Sunday, May 10, 2015

‘अन्याय’ हमारे भीतर है

सलमान खान मामले के बाद अपने संविधान की प्रस्तावना को एकबार फिर से पढ़ने की इच्छा है। इसके अनुसारः-
" हम भारत के लोग, ...समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए...इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"
   सलमान खान को सज़ा सुनाए जाने से पहले बड़ी संख्या में लोगों का कहना था हमें अपनी न्याय-व्यवस्था पर पूरा भरोसा है। सज़ा घोषित होते ही उन्होंने कहा, हमारा विश्वास सही साबित हुआ। पर फौरन ज़मानत मिलते ही लोगों का विश्वास डोल गया। फेसबुक पर पनीले आदर्शों से प्रेरित लम्बी बातें फेंकने का सिलसिला शुरू हो गया। निष्कर्ष है कि गरीब के मुकाबले अमीर की जीत होती है। क्या इसे साबित करने की जरूरत है? न्याय-व्यवस्था से गहराई से वाकिफ सलमान के वकीलों ने अपनी योजना तैयार कर रखी थी। इस हुनर के कारण ही वे बड़े वकील हैं, जिसकी लम्बी फीस उन्हें मिलती है। व्यवस्था में जो उपचार सम्भव था, उन्होंने उसे हासिल किया। इसमें गलत क्या किया?

हमें इसके पीछे अन्याय की गंध आती है तो उसके पीछे का कारण पूरी व्यवस्था में छिपा है। उसे खोज निकालना और ठीक करना इतना आसान नहीं, जितना नजर आता है। संविधान की प्रस्तावना लिख देने भर से  सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की स्थापना नहीं हो जाती। कानून के सामने समता का सिद्धांत, केवल सिद्धांत नहीं, व्यावहारिक होना चाहिए। पर आज के हालात में एक गरीब व्यक्ति क्या न्याय प्राप्त करने की स्थिति मैं है? गलती केवल न्याय-व्यवस्था की है या पूरी समाज-व्यवस्था की? 

इस दौरान फिल्मी गायक अभिजित ने एक फूहड़ ट्वीट किया, जिसपर ‘वर्च्युअल क्रांतिकारी’ नाराज़ हो गए। नाराज़गी अपनी जगह ठीक है, पर सच यह भी है कि गरीब उसी मौत मरता है, जिसका जिक्र अभिजित ने किया। पर अभिजित ने इसका दोष गरीबों पर ही डाला है, जो अपने आप में अन्याय है। गरीब क्यों मरता है? क्योंकि उसके पास साधन नहीं हैं। सलमान खान के पक्ष में न्याय की तराजू इसलिए झुकी क्योंकि उसके पास साधन हैं।  क्या आप कोई ऐसी व्यवस्था बना सकते हैं, जिसमें गरीब और अमीर बराबरी पर खड़े हों? वहाँ तक पहुँचने के पहले हमें वास्तविकताओं पर भी नज़र डालनी चाहिए। 

केन्द्रीय विधि और न्याय मंत्री डीवी सदानंद गौडा ने हाल में राज्यसभा में कहा कि देश में विभिन्न अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या को देखते हुए राष्ट्रीय मुकदमा नीति की जरूरत है, जिसका मसौदा तैयार किया जा रहा है। निचली अदालतों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक लटके मुकदमों की संख्या में पिछले तीन चार वर्षों में कमी आ रही है, लेकिन बड़ी संख्या में नए मुकदमे भी दर्ज हो रहे हैं। अभी निचली अदालतों में लगभग ढाई करोड़ और सर्वोच्च न्यायालय में लगभग 40 लाख मुकदमे लंबित हैं। मोटे तौर पर हमारे देश में तीन करोड़ मामले अदालतों में हैं।

सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ न्याय-व्यवस्था में सुधार हमारी बुनियादी ज़रूरत है। इन तीनों मामलों में मनुष्य को बराबरी से देखना चाहिए। ऐसा नहीं है तो यह सामाजिक व्यवस्था का दोष है। दुर्भाग्य से तीनों जिंस पैसे से खरीदी जा रही हैं। पुलिस का एक सिपाही सब्जी का ठेला लगाने वाले या रिक्शा चलाने वाले की रोज़ी-रोटी रोक सकता है। यह अन्याय है, जिसे आप हर रोज़ देखते हैं। सबसे बड़ी खामी है न्याय में लम्बा विलम्ब। सलमान के मामले में 13 साल लगे और कहना मुश्किल है कि कितने साल और लगेंगे। इस बीच किसी ने जानने की कोशिश नहीं की कि पीड़ित परिवार के हाल क्या हैं। उस परिवार की मदद में जो रकम लगती वह खर्च हुई राशि से काफी कम होती। इस मामले के राजनीतिक पहलू को भी देखा जाना चाहिए।

हाल में मुख्य न्यायाधीश ने लोअर कोर्ट में पांच और अपील कोर्ट में दो साल में मुकदमा निबटाने का लक्ष्य रखा। यह तभी सम्भव है जब प्रक्रियाएं आसान हों। न्याय व्यवस्था का संदर्भ केवल आपराधिक न्याय या दीवानी के मुकदमों तक सीमित नहीं है। व्यक्ति को कारोबार का अधिकार देने और मुक्त वातावरण में अपना धंधा चलाने के लिए भी उपयुक्त न्यायिक संरक्षण की जरूरत है। पिछले दो दशक में न्यायपालिका को लेकर सबसे ज्यादा चर्चा न्यायिक सक्रियता की हुई है। हाल में कई मौकों पर अदालतों ने आगे बढ़कर बड़े फैसले किए हैं। इसके अलावा न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव को लेकर भी कई प्रकार के विवाद खड़े हुए हैं। इन सबके बीच न्यायिक सुधार का काम रुका पड़ा है, जबकि जनता को सबसे ज्यादा परेशानी वहीं पर है।

न्याय प्रणाली खराब होने के लिए अदालतों को जिम्मेदार ठहराया जाता है, लेकिन कानून बनाने का जिम्मा विधायिका का है और बुनियादी सुविधाएं जुटाना कार्यपालिका का काम है। विधायिका और कार्यपालिका की कमजोरी के कारण व्यवस्था में असंतुलन भी पैदा हुआ है। सन 2012 में उच्चतम न्यायालय की एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय उच्च न्यायालयों द्वारा 17 लाख मामलों के निपटारे के बावजूद 2012 में मामलों के लंबित होने की दर 1.73 फीसदी से बढ़ी। सुप्रीम कोर्ट की रिपोर्ट के अनुसार देश में दो करोड़ नए मामले 2011 में आए थे और तकरीबन इतने ही निपटाए भी गए लेकिन लम्बित मामलों की संख्या जस की तस यानी तकरीबन तीन करोड़ बनी रही, जिनमें 26 फीसद पांच साल से ज्यादा पुराने हैं।

मुकदमों का निपटारा न हो पाने की एक वजह यह है कि हाईकोर्टों में 25-30 प्रतिशत और अधीनस्थ अदालतों में 20 प्रतिशत तक नियुक्तियां लंबित हैं। यदि सारी नियुक्तियाँ हो भी जाएं तो प्रति दस लाख की जनसंख्या पर 13 जजों की संख्या काफी कम है। इसे कम से कम 30 या उससे ऊपर ले जाने की जरूरत है। विकसित देशों में यह संख्या 50 और कुछ विकासशील देशों में 35-40 तक है। महिला सशक्तीकरण पर लोकसभा की कमेटी की 2013 की रिपोर्ट के अनुसार अधीनस्थ स्तर पर भारत में 18,000 न्यायाधीश हैं। एक न्यायाधीश द्वारा औसतन निबटाए गए मामलों की संख्या से भी न्याय-व्यवस्था की झलक मिलती है। एक ऑस्ट्रेलियाई विकास सलाहकार, बेरी वॉल्श के एक अध्ययन के अनुसार सन 2005 में दिल्ली में निस्तारण दर 701 मामले प्रति वर्ष थी जबकि ऑस्ट्रेलियाई अदालतों में यह संख्या 1511 थी।

न्याय में तेजी लाने के लिए अदालती भवनों के निर्माण, केस प्रबंधन की प्रणाली के विकास और मुकदमों की प्रक्रिया से जुड़े कानूनों के दोष दूर करने की जरूरत भी होगी। 12वीं पंचवर्षीय योजना के कार्य समूह के अनुसार 1670 करोड़ रु के खर्च से 17,300 अदालतों का कम्प्यूटरीकरण होना है। कारोबारी और तकनीकी मामलों के (जैसे सायबर कानून), निपटारे के लिए विशेषज्ञता की जरूरत भी है। हमारे यहाँ जनहित याचिका का दुरुपयोग भी होता है और छोटी-छोटी बातों को लेकर अदालतों में जाने का चलन है। मामलों को लटकाने के लिए अदालतों की धीमी व्यवस्था का दुरुपयोग भी लोग करते हैं।

कानून मंत्री ने हाल में बताया कि मध्यस्थता कानून में संशोधनों की जरूरत है और सरकार इसके लिए जल्दी ही संसद में संशोधन विधेयक लाएगी। ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और कनाडा में लगभग 70 प्रतिशत सिविल मामले ट्रायल शुरु होने से पहले निपट जाते हैं। दोनों पक्ष मुकदमे में होने वाली देरी और आर्थिक नुकसान के बारे में जानते हैं। कुछ लोग फँसाने के लिए ही मुकदमा दायर करते हैं। जरूरी है कि मुकदमे के हर चरण के लिए समय सीमा का निर्धारण हो। मुकदमा फाइल करने की तिथियों के साथ-साथ निस्तारण तिथियों का प्रकाशन होना चाहिए। बार-बार तारीख लेने और दूसरी टालमटोल रणनीतियों पर बंदिशें लगनी चाहिए। मोटर वेहिकल एक्ट और चेक बाउंस मामलों के निपटारे का आसान इंतज़ाम किया जा सके तो एक तिहाई मामले यों ही निपट जाएं।


2 comments:

  1. न्याय पालिका न्याय के प्रति जबाबदेह है । मुझे यह कहना है कि क्या अपराधियो को वर्षो पुर्व प्रदर्शित फिल्म
    दूश्मन की तरह न्याय किया जा सकेगा ।

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