यह हत्या हमारे समाज के
मुँह पर तमाचा है. आश्चर्य इस बात पर है कि अलीगढ़ ज़िले के टप्पल तहसील क्षेत्र में
ढाई साल की बच्ची के अपहरण और बेहद क्रूर तरीके से की गई हत्या को लेकर जिस किस्म
का रोष देश भर में होना चाहिए था, वह गायब है. कहाँ गईं हमारी संवेदनाएं? पिछले साल जम्मू-कश्मीर के कठुआ क्षेत्र में हुई इसी किस्म की एक हत्या के बाद
देश भर में जैसी प्रतिक्रिया हुई थी, उसका दशमांश भी इसबार देखने में नहीं आया.
बेशक वह घटना भी इतनी ही निन्दनीय थी. फर्क केवल इतना था कि उस मामले को उठाने
वाले लोग इसके राजनीतिक पहलू को लेकर ज्यादा संवेदनशील थे. इस मामले में वह
संवेदनशीलता अनुपस्थित है. यानी कि हमारी संवेदनाएं राजनीति से निर्धारित होती हैं.
अलीगढ़ पुलिस के मुताबिक, 'पोस्टमार्टम से लगता है कि बच्ची का रेप नहीं
हुआ है. बच्ची के परिवार ने आरोप लगाया था कि उसकी आँख निकाली गई थी, पर ऐसा नहीं
हुआ. लेकिन उसका शरीर बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हुआ है.' इसे लेकर मीडिया में कई तरह की बातें उछली हैं.
खासतौर से सोशल मीडिया में अफवाहों की बाढ़ है. पर यह भी सच है कि सोशल मीडिया के
कारण ही सरकार और प्रशासन ने इस तरफ ध्यान दिया है. पुलिस ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट
का हवाला देते हुए सोशल मीडिया की अफवाहों को शांत किया है, पर अपराध के पीछे के
कारणों पर रोशनी नहीं डाली जा सकी है.
फौरी तौर पर पुलिस मानती
है कि 'आरोपियों ने बच्ची की
हत्या बदले की भावना से की है. मृत बच्ची के दादा ने एक आरोपी को कुछ रुपये उधार
दिए थे. कुछ राशि अभी बकाया थी. इस मसले पर दोनों के बीच हाल में झगड़ा भी हुआ था.
इसके दो दिन बाद बच्ची लापता हो गई. बच्ची के घर वालों के मुताबिक आरोपी ने अपने
अपमान का बदला लेने के लिए ऐसा किया है.
इस सिलसिले में जिन लोगों
की गिरफ्तारियाँ हुईं हैं, उनके बारे में अभी तक कयास ही हैं. अभी कुछ भी कहना सही
नहीं होगा. कुछ लोग इस घटना को साम्प्रदायिक नजरिए से देख रहे हैं. ऐसा सोच गैर-जरूरी
है, पर इतना साफ है कि हम पीड़ित की सामाजिक स्थितियों को देखते हुए ही अपनी
प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं. 30 मई को बच्ची लापता हुई थी, जिसका पता 2 जून की सुबह
सात बजे जाकर लगा. उसे खोजने में पुलिस ने जो देरी की, वह चिंता का विषय है. पुलिस
सक्रिय हुई होती, तो शायद यह अपराध होने से रोका जा सकता था. पुलिस की इस
निष्क्रियता के कारण इलाके के थाना प्रभारी सहित पाँच पुलिस वालों को निलम्बित
किया गया है.
लोग पूछते हैं, ढाई साल
की बच्ची के साथ कोई ऐसा कैसे कर सकता है? अफसोस है कि ऐसा हुआ. उसकी हत्या से जुड़े, जो
विवरण सामने आ रहे हैं, वे हृदय विदारक हैं. ऐसी क्रूरता हमारे बीच क्यों है? यह बात किसी के गले नहीं उतरती कि छोटी सी रकम
पर बालिका की इतने नृशंस तरीके से हत्या की गई होगी. बच्ची के परिजन भी संतुष्ट
नहीं हैं. उसके पिता का कहना है कि दूसरे लोग भी हत्या में शामिल हैं, जिनके खिलाफ
कार्रवाई होनी चाहिए.
मामले की जांच के लिए
विशेष टीम बनाई गई है. घटना की पूरी जाँच के बाद ही कुछ कहना उचित होगा. मीडिया
रिपोर्टों के अनुसार पुलिस ने जिन लोगों को पकड़ा है, उनमें से एक के बारे कहा
जाता है कि वह पाँच साल पहले अपनी ही सात साल की बेटी से बलात्कार के आरोप में
पकड़ा जा चुका है और इस वक्त जमानत पर छूटा हुआ है. उत्तर प्रदेश सरकार ने दोनों आरोपियों
के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत मामला दर्ज कर मामले को फास्ट ट्रैक
कोर्ट में स्थानांतरित करवाने का फैसला किया है. पर उसके पहले जाँच से यह
सुनिश्चित होना चाहिए कि अपराधी क्या ये दो लोग ही हैं और इस हत्या का कारण क्या
है.
अलीगढ़ के इस कांड के बाद
बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों को लेकर चिंताएं फिर सामने आईं हैं. सबसे बड़ी
चिंता की बात यह है कि बच्चों और खासतौर से गरीब बच्चों के खिलाफ होने वाले
अपराधों की जानकारी ही नहीं हो पाती है. दुनिया में बच्चों की सबसे बड़ी संख्या
भारत में निवास करती है. भारत में 18 साल से कम उम्र के बच्चों की अनुमानित संख्या
करीब 48 करोड़ है. इनमें करीब 23 करोड़ लड़कियाँ हैं. इन बच्चों के खिलाफ होने
वाले अपराधों से संरक्षण के लिए पोक्सो कानून बनाया गया था. इस साल जनवरी में
सरकार ने पोक्सो कानून में संशोधन के लिए विधेयक पेश किया था.
पोक्सो यानी लैंगिक
अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम 2012
(प्रोटेक्शन ऑफ
चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस). 19 जून 2012 से लागू इस कानून के तहत 18 साल से कम उम्र
के बच्चों से किसी भी तरह का सेक्सुअल बर्ताव इसके दायरे में आता है. इसके तहत
लड़के और लड़की, दोनों को ही संरक्षण दिया गया है. इस तरह के
मामलों की सुनवाई स्पेशल कोर्ट में होती है और बच्चों के साथ होने वाले अपराध के
लिए उम्रकैद तक की सजा हो सकती है.
बारह वर्ष से कम उम्र की
बच्चियों के साथ दुष्कर्म में फाँसी की सजा का प्रावधान तो पहले ही हो गया था, लेकिन आईपीसी में हुए संशोधन से यौन शोषण का
शिकार होने वाले बालक बाहर रह गए थे. अब बालकों को भी यौन शोषण से बचाने और उनके
साथ दुराचार करने वालों को फाँसी की सजा का इंतजाम हो रहा है. कानूनों से अपराध
नहीं रुकते. अपराधों को रोकने के लिए न्याय-व्यवस्था की सक्रियता की जरूरत है, जो
इस चिंता का सबसे बड़ा पहलू है.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11-06-2019) को "राह दिखाये कौन" (चर्चा अंक- 3363) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी बात से सहमत हूँ किन्तु ऐसे दरिंदों के लिए मौत बहुत ही आसान रास्ता है कुछ ऐसा होना चाहिए कि आने वाले समय में लोग सौ बार सोचें।
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 122वीं जयंती - राम प्रसाद 'बिस्मिल' और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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