बाइडेन प्रशासन ने घोषणा की है कि अमेरिका संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में फिर से शामिल हो जाएगा। जिनीवा स्थित इस संस्था में पहले अमेरिका पर्यवेक्षक के रूप में शामिल होगा, फिर उसके बाद पूर्णकालिक सदस्य बनने के लिए चुनाव में उतरेगा। संयुक्त राष्ट्र की इस संस्था को लेकर अमेरिका और इसरायल दोनों अतीत में आपत्तियाँ उठाते रहे हैं। इसमें अमेरिका की वापसी से उसकी विदेश-नीति कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ेगा, पर इस फैसले का प्रतीकात्मक महत्व है, क्योंकि यह फैसला ट्रंप प्रशासन की नीतियों में बदलाव को रेखांकित करने के लिहाज से महत्वपूर्ण है। सन 2018 में ट्रंप प्रशासन ने इसलिए हाथ खींच लिया था, क्योंकि उनका आरोप था कि इस संस्था ने इसरायल के खिलाफ सबसे ज्यादा प्रस्ताव पास किए हैं।

इस वापसी से नहीं मान लेना चाहिए कि इस संस्था को लेकर अमेरिकी नज़रिए में बदलाव आ गया है, बल्कि नया प्रशासन मानता है कि इसे सुधारने के लिए इसमें शामिल होना पड़ेगा। संरा मानवाधिकार परिषद और उसके पूर्ववर्ती मानवाधिकार आयोग की नीतियों को लेकर अमेरिका की आंतरिक राजनीति में रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच दशकों से रस्साकशी चलती रही है। पर यह इस स्पर्धा का अकेला मैदान नहीं है।

ट्रंप प्रशासन ने इसके अलावा जलवायु परिवर्तन पर पेरिस-संधि, ईरान न्यूक्लियर डील, विश्व स्वास्थ्य संगठन, संरा शिक्षा तथा सांस्कृतिक संगठन युनेस्को और निशस्त्रीकरण से जुड़ी कई संधियों से हाथ खींचा था। ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय पोस्टल यूनियन और यहाँ तक कि विश्व व्यापार संगठन से भी हटने की धमकी दी थी। उनकी पराजय के बाद अब यह संभव नहीं होगा, पर अमेरिका ने धीरे-धीरे उन संगठनों में वापसी शुरू कर दी है, जिनसे ट्रंप साहब ने हाथ खींच लिया था।

क्या इन बातों को अमेरिका की विदेश-नीति में बुनियादी बदलाव मानें? बदलाव हैं, पर बुनियादी नहीं। अमेरिका की नीति कमोबेश वही रहेगी, सिर्फ कुछ सांकेतिक बदलाव होंगे। दोनों बातों की झलक पिछले कुछ समय की घटनाओं और सरकारी बयानों में देखी जा सकती है।

अमेरिका इज़ बैक

बाइडेन ने कहा, ‘अमेरिका इज़ बैक, हमारी विदेश-नीति के केंद्र में डिप्लोमेसी की वापसी हो रही है।’ बाइडेन प्रशासन अपने सामने मौजूद चुनौतियों को हल करने में कूटनीतिक प्रयासों को प्राथमिकता देगा। जबकि ट्रंप प्रशासन एकतरफा ढंग से कदम उठाने में यकीन करता था। सिरफिरे ट्रंप के मुकाबले वे ज्यादा संतुलित व्यक्ति हैं, पर अमेरिका के हितों में बड़ा बदलाव नहीं आने वाला है।

ट्रंप प्रशासन की नीतियों के विपरीत जो घोषणाएं उन्होंने दो टूक कीं, उनमें जर्मनी से अमेरिकी सेना की वापसी पर रोक लगाना, अमेरिका में आने वाले शरणार्थियों की संख्या पर लगी सीमा में छूट देना, और दुनिया भर में समलैंगिकों के अधिकारों को समर्थन देना शामिल है।

उन्होंने कहा, दुनिया में ‘बढ़ रही तानाशाही’ का मुकाबला सभी देशों को मिल-जुल कर करना होगा। अब अमेरिकी कूटनीति में लोकतंत्र को केंद्रीय महत्त्व दिया जाएगा। यमन संकट पर सऊदी अरब को इशारा दिया कि वह मानवाधिकारों को लेकर एहतियात बरते। उन्होंने कहा कि यमन में छह साल से चल रहा युद्ध समाप्त होना चाहिए। हम यमन में हथियारों की बिक्री समेत सभी अमेरिकी सहयोग को बंद कर रहे हैं। पर उन्होंने यह भी साफ किया कि अमेरिका अपने पुराने सहयोगी सऊदी अरब का समर्थन करना जारी रखेगा। ईरानी न्यूक्लियर डील, रूस के साथ रिश्ते और अफगानिस्तान तथा जर्मनी से अमेरिकी फौजों की वापसी के फैसले भी बदलेंगे।

इस वक्तव्य के बाद जो बाइडेन ने एक इंटरव्यू में कहा कि हम ईरान पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंध नहीं हटाएंगे। इसकी एक वजह यह भी है कि परमाणु समझौते को फिर से लागू करने के लिए ईरान पर वार्ता का दबाव बने। सीबीएस न्यूज़ के लिए शुक्रवार 5 फरवरी को रिकॉर्ड किए गए इंटरव्यू में बाइडेन से पूछा गया था कि क्या अमेरिका ईरान को वार्ता के लिए तैयार करने के लिए प्रतिबंध हटा देगा। इसके जवाब में उन्होंने कहा, 'ना'।

उन्होंने संकेत यह भी दिया कि ट्रंप प्रशासन ने चीन, रूस, उत्तर कोरिया और वेनेजुएला पर जो प्रतिबंध लगाए थे, उनमें ज्यादा ढील दिए जाने की गुंजाइश नए प्रशासन के समय भी संभव नहीं है। ये देश लोकतंत्र की अमेरिकी समझ के खाके में फिट नहीं होते। अलबत्ता पश्चिम एशिया नीति में बदलाव आएगा। बाइडेन के भाषण के पहले ही विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने कहा था कि यमन में सऊदी अरब के नेतृत्व वाले गठबंधन की आक्रामक कार्रवाइयों का अमेरिका अब समर्थन नहीं करेगा। अमेरिका आने वाले शरणार्थियों की संख्या भी बाइडेन बढ़ाना चाहते हैं। ट्रंप के दौर में शरणार्थियों की संख्या में तेज गिरावट थी। अब बाइडेन इसे बढ़ाकर हर साल 1,25,000 करना चाहते हैं। ट्रंप ने शरणार्थियों को सुरक्षा के लिए खतरा और संसाधनों पर बोझ की तरह बताया था।
 

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