Thursday, February 18, 2016

भारतीय राष्ट्र-राज्य और 'आजादी' की रेखा

भारत की बरबादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी. या भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाल्लाह-इंशाल्लाह. क्या ये नारे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है? या इन्हें लगाने वालों को गोली मार देनी चाहिए जैसा कि भाजपा के विधायक ओपी शर्मा ने कहा है? दोनों बातें अतिवादी हैं. इस दौरान देश-द्रोह का सवाल खड़ा हुआ है. क्या अपने विचार व्यक्त करना देश-द्रोह है? क्या जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया के खिलाफ देश-द्रोह की धाराएं लगाना न्यायसंगत है? या इस घटना मात्र से हम जेएनयू को देश-द्रोही घोषित कर दें? दूसरे सवाल भी हैं. कन्हैया ने नारे लगाए भी या नहीं? नहीं लगाए, पर क्या वे इस माहौल के जिम्मेदार नहीं हैं? नारे लगाने वालों के खिलाफ वे क्यों नहीं बोले? जिन वीडियो के आधार पर हम अपनी राय दे रहे हैं वे क्या सही हैं? इस तकनीकी दौर में वीडियो बनाए भी जा सकते हैं. इन वीडियो की फोरेंसिक जाँच होनी चाहिए. पर सच यह है कि किसी ने नारे लगाए, जिन्हें पूरे देश ने सुना. एक तरफ नारेबाजी हुई तो दूसरी तरफ पटियाला हाउस में वकीलों ने मीडियाकर्मियों पर हमले करके मामले को दूसरी तरफ मोड़ दिया. अब जेएनयू की नारेबाजी पीछे चली गई, जबकि वह एक महत्वपूर्ण सवाल था.

जेएनयू प्रसंग में कई मामले गड्ड-मड्ड हो गए हैं. भारतीय वामपंथ शुरू से ही सन 1947 की आजादी को लेकर संशय में रहा. उसका विभाजन भी भारतीय राष्ट्र-राज्य की मूल स्थापनाओं से जुड़े मतभेदों के कारण हुआ. उधर संसदीय राजनीति के भीतर गहरे अंतर्विरोध हैं. सत्तर के दशक में आपतकाल, अस्सी के दशक में खलिस्तानी आंदोलन और नब्बे के दशक में मंडल-कमंडल आंदोलन ने हमारे अंतर्विरोधों को बुरी तरह उधेड़ना शुरू कर दिया है. दूसरी ओर पूँजी के वैश्वीकरण की तेज प्रक्रिया में भारत का दौर भी नब्बे के दशक में शुरू हुआ है. संसदीय राजनीति पर कब्जा करने की कोशिशें इस टकराव को बढ़ा ही रही हैं. सच यह है कि सन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से राष्ट्रीय राजनीति में अचानक जहर घुल रहा है. इस मामले के राजनीतिक निहितार्थ को छोड़कर हमें देश-विरोधी नारों और उससे जुड़े कार्यक्रमों पर ध्यान देना चाहिए. किसी एक राजनीतिक पार्टी या विचारधारा के नजरिए से सोचने के बजाय भारतीय नजरिए से सोचना चाहिए.

पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी के अनुसार राष्ट्रविरोधी नारे लगाना देशद्रोह नहीं है. उन्होंने कहा कि जेएनयू में लगे कुछ नारों से समस्या जरूर हो सकती है, लेकिन सिर्फ इस आधार पर कि जेएनयू छात्र संघ के कन्हैया कुमार उस वक्त वहां मौजूद थे, उनके खिलाफ देशद्रोह का केस नहीं बनता. भारतीय अदालतें कई बार यह कह चुकी हैं कि नारे लगाना या बगावत के लिए उकसाना तब तक देश-द्रोह नहीं है, जब तक वास्तव में हिंसा भड़काई न जाए. पर अब पूछा जा सकता है कि पटाखे में जब तक आग न लगे, क्या वह पटाखा नहीं है?

भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए और 120-बी के दुरुपयोग को लेकर आजादी के पहले से बहस चली आ रही है. 124-ए में उन गतिविधियों के तीन स्पष्टीकरण हैं, जिन्हें देशद्रोह माना जा सकता है. इन स्पष्टीकरणों के बाद भी केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि जब तक सशस्त्र विद्रोह या हिंसा के इस्तेमाल की अपील न हो तब तक कुछ भी राजद्रोह नहीं है. भारतीय दंड संहिता में इस कानून को अंग्रेज सरकार ने भारतीय विद्रोह से निपटने के लिए शामिल किया था.

हालांकि लॉर्ड मैकॉले ने इस कानून को मूल संहिता में रखा था, पर 1860 में इसे लागू करते समय इसमें शामिल नहीं किया गया. पर कुछ समय बाद इसे 124-ए के रूप में शामिल कर लिया गया. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और बाद में भी इसे खत्म करने की माँग होती रही, पर खत्म नहीं किया गया. सन 1951 में जवाहर लाल नेहरू ने संसद में इस कानून को अनुचित बताया, पर इसे खत्म करने की पहल नहीं की. सुप्रीम कोर्ट ने भी इनके दुरुपयोग को खारिज किया, पर इसे खारिज नहीं किया. इसका मतलब है कि हमारी व्यवस्था अभी इन कानूनों की जरूरत को महसूस करती है. दूसरी ओर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी हमारे लोकतंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है.

इस दौर में जब आतंकवाद को लेकर संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में वैश्विक संधि की बात की जा रही है, तब हिंसा समर्थक नारों पर हम ठंडे क्यों हैं? हम लोकतांत्रिक मूल्यों को महत्वपूर्ण मानते हैं. पर राष्ट्रवाद के लिए हमें भगवा और प्रगतिशीलता के लिए लाल रंग में रंगने की जरूरत नहीं है. हाल में देश में इस्लामिक स्टेट की गतिविधियों से जुड़े कुछ व्यक्तियों की धर-पकड़ हुई है. क्यों हुई? क्या उन्होंने हथियार उठा लिए थे? नहीं, पर वे उस तरफ बढ़ रहे थे. हिंसक प्रवृत्ति के प्रति हमदर्दी देखकर भी खामोश नहीं रहा जा सकता. देश-द्रोह, आतंकवाद, प्रत्यक्ष हिंसा, परोक्ष हिंसा जैसे तमाम मामले एक-दूसरे से जुड़े हैं. भारत आतंकवाद-पीड़ित देश है. नक्सली, कश्मीरी, खालिस्तानी और पूर्वोत्तर के राज्यों की अलगाववादी हिंसा को हम आतंकवाद के दायरे में रखते हैं. दूसरी ओर ऐसे लोग हैं जो इन्हें राजनीतिक आंदोलन मानते हैं.

आप किसे सच मानेंगे? किस प्रकार की राजनीति को मर्यादित मानेंगे? क्या ऐसे नारे चीन या रूस में लगाए जा सकते हैं? या उस पाकिस्तान में जिस को जिंदाबाद कहा जा रहा था? वहाँ के बलूच वैसा ही आंदोलन चला रहे हैं जैसा कश्मीर में है. क्या हम उनका साथ देंगे? हम अपनी तुलना उदार पश्चिमी देशों से करते हैं. बावजूद इसके कि वामपंथी राजनीति का पहला निशाना यही देश हैं. वियतनाम, अफगानिस्तान और इराक में कार्रवाई के दौरान अमेरिका में सरकार-विरोधी रैलियाँ निकलतीं रहीं. अमेरिका की प्रतिरोधी राजनीति और आतंकवादी विचारधारा के बीच महीन फर्क है. लंदन, पेरिस और न्यूयॉर्क के विश्वविद्यालयों के साथ जेएनयू का कितना साम्य है, यह भी विचार का विषय है. भारत के पूर्व और पश्चिम में दूर-दूर तक ऐसा कौन सा देश है, जिसका लोकतंत्र हमसे ज्यादा उदार है? पर भारत परिपक्व लोकतंत्र नहीं है, उस दिशा में कदम बढ़ा रहा है. उसके हर कदम की समीक्षा भी होनी चाहिए.

पिछले साल सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधन) अधिनियम 2008 की धारा 66ए को लेकर लम्बे समय तक विवाद चला. अंततः सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह धारा तो खत्म हो गई, पर इसे लेकर विमर्श खत्म नहीं हुआ. एक तरह से यह बहस अब फिर शुरू होगी. धारा 66ए के खत्म होने का मतलब यह नहीं था कि किसी को कुछ भी बोलने या लिख देने का लाइसेंस मिल गया. उससे पहले सन 2012 में कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की देश-द्रोह के तहत हुई गिरफ्तारी ने सारे देश का ध्यान खींचा था. सन 2011 में तमिलनाडु सरकार ने कुडानकुलम में नाभिकीय बिजलीघर लगाने के विरोध में आंदोलन चला रहे 6000 लोगों के खिलाफ एक ही थाने में देशद्रोह के आरोप लगा दिए गए. यह भी ऐतिहासिक था.

जेएनयू के घटनाक्रम पर कोई राय बनाने के पहले कुछ बातें स्पष्ट होनी चाहिए. पहली यह कि नारेबाजी के पीछे क्या की योजना थी? प्रेस क्लब में भी नारेबाजी हुई. क्या दोनों के पीछे एक ही तरह के लोग थे? इनका उद्देश्य क्या था? अफजल गुरु और याकूब मेमन की फाँसी को लेकर राष्ट्रीय मीडिया में पहले भी टिप्पणियाँ हुईं हैं. उनके पीछे मूल उद्देश्य न्याय-भावना को रेखांकित करना था. पर भारत के टुकड़े करने की कामना न्याय भावना नहीं किसी साजिश का हिस्सा लगती है. सवाल यह भी है कि यह बगावत थी या घटिया राजनीति?

प्रभात खबर में प्रकाशित

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