फीफा
की अंडर-17 विश्वकप फुटबॉल प्रतियोगिता के बहाने हमें बदलते भारत की कहानी देखने
की कोशिश करनी चाहिए. यह जूझते भारत और उसके भीतर हो रहे सामाजिक बदलाव की कहानी
है. भारत ने अपना पहला मैच 8 अक्तूबर को खेला, जिसमें अमेरिका की टीम ने हमें 3-0
से हराया. इस हार से हमें निराशा नहीं हुई, क्योंकि फुटबॉल के वैश्विक
मैदान में हमारी स्थिति अमेरिका से बहुत नीचे है. हमारे लिए महत्वपूर्ण बात यह थी
कि भारत की कोई टीम विश्वकप फुटबॉल की किसी भी प्रतियोगिता में पहली बार शामिल हुई
और उसने बहादुरी के साथ खेला. पहले मैच ने भारतीय टीम का हौसला बढ़ाया.
दूसरे मैच में सोमवार की रात उसका मुकाबला कोलंबिया की टीम से हुआ, जिसमें हमारी टीम 2-1 से हारी. यह मैच 1-1 की बराबरी से भी छूट सकता था. हमारे लिए इस मैच का महत्वपूर्ण पहलू यह था कि विश्वकप फुटबॉल में भारत ने पहला गोल किया. यह गोल करने का श्रेय मिला जैक्सन सिंह थोनोजम को. जैक्सन का नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया है. अब हमें उसकी कहानी के बारे में भी जानना चाहिए. उनके पिता को सन 2015 में फालिज मार गई, जिसकी वजह से उन्हें मणिपुर पुलिस की अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी. ऐसे में उनके परिवार के खर्च की जिम्मेदारी जैक्सन की मां के कंधों पर आ गई, जो घर से 25 किलोमीटर दूर इम्फाल के ख्वैरामबंद बाजार में सब्जी बेचती हैं.
दूसरे मैच में सोमवार की रात उसका मुकाबला कोलंबिया की टीम से हुआ, जिसमें हमारी टीम 2-1 से हारी. यह मैच 1-1 की बराबरी से भी छूट सकता था. हमारे लिए इस मैच का महत्वपूर्ण पहलू यह था कि विश्वकप फुटबॉल में भारत ने पहला गोल किया. यह गोल करने का श्रेय मिला जैक्सन सिंह थोनोजम को. जैक्सन का नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया है. अब हमें उसकी कहानी के बारे में भी जानना चाहिए. उनके पिता को सन 2015 में फालिज मार गई, जिसकी वजह से उन्हें मणिपुर पुलिस की अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी. ऐसे में उनके परिवार के खर्च की जिम्मेदारी जैक्सन की मां के कंधों पर आ गई, जो घर से 25 किलोमीटर दूर इम्फाल के ख्वैरामबंद बाजार में सब्जी बेचती हैं.
देश
की यह अंडर-17 टीम एक प्रकार का दर्पण है, जो हमारी सामाजिक विविधताओं पर भी रोशनी
डालती है. 21 सदस्यों की इस टीम में आठ खिलाड़ी मणिपुर के हैं. एक खिलाड़ी मिजोरम
का और एक सिक्किम का है. इसमें महाराष्ट्र, केरल, बंगाल, पंजाब, उत्तर प्रदेश,
उत्तराखंड और कर्नाटक के खिलाड़ी भी है. इनके सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का अध्ययन
अलग से किया जाना चाहिए. कुछ खिलाड़ियों की सामाजिक स्थिति बेहतर भी है, पर ज्यादा
बड़ी संख्या ऐसे खिलाड़ियों की है, जो हर तरह की विपरीत परिस्थितियों का सामना
करते हुए आगे आए हैं.
इस
टीम में भारत के उन इलाकों का प्रतिनिधित्व काफी बड़ा है, जिनके बारे में हम
ज्यादा नहीं जानते. अमिताभ बच्चन के ‘कौन बनेगा करोड़पति’ कार्यक्रम की आठवीं श्रृंखला में एक प्रोमो
हुआ करता था. अमिताभ बच्चन प्रतिभागी पूर्णिमा से एक प्रश्न पूछते हैं कि कोहिमा
किस देश में है? यह सवाल जिस लड़की से पूछा गया, वह खुद कोहिमा
की रहने वाली थी. इस सवाल पर उसने ऑडियंस पोल लिया. सौ प्रतिशत जवाब आया ‘इंडिया.’
अमिताभ ने पूछा, इतने आसान से सवाल पर तुमने लाइफ लाइन क्यों ली?
तुम नहीं जानतीं कि कोहिमा भारत में है, जबकि खुद वहीं से हो. उसका जवाब था, जानते सब हैं, पर मानते कितने
हैं?
संयोग से यह वह दौर था, जब दिल्ली में पूर्वोत्तर के बच्चों के साथ मारपीट
की घटनाएं हो रहीं थीं. ऐसी घटनाएं देश के दूसरे इलाकों में भी हुईं. इन घटनाओं की
एक वजह यह थी कि हम उन्हें अजनबी की तरह देख रहे थे. अपना मान नहीं पा रहे थे. कहना मुश्किल है कि हमारी यह अंडर-17
टीम देश के इन सीमांत इलाकों को मुख्यधारा के कितना करीब लाएगी, पर इसमें दो राय
नहीं कि खेल का मैदान सामाजिक बदलाव का सबसे बड़ा जरिया साबित हो सकता है, बशर्ते
हम उसके महत्व को समझें.
खेलों की खासियत है कि वे व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ाते
हैं. इसमें अनुशासन और नियमबद्धता भरते हैं. खेल हमेशा नियम पाल पर जोर देते हैं.
वे व्यक्ति को विवेकशील, रचनाशील और धैर्यवान
बनाते हैं. सबसे बड़ी बात है कि इसमें मेरिट चलती है. हम खिलाड़ी को केवल उसके
कौशल की वजह से पहचानते हैं, जाति-धर्म या संप्रदाय की वजह से नहीं. पिछड़े
वर्गों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के खिलाड़ी इस क्षेत्र में आगे आए हैं और
वे राष्ट्रीय नायक भी बने हैं. अनुसूचित जातियों और जनजातियों के खिलाड़ी बेहतर
साबित हुए हैं. सन 1928 में भारत की हॉकी टीम ने पहली बार ओलिम्पिक खेलों में
स्वर्ण पदक जीता था. उसके कप्तान थे जयपाल सिंह, जिन्होंने
झारखंड आंदोलन की नींव डाली. वे जनजातीय समुदाय से आते थे. भारत जैसे बहुरंगी देश
को यह भावना फैवीकॉल की तरह जोड़ती है.
हम आमतौर पर खेलों के समाजशास्त्र की तरफ नहीं उसके
मनोरंजन और कारोबार की ओर ध्यान देते हैं. हाल में एक वैज्ञानिक अध्ययन सामने आया
था कि जो देश खेल के मैदान में आगे हैं वे वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र में भी आगे
हैं. हमारे ही नहीं पूरे दक्षिण एशिया के पिछड़ेपन के सामाजिक कारण ज़रूर कहीं
हैं. इन सामाजिक रोगों का इलाज खेलों के पास है. हमारे आर्थिक और सामाजिक विकास
में मिसमैच है। उसे खोजना चाहिए.
आमिर
खान की फिल्म ‘दंगल’ की सफलता के पीछे साफ-साफ एक संदेश था कि
बेटियों को बेटों से कम मत आँको. पिछले साल रियो ओलिम्पिक खेलों में भारत की
स्त्री शक्ति ने खुद को साबित करके दिखाया. पीवी सिंधु, साक्षी मलिक, दीपा करमाकर, विनेश फोगट और ललिता बाबर ने जो किया उसे
देश याद रखेगा. सवाल जीत या हार का नहीं, उस जीवट का था, जो उन्होंने दिखाया. इसके पहले भी करणम
मल्लेश्वरी, कुंजरानी देवी, मैरी कॉम, पीटी उषा, अंजु बॉबी जॉर्ज, सायना नेहवाल, सानिया मिर्जा, फोगट बहनें, टिंटू लूका, द्युति चंद, दीपिका कुमारी, लक्ष्मी रानी मांझी और बोम्बायला देवी इस
जीवट को साबित करती रहीं हैं.
हाल में भारतीय महिला क्रिकेट टीम आईसीसी महिला विश्वकप
में चैम्पियन बनने चूक गई। इतिहास बनने-बनते रह गया. इस टीम की सदस्य पूनम राउत
मुंबई की चॉल में रहती थीं। टैक्सी ड्राइवर की बेटी स्टार बल्लेबाज बनी. पाकिस्तान
के खिलाफ पांच विकेट लेने वाली स्पिनर एकता बिष्ट अल्मोड़ा की रहने वाली हैं और
उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि कमजोर है. कर्नाटक के चिकमंगलूर की रहने वाली वेदा
कृष्णमूर्ति के पिता केबल ऑपरेटर हैं. हरमनप्रीत कौर पंजाब के एक कस्बे से निकलकर
आई हैं. खेल के मैदान में सामाजिक बदलाव के संदेश हैं. कृपया उन्हें गौर से पढ़ें.
inext में प्रकाशित
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