Friday, November 11, 2011

राहुल गांधी को लेकर कुछ किन्तु-परन्तु

एक बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि राहुल गांधी भविष्य में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता होंगे। इसी विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि यह कब होगा और वे किस पद से इसकी शुरूआत करेंगे। पिछले दिनों जब श्रीमती सोनिया गांधी स्वास्थ्य-कारणों से विदेश गईं थीं, तब आधिकारिक रूप से राहुल गांधी को पार्टी की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। अन्ना-आंदोलन के कारण वह समय राहुल को प्रोजेक्ट करने में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सका। बल्कि उस दौरान अन्ना को गिरफ्तार करने से लेकर संसद में लोकपाल-प्रस्ताव रखने तक के सरकारी फैसलों में इतने उतार-चढ़ाव आए कि बजाय श्रेय मिलने के पार्टी की फज़ीहत हो गई। राहुल गांधी को शून्य-प्रहर में बोलने का मौका दिया गया और उन्होंने लोकपाल के लिए संवैधानिक पद की बात कहकर पूरी बहस को बुनियादी मोड़ देने की कोशिश की। पर उनका सुझाव को हवा में उड़ गया। बहरहाल अब आसार हैं कि राहुल गांधी को पार्टी कोई महत्वपूर्ण पद देगी। हवा में यह बात है कि 19 नवम्बर को श्रीमती इंदिरा गांधी के जन्मदिन के अवसर पर वे कोई नई भूमिका ग्रहण करेंगे।


राहुल गांधी जिस वक्त चाहेंगे वे उस वक्त महत्वपूर्ण पद हासिल कर सकते हैं। सन 2009 में यूपीए-2 की सरकार बनते वक्त प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें मंत्री का पद देने की पेशकश की थी, पर राहुल ने उसे स्वीकार नहीं किया। वे अभी कुछ समय और ज़मीन पर काम करना चाहते हैं। पिछले जून से अगस्त के बीच देश में आए ज्वार-भाटा के दौरान एक वक्त ऐसा लगा कि उन्हें अब सामने आना ही होगा, क्योंकि पार्टी बगैर मस्तूल के जहाज की तरह भटक रही है। उन्हीं दिनों दिग्विजय सिंह ने सलाह दी थी कि राहुल को अब प्रधानमंत्री पद सौंप दिया जाना चाहिए। पर शायद राहुल उसके लिए तैयार नहीं हैं। क्या वह घड़ी नज़दीक आ रही है? यदि नहीं तो वह घड़ी कब आएगी? पिछले कुछ समय से सोनिया गांधी पृष्ठभूमि में चली गईं थीं, पर अब वे पुनः सक्रिय हो रही हैं। उम्मीद थी कि वे उत्तराखंड में चमोली जिले के गोचर क्षेत्र में रैली को संबोधित करेंगी और कर एक अरसे से चले आ रहे अपेक्षाकृत सार्वजनिक मौन को तोड़ेंगी। वायरल बुखार के कारण उन्होंने रैली को संबोधित नहीं किया, पर अन्ना और लोकपाल को लेकर उनका वक्तव्य बताता है कि वे सक्रिय हो रही हैं।

राष्ट्रीय राजनीति और कांग्रेस की अंदरूनी दशा को देखते हुए पिछले दो-तीन महीने से दो विपरीत सम्भावनाएं एक साथ होती नज़र आती थीं। एक यह कि महत्वपूर्ण कुछ फैसले कुछ समय के लिए टाले जाएं। या जो फैसले कर लिए गए हैं, उन्हें क्रमशः लागू किया जाए। राहुल गांधी के बाबत फैसला कितने दिन और टाला जा सकता है? आमतौर पर माना जा रहा है कि यदि 2014 में कांग्रेस की सरकार बनी तो राहुल प्रधानमंत्री बनेंगे। पर सरकार नही बनी तब? प्रधानमंत्री बनने के लिए जिस किस्म की सक्रियता चाहिए वह अगले दो-ढाई वर्ष तक नज़र आनी चाहिए। पिछले एक साल में दिल्ली की सरकार के रसूख में बुनियादी तौर पर भारी गिरावट आई है। ऐसा जारी रहा तो 2014 में सरकार कैसे बनेगी? इस गिरावट को रोककर सफलता का नया रास्ता तैयार करने के लिए भी एक नए नेतृत्व और नई दृष्टि की ज़रूरत है।

राहुल गांधी को प्रधानमंत्री न बनाने और उनके स्वयं तैयार न होने के पीछे की समझ यह है कि वे अनुभवहीन हैं। पर 41 साल की उम्र में राजीव गांधी भी प्रधानमंत्री बने थे। राजीव के पास राजनीति का उतना अनुभव नहीं था, जितना राहुल के पास है। उन्होंने देश के लगभग सभी इलाकों को देखा है। देश की समस्याओं का गहराई से अध्ययन किया है। राष्ट्रीय समस्याओं को लेकर बुनियादी दृष्टिकोणों को समझा है। वैचारिक समझ के लिहाज से देश के तमाम नेताओं के मुकाबले राहुल बेहतर स्थिति में हैं। पर व्यावहारिक राजनीति का अनुभव ज्यादा माने रखता है। उनके इर्द-गिर्द की युवा मंडली में ज़मीन से जुड़े लोग हैं या नहीं कहना मुश्किल है। तमाम सक्रियता के बावज़ूद उनके चारों ओर एक प्रति-चुम्बकीय घेरा है। राहुल को 2014 का प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करने के बजाय 2014 का चुनाव जिताने वाले नेता के रूप में प्रोजेक्ट किया जाना चाहिए। इसके भी दो रास्ते हैं। एक उन्हें अभी प्रधानमंत्री बना दिया जाए और काम करने दिया जाए। दूसरा है उन्हें पार्टी अध्यक्ष बनाया जाए और वे नए कार्यक्रम दें। इसके बाद चुनाव में उतरें। नए नेतृत्व और नए कार्यक्रमों के साथ। दोनों रास्तों के जोखिम और सम्भावनाएं हैं।

कांग्रेस को सन 1971 के रास्ते पर जाना चाहिए, जब इंदिरा गांधी नई उम्मीदें लेकर आईं थीं। हालंकि तब के मुहावरे आज पर लागू नहीं होंगे, पर जनता की उम्मीदें आज भी वही हैं। आज हम आर्थिक-सामाजिक और कानूनी बदलाव के दौर में हैं, जिसका विपरीत असर गरीब जनता पर पड़ रहा है। बदलावों की वर्तमान दिशा को देखकर लगता है कि ये अमीर आदमी के हित में हैं। सरकार की छवि कॉरपोरेट-मुखी हो गई है। आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने के लिए इससे बचा नहीं जा सकता। पर इतना तो किया जा सकता है कि रिफॉर्म-एजेंडा को जनोन्मुखी बनाया जाए। यानी इस बात को समझाने की कोशिश की जाए कि उदारीकरण का उद्देश्य सामान्य व्यक्ति के लिए बेहतर अवसरों को उपलब्ध कराना है। यानी आर्थिक व्यवस्था को राजनीति की मुट्ठी में रखा जाए। पर उसके पहले राजनीति को भी रास्ते पर लाना होगा। चुनाव की पूरी व्यवस्था पैसे के खेल पर टिकी है। और इसी पैसे के लिए सरकारें गवर्नेंस की बलि चढ़ा रहीं हैं। बढ़ता मध्य वर्ग चुनाव-सुधार और बेहतर गवर्नेंस चाहता है। उसे गरीबों की बदहाली पसंद नहीं। क्योंकि मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा इसी निम्न वर्ग से ऊपर उठकर आ रहा है।

राहुल गांधी के सामने इस वक्त उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल और पंजाब के चुनाव हैं। इससे बड़ी चुनौती 2013 में है जब चार छोटे राज्यों के अलावा हिमाचल, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान विधानसभाओं के चुनाव होंगे। इन राज्यों में मिली सफलता 2014 के लिए बेहतर माहौल बनाएगी और विफलता बिगाड़ेगी। कांग्रेस ने उत्तर भारत में काफी जमीन खोई है। इसके अलावा गुजरात, कर्नाटक और मध्य प्रदेश को हाथ से निकल जाने दिया है। अपनी नासमझी से आंध्र प्रदेश में स्थितियों को बिगाड़ दिया है। इन राज्यों से भी केन्द्र सरकार बनाने की शक्ति निकलती है।

राहुल गाधी को जो राजनीतिक परिदृश्य मिलेगा वह यूपीए-2 से बेहतर नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में चुनाव के बाद का माहौल नए गठबंधनों का होने वाला है। कांग्रेस की ताकत बढ़ी तो किसकी कीमत पर बढ़ेगी। यानी कोई भी पार्टी पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर पाएगी। तब किस तरह के गठबंधन बनेंगे? राहुल गांधी की पहल से उत्तर प्रदेश में माहौल बना था। अन्ना आंदोलन और टूजी घोटाले की हवाएं उन बादलों को उड़ा ले गईं। उत्तर प्रदेश कांग्रेस की संगठनात्मक कमज़ोरी दूसरी बड़ी समस्या है। पिछले दो दशक में पार्टी ने संगठन खो दिया है। स्थानीय नेता नहीं है। 1991 के बाद से अब तक हुए पाँच विधान सभा चुनावों में कांग्रेस ने सीटें हासिल करने में पचास की संख्या भी पार नहीं की है। तब किस आधार पर 100 सीटें पाने की उम्मीद है? उत्तराखंड में स्थिति फर्क है। वहाँ कांग्रेस की स्थिति उत्तर प्रदेश के मुकाबले बेहतर है, पर नेतृत्व का संकट या विवाद वहाँ भी कम नहीं है।

राहुल गांधी को उत्तर भारत में कांग्रेस को फिर से जमाने के प्रयास करने चाहिए। कांग्रेस का जो व्यापक सामाजिक आधार था, वह कहीं गया नहीं है। बेशक कुछ पार्टियाँ सीमित जातीय आधारों पर खड़ी हैं, पर यही आधार उनकी कमज़ोरी है। वे अकेले खड़ी नहीं हो सकतीं। वे क्षेत्रीय प्रश्नों की पार्टियाँ नहीं हैं। उनकी सफलता के पीछे सामाजिक पहचान ज़रूर है, पर एक कारण यह भी है कि राष्ट्रीय पार्टियों ने अपनी ज़मीन खो दी। यह वक्त नई राजनीतिक परिभाषाओं को खोजने का है और नए नेतृत्व को तलाशने का भी। देखें क्या होता है।

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

2 comments:

  1. हम हमेशा एक ही परिवार और एक ही दल में राजनैतिक भविष्‍य क्‍यों तलाशते हैं? क्‍या हम राजशाही से ग्रसित हैं? एक परिवार के कारण क्‍यों देश को बौना बनाया जा रहा है? जिस युवक की सोच स्‍लेट की तरह रिक्‍त है उसे देश पर थोपने की क्‍यों पहल की जा रही है? यह प्रश्‍न हमेशा दीमाग को मथते हैं।

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  2. देश के लिए वो दिन सबसे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण होगा जिस दिन राहुल को कांग्रेस की पूरी जिम्मेदारी सौंप दी जायेगी|

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