Tuesday, August 29, 2017

आरक्षण पर एक और बहस का आगाज़

केंद्र सरकार ने ओबीसी की केंद्रीय सूची में उप-श्रेणियाँ (सब-कैटेगरी) निर्धारित करने के लिए एक आयोग बनाने का फैसला किया है। प्रत्यक्ष रूप में इसका उद्देश्य यह है कि आरक्षण का लाभ ज़रूरतमंदों को मिले। ओबीसी आरक्षण का लाभ कुछ खास जातियों को ज्यादा मिल रहा है और कुछ को एकदम कम। यानी सम्पूर्ण ओबीसी को एक ही श्रेणी या वर्ग में रखने के अंतर्विरोध अब सामने आने लगे हैं। अब आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था भी एक नई बहस को जन्म देगी। आयोग यह बताएगा कि ओबीसी के 27 फीसदी कोटा को किस तरीके से सब-कोटा में विभाजित किया जाएगा।

सिद्धांततः सम्पूर्ण ओबीसी में उन जातियों को खोजने की जरूरत है, जिन्हें सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों का लाभ कमतर मिला है। इसके साथ यह भी देखने की जरूरत है कि मंडल आयोग ने भले ही ओबीसी को जातीय दायरे में सीमित कर दिया था, सांविधानिक परिभाषा में यह पिछड़ा वर्ग (क्लास) है, जाति (कास्ट) नहीं।

मार्च 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को ओबीसी कोटा के तहत आरक्षण देने के केंद्र के फैसले को रद्द करने के साथ स्पष्ट किया था कि आरक्षण के लिए नए आधारों को भी खोजा जाना चाहिए। अदालत की दृष्टि में केवल ऐतिहासिक आधार पर फैसले करने से समाज के अनेक पिछड़े वर्ग संरक्षण पाने से वंचित रह जाएंगे, जबकि हमें उन्हें भी पहचानना चाहिए। अदालत ने ‘ट्रांस जेंडर’ जैसे नए पिछड़े ग्रुप को ओबीसी के तहत लाने का सुझाव देकर इस पूरे विचार को एक नई दिशा भी दी थी।

कोर्ट ने तब कहा था कि हालांकि जाति एक प्रमुख कारक है, लेकिन पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए यह एकमात्र कारक नहीं हो सकता। अब जब केंद्र सरकार ओबीसी के भीतर उप-श्रेणियाँ खोजने के लिए आयोग बनाने जा रही है, तो उसे यह जिम्मेदारी भी दी जानी चाहिए कि वह उन नए वर्गों को भी खोजे जिन्हें आरक्षण दिया जा सकता है।

संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत गठित होने वाला यह आयोग गठित होने के 12 सप्ताह में रिपोर्ट देगा। मतलब यह कि इस साल के अंत तक हमारे पास ओबीसी वर्गीकरण के कुछ सूत्र होंगे। मार्च 2015 में ही राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने उप-श्रेणियाँ बनाने के संदर्भ में विस्तृत सिफारिशें की थीं। उन सिफारिशों पर बी विचार किया जाना चाहिए। बुधवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने क्रीमी लेयर की सीमा 6 लाख रुपये की सालाना आय से बढ़ाकर 8 लाख करने की घोषणा भी की है, जो वाजिब है।

हमारे यहाँ आरक्षण सहज गतिविधि नहीं है। इसका वोट बैंक से नाता है और स्वाभाविक रूप से इसके राजनीतिक निहितार्थ हैं। उत्तर-मंडल दौर में ऐसे राजनीतिक दल उभर कर आए, जो कुछ खास जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, पर उन्हें सम्पूर्ण पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधि मान लिया जाता है। ऐसे राजनीतिक दल सामने नहीं आए, जो सामाजिक-न्याय को महत्व देते हों, जातीय पहचान को नहीं। किसी ने कोशिश की भी होगी, तो उसे सफलता नहीं मिलेगी, क्योंकि हमारा वोटर जातीय पहचान को ही मान्यता देता है। इसी पृष्ठभूमि में दक्षिण भारत में महा-दलित और उत्तर भारत में अति-पिछड़ा वर्ग की अवधारणा विकसित हुई है।

पिछड़ों के बीच भी फर्क होने की अवधारणा का इस्तेमाल बिहार में सन 2012 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने किया और उन्हें सफलता भी मिली। इस साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिली सफलता के पीछे एक कारण यह भी था कि उसने ओबीसी के गढ़ में दरार डाल दी थी। अब कोशिश हो रही है कि पिछड़ों में जो पिछड़े हैं, या जिनके पास प्रभावशाली नेतृत्व नहीं है, उन्हें जोड़ा जाए। इससे पिछड़े वर्गों में भी ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज होगी और पिछड़ा बनाम अत्यधिक पिछड़ा की राजनीति विकसित होगी। सन 2019 के चुनाव के लिहाज से यह महत्वपूर्ण रणनीति साबित होगी। उत्तर भारत में यादव और कुर्मी आधार वाले दलों को इससे परेशानी भी होगी।

पिछड़े वर्गों के उप-वर्गीकरण की यह प्रक्रिया केंद्रीय सूची के संदर्भ में है। राज्यों में यह प्रक्रिया पहले से चल रही है। बुधवार को कैबिनेट के फैसले की जानकारी देते हुए वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बताया कि 11 राज्यों में यह उप-वर्गीकरण हो चुका है। ये राज्य हैं आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पुदुच्चेरी, कर्नाटक, हरियाणा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और जम्मू-कश्मीर का जम्मू क्षेत्र।

सरकार की इस घोषणा के साथ एक सवाल खड़ा हुआ है कि क्या केंद्र सरकार आरक्षण को लेकर कोई बुनियादी बदलाव करने जा रही है। अरुण जेटली से भी यह सवाल पूछा गया, जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि ऐसा कोई विचार नहीं है। दो साल पहले सितंबर 2015 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने सुझाव दिया था कि हमें आरक्षण की व्यवस्था पर फिर से विचार करना चाहिए। उन्होंने यह बी कहा था कि इस सिलसिले में एक गैर-राजनीतिक समिति बनाई जानी चाहिए। बहरहाल उस वक्तव्य पर काफी प्रतिक्रिया हुई थी और बीजेपी ने उसे ज्यादा बढ़ने नहीं दिया, क्योंकि बिहार विधानसभा के चुनाव सिर पर थे।

बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी स्पष्ट किया कि इस बयान का लक्ष्य मौजूदा आरक्षण नीति पर टिप्पणी करना नहीं था। पर उन्होंने जिस बात की ओर इशारा किया था उसका निहितार्थ फौरन सामने आया। राजद सुप्रीमो लालू यादव ने फौरन ट्वीट किया, ‘तुम आरक्षण खत्म करने की कहते हो, हम इसे आबादी के अनुपात में बढ़ाएंगे। माई का दूध पिया है तो खत्म करके दिखाओ। किसकी कितनी ताकत है पता लग जाएगा।’

लालू यादव ने आबादी के अनुपात में आरक्षण का संकेत देकर इस बहस की भावी दिशा को भी निर्धारित किया था। एक दशक पहले चली ओबीसी आरक्षण पर राष्ट्रीय बहस में हमारे पास कोई जनगणना के जातीय आँकड़े नहीं थे। मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि 52 प्रतिशत लोग ओबीसी वर्ग में आते हैं। इसके बाद नेशनल सैंपल सर्वे से पता लगा कि करीब 41 प्रतिशत लोग ओबीसी वर्ग में हैं। ओबीसी आरक्षण को जातीय आधार पर स्वीकार कर लेने के बाद यह स्वाभाविक माँग होगी कि यदि अजा-जजा आरक्षण जनसंख्या के आधार पर है तो फिर यही नियम ओबीसी पर लागू होना चाहिए। यही नियम ओबीसी आबादी के भीतर की उप-श्रेणियों पर लागू होगा। 
नवोदय टाइम्स में प्रकाशित

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (30-08-2017) को "गम है उसको भुला रहे हैं" (चर्चा अंक-2712) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete