Saturday, January 9, 2016

‘फ्री बेसिक्स’ संचार महा-क्रांति या कमाई का नया फंडा?


नए दौर का सूत्र है नेट-साक्षरता. आने वाले वक्त में इंटरनेट पटु होना सामान्य साक्षरता का हिस्सा होगा. जो इंटरनेट का इस्तेमाल कर पाएगा वही सजग नागरिक होगा. वजह साफ है. जीवन से जुड़ा ज्यादातर कार्य-व्यवहार इंटरनेट के मार्फत होगा. इसीलिए इसका व्यावसायिक महत्व बढ़ रहा है. इंटरनेट की भावी पैठ को अभी से पढ़ते हुए नेट-प्रदाता और टेलीकॉम कंपनियां इसमें अपनी हिस्सेदारी चाहती हैं. सरकारों की भी यही कोशिश है कि नीतियाँ ऐसी हों ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को ऑनलाइन किया जा सके.
नेट के विस्तार के साथ-साथ कुछ अंतर्विरोधी बातें सामने आ रही हैं. इसके साथ दो बातें और जुड़ी हैं. एक है तकनीक और दूसरे पूँजी. इंटरनेट की सार्वजनिक जीवन में भूमिका होने के बावजूद इसका विस्तार निजी पूँजी की मदद से हो रहा है. निजी पूँजी मुनाफे के लिए काम करती है. सूचना-प्रसार केवल व्यावसायिक गतिविधि नहीं है. वह लोकतांत्रिक व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण कच्चा माल उपलब्ध कराने वाली व्यवस्था है. जानकारी पाना या देना, कनेक्ट करना और जागृत विश्व के सम्पर्क में रहना समय की सबसे बड़ी जरूरत है.  
एक अरब वैबसाइट, साढ़े तीन अरब प्रयोक्ता
आज इंटरनेट पर तकरीबन एक अरब वैबसाइट हैं. दुनिया में इंटरनेट के तकरीबन 3.5 अरब प्रयोक्ता हैं. यानी औसतन 3.5 प्रयोक्ताओं में से एक अपनी बात इंटरनेट के मार्फत कहता है. यह संख्या तो अभी काफी तेजी से बढ़ेगी.
इसका मतलब है कि इंटरनेट सम्पर्क का जबर्दस्त माध्यम बनकर उभरा है. यह व्यवस्था सबको समान अवसर देने वाली होनी चाहिए. पर यह पूँजी का खेल है. बेशक बाजार और पूँजी भी अंततः सार्वजनिक हितों की अनदेखी नहीं कर सकते. ऐसे में बाजार के नियामक की जरूरत होगी, जिसे तैनात करना राज्य की जिम्मेदारी है. उसे देखना है कि इजारेदारी कायम न होने पाए. इंटरनेट सर्विस प्रदाता या टेलीकॉम कम्पनियाँ ऐसे गेटकीपर न बनें जो दूसरों के प्रवेश को रोकें.   
नेट के माध्यम से भारत जैसे गरीब देशों में बहुत बड़ी दुनिया खुलने जा रही है. भारत में पिछले बारह महीनों में छह करोड़ लोग मोबाइल फोन के जरिए इंटरनेट से जुड़े हैं. साथ ही तीस करोड़ लोग मोबाइल फोन पर ब्रॉडबैंड का इस्तेमाल कर रहे हैं.
स्मार्टफोनों की गिरती कीमत के साथ यह संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है. हमारे 60 करोड़ से ज्यादा फोन धारक ऐसे हैं जिनके पास स्मार्टफोन नहीं हैं. स्मार्टफोनों की कीमत और इंटरनेट की दरें सूचना-प्रसार की इस महा-क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी. यहीं पर एक बड़ा सवाल नेट न्यूट्रैलिटी का खड़ा होता है.
नेट न्यूट्रैलिटी माने क्या?
नेट न्यूट्रैलिटी माने इंटरनेट सेवा का निर्बाध होना. टेलीकॉम ऑपरेटर, फोन कम्पनियाँ और इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर इस स्थिति में होते हैं कि वे उपभोक्ता की सेवा को नियंत्रित कर सकें. मसलन आपकी पहुँच किस साइट तक हो, किस स्पीड से हो और किस सेवा का क्या शुल्क वसूला जाए. नेट न्यूट्रैलिटी उस अवधारणा का नाम है जो कहती है कि दुनिया को सूचना और जानकारी देने तथा अभिव्यक्ति की निर्बाध स्वतंत्रता तथा ऑनलाइन कारोबार को सहूलियत के साथ चलाने के लिए जरूरी है कि नेट तक यह पहुँच निर्बाध और तटस्थ हो.

सभी साइटों तक समान रूप से उपभोक्ता की पहुँच हो. सबकी स्पीड समान हो और प्रति किलोबाइट-मेगाबाइट डेटा-मूल्य समान हो. इंटरनेट कम्पनियों की न तो लाइसेंसिंग जैसी कोई व्यवस्था हो और न गेटवे हों. किसी साइट को निःशुल्क बनाने वाली सुविधा भी नेट न्यूट्रैलिटी को प्रभावित कर सकती है, क्योंकि ऐसी सेवा की लोकप्रियता दूसरी महत्वपूर्ण सेवाओं को आगे आने से रोक सकती हैं. उन्हें किसी सेवा को न तो ब्लॉक करना चाहिए और न ही उसकी स्पीड स्लो करनी चाहिए. वैसे ही जैसे सड़क पर हर तरह के ट्रैफिक के साथ समान बर्ताव किया जाए.

भारत में यह मामला पिछले साल तब उठा था जब इंटरनेट पर की जाने वाली फोन कॉल्स के लिए टेलीकॉम कंपनियों ने अलग कीमत तय करने की कोशिशें की थीं. कंपनियां इसके लिए वेब सर्फिंग से ज़्यादा दर पर कीमतें वसूलना चाहती थीं. इसके बाद टेलीकॉम सेक्टर की नियामक एजेंसी 'ट्राई' ने आम लोगों से 'नेट न्यूट्रैलिटी' या 'इंटरनेट तटस्थता' पर राय मांगी. पिछले साल नेट तटस्थता के संदर्भ अलग थे और इस साल के संदर्भ दूसरे हैं. इस वक्त नेट सेवा फ्री में देने की कोशिश की जा रही है, जिससे कुछ विसंगतियाँ पैदा हो सकती हैं.
फ्री बेसिक्स की पेशकश
तकरीबन एक साल पहले भारत में फेसबुक ने रिलायंस कम्युनिकेशंस के सहयोग से एकदम मुफ्त इंटरनेट सेवा देने की योजना बनाई. इस सेवा के तहत फेसबुक के अलावा कुछ और सेवाएं ग्राहक को दी जाएंगी. रिलायंस ने पिछले साल 23 नवम्बर को ट्राई को सूचित किया कि वह अपने जीएसएम ग्राहकों को फ्री इंटरनेट सुविधा देने जा रहा है. सेवा नियमों के ब्योरों के अभाव में ट्राई ने इस सेवा को शुरू नहीं होने दिया. इसके बाद 12 दिसम्बर को ट्राई ने एक नया पेपर जारी किया जिसमें कंटेंट सेवाओं की दरों को लेकर सम्बद्ध पक्षों से सवाल किए गए हैं. इसमें सेवा प्रदाताओं के जीरो रेटिंग प्लेटफॉर्मों को लेकर सवाल हैं. ट्राई ने पूछा है कि क्या इस प्रकार की भिन्न-भिन्न दरों (डिफरेंशियल प्राइसिंग) की अनुमति दी जानी चाहिए?
फ्री बेसिक्स ओपन प्लेटफॉर्म है जो दो साल पहले सैमसंग, एरिकसन, मीडियाटेक, ऑपेरा सॉफ्टवेयर, नोकिया और क्वालकॉम की साझेदारी में शुरू किया गया था. भारत में फेसबुक ने इंटरनेट को लोकप्रिय बनाने की पहल शुरू की है, जिसके व्यावसायिक निहितार्थ हैं. यह वैसे ही है जैसे फ्री न्यूजपेपर की अवधारणा. फेसबुक और मोबाइल सेवा प्रदाता रिलायंस ने फ्री बेसिक्स की पेशकश की है. फ्री बेसिक्स की दुनिया के 36 देशों में आज भी पहुँच है. पर उसके प्रयोक्ताओं की संख्या केवल डेढ़ करोड़ है. यदि भारत में वह लागू हो तो सौ करोड़ तक नए प्रयोक्ता इसमें शामिल हो सकते हैं. एक माने में यहाँ महा-क्रांति होगी, पर इससे फेसबुक की इजारेदारी भी कायम होगी.
समर्थन अभियान
फेसबुक ने फ्री बेसिक्स की पेशकश ही नहीं की, इसके लिए भारत में समर्थन जुटाने के लिए एक अभियान भी चलाया. करोड़ों रुपए के विज्ञापन मीडिया में दिखाई पड़े. साथ ही लाखों फेसबुक उपभोक्ताओं ने टेलीकॉम रेग्युलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) को संदेश भेजे. बावजूद इसके बड़ी संख्या में लोग जानते नहीं कि इस पहल का व्यावहारिक मतलब क्या है.
ट्राई ने यह भी जानना चाहा है कि क्या इन प्लेटफॉर्मों को द्वारपालों की तरह विकसित होने दिया जाए, जो उन छोटी वैबसाइटों का जीना मुहाल कर देंगे, जो इन समूहों में शामिल नहीं हो पाएंगी. जीरो रेटिंग प्लेटफॉर्म के बारे में नागरिकों की राय भी माँगी गई है. इसी वजह से फेसबुक ने अपने उपभोक्ताओं से अपील की थी कि वे एक मेल ट्राई के पास भेजें, जिसका टेक्स्ट फेसबुक ने तैयार किया था.
ट्राई ने इस विषय पर 31 दिसम्बर तक टिप्पणियाँ और 7 जनवरी तक प्रति टिप्पणियाँ माँगी थीं. दिसम्बर के अंत तक इस सिलसिले में ट्राई को 18 लाख से ज्यादा टिप्पणियां मिल चुकी थीं. किसी भी दस्तावेज के लिए मिली जनता की प्रतिक्रियाओं की संख्या के लिहाज से यह संख्या विशाल है. टिप्पणी देने की समय सीमा को एक सप्ताह बढ़ाते हुए ट्राई ने इसे 7 जनवरी तक कर दिया. साथ ही जवाबी टिप्पणी के लिए समय सीमा 14 जनवरी कर दी गई है.
हालांकि ट्राई के दस्तावेज में नेट निरपेक्षता शब्द का उपयोग नहीं किया गया है, लेकिन 'जीरो रेटिंग प्लेटफॉर्म' के बारे में विस्तार से उल्लेख किया गया है. ट्राई के चेयरमैन आर एस शर्मा का कहना है कि लोगों ने हमारे सवालों के जवाब नहीं दिए हैं. यह वैसे ही है जैसे सवाल का उत्तर माँगा जाए तो सवाल का उत्तर मिले.  
ट्राई को लाखों सुझाव मिले हैं. सबसे ज्यादा ई-मेल फेसबुक यूजरों की और से फ्री बेसिक्स के पक्ष में हैं. स्वाभाविक है कि फेसबुक ने अपने मंच का बेहतर इस्तेमाल किया है. पर खराबी यह है कि तमाम यूजर नहीं जानते कि यह बहस किस बात को लेकर है. और वे जो अनुरोध कर रहे हैं इसका व्यवहारिक अर्थ क्या है. ट्राई ने इसकी तरफ इशारा भी किया है, जिससे लगता है कि फेसबुक को इसका नुकसान होगा. बहरहाल जो सुझाव दिए गए हैं उनमें नेशनल ऑप्टिक फाइबर नेटवर्क और इंटरनेट की पहुँच का दायरा बढ़ाने के लिए विशेष कोष बनाने की सलाह भी शामिल है.
कनेक्टिविटी का मौलिक अधिकार
फेसबुक अपने इस कार्यक्रम के पक्ष में काफी आक्रामक है. उसने विज्ञापनों के जरिए फ्री बेसिक्ससे जुड़ी कुछ भ्रांतियों को भी दूर करने की कोशिश की है. टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक लेख में ज़ुकरबर्ग ने लिखा है, कनेक्टिविटी भी मौलिक मानवाधिकार है. दुनिया और समाज से जुड़ना व्यक्ति की जरूरत है. यह केवल कुछ अमीरों या फीस देकर सेवा लेने वालों तक सीमित क्यों रहे? हर समाज में कुछ बुनियादी सेवाएं होती है जो लोगों की भलाई के लिए बहुत जरूरी हैं. हम उम्मीद करते है कि हर कोई उन्हें स्वतंत्र रूप से उपयोग करने में सक्षम हो.
ज़ुकरबर्ग के अनुसार मुफ्त बुनियादी पुस्तकों के संग्रह पुस्तकालय कहलाते हैं, जहाँ हरेक किताब नहीं होती, लेकिन फिर भी पाठक को काफी कुछ मिल जाता है. इसी तरह मुफ्त बुनियादी स्वास्थ्य सेवा है. सरकारी अस्पतालों में हर इलाज नहीं, लेकिन फिर भी वे लोगों की जान बचाने के काम करते हैं. इसी तरह मुफ्त बुनियादी शिक्षा है. हर बच्चा स्कूल जाने का हकदार है. इसी तरह इंटरनेट की बुनियादी सेवा है.
उनकी बात सही है, पर इसमें पेच है. पुस्तकालय, सार्वजनिक चिकित्सालय और सार्वजनिक विद्यालयों की सेवाएं सामान्यतः सरकारें उपलब्ध कराती हैं. निजी कम्पनियाँ नहीं, जिनके व्यावसायिक हित होते हैं. यदि सरकार इंटरनेट सेवा मुफ्त उपलब्ध कराएगी तो उसमें शामिल वैब सेवाओं की सूची सार्वजनिक विमर्श से तय होगी, व्यावसायिक कारणों से नहीं. फिर भी यह रोचक अवधारणा है. इसके सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद ही ट्राई का फैसला होगा.
डिजिटल समानता
फेसबुक का कहना है कि फ्री बेसिक्स डिजिटल समानता के पक्ष में है. हमारा लक्ष्य भारत के एक अरब लोगों को ऑनलाइन करने का है. एक व्यावसायिक योजना सामाजिक रूप से लाभकारी भी हो सकती है. दुनिया का अनुभव है कि इसकी मदद से काफी बड़ी संख्या में लोग ऑनलाइन हो रहे हैं. भारत में गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, अमेज़न और फेसबुक जैसी कम्पनियों का बड़ा बाजार है. शायद वे भी ऐसी योजनाएं लेकर आएं. हाल के वर्षों में यहाँ ई-बाजार की जबर्दस्त सम्भावनाएं पैदा हुई हैं.
ज़ुकरबर्ग की फ्री बेसिक्स एक तरह से मार्केटिंग का फंडा है. सवाल है कि यदि कोई मुफ्त में सेवा देना चाहता है और कोई उस सेवा को लेना चाहता है तो उसे रोका कैसे जाएगा? फ्री बेसिक्स का इरादा फेसबुक और उससे जुड़ी सेवाएं मुफ्त में देने का है. इसमें सारी इंटरनेट सेवाएं शामिल नहीं हैं, पर यह उन डेवलपरों के लिए खुला होगा जो इसमें शामिल होना चाहें.
फेसबुक का कहना है कि फेसबुक उपयोगकर्ता की गोपनीयता और सुरक्षा को अत्यंत गंभीरता से लेता है. फ्री बेसिक्स किसी वेबसाइट, डोमेन या थर्ड पार्टी सर्विस का नाम और डेटा यूसेज को स्टोर करने का काम करेगी. फेसबुक ने कहा है कि वह किसी भी थर्ड पार्टी जांच के लिए तैयार है। इसके लिए उसने नैस्कॉम या आईएएमएआई से जांच करवाने की पेशकश की है. फेसबुक अपने प्लेटफॉर्म पर ट्विटर और गूगल प्लस का फ्री एक्सेस देने को भी तैयार है.
किफायती इंटरनेट
भारत जैसे देश में महंगी दरें और जागरूकता में कमी इंटरनेट के विस्तार में दो बड़ी बाधाएं हैं. यह सच है कि फेसबुक ने बड़ी संख्या में लोगों को इंटरनेट की ताकत से परिचित कराया है. माना जा रहा है कि जैसे ही लोगों का इंटरनेट के आंशिक सत्य से परिचय होगा वे पूर्ण सत्य का आनंद भी लेना चाहेंगे. फ्री बेसिक्स की मदद से इंटरनेट के संसार में शामिल होने वाले लोग भी अंततः डेटा के लिए भुगतान करके पूरी सेवा हासिल करना चाहेंगे.
इस लिहाज से फ्री बेसिक्स सेतु का काम कर भी सकता है. दुनिया के 36 देशों में वह किसी न किसी रूप में उपस्थित है. वह नेट न्यूट्रैलिटी के विरोध में नहीं है और उपभोक्ता हितैषी है. जहाँ तक फेसबुक के इरादे से जाहिर है कि वह कारोबार चाहता है, पर कारोबार में दिक्कत क्या है?
जवाबी अभियान
जितना आक्रामक फेसबुक का अभियान है उतने ही आक्रामक उसके विरोधी हैं. इसके जवाब में सेव द इंटरनेट ने अपने यूजरों से अनुरोध किया कि वे भी ट्राई को मेल भेजकर फ्री बेसिक्सका विरोध करें. आईआईटी और अन्य प्रमुख तकनीकी संस्थानों से 64 प्रोफेसरों ने एक संयुक्त बयान में कहा है कि  'न तो यह प्लेटफॉर्म मुफ्त है और न बेसिक या बुनियादी.' यह नेट न्यूट्रैलिटी का उल्लंघन है. चुनींदा वेबसाइट का फ्री होना अन्य वेबसाइट्स के हित में नहीं है.
कहा यह भी जा रहा है कि इसके विरोध में माइक्रोसॉफ्ट और ट्रूकॉलर जैसी बड़ी संस्थाएं भी परोक्ष रूप से उतरी हैं. फ्री बेसिक्स किस हद तक फ्री होगा अभी यह बात भी स्पष्ट नहीं है. इसे चाय की लत की तरह भी देखा जा रहा है जो उपभोक्ताओं को शुरुआत में मुफ्त में ही बाँटी गई थी. पर चाय में भी तो ऐसा कुछ खास था जिसके कारण लोगों ने उसे अपनाया.
कुछ लोग इसको डीटीएच सेटअप बॉक्स की तरह भी देख रहे हैं, जिसमें उपभोक्ता को अपने पसंदीदा चैनल के लिए अतिरिक्त शुल्क देना पड़ता है. इसके विरोधियों में भारत के प्रसिद्ध स्टार्टअप पेटैम के संस्थापक विजय शेखर शर्मा, इंफोसिस के संस्थापकों में से एक नंदन नीलेकनी और वेंचर कैपिटलिस्ट महेश मूर्ति जैसे लोग शामिल हैं.
दीवारों से घिरा बगीचा
नीलेकनी ने लिखा कि ज़ुकरबर्ग का फ्री बेसिक्स दीवारों से घिरा बग़ीचा है, जिसमें हरेक का प्रवेश सम्भव नहीं. इसकी जगह सरकार को इंटरनेट पर सब्सिडी देनी चाहिए. देश के तमाम स्टार्टअप इसके खिलाफ लामबंद हैं. सूचना और समाचार के दूसरे माध्यमों की तरह इंटरनेट कारोबार का जरिया भी है. मुफ्त की सेवा देने वाले प्रदाता के हाथ में इतनी ताकत आ जाएगी कि वह कारोबारी कम्पनियों से अपनी मर्जी की फीस वसूलेगा.  
info.internet.org के मुताबिक फ्री बेसिक्स किसी भी डेवलपर और किसी भी एप्लीकेशन के लिए ओपन प्लेटफॉर्म होगा. उसे बुनियादी तकनीकी आवश्यकताओं को पूरा करना होगा. फ्री बेसिक्स पर यूजर्स का जो भी डेटा होगा उसकी जानकारी सिर्फ फेसबुक के पास होगी. अगर कोई वेबसाइट फ्री बेसिक्स के साथ काम करना चाहे तो उसे फेसबुक से सम्पर्क रखना होगा.
सॉफ्टवेयर कंपनियों के संगठन नैस्कॉम के चेयरमैन आर चंद्रशेखर ने कहा है कि अलग-अलग चार्ज से ग्राहक का हक मारा जाता है. अगर कुछ खास सेवाओं के अलग कीमत भी हो तो इसका फैसला ट्राई करे, इसके लिए कोई टेलीकॉम कंपनी या उसका पार्टनर नहीं होना चाहिए. फेसबुक का फ्री बेसिक्स नेट न्यूट्रैलिटी के खिलाफ है. किसी खास सर्विस के लिए अलग चार्ज का हक नहीं होना चाहिए.
राज्य की भूमिका
बेलारूसी मूल के लेखक एवजेनी मोरोजोव तकनीक के राजनीतिक सामाजिक प्रभाव के बारे में लिखते हैं. उनका कहना है कि किस तरह सिलिकॉन वैली के कारोबार ने लोगों की कनेक्टिविटी, परिवहन तथा अन्य उन सुविधाओं को जो राज्य का विषय होती थीं अपने पक्ष में झटक लिया है. बजाय इसके कि जनता राज्य से पेयजल से लेकर परिवहन सुविधा तक की माँग करे, उसे समझाया जा रहा है कि यह काम कुछ पूंजीपति करेंगे. हमें शिक्षा की जगह इंटरनेट कनेक्टिविटी दिखाई जा रही है और सार्वजनिक परिवहन की जगह उबर की टैक्सी सेवा.
इंटरनेट पर लोगों की जबर्दस्त उपस्थिति के बावजूद सच यह भी है कि यह अब भी अमीरों और पश्चिमी देशों का माध्यम है. दुनिया में केवल 12 फीसदी लोग ही अंग्रेजी बोलते हैं, पर इंटरनेट पर 53 फीसदी सामग्री अंग्रेजी में है. ज़ुकरबर्ग ने शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य सेवाओं की बात की है, पर ये सेवाएं किस भाषा में और किसे मिलेंगी? दूसरी और सम्भावना यह भी है कि इसकी मदद से गरीबों को अपनी भाषा में अपनी बात कहने का मौका मिलेगा. मोबाइल फोन भी महंगा था, पर वह गरीबों के भी काम आया. यह बात सच है कि इंटरनेट स्कूल का विकल्प नहीं है, पर इस बात को स्थापित करने में मददगार तो होगा ही.









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