Tuesday, December 18, 2012

लुक ईस्ट, लुक एवरीह्वेयर

डिफेंस मॉनिटर का दूसरा अंक प्रकाशित हो गया है। इस अंक में पुष्पेश पंत, मृणाल पाण्डे, डॉ उमा सिंह, मे जन(सेनि) अफसिर करीम, एयर वाइस एडमिरल(सेनि) कपिल काक, कोमोडोर रंजीत बी राय(सेनि), राजीव रंजन, सुशील शर्मा, राजश्री दत्ता और पंकज घिल्डियाल के लेखों के अलावा धनश्री जयराम के दो शोधपरक आलेख हैं, जो बताते हैं कि 1962 के युद्ध में सामरिक और राजनीतिक मोर्चे पर भारतीय नेतृत्व ने जबर्दस्त गलतियाँ कीं। धनश्री ने तत्कालीन रक्षामंत्री वीके कृष्ण मेनन और वर्तमान रक्षामंत्री एके एंटनी के व्यक्तित्वों के बीच तुलना भी की है। सुरक्षा, विदेश नीति, राजनय, आंतरिक सुरक्षा और नागरिक उड्डयन के शुष्क विषयों को रोचक बनाना अपने आप में चुनौती भरा कार्य है। हमारा सेट-अप धीरे-धीरे बन रहा है। इस बार पत्रिका कुछ बुक स्टॉलों पर भेजी गई है, अन्यथा इसे रक्षा से जुड़े संस्थानों में ही ज्यादा प्रसारित किया गया था। हम इसकी त्रुटियों को दूर करने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरे अंक में भी त्रुटियाँ हैं, जिन्हें अब ठीक करेंगे। तीसरा अंक इंडिया एयर शो पर केन्द्रत होगा जो फरवरी में बेंगलुरु में आयोजित होगा। बहरहाल ताज़ा अंक में मेरा लेख भारत की लुक ईस्ट पॉलिसी पर केन्द्रत है, जो मैं नीचे दे रहा हूँ। इस लेख के अंत में मैं डिफेंस मॉनीटर के कार्यालय का पता और सम्पर्क सूत्र दे रहा हूँ। 

एशिया के सुदूर पूर्व जापान, चीन और कोरिया के साथ भारत का काफी पुराना रिश्ता है। इस रिश्ते में एक भूमिका धर्म की है। दक्षिण पूर्व एशिया के कम्बोडिया, इंडोनेशिया, थाइलैंड और मलेशिया के साथ हमारे आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रिश्ते रहे हैं। ईसा की दूसरी सदी में अरब व्यापारियों के आगमन के पहले तक हिन्द महासागर के पश्चिम और पूर्व दोनों ओर भारतीय पोतों का आवागमन रहता था। भारतीय जहाजरानी और व्यापारियों के अनुभवों और सम्पर्कों का लाभ बाद में अरबी-फारसी व्यापारियों ने लिया। ईसा के तीन हजार साल या उससे भी पहले खम्भात की खाड़ी के पास बसा गुजरात का लोथाल शहर मैसोपाटिया के साथ समुद्री रास्ते से व्यापार करता था। पहली और दूसरी सदी में पूर्वी अफ्रीका, मिस्र और भूमध्य सागर तक और जावा, सुमात्रा समेत दक्षिण पूर्वी एशिया के काफी बड़े हिस्से तक भारतीय वस्त्र और परिधान जाते थे।

बीस साल पहले जब भारत को आसियान देशों का सेक्टोरल डायलॉग पार्टनर बनाया गया, तब यह कोई विस्मयकारी बात नहीं हुई थी। बल्कि राजनीतिक कारणों से न सिर्फ इसमें देरी हुई थी। भारत के महत्व को उस वक्त कम करके आँका गया था। इस घटना के तीन साल पहले 1989 में जब एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग संगठन (एपेक) बनाया जा रहा था, तब उसमें भारत को सदस्य बनाने की बात सोची भी नहीं गई। पर 1996 में इंडोनेशिया ने भारत को एआरएफ (आसियान रीजनल फोरम) का सदस्य बनाने में मदद की थी। यह वह दौर था जब अमेरिकी विदेश नीति में भारत और पाकिस्तान को एक साथ देखने की व्यवस्था खत्म हो रही थी। इन बातों को याद रखने की ज़रूरत इसलिए है कि अब जब भारत अपने आर्थिक और सामरिक हितों के मद्देनज़र वैश्विक परिप्रेक्ष्य में सोच रहा है तो उसकाआगा-पीठा देखने की ज़रूरत भी पैदा होगी।

इस साल नवम्बर के महीने में चुनाव जीतने के फौरन बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कम्बोडियाआए। इसके कुछ दिन पहले चीन में भी राजनीतिक बदलाव हुआ था। एक अरसे से चीन और जापान के बीच तनाव चल रहा है। पूर्वी चीन सागर में विवादित पांच सेंकाकू द्वीपों में से तीन द्वीपों को जापान सरकार ने खरीदने की औपचारिक घोषणा कीथी, जिसे चीन सरकार ने अवैध बताया। चीन के अनुसार ये द्वीप उसके हैं। इन द्वीपों पर ताईवान भी दावा करता है। ये द्वीप महत्वपूर्ण पोत-परिवहन मार्ग पर पड़ते हैं और उनके चारों ओर हाइड्रोकार्बन के विशाल भंडार हैं। मौजूदा तनाव अगस्त में उस समय शुरू हुआ है, जब चीन समर्थक कार्यकर्ता इनमें से एक द्वीप पर पहुंचे थे। जापानी अधिकारियों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और वापस चीन भेज दिया था। उसके कुछ ही दिनों बाद दर्जनभर जापानी नागरिकों ने उसी द्वीप पर जापानी ध्वज फहराया, जिसके प्रतिक्रियास्वरूप पूरे चीन में विरोध प्रदर्शन हुए। इसी तरह का दक्षिण चीन सागर में सीमा क्षेत्र को लेकर चीन और वियतनाम के बीच तनाव है। नवम्बर में कम्बोडिया की राजधानी नोम पेन्ह में हुए आसियान सम्मेलन में इस विवाद की छाया दिखाई दी। आसियान के 45 साल के इतिहास में पहली बार औपचारिक घोषणापत्र ज़ारी नहीं हो पाया। सम्मेलन के दौरान फिलिपाइंस और कम्बोडिया के शासनाध्यक्षों के बीच कहा-सुनी भी हुई। कम्बोडिया इस वक्त चीन के साथ है और आसियान की मुख्यधारा के खिलाफ है।

सम्मेलन में शामिल होने के लिए नव निर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा खासतौर से आए थे। नोमपेन्ह के अलावा वे म्यामार और थाइलैंड भी गए। जापान और ऑस्ट्रेलिया के शासनाध्यक्षों की उपस्थिति ने इस सम्मेलन को महत्वपूर्ण बना दिया था। आसियान सम्मेलन के साथ ईस्ट एशिया समिट भी हुआ। सन 2005 में मलेशिया की पहल से शुरू हुआ यह सम्मेलन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत भी इसका सदस्य है। इधर भारत-आसियान रिश्तों के बीस साल पूरे हो गए। एक प्रकार से भारत की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ की यह बीसवीं जयंती थी। दो साल पहले प्रधानमंत्री जापान-मलेशिया और वियतनाम की यात्रा के बाद भारत की नई भूमिका को लेकर सवाल उठे थे। क्या भारत चीन को घेरने की अमेरिकी नीति का हिस्सा बनने जा रहा है? इन्हीं संदर्भों में आर्थिक सहयोग और विकास के मुकाबले ज्यादा ध्यान सामरिक और भू-राजनैतिक प्रश्नों को दिया जा रहा है। हालांकि मनमोहन सिंह ने तभी स्पष्ट किया था कि हम चीन के साथ आर्थिक सहयोग को ज्यादा महत्व देंगे विवादों को कम, पर सब जानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय राजनय में ‘स्टेटेड’ और ‘रियल’ पॉलिसी एक नहीं होती।

भारत का आसियान के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमंट है। और अब हम अलग-अलग देशों के साथ आर्थिक सहयोग के समझौते भी कर रहे हैं। पर यह हमेशा याद रखना चाहिए कि आर्थिक शक्ति की रक्षा के लिए सामरिक शक्ति की ज़रूरत होती है। हमें किसी देश के खिलाफ यह शक्ति नहीं चाहिए। हमारे जीवन में दूसरे शत्रु भी हैं। सागर मार्गों पर डाकू विचरण करते हैं। आतंकवादी भी हैं। इसके अलावा कई तरह के आर्थिक माफिया और अपराधी हैं। भारत अब अपनी नौसेना को ब्लू वॉटर नेवी के रूप में परिवर्तित कर रहा है। यानी दूसरे महासागरों तक प्रहार करने में समर्थ नौसेना। हमारी परमाणु शक्ति-चालित पनडुब्बी अरिहंत का सागर परीक्षण चल रहा है। एक और परमाणु पनडुब्बी रूस से आ रही है। आईएनएस विक्रमादित्य के नाम से तैयार होकर विमानवाहक पोत एडमिरल गोर्शकोव अब आने वाला है। एक और विमानवाहक पोत का निर्माण चल रहा है। हमारी नौसेना को परमाणु शक्ति चलित पनडुब्बियों के संचालन का डेढ़ दशक से ज्यादा का अनुभव है। इस इलाके में विमानवाहक पोत हमारे पास ही रहे हैं। इंडोनेशिया की नौसेना के पास हमारे रिटायर पोत विक्रांत की कोटि का एक पोत था, जो उसने 1969 में अर्जंटीना को बेच दिया। चीन ने इस बीच गोर्शकोव जैसा एक विमानवाहक पोत रूस से खरीदा था। शुरू में कहा गया कि उसपर म्यूज़ियम बनाया जाएगा, पर हाल में उसे कमीशन कर दिया गया। चीन अपनी नौसेना को विमानवाहक पोतों का अनुभव देना चाहता है। ब्रटिश और अमेरिकी नौसेनाएं आमतौर पर विमानवाहक विमानों के सहारे ब्लूवॉटर नेवी हैं। रूसी मार्शल गोर्शकोव ने पनडुब्बियों के सहारे अपनी नौसेना को तैयार किया। रूसी नौसेना इस दौड़ में कुछ देर से शामिल हुई। बहरहाल चीन इस मामले में हम से पीछे है। अलबत्ता उसने अपनी पनडुब्बियों के सहारे हिन्द महासागर में अपनी उपस्थिति बना ली है। हाल में अग्नि-5 का परीक्षण करके भारत ने अपनी टेक्नॉलजी और क्षमता का प्रदर्शन किया था। यह क्षमता केवल मारक दूरी से ही पता नहीं लगती। इसके दूसरे मानक भी हैं। मसलन एक से ज्यादा बमों का प्रक्षेपण और ठोस ईंधन का इस्तेमाल। इसके अलावा भारत की योजना मीडियम मल्टीरोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट(एमएमआरसी), सी-17 भारी परिवहन विमान, सी-130-जे परिवहन विमानों के अलावा रूस के साथ मिलकर मल्टीरोल ट्रांसपोर्ट एटरक्राफ्ट विकसित कर रहै है। अपने लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट तेजस के विकसित संस्करण को जीई-एफ404 की जगह जीई एफ-414 इंजन से लैस करने जा रहा हैं। इसी तरह पी-8 पोसाइडन टोही विमान, चिनूक और अपाचे हैलीकॉप्टर और रूस के साथ मिलकर पाँचवी जेनरेशन का स्टैल्थ लड़ाकू विमान विकसित करने जा रहे हैं। अमेरिकी सेना के साथ हमने 40 से ज्यादा सैनिक अभ्यास किए हैं। इनमें तीनों सेनाएं शामिल हैं।

भारत भौगोलिक दृष्टि से बड़ा देश है। दुनिया की दूसरे नम्बर की जनसंख्या यहाँ निवास करती है। उसके और अपनी अर्थव्यवस्था के हितों की रक्षा के लिए हमें सामरिक व्यवस्था करनी ही होगी। बेशक हमें सबके साथ दोस्ताना रिश्ते बनाकर चलना चाहिए, पर इन रिश्तों को बनाए रखने के लिए न्यूनतम ताकत की ज़रूरत भी होती है। दुर्भाग्य है कि हम आसियान के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट कर सकते हैं, पर दक्षिण एशिया में उससे कहीं कमतर समझौता भी पाकिस्तान से नहीं कर सकते। कश्मीर एक सबसे बड़ी राजनैतिक वजह है। इधर चीन ने दक्षिण एशिया के बारे में अपनी दृष्टि में बदलाव किया है। स्टैपल्ड वीज़ा समस्या नहीं, समस्या का लक्षण मात्र है। चीन से जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उनसे लगता है कि वहाँ भारत को लेकर उत्तेजना है। हम चीन की घेराबंदी में अमेरिका के साझीदार बनेंगे या नहीं, यह बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि चीन की दक्षिण एशिया में भूमिका क्या होगी। पाकिस्तान अब चीन को अपना सबसे बड़ा दोस्त मानता है।उसने चीन के शेनझियांग प्रांत के दक्षिणी हिस्से के रास्ते चीन के लिए अपनी सीमा के द्वार खोल दिए हैं। पाकिस्तानी ज़मीन से होते हुए चीन को अरब सागर तक जाने का रास्ता मिल सकता है। इसके अलावा ईरान और तुर्कमेनिस्तान से पाकिस्तान होते हुए पेट्रोलियम पाइपलाइनें भी चीन तक जा सकती हैं। पाकिस्तान की दिलचस्पी अफगानिस्तान में भी चीनी भूमिका को बढ़ाने में है। वह अफगानिस्तान में भारत की भूमिका नहीं चाहता। पाकिस्तान के एटमी और मिसाइल कार्यक्रमों में चीन और उत्तर कोरिया का सक्रिय सहयोग रहा है। इसलिए एक नज़र में उसके हित हमारे हितों से मेल नहीं खाते।

चीन आज हमसे कहीं बड़ी ताकत है, पर अभी वहाँ हमारी जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं है। हमारी अधूरी व्यवस्था में जब इतनी बाधाएं हैं तब आप सोचें पूर्ण लोकतंत्र होने तक क्या होगा? पर लोकतांत्रिक-विकास इसलिए ज़रूरी है कि राजशाही और तानाशाही अब चलने वाली नहीं। तानाशाही में तेज़ आर्थिक विकास सम्भव है, पर जनता की भागीदारी के बगैर वह विकास निरर्थक है। चीन को अभी बड़े परीक्षण से गुज़रना है। हम उस परीक्षण के दूसरे या तीसरे चरण से गुज़र रहे हैं। भारत के उभार पर हालांकि चीन सरकार ने कभी औपचारिक तरीके से कटु प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, पर उसके सेनाधिकारी, पत्रकार और विदेश नीति विशेषज्ञ गाहे-बगाहे भारतीय नीति पर प्रहार करते रहते हैं। दो साल पहले जापान के साथ रिश्तों को सुधारने की भारत की लुक ईस्ट पॉलिसी पर चीनी अखबार पीपुल्स डेली की सम्पादक ली होंगमई ने लिखा कि यह और कुछ नहीं, चीन को घेरने की नीति है। ली का कहना है कि जापान को भारत का उपभोक्ता बाज़ार और रेयर अर्थ मिनरल की उपलब्धता आकर्षित कर रही है। रेयर अर्थ मिनरल कई तरह के औद्योगिक उत्पादों के लिए अनिवार्य है। इस वक्त दुनिया में चीन ही उसका सबसे बड़ा निर्यातक है। भारत में भी यह मिनरल है, पर उतनी मात्रा में नहीं जितना चीन में हैं। पर जापान के काम भर के लिए भारत में उपलब्ध हैं। चीन ने इन मिनरलों का निर्यात बंद कर दिया है। इससे जापान में परेशानी है। ली के अनुसार जापान में लोग डरते हैं कि भारत के कारण जापान के साथ चीन का भारी टकराव न हो जाए। उनके अनुसार सम्भव है, वियतनाम भारत को अपना अड्डा बनाने का मौका दे दे। जब चीन से उसका सैनिक टकराव हुआ तो जापान को भी वियतनाम की मदद में आना पड़ेगा। यह स्थिति अच्छी नहीं होगी। उधर भारत और जापान के बीच अभी तक नाभिकीय समझौता नहीं हो पाया है। यह समझौता ज़रूरी है, क्योंकि फ्रांसीसी और जापानी कम्पनियों के जो रिएक्टर भारत में लगने जा रहे हैं, उनमें कुछ उपकरण जापान स्टील वर्क्स और हिताची जैसी जापानी कम्पनियों के भी हैं।

सन 2008 के भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील ने एक नए किस्म के सहयोग के दरवाजे खोले हैं। यह समझौता न होता तो भारत के तेजस विमान के लिए जनरल इलेक्ट्रिक का इंजन नहीं मिल सकता था। अभी कई प्रकार की उच्चस्तरीय तकनीक मिलने में अड़ंगे हैं। हमारे न्यूक्लियर लायबिलिटी कानून के कारण विदेशी कम्पनियों को कई तरह के एतराज़ हैं। दूसरी ओर देश के भीतर एटमी बिजलीघर लगाने का विरोध हो रहा है। यह अभी संधिकाल है। भारत को शक्ति संचय करने में अभी कुछ समय लगेगा। यह नहीं मान लेना चाहिए कि हम अमेरिका के पिछलगुए बनकर चीन को घेरेंगे। हमारी सुरक्षा और हमारे आर्थिक ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। अमेरिका के दबाव में ईरान के साथ गैस की खरीद का समझौता नहीं कर रहे हैं, पर यह अनंत काल तक नहीं चलेगा। दूसरी ओर हम पाकिस्तान और चीन के साथ आर्थिक सहयोग के समझौते करके स्थितियों को बेहतर बना सकते हैं। यह अनिवार्य रूप से क्यों मान लिया जाए कि हम शत्रु ही बने रहेंगे? पर अमेरिका अभी हमारे लिए महत्वपूर्ण है। चीन के साथ हमारा कारोबार तकरीबन 70 अरब डॉलर का है तो अमेरिका के साथ वह 100 अरब डॉलर से ज्यादा का है। अगले चार-पाँच साल में हम एक हजार अरब डॉलर से ज्यादा की राशि अपने इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास पर खर्च करने वाले हैं। इसमें हमें अमेरिका, चीन, जापान और यूरोप के देशों का सहयोग चाहिए। इसके साथ दक्षिण एशिया के देशों के बीच भी तालमेल और सहयोग की ज़रूरत है। अगला एक दशक हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण है। उसके बाद भारत की दीप्ति और प्रभामंडल आज से बेहतर होगा।
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2 comments:

  1. जोशी जी एक बार फिर इतने सारगर्भित लेख के लिए आपका आभार .... यह तो नहीं कहूँगा की जिज्ञासा का नियमित पाठक हो गया हूँ मगर पाठक जरूर हो गया हूँ , जब भी समय मिलता है | एक बार फिर से आभार पत्रिका का फेसबुक लिंक देने के लिए |

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  2. धन्यवाद आनंद जी।

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