Saturday, January 12, 2019

गेमचेंजर भले न हो, नैरेटिव चेंजर तो है

आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण सुनिश्चित करने वाला संविधान संशोधन विधेयक संसद में जितनी तेजी से पास हुआ, उसकी कल्पना तीन दिन पहले किसी को नहीं थी। कांग्रेस समेत दूसरे विरोधी दलों ने इस आरक्षण को लेकर सरकार की आलोचना की, पर इसे पास करने में मदद भी की। यह विधेयक कुछ उसी अंदाज में पास हुआ, जैसे अगस्त 2013 में खाद्य सुरक्षा विधेयक पास हुआ था। लेफ्ट से राइट तक के पक्षियों-विपक्षियों में उसे गले लगाने की ऐसी होड़ लगी जैसे अपना बच्चा हो। आलोचना की भी तो ईर्ष्या भाव से, जैसे दुश्मन ले गया जलेबी का थाल। तकरीबन हरेक दल ने इसे ‘चुनाव सुरक्षा विधेयक’ मानकर ही अपने विचार व्यक्त किए।
तकरीबन वैसा ही यह 124 वाँ संविधान संशोधन ‘चुनाव आरक्षण विधेयक’ साबित हुआ। भारतीय राजनीति किस कदर गरीबों की हितैषी है, इसका पता ऐसे मौकों पर लगता है। चुनाव करीब हों, तो खासतौर से। राज्यसभा में जब यह विधेयक पास हो रहा था केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने विरोधियों पर तंज मारा, आप इसे लाने के समय पर सवाल उठा रहे हैं, तो मैं बता दूं कि क्रिकेट में छक्‍का स्‍लॉग ओवर में लगता है। आपको इसी पर परेशानी है तो ये पहला छक्‍का नहीं है। और भी छक्‍के आने वाले हैं।
क्या कहानी बदलेगी?
इस छक्केबाजी से क्या राजनीति की कहानी बदलेगी? क्या बीजेपी की आस्तीन में कुछ और नाटकीय घोषणाएं छिपी हैं? सच यह है कि भूमि अधिग्रहण और खाद्य सुरक्षा विधेयक 2014 के चुनाव में कांग्रेस को कुछ दे नहीं पाए, बल्कि पार्टी को इतिहास की सबसे बड़ी हार हाथ लगी। कांग्रेस उस दौर में विलेन और मोदी नए नैरेटिव के नायक बनकर उभरे थे। पर इसबार कहानी बदली हुई है। इसीलिए सवाल है कि मोदी सरकार के वायदों पर जनता भरोसा करेगी भी या नहीं?  पार्टी की राजनीतिक दिशा का संकेत इस आरक्षण विधेयक से जरूर मिला है। पर रविशंकर प्रसाद ने जिन शेष छक्कों की बात कही है, उन्हें लेकर अभी कयास हैं।

ज्यादा समय नहीं बचा है, पर सम्भव है जिस तरह से पिछली सरकार ने अपने अंतरिम बजट में वन रैंक, वन पेंशन स्कीम की घोषणा की थी, उसी तरह की घोषणाएं हों। संसद का बजट सत्र 31 जनवरी से 13 फरवरी तक चलने की खबर है। वित्त मंत्री 1 फरवरी को अंतरिम बजट पेश करेंगे। यह इस लोकसभा का आखिरी संसद-सत्र होगा। लोकलुभावन घोषणाओं के लिए यही मौका बचा है। चुनाव के साल में अंतरिम बजट में सीमित समय के लिए जरूरी सरकारी खर्च की अनुमति होती है और बाद में नई सरकार पूरा बजट पेश करती है।
लोकलुभावन वायदे
अनुमान है कि सरकार शायद सार्वभौमिक बेसिक आय स्कीम की घोषणा करे। सन 2017 के आर्थिक सर्वे में सरकार से सिफारिश की गई थी कि हरेक नागरिक की हर महीने एक तयशुदा आमदनी सुनिश्चित करने के लिए ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम’ बनाई जाए। पिछले कुछ साल से सरकार सब्सिडी की रकम को व्यक्ति के खाते में डालने का प्रयास कर रही है। क्यों न उसे निश्चित आय की शक्ल दी जाए? ‘आधार’ और ‘जन-धन’ योजना इसी दिशा में उठाए गए कदम हैं।
गरीबी की रेखा के नीचे के लोगों के लिए ऐसी योजना लागू हो सकती है। इसमें मनरेगा को भी शामिल किया जा सकता है। मनरेगा भी लोगों की आय बढ़ाने का जरिया है। मध्य प्रदेश की एक पंचायत में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर ऐसी स्कीम को लागू करके देखा भी गया है। बीजेपी इन दिनों विभिन्न सरकारी कार्यक्रमों से लोगों को मिले लाभ का हिसाब लगा रही है। मसलन स्किल इंडिया, मुद्रा योजना, उज्ज्वला और सौभाग्य योजनाओं से जिन लोगों को लाभ मिला है, उनसे व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क स्थापित करके वोट देने की अपील की जाएगी। 
समय महत्वपूर्ण
आरक्षण-प्रस्ताव का समय भी महत्वपूर्ण है। सरकार इस फैसले का पूरा माइलेज लेना चाहती है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि सवर्ण हिन्दू जातियों के बीच पार्टी का जनाधार हाल में कमजोर हो रहा था। पिछले दिनों अजा-जजा एक्ट में संशोधन के कारण यह वर्ग पार्टी से नाराज था। मध्य प्रदेश के चुनाव में इसका असर खासतौर से देखने को मिला। शायद सरकार का यह फैसला इसी रोष को कम करने लिए है।
यह आर्थिक रूप से कमजोर तबके के नाम पर है। इसके लाभार्थी केवल सवर्ण नहीं सभी तबकों के लोग हैं। इसलिए इसे सबका साथके साथ जोड़ा जा सकता है। इस बहाने आरक्षण पर बहस भी चल निकलेगी। फिर भी कहना मुश्किल है कि इससे भाजपा के पक्ष में लहरें पैदा होंगी या नहीं। तकरीबन हरेक पार्टी ने इसे समर्थन दिया है। हालांकि मोदी विरोधी मानते हैं कि यह चुनावी चाल है, पर वे इसका विरोध करने की स्थिति में नहीं हैं।
अलबत्ता राफेल के हवाई हमलों से घिरी भाजपा को कुछ देर के लिए राहत जरूर मिलेगी। वह राजनीतिक विमर्श को अपनी तरफ खींचने में कामयाब हुई है। यदि इस बीच उसने कुछ और घोषणाएं कीं, तो बहस का रुख बहलेगा। साथ ही आरक्षण के सवाल को जातीय घेराबंदी के बाहर निकालने में भी उसे सफलता मिली है। यह एक नयापन है, जो इस चुनाव में विमर्श का बिन्दु बन सकता है।
कानूनी दिक्कतें
इस आरक्षण की राह में कुछ कानूनी दिक्कतें भी हैं, इसलिए सरकार ने संविधान संशोधन का रास्ता पकड़ा है। कुछ विधि-विशेषज्ञ मानते हैं कि इसे अदालत की मंजूरी नहीं मिलेगी। यह राय सन 1992 के इन्दिरा साहनी वाले मामले के कारण है। उस केस में नौ जजों के संविधान पीठ ने माना था कि देश में आर्थिक पिछड़ापन आरक्षण का आधार नहीं हो सकता। इसीलिए आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में बदलाव की जरूरत महसूस की गई।
इस आरक्षण के रास्ते में दूसरी बाधा है इसका 50 फीसदी की सीमा से ज्यादा होना। इन्दिरा साहनी मामले में अदालत ने यह सीमा निर्धारित की थी। पर सरकार का कहना है कि यह सीमा 15(4) और 16(4) के अंतर्गत सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए है। चूंकि इस संविधान संशोधन के कारण एक नया आर्थिक वर्ग तैयार हुआ है, जिसका टकराव शेष 50 फीसदी से नहीं है, इसलिए इस संशोधन को सांविधानिक बाधा पार करने में दिक्कत नहीं होगी। बहरहाल यह कानूनी मसला अपने आप में अलग से विचार का विषय है। हमें फिलहाल समझने की कोशिश करनी चाहिए कि बीजेपी की दिलचस्पी आरक्षण की राजनीति में क्यों पैदा हुई।
क्या है संघ का इशारा?
भारतीय जनता पार्टी की राजनीति आरक्षणवादी नहीं है, पर वह इसका विरोध भी नहीं करती। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कहता है कि इस विषय पर पुनर्विचार होना चाहिए। जनवरी 2017 में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने कहा कि आरक्षण व्यवस्था खत्म होनी चाहिए। उसके पहले सितंबर 2015 में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी ऐसी बातें कहीं थीं। बिहार चुनाव सिर पर होने के कारण तब पार्टी ने इन बातों से पल्ला झाड़ लिया था। मोहन भागवत ने संघ के मुखपत्र 'पांचजन्य' और 'ऑर्गनाइज़र' को दिए इंटरव्यू में कहा था, आरक्षण की ज़रूरत और उसकी समय सीमा पर एक समिति बनाई जानी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा था कि आरक्षण पर राजनीति हो रही है और इसका दुरुपयोग किया जा रहा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मूलतः जातीय आधार पर आरक्षण के कारण पैदा हुए सामाजिक विघटन का विरोधी है। भाजपा ही नहीं सन 2014 के चुनावों के ठीक पहले कांग्रेस के तत्कालीन महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने ऐसा ही बयान दिया था, जिसकी सफाई में सोनिया गांधी को बयान जारी करना पड़ा। इस आरक्षण के केन्द्र में ओबीसी राजनीति है, जिसने हाल के वर्षों में राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित किया है।
आरक्षण आसान राजनीतिक औजार है, जिसका फायदा हरेक दल उठाना चाहता है। इससे जुड़ी ज्यादातर घोषणाएं चुनावों के ठीक पहले होती हैं। इस साल अप्रैल-मई में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव के पहले खबरें थीं कि सिद्धरमैया सरकार राज्य में पिछड़ों और दलितों के आरक्षण को 50 फीसदी से बढ़ाकर 70 फीसदी करना चाहती है। हालांकि आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं किया जा सकता, पर उन्होंने कहा कि हम इसे 70 फीसदी करेंगे। ऐसा तमिलनाडु में हुआ भी है, पर इसके लिए संविधान में 76 वां संशोधन करके उसे नौवीं अनुसूची में रखा गया, ताकि अदालत में चुनौती नहीं दी जा सके।
माँगों की झड़ी लगेगी
मार्च 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को ओबीसी  कोटा के तहत आरक्षण देने के केंद्र के फैसले को रद्द करने के साथ यह भी स्पष्ट किया था कि आरक्षण के लिए नए आधारों को भी खोजा जाना चाहिए। अदालत की दृष्टि में केवल ऐतिहासिक आधार पर फैसले करने से समाज के अनेक पिछड़े वर्ग संरक्षण पाने से वंचित रह जाएंगे, जबकि हमें नए वर्गों को भी पहचानना चाहिए। अदालत ने ‘ट्रांस जेंडर’ जैसे नए पिछड़े ग्रुप को ओबीसी के तहत लाने का सुझाव देकर इस पूरे विचार को एक नई दिशा भी दी थी।
कोर्ट ने कहा कि हालांकि जाति एक प्रमुख कारक है, लेकिन पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए यह एकमात्र कारक नहीं हो सकता। कई जगह गाँव का निवासी होना या पहाड़ी क्षेत्र का निवासी होना भी पिछड़ेपन का आधार बनता है। ओबीसी आरक्षण में ऐसा है। जाति से जुड़े कई सवाल अभी निरुत्तरित हैं। मसलन क्या कोई वर्ग अनंत काल तक पिछड़ा रहेगा? पूरा वर्ग न भी रहे तो क्या उसका कोई हिस्सा पिछड़ेपन से कभी उबरेगा? इस दृष्टि से मलाईदार परत की अवधारणा बनी है।
हाल के वर्षों में उन सामाजिक वर्गों ने आरक्षण की माँग की है, जो पहले से मजबूत हैं। तमाम राजनीतिक दल ऐसे खड़े होते जा रहे हैं जो किसी एक समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। हरियाणा के जाट-आंदोलन की प्रतिक्रिया देश के दूसरे इलाकों में हुई। राजस्थान के राजपूतों ने भी इसकी माँग की। राजस्थान में वसुंधरा राजे से पहले वाली अशोक गहलोत सरकार ने ओबीसी आयोग की रिपोर्ट के आधार पर कृषक राजपूत वर्ग को आरक्षण देने का निर्णय किया था। गुजरात के पाटीदार आंदोलन ने देश में आरक्षण को लेकर एक नई बहस छेड़ी। हाल में महाराष्ट्र में देवेन्द्र फड़नबीस की सरकार ने मराठों को 16 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया है। उधर तेलंगाना विधानसभा में पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण देने का प्रस्ताव पेश हो चुका है। केन्द्र सरकार की पहल के बाद अब आरक्षण की ये सारी माँगें फिर से उठेंगी।


1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (14-01-2019) को "उड़ती हुई पतंग" (चर्चा अंक-3216) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    लोहड़ीःमकरक संक्रान्ति (उत्तरायणी) की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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