Saturday, December 9, 2017

बारह घोड़ों वाली गाड़ी पर राहुल

गुजरात विधानसभा चुनाव का पहला दौर शुरू होने के डेढ़ दिन पहले मणिशंकर के बयान और उसपर राहुल गांधी की प्रतिक्रिया और पार्टी की कार्रवाई को राहुल गांधी के नेतृत्व में आए सकारात्मक बदलाव के रूप में देखा जा सकता है। राहुल ने हाल में कई इस कहा है कि हम अपनी छवि अनुशासित और मुद्दों और मसलों पर केंद्रित रखना चाहते हैं। सवाल है कि मणिशंकर अय्यर को इतनी तेजी से निलंबित करना और उन्हें ट्विटर के मार्फत माफी माँगने का आदेश देना क्या बताता है? क्या यह पार्टी के अनुशासन-प्रिय होने का संकेत है या चुनावी आपा-धापी का?
राहुल गांधी के नेतृत्व की परीक्षा शुरू हो चुकी है। कांग्रेस बारह घोड़ों वाली गाड़ी है, जिसमें गर क्षण डर होता है कि कोई घोड़ा अपनी दिशा न बदल दे। बहरहाल गुजरात राहुल की पहली परीक्षा-भूमि है और मणिशंकर एपिसोड पहला नमूना। पार्टी के भीतर तमाम स्वर हैं, जो अभी सुनाई नहीं पड़ रहे हैं। देखना होगा कि वे मुखर होंगे या मौन रहेंगे। गुरुवार की शाम जैसे ही राहुल गांधी का ट्वीट आया कांग्रेसी नेताओं के स्वर बदल गए। जो लोग तबतक मणिशंकर अय्यर का समर्थन कर रहे थे, उन्होंने रुख बदल लिया।

Friday, December 8, 2017

स्थानीय निकाय चुनाव से तो साबित नहीं हुए ईवीएम-संदेह

इन दिनों उत्तर प्रदेश के शहरी निकायों के हाल में हुए चुनावों के राजनीतिक निहितार्थ खोजने की कोशिशें हो रहीं हैं. लम्बे अरसे तक पार्टियों के बीच इस बात पर सहमति रही है कि स्थानीय निकाय चुनावों को व्यक्तिगत आधार पर ही लड़ना चाहिए, क्योंकि उनके मुद्दे अलग होते हैं. निचले स्तर पर वोटर और जन-प्रतिनिधि के बीच दूरी कम होती है. इन परिणामों पर नजर डालें तो यह बात साफ नजर आती है. इसबार के चुनाव परिणाम इसलिए महत्वपूर्ण थे, क्योंकि यह माना गया कि इनसे योगी सरकार के बारे में वोटर की राय सामने आएगी. अलबत्ता इस चुनाव ने ईवीएम को लेकर खड़े किए संदेहों को पूरी तरह ध्वस्त किया है.

प्रदेश के राजनीतिक मिजाज की बात करें, तो प्रदेश के महानगरों के परिणाम बता रहे हैं कि बीजेपी की पकड़ कायम है, पर जैसे-जैसे नीचे जाते हैं वह कमजोर होती दिखाई पड़ती है. पर यह बीजेपी की कमजोरी नहीं है, बल्कि इस बात की पुष्टि है कि छोटे शहरों में राजनीतिक पहचान वैसी ही नहीं है, जैसी महानगरों में है.

Sunday, December 3, 2017

अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत

पिछले एक साल से आर्थिक खबरें राजनीति पर भारी हैं। पहले नोटबंदी, फिर जीएसटी और फिर साल की पहली तिमाही में जीडीपी का 5.7 फीसदी पर पहुँच जाना सनसनीखेज समाचार बनकर उभरा। उधर सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इकोनॉमी (सीएमआईई) ने अनुमान लगाया कि नोटबंदी के कारण इस साल जनवरी से अप्रेल के बीच करीब 15 लाख रोजगार कम हो गए। इन खबरों का विश्लेषण चल ही रहा था कि जुलाई से जीएसटी लागू हो गया, जिसकी वजह से व्यापारियों को शुरूआती दिक्कतें होने लगीं।

गुजरात का चुनाव करीब होने की वजह से इन खबरों के राजनीतिक निहितार्थ हैं। कांग्रेस पार्टी ने गुजरात में अपने सारे घोड़े खोल दिए हैं। राहुल गांधी ने ‘गब्बर सिंह टैक्स’ के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है। उनका कहना है कि अर्थ-व्यवस्था गड्ढे में जा रही है। क्या वास्तव में ऐसा है? बेशक बड़े स्तर पर आर्थिक सुधारों की वजह से झटके लगे हैं, पर अर्थ-व्यव्यस्था के सभी महत्वपूर्ण संकेतक बता रहे हैं कि स्थितियाँ बेहतर हो रहीं है।

Friday, December 1, 2017

आम हो गई आप

आम आदमी पार्टी ने अपने जन्म के लिए 26 नवम्बर का दिन इसलिए चुना, क्योंकि सन 1949 में भारत की संविधान सभा ने उस दिन संविधान को स्वीकार किया था। पार्टी राष्ट्रीय प्रतीकों और चिह्नों को महत्व देती है। उसकी कोई तयशुदा विचारधारा नहीं है। सन 2013 में अरविंद केजरीवाल ने वरिष्ठ पत्रकार मनु जोसफ को सार्वजनिक मंच पर दिए एक इंटरव्यू में कहा, हम विचारधाराओं की राह पर नहीं चलेंगे, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन करेंगे। यदि समधान वामपंथ में हुआ तो उसे स्वीकार करेंगे और दक्षिणपंथ में मिला तो उसे भी मानेंगे। आयडियोलॉजी से पेट नहीं भरता। हम आम आदमी हैं।  
केजरीवाल की उस साफगोई में उनके अंतर्विरोध भी छिपे थे। पार्टी का स्वराजनाम का दस्तावेज विचारधारा के नजरिए से अस्पष्ट है। अलबत्ता उसका नाम गांधी की मशहूर किताब हिंद स्वराज और राजाजी की पत्रिका स्वराज्यसे मिलता जुलता है। शुरू में वे मध्यवर्गीय शहरी समाज के सवालों को उठाते थे, फिर उन्होंने दुनियाभर के सवालों को उठाना शुरू कर दिया। हाल में तमिलनाडु में कमलहासन की राजनीतिक सम्भावनाएं नजर आईं तो वे चेन्नई जाकर उनसे मिले। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन को राज्यसभा की सदस्यता स्वीकार करने का अनुरोध किया, जिसे उन्होंने विनम्रता से अस्वीकार कर दिया।

Tuesday, November 28, 2017

आम आदमी पार्टी: संशय का शिकार एक अभिनव प्रयोग


आम आदमी पार्टी: कहां से चली, कहां आ गई


प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, 27 नवंबर 2017

इसे आम आदमी पार्टी की उपलब्धि माना जाएगा कि देखते ही देखते देश के हर कोने में वैसा ही संगठन खड़ा करने की कामनाओं ने जन्म लेना शुरू कर दिया. न केवल देश में बल्कि पड़ोसी देश पाकिस्तान से भी खबरें आईं कि वहाँ की जनता बड़े गौर से आम आदमी की खबरों को पढ़ती है.

इस पार्टी के गठन के पाँच साल पूरे हुए है, पर 'सत्ता' में तीन साल भी पूरे नहीं हुए हैं. उसे पूरी तरह सफल या विफल होने के लिए पाँच साल की सत्ता चाहिए. दिल्ली विधानसभा दूसरे चुनाव में पार्टी की आसमान तोड़ जीत ने इसके वैचारिक अंतर्विरोधों को पूरी तरह उघड़ने का मौका दिया है. उन्हें उघड़कर सामने आने दें.

पार्टी की पहली टूट
उसके शुरुआती नेताओं में से आधे आज उसके सबसे मुखर विरोधियों की कतार में खड़े हैं. दिल्ली के बाद इनका दूसरा सबसे अच्छा केंद्र पंजाब में था. वहाँ भी यही हाल है. पार्टी तय नहीं कर पाई कि क्या बातें कमरे के अंदर तय होनी चाहिए और क्या बाहर. इसके इतिहास में विचार-मंथन के दो बड़े मौके आए थे.

एक, लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद और दूसरा 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भारी विजय के बाद. पार्टी की पहली बड़ी टूट उस शानदार जीत के बाद ही हुई थी और उसका कारण था विचार-मंथन की प्रक्रिया में खामी. जब पारदर्शिता के नाम पर पार्टी बनी, उसकी ही कमी उजागर हुई.

उत्साही युवाओं का समूह
'आप' को उसकी उपलब्धियों से वंचित करना भी ग़लत होगा. खासतौर से सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में उसके काम को तारीफ़ मिली है. लोग मानते हैं कि दिल्ली के सरकारी अस्पतालों का काम पहले से बेहतर हुआ है. मोहल्ला क्लीनिकों की अवधारणा बहुत अच्छी है.

दूसरी ओर यह भी सच है कि पार्टी ने नागरिकों के एक तबके को मुफ्त पानी और मुफ्त बिजली का संदेश देकर भरमाया है. ज़रूरत ऐसी सरकारों की है जो बेहतर नागरिकता के सिद्धांतों को विकसित करें और अपनी ज़िम्मेदारी निभाने पर ज़ोर दें. आम आदमी पार्टी उत्साही युवाओं का समूह थी.

'हाईकमान' से चलती पार्टी
इसके जन्म के बाद युवा उद्यमियों, छात्रों तथा सिविल सोसायटी ने उसका आगे बढ़कर स्वागत किया था. पहली बार देश के मध्यवर्ग की दिलचस्पी राजनीति में बढ़ी थी. 'आप' ने जनता को जोड़ने के कई नए प्रयोग किए. जब पहले दौर में इसकी सरकार बनी तब सरकार बनाने का फ़ैसला पार्टी ने जनसभाओं के मार्फत किया था.

उसने प्रत्याशियों के चयन में वोटर को भागीदार बनाया. दिल्ली सरकार ने एक डायलॉग कमीशन बनाया है. पता नहीं इस कमीशन की उपलब्धि क्या है, पर इसकी वेबसाइट पर सन्नाटा पसरा रहता है. 'आप' के आगमन पर वैसा ही लगा जैसा सन् 1947 के बाद कांग्रेसी सरकार बनने पर लगा था. आज यह पार्टी भी 'हाईकमान' से चलती है.

Sunday, November 26, 2017

‘परिवार’ कोई जादू की छड़ी नहीं

हाल में मशहूर पहलवान सुशील कुमार तीन साल बाद राष्ट्रीय कुश्ती चैम्पियनशिप में उतरे और गोल्ड मेडल जीत ले गए। उन्हें यह मेडल एक के बाद एक तीन लगातार वॉकओवरों के बाद मिला। शायद उनके वर्ग के पहलवान उनका इतना सम्मान करते हैं कि उनसे लड़ने कोई आया ही नहीं। सुशील कुमार का चैम्पियन बनना मजबूरी थी। वैसे ही राहुल गांधी के पास अब कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षता स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। पर महत्वपूर्ण अध्यक्ष बनना नहीं, इस पद का निर्वाह है।
लगातार बड़ी विफलताओं के बावजूद राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने का आग्रह कांग्रेस पार्टी के हित में होगा या नहीं, इसे देखना होगा। राहुल गांधी जिस दौर में अध्यक्ष बनने जा रहे हैं, वह कांग्रेस का सबसे खराब दौर है। यदि वे यहाँ से कांग्रेस की स्थिति को बेहतर बनाने में कामयाब नहीं हुए तो यह कदम आत्मघाती भी साबित हो सकता है। दिक्कत यह है कि कांग्रेस केवल परिवार के सहारे राजनीति में बने रहना चाहती है।

अंततः राहुल का आगमन

अब जब राहुल गांधी का पार्टी अध्यक्ष बनना तय हो गया है, पहला सवाल मन में आता है कि इससे भारतीय राजनीति में क्या बदलाव आएगा? क्या उनके पास वह दृष्टि, समझ और चमत्कार है, जो 133 साल पुरानी पार्टी को मटियामेट होने से बचा ले? क्या अब वे कांग्रेस को इस रूप में तैयार कर पाएंगे जो बीजेपी को परास्त करे और फिर देश को तेजी से आगे लेकर जाए? पिछले 13 साल में राहुल की छवि बजाय बनने के बिगड़ी ज्यादा है। उन्होंने अपने नाम के साथ जाने-अनजाने विफलताओं की लम्बी सूची जुड़ने दी। अब वे अपनी छवि को कैसे बदलेंगे?
राहुल गांधी उन राजनेताओं में से एक हैं, जिन्हें मौके ही मौके मिले। माना कि 2004 में वे अपेक्षाकृत युवा थे, पर उनकी उम्र इतनी कम भी नहीं थी। सचिन पायलट, जितिन प्रसाद और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे उनके सहयोगी काफी कम उम्र में सक्रिय हो गए थे। सन 2004 से 2009 तक उन्होंने काफी अनुभव भी हासिल किया। और लोकसभा चुनाव में चुनाव प्रचार भी किया। फिर उन्होंने देर क्यों की?
यह भी सच है कि पिछले कुछ महीनों से मीडिया में इस बात की चर्चा है कि उनकी छवि में सुधार हुआ है। उनका मजाक कम बन रहा है। दूसरी ओर यह भी कहा जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी की लोकप्रियता में भी कमी आई है। इसके पीछे नोटबंदी, जीएसटी और अर्थ-व्यवस्था में गिरावट को जम्मेदार बताया जा रहा है। पर ये बातें भी मीडिया ही बता रहा है। पर भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा बैरोमीटर चुनाव होता है। लाख टके का सवाल है कि क्या राहुल गांधी चुनाव जिताऊ नेता साबित होंगे? 

Saturday, November 25, 2017

‘ग्रहण’ से बाहर निकलती कांग्रेस

कांग्रेस पार्टी के भीतर उत्साह का वातावरण है। एक तरफ राहुल गांधी के पदारोहण की खबरें हैं तो दूसरी ओर गुजरात में सफलता की उम्मीदें हैं। मीडिया की भाषा में राहुल गांधी ने फ्रंटफुट पर खेलना शुरू कर दिया है।  उनके भाषणों को पहले मुक़ाबले ज़्यादा कवरेज मिल रही है। अब वे हँसमुख, तनावमुक्त और तेज-तर्रार नेता के रूप में पेश हो रहे हैं। उनके रोचक ट्वीट आ रहे हैं। उनकी सोशल मीडिया प्रभारी दिव्य स्पंदना के अनुसार कि ये ट्वीट राहुल खुद बनाते हैं।
राहुल के पदारोहण के 14 दिन बाद गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणाम आएंगे। ये परिणाम कांग्रेस के पक्ष में गए तो खुशियाँ डबल हो जाएंगी। और नहीं आए तो? कांग्रेस पार्टी हिमाचल में हारने को तैयार है, पर वह गुजरात में सफलता चाहती है। सफलता माने स्पष्ट बहुमत। पर आंशिक सफलता भी मिली तो कांग्रेस उसे सफलता मानेगी। कांग्रेस के लिए ही नहीं बीजेपी के नजरिए से भी गुजरात महत्वपूर्ण है। वह आसानी से इसे हारना नहीं चाहेगी। पर निर्भर करता है कि गुजरात के मतदाता ने किस बात का मन बनाया है। गुजरात के बाद कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे महत्वपूर्ण राज्य 2018 की लाइन में हैं। ये सभी चुनाव 2019 के लिए बैरोमीटर का काम करेंगे।

Friday, November 24, 2017

राहुल के आने से क्या बदलेगी कांग्रेस?

अब जब राहुल गांधी का पार्टी अध्यक्ष बनना तय हो गया है, पहला सवाल जेहन में आता है कि इससे भारतीय राजनीति में क्या बड़ा बदलाव आएगा? क्या राहुल के पास वह दृष्टि, समझ और चमत्कार है, जो 133 साल पुरानी इस पार्टी को मटियामेट होने से बचा ले? पिछले 13 साल में राहुल की छवि बजाय बनने के बिगड़ी ज्यादा है. क्या वे अपनी छवि को बदल पाएंगे?
सितम्बर 2012 में प्रतिष्ठित ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने द राहुल प्रॉब्लमशीर्षक आलेख में लिखा, उन्होंने नेता के तौर पर कोई योग्यता नहीं दिखाई है. वे मीडिया से बात नहीं करते, संसद में भी अपनी आवाज़ नहीं उठाते हैं. उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी कैसे माना जाए? यह बात आज से पाँच साल पहले लिखी गई थी. इस बीच राहुल की विफलता-सूची और लम्बी हुई है.

Monday, November 20, 2017

खतरनाक हैं अभिव्यक्ति पर हमले

संजय लीला भंसाली की पद्मावती पहली फिल्म नहीं है, जो विवाद का विषय बनी हो. इस फिल्म का राजपूत संगठन विरोध कर रहे हैं. उनका कहना है कि इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर फिल्म को बनाया गया है. फिल्मों, साहित्यिक कृतियों, नाटकों और अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यमों का विरोध यदि शब्दों और विचारों तक सीमित रहे तो उसे स्वीकार किया जा सकता है. पर यदि विरोध में हिंसा का तत्व शामिल हो जाए, तो सोचना पड़ता है कि हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं या पीछे जा रहे हैं. विरोध के इस तरीके के कारण फिल्म की ऐतिहासिकता का सवाल पीछे चला गया है. चिंता का विषय यह है कि जैसे-जैसे हम आधुनिक होते जा रहे हैं, हमारे तौर-तरीके मध्य युगीन होते जा रहे हैं. फ्रांस की कार्टून पत्रिका 'शार्ली एब्दो' पर हमला गलत था, तो इस हमले की धमकी भी गलत है. 

Sunday, November 19, 2017

मूडीज़ अपग्रेड, बेहतरी का इशारा

नोटबंदी और जीएसटी कदमों के कारण बैकफुट पर आई मोदी सरकार को मूडीज़ अपग्रेड से काफी मदद मिलेगी। इसके पहले विश्व बैंक के ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस इंडेक्स में भारत 30 पायदान की लंबी छलांग के साथ 100वें स्थान पर पहुंच गया था। यह पहला मौका था, जब भारत ने इतनी लंबी छलांग लगाई। विशेषज्ञों की मानें तो कारोबार करने के मामले में भारत की रैंकिंग में सुधार से कई क्षेत्र को लाभ होगा। हालांकि मूडीज़ रैंकिंग का कारोबारी सुगमता रैंकिंग से सीधा रिश्ता नहीं है, पर अंतरराष्ट्रीय पूँजी के प्रवाह के नजरिए से रिश्ता है। देश की आंतरिक राजनीति के लिहाज से भी यह खबर महत्वपूर्ण है, क्योंकि नोटबंदी और जीएसटी को लेकर सरकार पर हो रहे प्रहार अब हल्के पड़ जाएंगे।
मोदी सरकार आर्थिक नीति के निहायत नाजुक मोड़ पर खड़ी है। अगले हफ्ते अर्थ-व्यवस्था की दूसरी तिमाही की रिपोर्ट आने की आशा है। पिछली तिमाही में आर्थिक संवृद्धि की दर गिरकर 5.7 फीसदी हो जाने पर विरोधियों ने सरकार को घेर लिया था। उम्मीद है कि इस तिमाही से गिरावट का माहौल खत्म होगा और अर्थ-व्यवस्था में उठान आएगा। ये सारे कदम जादू की छड़ी जैसे काम नहीं करेंगे। मूडीज़ ने भी  भारत को ऋण और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के ऊंचे अनुपात पर चेताया है। उसने यह भी कहा है कि भूमि और श्रम सुधारों का एजेंडा अभी पूरा नहीं हुआ है।

Saturday, November 18, 2017

चुनाव के अलावा कुछ और भी जुड़ा है अयोध्या-पहल के साथ

अयोध्या मसले पर अचानक चर्चा शुरू होने के पीछे कारण क्या है? पिछले कुछ साल से यह मसला काफी पीछे चला गया था। इस पर बातें केवल औपचारिकता के नाते ही की जाती थीं। सन 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद से न्याय व्यवस्था ने भी इस दिशा में सक्रियता कम कर दी थी। तब यह अचानक सामने क्यों आया?
अयोध्या पर चर्चा की टाइमिंग इसलिए महत्वपूर्ण है कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव सामने हैं। गुजरात में कांग्रेस पार्टी ने दलितों, ओबीसी और पाटीदारों यानी हिन्दू जातियों के अंतर्विरोध को हथियार बनाया है, जिसका सहज जवाब है हिन्दू अस्मिता को जगाना। गुजरात में बीजेपी दबाव में आएगी तो वह ध्रुवीकरण के हथियार को जरूर चलाएगी। पर अयोध्या की गतिविधियाँ केवल चुनावी पहल नहीं लगती।
भाजपा का ब्रह्मास्त्र
सन 2018 में कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव भी होंगे। कर्नाटक में कांग्रेस ने कन्नड़ अस्मिता और लिंगायतों का सहारा लेना शुरू कर दिया है। इसलिए लगता है कि बीजेपी अपने ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल करने जा रही है। यह बात आंशिक रूप से सच हो सकती है। शायद चुनाव में भाजपा को मंदिर की जरूरत पड़ेगी, पर यह केवल वहीं तक सीमित नहीं लगता। हाँ इतना लगता है कि इस अभियान के पीछे भाजपा का हाथ भी है, भले ही वह इससे इनकार करे।

Thursday, November 16, 2017

क्या अयोध्या विवाद का समाधान करेंगे श्री श्री?

नज़रिया: राम मंदिर पर श्री श्री की पहल के पीछे क्या है?
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
श्री श्री रविशंकर की पहल के कारण मंदिर-मस्जिद मसला एक बार फिर से उभर कर सामने आया है. देखना होगा कि इस पहल के समांतर क्या हो रहा है. और यह भी कि इस पहल को संघ और सरकार के शीर्ष नेतृत्व का समर्थन है या नहीं.
आमतौर पर ऐसी कोशिशों के वक्त चुनाव की कोई तारीख़ क़रीब होती है या फिर 6 दिसम्बर जिसे कुछ लोग 'शौर्य दिवस' के रूप में मनाते हैं और कुछ 'यौमे ग़म.'
संयोग से इस वक्त एक तीसरी गतिविधि और चलने वाली है.

कई कोशिशें हुईं, लेकिन नतीजा नहीं निकला
पिछले डेढ़ सौ साल से ज़्यादा समय में कम से कम नौ बड़ी कोशिशें मंदिर-मस्जिद मसले के समाधान के लिए हुईं और परिणाम कुछ नहीं निकला. पर इन विफलताओं से कुछ अनुभव भी हासिल हुए हैं.
हल की तलाश में श्री श्री अयोध्या का दौरा कर रहे हैं. उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से मुलाक़ात भी की है.
पृष्ठभूमि में इस मसले से जुड़े अलग-अलग पक्षों से उनकी मुलाक़ात हुई है. कहना मुश्किल है कि उनके पीछे कोई राजनीतिक प्रेरणा है या नहीं.

गुजरात चुनाव और सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई
गुजरात में कांग्रेस पार्टी ने दलितों, ओबीसी और पाटीदारों यानी हिन्दू जातियों के अंतर्विरोध को हथियार बनाया है जिसका सहज जवाब है 'हिन्दू अस्मिता' को जगाना.
गुजरात में बीजेपी दबाव में आएगी तो वह ध्रुवीकरण के हथियार को ज़रूर चलाएगी. पर अयोध्या की गतिविधियाँ केवल चुनावी पहल नहीं लगती.
गुजरात के चुनाव के मुक़ाबले ज़्यादा बड़ी वजह है सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर 5 दिसम्बर से शुरू होने वाली सुनवाई. इलाहाबाद हाईकोर्ट के सन् 2010 के फ़ैसले के सिलसिले में 13 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं. अब इन पर सुनवाई होगी.
कुछ पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि पार्टी 2019 के पहले मंदिर बनाना चाहती है. कुछ महीने पहले सुब्रमण्यम स्वामी ने ट्वीट किया था, राम मंदिर का हल नहीं निकला तो अगले साल, यानी 2018 में अयोध्या में वैसे ही राम मंदिर बना दिया जाएगा.

Monday, November 13, 2017

‘स्मॉग’ ने रेखांकित किया एनजीटी का महत्व

उत्तर भारत और खासतौर से दिल्ली पर छाए स्मॉग के कारण कई तरह के असमंजस सामने आए हैं. स्मॉग ने प्रशासनिक संस्थाओं की विफलता को साबित किया है, वहीं राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के महत्व को रेखांकित भी किया है.
अफरातफरी में दिल्ली-एनसीआर के स्कूलों में छुट्टी कर दी गई. फिर दिल्ली सरकार ने ऑड-ईवन स्कीम को फिर से लागू करने की घोषणा कर दी. यह स्कीम भी रद्द हो गई, क्योंकि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने कुछ ऐसी शर्तें रख दीं, जिनका पालन करा पाना मुश्किल होता.  
जल, जंगल और जमीन
सन 2010 में स्थापना के बाद से यह न्यायाधिकरण देश के महत्वपूर्ण पर्यावरण-रक्षक के रूप से उभर कर सामने आया है. इसके हस्तक्षेप के कारण उद्योगों और कॉरपोरेट हाउसों को मिलने वाली त्वरित अनुमतियों पर लगाम लगी है. खनन और प्राकृतिक साधनों के अंधाधुंध दोहन पर रोक लगी है.

Sunday, November 12, 2017

प्रदूषण से ज्यादा उसकी राजनीति का खतरा


विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रदूषण के कारण दिल्ली में सालाना 10,000 से 30,000 मौतें होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में 13 भारत के शहर हैं। इनमें राजधानी दिल्ली सबसे ऊपर है। उस रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली की हवा में पार्टिकुलेट मैटर पीएम 2.5 की मात्रा प्रति घन मीटर 150 माइक्रोग्राम है। पर पिछले बुधवार को एनवायरनमेंट पल्यूशन बोर्ड के मुताबिक दिल्ली की हवा में प्रति घन मीटर 200 माइक्रोग्राम पीएम 2.5 प्रदूषक तत्व दर्ज किए गए। यह विश्व स्वास्थ्य संगठन की सेफ लिमिट से 8 गुना ज्यादा है। 25 माइक्रोग्राम को सेफ लिमिट मानते हैं।

सन 2014 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक सर्वे ने दुनियाभर के 1,600 देशों में से दिल्ली को सबसे ज्यादा दूषित करार दिया था। बार-बार लगातार इन बातों की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ रही है। सवाल है कि हमने इस सिलसिले में किया क्या है? पिछले कुछ दिन से एक तरफ दिल्ली में प्रदूषण का अंधियारा फैला तो दूसरी तरफ सरकारों और सरकारी संगठनों की बयानबाज़ी होने लगी। समस्या प्रदूषण है या उसकी राजनीति? यह सिर्फ इस साल की समस्या नहीं है और आने वाले दिनों में यह बढ़ती ही जाएगी। क्या हम एक-दूसरे पर दोषारोपण करके इसका समाधान कर लेंगे?

Wednesday, November 8, 2017

नोटबंदी के सभी पहलुओं को पढ़ना चाहिए


करेंट सा झटका 


इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार शिकागो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड एच थेलर को दिया गया है. उनका ज्यादातर काम सामान्य लोगों के आर्थिक फैसलों को लेकर है. अक्सर लोगों के फैसले आर्थिक सिद्धांत पर खरे नहीं होते. उन्हें रास्ता बताना पड़ता है. इसे अंग्रेजी में नज कहते हैं. इंगित या आश्वस्त करना. पिछले साल जब नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की, तब प्रो थेलर ने इस कदम का स्वागत किया था. जब उन्हें पता लगा कि 2000 रुपये का नोट शुरू किया जा रहा है, तो उन्होंने कहा, यह गलत है. नोटबंदी को सही या गलत साबित करने वाले लोग इस बात के दोनों मतलब निकाल रहे हैं.


सौ साल पहले हुई बोल्शेविक क्रांति को लेकर आज भी अपने-अपने निष्कर्ष हैं.  वैसे ही निष्कर्ष नोटबंदी को लेकर हैं. वैश्विक इतिहास का यह अपने किस्म का सबसे बड़ा और जोखिमों के कारण सबसे बोल्ड फैसला था. अरुण शौरी कहते हैं कि बोल्ड फैसला आत्महत्या का भी होता है. पर यह आत्महत्या नहीं थी. हमारी अर्थव्यवस्था जीवित है. पचास दिन में हालात काबू में नहीं आए, पर आए. 

Sunday, November 5, 2017

पटेल को क्यों भूली कांग्रेस?

नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस के कम से कम तीन बड़े नेताओं को खुले तौर पर अंगीकार किया है। ये तीन हैं गांधी, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री। मोदी-विरोधी मानते हैं कि इन नेताओं की लोकप्रियता का लाभ उठाने की यह कोशिश है। बीजेपी के नेता कहते हैं कि गांधी ने राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को भंग कर देने की सलाह दी थी। बीजेपी की महत्वाकांक्षा है कांग्रेस की जगह लेना। इसीलिए मोदी बार-बार कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं। आर्थिक नीतियों के स्तर पर दोनों पार्टियों में ज्यादा फर्क भी नहीं है। पिछले साल अरुण शौरी ने कहीं कहा था, बीजेपी माने कांग्रेस+गाय। 

स्वांग रचती सियासत


पिछले मंगलवार को संसद भवन में सरदार पटेल के जन्मदिवस के सिलसिले में हुए समारोह की तस्वीरें अगले रोज के अखबारों में छपीं। ऐसी तस्वीरें भी थीं, जिनमें राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी के सामने से होकर गुजरते नजर आते हैं। कुछ तस्वीरों से लगता था कि मोदी की तरफ राहुल तरेर कर देख रहे हैं। यह तस्वीर तुरत सोशल मीडिया में वायरल हो गई। यह जनता की आम समझ से मेल खाने वाली तस्वीर थी। दुश्मनी, रंज़िश और मुकाबला हमारे जीवन में गहरा रचा-बसा है। मूँछें उमेठना, बाजुओं को फैलाना, ताल ठोकना और ललकारना हमें मजेदार लगता है।
जाने-अनजाने हमारी लोकतांत्रिक शब्दावली में युद्ध सबसे महत्वपूर्ण रूपक बनकर उभरा है। चुनाव के रूपक संग्राम, जंग और लड़ाई के हैं। नेताओं के बयानों को ब्रह्मास्त्र और सुदर्शन चक्र की संज्ञा दी जाती है। यह आधुनिक लोकतांत्रिक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं लगती, बल्कि महाभारत की सामंती लड़ाई जैसी लगती है। इस बात की हम कल्पना ही नहीं करते कि कभी सत्तापक्ष किसी मसले पर विपक्ष की तारीफ करेगा और विपक्ष किसी सरकारी नीति की प्रशंसा करेगा।

Saturday, November 4, 2017

‘नोटबंदी’ पार लगा देगी कांग्रेसी नैया?

सोशल मीडिया सेल की जिम्मेदारी रम्या उर्फ दिव्य स्पंदना को मिल जाने के बाद से कांग्रेस के प्रचार में जान पड़ गई है। हाल में ट्विटर पर प्रचारित एक वीडियो देखने को मिला, जिसमें गब्बर सिंह हाथ में दो तलवारें लिए ठाकुर के दोनों हाथ काट रहा है। दोनों तलवारों में एक जीएसटी की है और दूसरी नोटबंदी की। कहा जा रहा है कि गुजरात में दोनों बातें बीजेपी को हराने में मददगार होंगी। कांग्रेस पार्टी इसी उम्मीद में 8 नवम्बर को काला दिन मनाने जा रही है। उसी दिन भारतीय जनता पार्टी ने काला धन विरोधी दिवस के रूप में जश्न मनाने की योजना भी बनाई है।

नोटबंदी और जीएसटी पर यदि गुजरात में बीजेपी को धक्का लगा तो उसके बाद के चुनावों को बचाना आसान नहीं होगा। इसलिए यह चुनाव काफी रोचक हो गया है। कांग्रेस पार्टी के नज़रिए से देखें तो उसकी उम्मीदें बीजेपी की नकारात्मकता पर टिकी हैं। यानी लोग सरकार से नाराज हैं, 22 साल की इनकम्बैंसी है और जातीय समीकरण भी उसके खिलाफ जा रहा है। लोगों को यह भी बताना होगा कि इन बातों से निजात दिलाने के लिए कांग्रेस क्या करने जा रही है। राष्ट्रीय राजनीति में उसकी स्थिति क्या है और आर्थिक नीतियों में वह ऐसा क्या करेगी, जो बीजेपी सरकार की नीतियों से बेहतर होगा। केवल नोटबंदी से उम्मीदें बाँध लेना काफी नहीं होगा।

यह सच है कि नोटबंदी को शुरू में जनता का समर्थन मिला था। उत्तर प्रदेश के चुनाव में मिली भारी विजय से बीजेपी का उत्साह काफी बढ़ा, पर हाल में आर्थिक मोर्चे पर मंदी की खबरें आने से जनता के दिलो-दिमाग में सवाल खड़े होने लगे हैं। बीजेपी यह बताने की कोशिश कर रही है कि परेशानी अस्थायी है और लम्बी बीमारी के इलाज में तकलीफें भी होती हैं। फिर भी जनता संशय में है और इस संशय का लाभ गुजरात में कांग्रेस को मिल भी सकता है। पर कितना? क्या यह लाभ इतना बड़ा होगा कि वह गुजरात में सरकार बना सके? उसे निर्णायक जीत मिले?  

Thursday, November 2, 2017

ट्रंप के नाम आतंक की खुली चुनौती

डोनाल्ड ट्रंप के नाम यह खुली चुनौती है, क्योंकि उनके राष्ट्रपति बनने के बाद से इस्लामी आतंकवाद की अपने किस्म की बड़ी घटना है. राष्ट्रपति ट्रंप ने दुनिया से जिस इस्लामी आतंकवाद के सफाए की जिम्मेदारी ली है वह उनके घर के भीतर घुसकर मार कर रहा है. शायद इसीलिए लोअर मैनहटन में हुए नवीनतम आतंकी हमले के बाद उनकी प्रतिक्रिया काफी तेजी से आई है.

ट्रंप ने अपने ट्वीट में कहा है कि आइसिस को हमने पश्चिम एशिया में परास्त कर दिया है, उसे हम अमेरिका में प्रवेश करने नहीं देंगे. ट्रंप ने मैनहटन की घटना को बीमार व्यक्ति की कार्रवाई बताया है. इस साल इस तरह की यह दूसरी घटना है. इससे पहले बोस्टन में इसी तरह की घटना में एक सिरफिरे ने कार को भीड़ के ऊपर चढ़ा दिया था. वहाँ 11 लोग घायल हुए थे. 

Tuesday, October 31, 2017

सरदार पटेल से कांग्रेस का विलगाव?



आज सुबह के टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस और हिन्दू समेत काफी अखबारों में पहले सफे पर कांग्रेस पार्टी की ओर से जारी एक विज्ञापन में श्रीमती इंदिरा गांधी को श्रद्धांजलि दी गई है। ज्यादातर अखबारों में दूसरे पेज पर भारत सरकार के एक विज्ञापन में राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में सरदार वल्लभ भाई पटेल को श्रद्धांजलि दी गई है। आज श्रीमती गांधी की पुण्यतिथि थी और सरदार पटेल का जन्मदिन। किसी को आश्चर्य इस बात पर नहीं हुआ कि कांग्रेस पार्टी ने पटेल को याद क्यों नहीं किया। हालांकि कभी किसी ने नहीं कहा कि सरदार पटेल इंदिरा गांधी से कमतर नेता थे या राष्ट्रीय पुनर्गठन में उनकी भूमिका कमतर थी। पर इस बात पर ध्यान तो जाता ही है। खासतौर से इस बात पर कि बीजेपी ने सरदार पटेल को अंगीकार किया है। 

Monday, October 30, 2017

बैंक-सुधार में भी तेजी चाहिए

केंद्र सरकार ने पिछले मंगलवार को सार्वजनिक क्षेत्र के संकटग्रस्त बैंकों में 2.11 लाख करोड़ रुपये की नई पूँजी डालने की घोषणा दो उद्देश्यों से की है। पहला लक्ष्य इन बैंकों को बचाने का है, पर अंततः इसका उद्देश्य अर्थ-व्यवस्था को अपेक्षित गति देने का है। पिछले एक दशक से ज्यादा समय में देश के राष्ट्रीयकृत बैंकों ने जो कर्ज दिए थे, उनकी वापसी ठीक से नहीं हो पाई है। बैंकों की पूँजी चौपट हो जाने के कारण वे नए कर्जे नहीं दे पा रहे हैं, इससे कारोबारियों के सामने मुश्किलें पैदा हो रही हैं। इस वजह से अर्थ-व्यवस्था की संवृद्धि गिरती चली गई।

Sunday, October 29, 2017

‘मदर इंडिया’ के साठ साल बाद का भारत


फिल्म मदर इंडिया की रिलीज के साठ साल बाद एक टीवी चैनल के एंकर इस फिल्म के एक सीन का वर्णन कर रहे थे, जिसमें फिल्म की हीरोइन राधा (नर्गिस) को अपने कंधे पर रखकर खेत में हल चलाना पड़ता है। चैनल का कहना था कि 60 बरस बाद हमारे संवाददाता ने महाराष्ट्र के सतारा जिले के जावली तालुक के भोगावाली गाँव में खेत में बैल की जगह महिलाओं को ही जुते हुए देखा तो उन्होंने उस सच को कैमरे के जरिए सामने रखा, जिसे देखकर सरकारें आँख मूँद लेना बेहतर समझती हैं। गाहे-बगाहे आज भी ऐसी तस्वीरें सामने आती हैं, जिन्हें देखकर शर्मिंदगी पैदा होती है। सवाल है कि क्या देश की जनता भी इन बातों से आँखें मूँदना चाहती है?


महबूब खान की मदर इंडिया उन गिनी-चुनी फिल्मों में से एक है, जो आज भी हमारे दिलो-दिमाग पर छाई हैं। यदि मुद्रास्फीति की दर के साथ हिसाब लगाया जाए तो मदर इंडिया देश की आजतक की सबसे बड़ी बॉक्स ऑफिस हिट फिल्म है। क्या वजह है इसकी? आजादी के बाद के पहले दशक के सिनेमा की थीम में बार-बार भारत का बदलाव केंद्रीय विषय बनता था। इन फिल्मों की सफलता बताती है कि बदलाव की चाहता देश की जनता के मन में थी, जो आज भी कायम है।

Sunday, October 22, 2017

क्या कहती है बाजार की चमक

दीपावली के मौके पर बाजारों में लगी भीड़ और खरीदारी को लेकर कई किस्म की बातें एक साथ सुनाई पड़ रहीं हैं। बाजार में निकलें तो लगता नहीं कि लोग अस्वाभाविक रूप से परेशान हैं। आमतौर पर जैसा मिज़ाज गुजरे वर्षों में रहा है, वैसा ही इस बार भी है। अलबत्ता टीवी चैनलों पर व्यापारियों की प्रतिक्रिया से  लगता है कि वे परेशान हैं। इस प्रतिक्रिया के राजनीतिक और प्रशासनिक निहितार्थ भी हैं। यह भी सच है कि जीडीपी ग्रोथ को इस वक्त धक्का लगा है और अर्थ-व्यवस्था बेरोजगारी के कारण दबाव में है।

अमेरिका के अख़बार वॉशिंगटन पोस्ट में दिल्ली के चाँदनी चौक की एक मिठाई की दुकान के मालिक के हवाले से बड़ी सी खबर छपी है मेरे लिए इससे पहले कोई साल इतना खराब नहीं रहा। इस व्यापारी का कहना है कि जो लोग पिछले वर्षों तक एक हजार रुपया खर्च करते थे, इस साल उन्होंने 600-700 ही खर्च किए। अख़बार की रिपोर्ट का रुख उसके बाद मोदी सरकार के वायदों और जनता के मोहभंग की ओर घूम गया।

असमंजस के चौराहे पर देश

हम असमंजस के दौर में खड़े हैं। एक तरफ हम आधुनिकीकरण और विकास के हाईवे और बुलेट ट्रेनों का नेटवर्क तैयार करने की बातें कर रहे हैं और दूसरी तरफ खबरें आ रहीं हैं कि हमारा देश भुखमरी के मामले में दुनिया के 119 देशों में 100वें नम्बर पर आ गया है। जब हम देश में दीवाली मना रहे थे, तब यह खबर भी सरगर्म थी कि झारखंड में एक लड़की भात-भात कहते हुए मर गई। कोई दिन नहीं जाता जब हमें सोशल मीडिया पर सामाजिक-सांस्कृतिक क्रूरता की खबरें न मिलती हों।

हम किधर जा रहे हैं? आर्थिक विकास की राह पर या कहीं और? इसे लेकर अर्थशास्त्रियों में भी मतभेद हैं। कुछ मानते हैं कि हम सही राह पर हैं और कुछ का कहना है कि तबाही की ओर बढ़ रहे हैं। दोनों बातें सही नहीं हो सकतीं। जाहिर है कि दोनों राजनीतिक भाषा बोल रहे हैं। कुछ लोग इसे मोदी सरकार की देन बता रहे हैं और कुछ लोगों का कहना है कि हताश और पराजित राजनीति इन हथकंडों को अपनाकर वापस आने की कोशिश कर रही है। पर सच भी कहीं होगा। सच क्या है?

पब्लिक कुछ नहीं जानती

सवाल है कि पब्लिक पर्सेप्शन क्या है? जनता कैसा महसूस कर रही है? पर उससे बड़ा सवाल यह है कि इस बात का पता कैसे लगता है कि वह क्या महसूस कर रही है? पिछले साल नवम्बर में हुई नोटबंदी को लेकर काफी उत्तेजना रही। सरकार के विरोधियों ने कहा कि अर्थ-व्यवस्था तबाही की ओर जा रही है। कम से कम उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में जनता की नाराजगी दिखाई नहीं पड़ी। अब जीएसटी की पेचीदगियों को लेकर व्यापारियों ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है, वह काफी उग्र है। व्यापारी अपेक्षाकृत संगठित हैं और इसीलिए सरकार ने उनके विरोध पर ध्यान दिया है और अपनी व्यवस्था को सुधारा है। टैक्स में रियायतें भी दी हैं।

Sunday, October 15, 2017

हम सब हैं आरुषि के अपराधी

आरुषि-हेमराज हत्याकांड में राजेश और नूपुर तलवार के बरी हो जाने मात्र से यह मामला अपनी तार्किक परिणति पर नहीं पहुँचा है। और यह काम आसान लगता भी नहीं है। 26 नवंबर 2013 को जब गाजियाबाद की विशेष सीबीआई अदालत ने जब राजेश और नूपुर तलवार को उम्रकैद की सजा सुनाई थी, तभी लगता था कि सब कुछ जल्दबाजी में किया गया है। तमाम सवालों के जवाब नहीं मिले हैं। ट्रायल कोर्ट के फैसले के चार साल बाद अब जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तलवार दम्पति को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया है, तब भी कहा जा रहा है कि अंतिम रूप से न्याय तो अब भी नहीं हुआ है। न्याय तो तभी होगा जब पता लगेगा कि आरुषि की हत्या किसने की, क्यों की और हत्यारे को सज़ा मिले।

Saturday, October 14, 2017

राहुल के पुराने तरकश से निकले नए तीर


कुछ महीने पहले तक माना जा रहा था कि मोदी सरकार मजबूत जमीन पर खड़ी है और वह आसानी से 2019 का चुनाव जीत ले जाएगी। पर अब इसे लेकर संदेह भी व्यक्त किए जाने लगे हैं। बीजेपी की लोकप्रियता में गिरावट का माहौल बन रहा है। खासतौर से जीएसटी लागू होने के बाद जो दिक्कतें पैदा हो रहीं हैं, उनके राजनीतिक निहितार्थ सिर उठाने लगे हैं। संशय की इस बेला में गुजरात दौरे पर गए राहुल गांधी की टिप्पणियों ने मसालेदार तड़का लगाया है।

पिछले कुछ दिन से माहौल बनने लगा है कि 2019 के चुनाव मोदी बनाम राहुल होंगे। राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष बनने को तैयार हैं। पहली बार लगता है कि वे खुलकर सामने आने वाले हैं। पर उसके पहले कुछ किन्तु-परन्तु बाकी हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि क्या गुजरात में कांग्रेसी अभिलाषा पूरी होगी? यदि हुई तो उसका परिणाम क्या होगा और नहीं हुई तो क्या होगा?

Friday, October 13, 2017

आरुषि कांड: क्या अब न्याय हो गया?

26 नवंबर 2013 को जब गाजियाबाद की विशेष सीबीआई अदालत आरुषि-हेमराज हत्याकांड के आरोप में आरुषि के माता-पिता राजेश और नूपुर तलवार को आईपीसी की धारा- 302 के तहत उम्रकैद की सज़ा सुनाई थी, तब सवाल उठा था कि क्या वास्तव में इस मामले में न्याय हो गया है? फैसले के बाद राजेश और नूपुर तलवार की ओर से मीडिया में एक बयान जारी किया गया,  'हम इस फैसले से बहुत दुखी हैं. हमें एक ऐसे जुर्म के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है, जो हमने किया ही नहीं. लेकिन हम हार नहीं मानेंगे और न्याय के लिए लड़ाई जारी रखेंगे.' ट्रायल कोर्ट के फैसले के चार साल बाद अब जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तलवार दम्पति को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया है, तब फिर सवाल उठा है कि क्या अब न्याय हुआ है?

सामान्य न्याय सिद्धांत है कि कानून की पकड़ से भले ही सौ अपराधी बच जाएं, पर एक निर्दोष को सज़ा नहीं होनी चाहिए. आपराधिक मामलों में अदालतों का सबसे ज्यादा जोर साक्ष्य पर होता है. सन 2008 में 14 साल की आरुषि की मौत ने देशभर का ध्यान अपनी तरफ खींचा था. वह पहेली अब तक नहीं सुलझी है. घूम-फिरकर सवाल किया जाता है कि आरुषि की हत्या किसने की? यह मामला जाँच की उलझनों में फँसता चला गया. 

Wednesday, October 11, 2017

खेल के मैदान में लिखी है बदलते भारत की इबारत

फीफा की अंडर-17 विश्वकप फुटबॉल प्रतियोगिता के बहाने हमें बदलते भारत की कहानी देखने की कोशिश करनी चाहिए. यह जूझते भारत और उसके भीतर हो रहे सामाजिक बदलाव की कहानी है. भारत ने अपना पहला मैच 8 अक्तूबर को खेला, जिसमें अमेरिका की टीम ने हमें 3-0 से हराया. इस हार से हमें निराशा नहीं हुई, क्योंकि फुटबॉल के वैश्विक मैदान में हमारी स्थिति अमेरिका से बहुत नीचे है. हमारे लिए महत्वपूर्ण बात यह थी कि भारत की कोई टीम विश्वकप फुटबॉल की किसी भी प्रतियोगिता में पहली बार शामिल हुई और उसने बहादुरी के साथ खेला. पहले मैच ने भारतीय टीम का हौसला बढ़ाया.

Sunday, October 8, 2017

गालियों का ट्विटराइज़ेशन

चौराहों, नुक्कड़ों और भिंडी-बाजार के स्वर और शब्दावली विद्वानों की संगोष्ठी जैसी शिष्ट-सौम्य नहीं होती। पर खुले गाली-गलौज को तो मछली बाजार भी नहीं सुनता। वह भाषा हमारे सोशल मीडिया में प्रवेश कर गई है। हम नहीं जानते कि क्या करें। जरूरत इस बात की है कि हम देखें कि ऐसा क्यों है और इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है? सोशल मीडिया की आँधी ने सूचना-प्रसारण के दरवाजे अचानक खोल दिए हैं। तमाम ऐसी बातें सामने आ रहीं हैं, जो हमें पता नहीं थीं। कई प्रकार के सामाजिक अत्याचारों के खिलाफ जनता की पहलकदमी इसके कारण बढ़ी है। पर सकारात्मक भूमिका के मुकाबले उसकी नकारात्मक भूमिका चर्चा में है। 

Tuesday, October 3, 2017

मोदी का नया सूत्र ‘गाँव और गरीब’


पिछला हफ़्ता अर्थ-व्यवस्था को लेकर खड़े किए गए सवालों के कारण विवादों में रहा, पर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया कि बीजेपी ने 2019 के मद्देनजर एक महत्वपूर्ण दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। पार्टी ने अपने राष्ट्रवादी एजेंडा के साथ-साथ भ्रष्टाचार के विरोध और गरीबों की हित-रक्षा पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया है। अब मोदी का नया सूत्र-वाक्य है, गरीब का सपना, मेरी सरकार का सपना है। प्रधानमंत्री ने 25 सितम्बर को दीनदयाल ऊर्जा भवन का लोकार्पण करते हुए देश के हरेक घर तक बिजली पहुँचाने की सौभाग्य योजना का ऐलान किया, जो इस दिशा में एक कदम है। इस योजना के तहत 31 मार्च 2019 तक देश के हरेक घर तक बिजली कनेक्शन पहुँचा दिया जाएगा।

पिछले साल मई में प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना की घोषणा हुई थी, जो काफी लोकप्रिय हुई है। इस योजना के अंतर्गत गरीब महिलाओं को मुफ्त एलपीजी गैस कनेक्शन दिए जाते हैं। इस कार्यक्रम ने गरीब महिलाओं को मिट्टी के चूल्हे से आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बताते हैं कि इस साल उत्तर प्रदेश के चुनावों में पार्टी को मिली जीत के पीछे दूसरे कारणों के साथ-साथ उज्ज्वला योजना की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। ग्रामीण महिलाओं की रसोई में अब गैस के साथ-साथ बिजली की रोशनी का और इंतजाम किया जा रहा है।

Monday, October 2, 2017

साख कायम रखनी है तो फर्जी खबरों से निपटना होगा

चुनींदा-2
समाचार मीडिया को तलाशने होंगे फर्जी खबरों से निपटने के तरीके

बिजनेस स्टैंडर्ड में वनिता कोहली-खांडेकर / 

September 29, 2017
फेसबुक ने अंग्रेजी, गुजराती और कुछ अन्य भाषाओं में जारी विज्ञापनों में फर्जी खबर की पहचान करने के बारे में सुझाव दिए हैं। इस विज्ञापन को देखकर ऐसा लगता है कि फेसबुक अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर फर्जी खबरों का प्रसार रोकने की अपनी जिम्मेदारी को लेकर आखिरकार सचेत हुआ है। यह एक ऐसे 'इको-चैम्बर' की तरह हो चुका है जिसके भीतर करीब 2 अरब लोग अपनी राय जाहिर करते हैं, दूसरे लोगों के विचारों, खबरों, तस्वीरों या वीडियो पर टिप्पणी करते हैं और सूचनाओं को साझा करते हैं। सोशल मीडिया का लोगों के मतदान व्यवहार, उनके खानपान और खरीदारी के तरीके तय करने में भी बड़ी भूमिका होती है। लोग इस पर भरोसा करते हैं और उनके इस भरोसे की ही वजह से फेसबुक को मोटी कमाई होती है। गूगल के साथ मिलकर फेसबुक पूरी दुनिया में डिजिटल विज्ञापन हासिल करने वाली सबसे बड़ी कंपनी है। इसके नाते उसकी जिम्मेदारी भी बनती है।

Saturday, September 30, 2017

असमानता भरा विकास

चुनींदा-1
बिजनेस स्टैंडर्ड के सम्पादक टीएन नायनन के साप्ताहिक कॉलम में इस बार टॉमस पिकेटी और लुकास चैसेल के एक ताजा शोधपत्र का विश्लेषण किया गया है। टॉमस पिकेटी हाल के वर्षों में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के संजीदा विश्लेषकों में शामिल किए जा रहे हैं। नायनन के आलेख का यह हिंदी अनुवाद है जो बिजनेस स्टैंडर्ड के हिंदी संस्करण में प्रकाशित हुआ है। पूरे लेख का लिंक नीचे दिया हैः-

सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की धीमी प्रगति को लेकर मोदी सरकार गंभीर आलोचनाओं के घेरे में है। इस चर्चा से यह भी साफ होता है कि मुखर जनता की राय में जीडीपी वृद्धि ही ïराष्ट्रीय उद्देश्य के लिहाज से केंद्र में होनी चाहिए। बढ़ती असमानता के बारे में हाल में प्रकाशित एक शोधपत्र पर चर्चा न होना भी इतना ही महत्त्वपूर्ण है। थॉमस पिकेटी (कैपिटल के चर्चित लेखक) और सह-लेखक लुकास चैंसेल ने 'फ्रॉम ब्रिटिश राज टू बिलियनरी राज?' शीर्षक वाला यह पत्र पेश किया है। 

यशवंत सिन्हा का वार


यशवंत सिन्हा ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की बखिया उधेड़ कर दो बातों की ओर इशारा किया है। पहली नजर में यह पार्टी के नेतृत्व और सरकार की रीति-नीति की आलोचना है और आर्थिक मोर्चे पर आ रहे गतिरोध की ओर इशारा। पर यह सामान्य ध्यानाकर्षण नहीं है। इसके पीछे गहरी वेदना को भी हमें समझना होगा। आलोचना के लिए उन्होंने पार्टी का मंच नहीं चुना। अख़बार चुना, जहाँ पी चिदंबरम हर हफ्ते अपना कॉलम लिखते हैं। सरकार की आलोचना के साथ प्रकारांतर से उन्होंने यूपीए सरकार की तारीफ भी की है।

पार्टी-इनसाइडरों का कहना है कि यह आलोचना दिक्कत-तलब जरूर है, पर पार्टी इसे अनुशासनहीनता का मामला नहीं मानती। इसका जवाब देकर मामले की अनदेखी की जाएगी। उन्हें पहला जवाब रेलमंत्री पीयूष गोयल ने दिया है। उन्होंने कहा कि नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदम देश की अर्थ-व्यवस्था में सुधार के चरण हैं। ऐसे में कुछ दिक्कतें आती हैं, पर हालात न तो खराब हैं और न उनपर चिंता करने की कोई वजह है। इन कदमों से अर्थ-व्यवस्था में अनुशासन आएगा और गति भी बढ़ेगी। स्वाभाविक रूप से यह देश की आर्थिक दशा-दिशा की आलोचना है। उनके लेख के जवाब में उनके बेटे जयंत सिन्हा ने भी एक लेख लिखा है, जो उनके लिए बदमज़गी पैदा करने वाला है।

Friday, September 29, 2017

हर वक्त प्रासंगिक गांधी


कुछ लोग कहते हैं, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाने और तमाम शहरों की सड़कों को महात्मा गांधी मार्ग बनाने के बावजूद हमें लगता है कि उनकी जरूरत 1947 के पहले तक थी। अब होते भी तो क्या कर लेते? सन 1982 में रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी ने दुनियाभर का ध्यान खींचा, तब इस विषय पर एकबार फिर चर्चा हुई कि क्या गांधी आज प्रासंगिक हैं? वह केवल भारत की बहस नहीं थी।

शीतयुद्ध खत्म होने और सोवियत संघ के विघटन के करीब दस साल पहले चली उस बहस का दायरा वैश्विक था। गांधी अगर प्रासंगिक हैं, तो दुनिया के लिए हैं, केवल भारत के लिए नहीं, क्योंकि उनके विचार सम्पूर्ण मानवता से जुड़े है। फिर भी सवाल है कि क्या उनका देश भारत आज उन्हें उपयोगी मानता है?

दो सितारों पर टिकीं तमिल राजनीति की निगाहें

तमिलनाडु बड़े राजनीतिक गतिरोध से होकर गुजर रहा है. सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक के भीतर घमासान मचा है. अदालत के हस्तक्षेप के कारण वहाँ विधानसभा में इस बात का फैसला भी नहीं हो पा रहा है कि बहुमत किसके साथ है. दूसरी तरफ द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम इस स्थिति में नहीं है कि वह इस लड़ाई का फायदा उठा सके. जयललिता के निधन के बाद राज्य में बड़ा शून्य पैदा हो गया है. द्रमुक पुरोधा करुणानिधि का युग बीत चुका है. उनके बेटे एमके स्टालिन नए हैं और उन्हें परखा भी नहीं गया है. अलावा राज्य में ऐसा कोई नेता नहीं है, जिसकी विलक्षण पहचान हो. ऐसे में दो बड़े सिने-कलाकारों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का धीरे-धीरे खुलना बदलाव के संकेत दे रहा है.

दोनों कलाकारों के राजनीतिक दृष्टिकोण अपेक्षाकृत सुस्पष्ट होंगे. दोनों के पीछे  मजबूत जनाधार है. दोनों के तार स्थानीय और राष्ट्रीय राजनीति के साथ पहले से या तो जुड़े हुए हैं या जुड़ने लगे हैं. देखना सिर्फ यह है कि नई राजनीति किस रूप में सामने आएगी और किस करवट बैठेगी. धन-शक्ति, लाठी, धर्म और जाति के भावनात्मक नारों से उकताई तमिलनाडु ही नहीं देश की जनता को एक नई राजनीति का इंतजार है. क्या ये दो कलाकार उस राजनीति को जन्म देंगे? क्या यह राजनीति केवल तमिलनाडु तक सीमित होगी या उसकी अपील राष्ट्रीय होगी? इतना साफ है कि राजनीति में प्रवेश के लिए यह सबसे उपयुक्त समय है.