देस-परदेस
पिछले हफ्ते हैदराबाद के एक कार्यक्रम में विदेशमंत्री एस जयशंकर ने कहा कि 2008 के मुंबई आतंकवादी हमले के बाद तत्कालीन यूपीए सरकार ने ‘कुछ भी नहीं’ करने का फैसला किया था. यह मान लिया गया कि पाकिस्तान पर हमला करने के मुकाबले हमला नहीं करना सस्ता पड़ेगा.
तत्कालीन सरकार के
सुरक्षा सलाहकार ने लिखा है कि हमने इस विषय पर विचार-विमर्श किया और इस निष्कर्ष
पर पहुँचे कि पाकिस्तान पर हमला करने की कीमत ज्यादा होगी. एस जयशंकर के इस बयान
को राजनीतिक चश्मे से, खासतौर से लोकसभा-चुनाव के संदर्भ में देखने की जरूरत है.
जयशंकर के शब्दों में भारतीय विदेश-नीति ‘डिफिडेंस (असमंजस)’ के दौर से निकल कर ‘कॉन्फिडेंस (आत्मविश्वास)’ के दौर में आ गई है. आज हम अमेरिका के सामने पहले की तुलना में बेहतर आत्मविश्वास के साथ बात कर सकते हैं. इस बात को किसी भी दृष्टि से देखे, पर सच यह है कि भारतीय जनता पार्टी ने विदेश-नीति को भी अपने चुनाव-अभियान में अच्छी खासी जगह दी है.
‘भय’ की रेखा पार की
जयशंकर संभवतः इस बात
को रेखांकित कर रहे हैं कि मोदी सरकार ने 2019 में बालाकोट की कार्रवाई करते वक्त
इस बात की अनदेखी कि पाकिस्तान के पास नाभिकीय-अस्त्र हैं. इस प्रकार भय की रेखा
को मिटा दिया. जयशंकर का यह बयान अनायास नहीं है, बल्कि लोकसभा-चुनाव में विदेश-नीति
के सवालों को शामिल करने से जुड़ा है.
फरवरी में हुए एक
चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण में शामिल 35,000 लोगों में से 19 प्रतिशत ने माना था कि
नरेंद्र मोदी को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत का रसूख बढ़ाने का श्रेय जाता है. इसबार
के चुनावों में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 की वापसी भी एक बड़ा मुद्दा है.
चुनाव के दो दौर हो चुके हैं और तीसरा अब 7 मई
को है. उसके बाद कुल 285 सीटों का (यानी कुल 543 की आधी से ज्यादा) मतदान पूरा हो
जाएगा. अभी तक चुनाव के ज्यादातर मुद्दे देश की आंतरिक राजनीति पर केंद्रित रहे
हैं. विदेश-नीति को लेकर ज्यादा चर्चा नहीं हुई है.
बढ़ती वैश्विक-भूमिका
भारत की राजनीति में विदेश-नीति बहुत
महत्वपूर्ण विषय नहीं बनती रही है. भारत की तुलना में अमेरिकी राजनीति में
विदेश-नीति का ज्यादा महत्व होता है. इसकी वजह यह भी है कि वैश्विक राजनीति में
अमेरिका की भूमिका ज्यादा बड़ी है. अब भारत की बढ़ती भूमिका को देखते हुए राजनीति
में विदेश-नीति की भूमिका को भी देखने की जरूरत बढ़ती जाएगी. इस चुनाव में भी एक
आंतरिक-लहर विदेश-नीति और रक्षा-नीतियों की है.
विदेशमंत्री एस जयशंकर हालांकि लोकसभा चुनाव
नहीं लड़ रहे हैं, लेकिन चुनावी अभियान में वे अपने तरीके
से जुटे हैं। चुनावी सभाओं की तुलना में विदेश-नीति से जुड़े कार्यक्रमों और
मीडिया भेट-वार्ताओं के मार्फत उनके विचार सामने आ रहे हैं. इसके अलावा हाल के
वर्षों में उनकी दो पुस्तकें भी प्रकाशित हुई हैं, जिनके मार्फत वे इस बात को
रेखांकित कर रहे हैं कि पिछले दस वर्षों में देश की विदेश और रक्षा-नीतियों में
बड़ा बदलाव आया है.
उनका कहना है कि अब हम ज्यादा निर्भीक तरीके से
अपनी बात कह रहे हैं और दुनिया हमें सुन रही है. विश्व-मंच पर हमारी स्थिति सुधरी
है. जयशंकर बुनियादी तौर पर डिप्लोमेट, राजनेता नहीं और यह बात एक सतह पर उनकी
सहायता करती है.
परोक्ष-राजनीति
ठीक वैसे ही मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री थे,
राजनेता नहीं. और दोनों के लिए राजनीति में जगह बनी. लगता है कि जयशंकर भी, परोक्ष
रूप में मतदाता को प्रभावित करते हैं. मतदाता केवल उन्हीं बातों पर ध्यान नहीं
देता, जिनका शोर होता है. वह उन विषयों पर भी ध्यान देता है, जिनका शोर ज्यादा
नहीं होता.
इस बात की याद दिलाने की जरूरत है कि 2009 के
चुनाव में यूपीए की सफलता के पीछे 2008 के भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील की भूमिका
और संसद में वामपंथी दलों के समर्थन वापस लेने के बावजूद मनमोहन सरकार का अपने
फैसले पर दृढ़ रहना भी शामिल था. उनके इस कदम को चुनाव में वोटर का मौन समर्थन
मिला था.
पिछले कुछ वर्षों में बदलते भारत-चीन,
भारत-अमेरिका, इस्लामिक देशों के साथ रिश्तों और भारत-पाकिस्तान संबंधों ने वोटर
का ध्यान खींचा है. जी-20, ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन और संयुक्त राष्ट्र महासभा
और सुरक्षा-परिषद से बाहर निकलती आवाजें भी वोटर को सुनाई पड़ी हैं.
वैदेशिक-प्रभाव
मोटे तौर पर बड़ी संख्या में भारतीय वोटर, अक्सर
सत्तारूढ़ दल के विरोधी वोटर भी, मानते हैं कि विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी-सरकार
का रिकॉर्ड अच्छा है. मतदाता को यह भी समझ में आने लगा है कि देश के भीतर महंगाई
हो या बेरोजगारी, औद्योगिक-विकास हो या इंफ्रास्ट्रक्चर, स्वास्थ्य-सेवाएं हों या
शिक्षा-प्रणाली, सुरक्षा आंतरिक हो या वाह्य, सबके साथ विदेश-नीति का गहरा रिश्ता
है.
सुदूर पूर्व और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आ रहे
बदलाव, अमेरिका समेत पूरे यूरोप में आर्थिक मंदी, विकासशील देशों में डिफॉल्ट की
स्थिति, कोविड-19, यूक्रेन और पश्चिम एशिया में तनाव और टकराव की शिद्दत को हम अब
बेहतर तरीके से महसूस कर सकते हैं.
पिछले दस वर्षों में प्रधानमंत्री मोदी और उनके
विदेशमंत्रियों ने दुनिया के ज्यादातर महत्वपूर्ण देशों के दौरे करके ये रिश्ते
कायम किए हैं. इनमें पहले सुषमा स्वराज और अब एस जयशंकर की बड़ी भूमिका है. विदेशमंत्री
बनने के पहले एस जयशंकर विदेश सचिव के रूप में इन नीतियों के साथ जुड़े रहे थे. विदेश-नीति
के स्तर पर देश में स्थिरता बनी रही है. वोटर इस बात को महसूस करता है, भले ही उसे
ठीक से व्यक्त नहीं कर पाता हो.
मैंने कहा था…
ऐसा नहीं है कि चुनाव-अभियान में विदेश-नीति के
सवाल जयशंकर ने ही उठाए हों. चुनाव-अभियान के शुरुआती दिनों में प्रधानमंत्री मोदी
ने यूट्यूब पर अपने पेज में 10 मार्च को एक वीडियो शेयर किया, जिसमें एक लड़की
अपने पिता से गले लगते हुए कह रही है. ‘मैंने कहा था, कैसी भी सिचुएशन हो, मोदी जी
हमें घर ले आएंगे.’ यह वीडियो यूक्रेन की लड़ाई के संदर्भ
में था.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 31 मार्च को मेरठ
की एक रैली में इस वीडियो का जिक्र किया. नरेंद्र मोदी अपनी रैलियों में इसबात का
जिक्र कई बार कर चुके हैं कि भारत को कभी गरीब और असहाय देश माना जाता था. आज
हमारी हैसियत एक महत्वपूर्ण देश की है. देश के सुदूर ग्रामीण इलाकों के मतदाता भी
राष्ट्रीय सीमाओं से बाहर के मामलों में दिलचस्पी रखने लगे हैं और तेजी से जानकारी
प्राप्त कर रहे हैं. वे इसे चुनाव में मुद्दे के तौर पर भी देखते हैं.
तीन नज़रिए
दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी मानती है कि
अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि खराब हुई है, उसे बेहतर बनाने का वायदा पार्टी
ने अपने घोषणापत्र में किया है. हालांकि पार्टी ने नकारात्मक बातों का ज्यादा
जिक्र नहीं किया है, पर कनाडा में एक खालिस्तानी नेता की हत्या का आरोप लगाकर
भारतीय विदेश-नीति की आलोचना भी की जाती है.
बीजेपी, कांग्रेस और वामपंथी दलों के
चुनाव-घोषणापत्रों पर नज़र डालें, तो आप दक्षिण, मध्य और वाम वैचारिक दृष्टिकोणों
को देख सकते हैं. यह अंतर केवल विदेश-नीति में ही नहीं आर्थिक और सामाजिक नीतियों
में भी है.
भारतीय जनता पार्टी ने अपनी विदेश और
रक्षा-नीतियों को राष्ट्रवाद के साथ जोड़ा है. वहीं कांग्रेस ने उन मूल्यों का
उल्लेख किया है, जो स्वतंत्रता के बाद से भारत की विदेश-नीति की बुनियाद में हैं
और बीजेपी ने भी जिनका सहारा लिया है. मसलन ग्लोबल-साउथ की वर्तमान अवधारणा
गुट-निरपेक्ष आंदोलन और तीसरी दुनिया के सिद्धांतों पर ही केंद्रित हैं. इन दोनों
के विपरीत कम्युनिस्ट पार्टियों का नज़रिया पूँजीवादी-साम्राज्यवाद की अवधारणा पर
टिका है.
विश्वबंधु भारत
बीजेपी के 2024 चुनावी घोषणापत्र में 'विश्व बंधु भारत के लिए मोदी की गारंटी' शीर्षक
वाले एक खंड में उल्लेख किया गया है कि कैसे केंद्र सरकार ने पिछले 10 वर्षों में
भारत को 'वैश्विक स्तर पर एक विश्वसनीय और भरोसेमंद आवाज'
बनाया है. बीजेपी के 'संकल्प पत्र' में
कहा गया है कि आज, दुनिया मानती है कि भारत लोकतंत्र की
जननी है.
दुनियाभर में रह रहे हमारे प्रवासी भारतीय
सशक्त और देश से जुड़ाव महसूस कर रहे हैं. हमारे सभ्यतागत मूल्यों, विचारों, ज्ञान और पारंपरिक ज्ञान को विश्व मंच
पर गौरव प्राप्त हुआ है. हम अपनी स्थिति और मजबूत करेंगे और विश्व बंधुत्व की
भावना के साथ हमारे राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने के लिए अपनी नीतियों का संचालन
करेंगे.
पाबंदियों का सामना
यूक्रेन की लड़ाई के बाद भारत ने रूस से
पेट्रोलियम की खरीद जारी रखी, जबकि अमेरिका ने उसपर प्रतिबंध लगाया था. भारत की इस
नीति की पश्चिमी देशों में आलोचना हुई, पर भारत ने उसका जवाब दिया और अमेरिका ने
भी भारत के दृष्टिकोण को काफी हद तक स्वीकार कर लिया.
इस सिलसिले में विदेशमंत्री एस जयशंकर ने काफी
तल्ख अंदाज में कहा था कि पश्चिमी देशों को अपने माइंडसेट को बदलना चाहिए. वे
समझते हैं कि यूरोप की समस्याएं ही दुनिया की समस्याएं हैं. ऐसा ही एस-400 एयर
डिफेंस मिसाइल प्रणाली के साथ हुआ.
जयशंकर ने कई बार कहा है कि हम रक्षा-उपकरणों
के लिए रूस के सहारे हैं और रूसी
सैनिक साजो-सामान होने की वजह है पश्चिमी देशों की नीति. पश्चिमी देशों ने ही
हमारी उपेक्षा करके हमें रूस की ओर धकेला. हाल में उन्होंने
पश्चिमी मीडिया की भी आलोचना की है.
हाल में जब ब्रिटिश अखबार ‘गार्डियन’ ने पाकिस्तान में कुछ
आतंकवादियों की मौत से जुड़ी रिपोर्ट प्रकाशित की, तो प्रधानमंत्री और रक्षामंत्री
राजनाथ सिंह दोनों ने घर में घुसकर मारेंगे, जैसे वाक्यों को दोहराया. ऐसी बातें
सामान्य मतदाता को प्रभावित करती हैं. इन बातों का प्रत्यक्ष या परोक्ष असर वोटर
पर होता है.
जयशंकर की
भूमिका
हालांकि नरेंद्र मोदी
ने विदेशी राजनेताओं के साथ व्यक्तिगत संबंध बनाए हैं, पर विदेशी मसलों पर काफी
सैद्धांतिक बातों के लिए जयशंकर ने भारत के प्रवक्ता की भूमिका निभाई है. यह माना
जाता है कि आज की राजनीति में अपनी बातों को मुखर होकर कहने का यह ज़माना है.
जयशंकर ने जनवरी में
प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ह्वाई भारत मैटर्स’ में इस बात
को स्पष्ट किया है कि हम वैश्विक प्रश्नों पर अंतरराष्ट्रीयवादी हैं और आंतरिक
प्रश्नों पर राष्ट्रवादी. आज भारत के लोगों की दृष्टि पहले से ज्यादा ग्लोबल है,
क्योंकि वे पहले से ज्यादा विदेश-यात्राएं कर रहे हैं.
योग, क्रिकेट, संगीत
और खानपान जैसी बातों ने भारत की ‘सॉफ्ट-पावर’ से दुनिया को परिचित करा दिया है. ओलिंपिक या दूसरी खेल
प्रतियोगिताओं में पुरस्कार जीतने वालों से प्रधानमंत्री मोदी फौरन फोन पर बात
करते हैं. ऐसी बातें परोक्षतः व्यक्ति के मन में घर करके रहती हैं.
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