अमेठी और रायबरेली से कांग्रेस के प्रत्याशियों की घोषणा होने के बाद जो सवाल पूछे जाएंगे और उनके जो भी संभावित उत्तर हैं, उनसे कांग्रेस और उसके नेतृत्व की मनोदशा का अनुमान लगाया जा सकेगा। पहला सवाल है कि राहुल गांधी ने अमेठी को क्यों छोड़ा और रायबरेली क्यों गए? इन दोनों सवालों का एक जवाब यह भी हो सकता है कि उन्होंने रायबरेली की विरासत संभालने के काम को वरीयता दी है। पर समझने वाले यह भी मानेंगे कि वे अमेठी के परिणाम को लेकर आश्वस्त नहीं थे और उन्हें लगता था कि यदि वे पराजित हुए, तो उससे राजनीतिक नुकसान होगा। सबसे बड़ा नुकसान इस मामले को अंत समय तक लटकाए रखने के कारण होगा। यह कैसी पार्टी है, जिसमें इतने मामूली फैसलों पर असमंजस रहता है?
इन दोनों सीटों को लेकर राहुल, प्रियंका और वरुण
गांधी के नामों पर चर्चा थी। इनमें प्रियंका और वरुण के प्रत्याशी नहीं बन पाने के
भी राजनीतिक निहितार्थ हैं। सवाल यह भी है कि वरुण गांधी लड़ते, तो किसके
प्रत्याशी बनकर, कांग्रेस के या भाजपा के? यह सवाल फिलहाल
अनुत्तरित ही रहेगा। इस दौरान वरुण गांधी यदि अपने पत्ते खुद खोलें, तो बात अलग
है।
हालांकि अमेठी के कांग्रेसी कार्यकर्ता दावे कर
रहे थे कि राहुल गांधी यहाँ से जीत जाएंगे, पर राहुल गांधी ने 2019 का चुनाव लड़ने
के पहले ही हार मान ली थी। दो सीटों से लड़ने का उनका फैसला बताता है कि उन्होंने
मान लिया था कि अमेठी में हार भी संभव है। पर उनपर ‘भगोड़ा’ होने का जो दाग लगा है, वह भी आसानी से धुलेगा नहीं।
रायबरेली की सीट भी उनके लिए आसान होने वाली
नहीं है। सोनिया गांधी लगातार चार बार रायबरेली से जीती थीं, पर उनके वोट प्रतिशत
में गिरावट आती जा रही थी। 2004 में उन्हें इस इलाके से 80.49 प्रतिशत वोट मिले,
जो 2009 में 72.23, 2014 में 63.80 और 2019 में 55 प्रतिशत रह गए। 2019 में लोकसभा
सीट जीतने के बावजूद 2022 के विधानसभा चुनाव में रायबरेली और अमेठी में कांग्रेस
को हार का सामना करना पड़ा।
इसका मतलब है कि संगठन से स्तर पर भी पार्टी
में गिरावट है। ऐसे में फिर से लड़ने में जोखिम थे, पर उनके मैदान छोड़ने पर
प्रतिष्ठा को जो ठेस लगी है, वह भी कम नहीं है। रायबरेली से पलायन का मतलब है
कांग्रेस के दुर्ग का पतन। कांग्रेस यदि नेहरू-गांधी परिवार है, तो हिंदी क्षेत्र
से उसके पलायन का मतलब है, उसकी पहचान मिट जाना। शायद इसीलिए रायबरेली से राहुल को
उतारा गया है।
संभव है कि वे इसबार रायबरेली से जीत जाएं, पर
इसे निश्चित विजय मत मानिए। अलबत्ता वे जीते, तो लगता है कि वायनाड की सीट को छोड़
देंगे। परिवार की प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए रायबरेली से जुड़े रहना जरूरी
होगा। उससे भी ज्यादा उत्तर भारत से जुड़े रहने के लिए प्रतीक रूप में भी इस सीट
से विजय जरूरी है। इसीलिए बीजेपी उन्हें यहाँ से हराने के लिए अपने सभी साधनों को
लगा देगी। उन्होंने यहाँ से दिनेश प्रताप सिंह को उतारा है, जिन्होंने 2019 के
चुनाव में सोनिया गांधी को मिले 5,34,918 के मुकाबले 3,67,740 वोट हासिल किए थे। यानी
जीत का मार्जिन 1.69 लाख रह गया, जो 2014 में 3.52 लाख था।
2019 के चुनाव में सपा और बसपा दोनों ने सोनिया
गांधी का समर्थन किया था। इसबार के रायबरेली के चुनाव परिणाम का असर केरल में 2026
के विधानसभा चुनावों पर भी पड़ेगा। 2019 में वायनाड से राहुल गांधी के खड़े होने की
वजह से लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को जबर्दस्त सफलता मिली, पर 2021 के विधानसभा
सभा चुनाव में वाममोर्चा की विजय से रोटेशन की परंपरा टूट गई। अब यदि राहुल गांधी
वायनाड से जीतकर वहाँ से हटे, तो उसके परिणाम भी नकारात्मक होंगे।
कहीं से खड़े हो लें आदत हो गई है अब तो मान लेने की आयेगा तो मोदी ही :)
ReplyDeleteकॉमेडी का नया एपिसोड
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